केसरिया बालम
डॉ. हंसा दीप
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बरगद की छाँव तले
जिस दिन वह आने वाला था, सब दौड़ रहे थे इधर से उधर, घर वाले भी, घर के नौकर भी। योजनाबद्ध था सब कुछ, पहले पानी, फिर चाय-नाश्ता, उसके बाद पाँच पकवान भोजन में। उसके आने की तैयारी में घर की सफाई हो रही थी।
“घर के चप्पे-चप्पे को साबुन के पानी से धो दो।”
“चकाचक कर दो।”
घर में काम करने वाले तो खूब सफाई कर ही रहे थे, बाहर से भी लोगों को मदद के लिये बुलवाया गया था। आने वाले का नाम बाली था, बालेंदु प्रसाद। पास के शहर का रहने वाला था। केसरिया भात ही तो बना था उस दिन जब वह उसके घर उसे देखने आया था, उससे मिलने आया था। केसर, काजू, किशमिश और इलायची की महक से सराबोर था घर-आँगन। चाशनी में घुले चावल के केसरिया दाने जब हलक से उतरते तो मिठास की चरम अनुभूति होती। ठीक उसके मन की तरह जो बाली को देखते ही इतना मीठा हो गया था कि अंग-अंग से मीठी खुशी लबालब झलक रही थी।
सगाई के दिन उसने बाली को छुप कर देखा था, बाँका-गठीला-सजीला नौजवान। इतनी मोहित थी कि बस प्यार से देखती रह गयी थी। पलकों ने झपकने से इंकार कर दिया था और नज़रों ने उसके चेहरे से हटने से। उसका सपनों का संसार उसके आसपास मँडराने लगा था। अपने ही घर में, अपने बाबासा के साथ बैठा हुआ वह नवयुवक उसकी धड़कनों को लगातार तेज करता रहा था। धौंकनी की तरह आवाज सुनायी दे रही थी उसे धक-धक, धक-धक।
उसके जाने के साथ ही, उसके लौट कर आने की शहनाइयाँ कानों को सुनायी देने लगी थीं।
“बेटा थारे पसंद तो है न छोरो”
“कह दे लाडो”
“थारा मन की बात कह दे”
“कोई कसर मत राख मन में”
वह कुछ न कह पायी पर माँसा-बाबासा के सामने से शरमा कर भाग गयी थी। लाडो के लाल-लाल गाल सब कुछ कह गए थे उन दोनों को। दोनों की खुशियों का ओर-छोर नहीं रहा था जब धानी की झुकी निगाहों ने एक खास फैसले का संकेत दिया था। वे कभी अपनी लाड़ली को देखते तो कभी इस नए रिश्ते की डोर को जो उनकी छोटी सी दुनिया से जुड़ने को बेताब दिख रही थी।
उस दिन के बाद से धानी के लिये घर की बयार ही बदल गयी थी। दीवानी-सी हो गयी थी वह, कभी फुसफुसाती, कभी गुनगुनाती। हर साँस के साथ एक मीठी अनुभूति होती। साँसें बेकाबू हो और तेज हो जातीं, मिठास को अंदर तक समेटने के लिये। बाली और उसके परिवार के जाने के बाद, हवा की सनसनाहट में गीत बजने लगे थे, ढोल थाप गूँजने लगी थी। जल्द ही रिश्ता पक्का होने की खबर महक की तरह फैल गयी थी।
एक सप्ताह में लौट कर आए थे बाली के परिवार के सारे मुखिया। माता-पिता तो थे नहीं उसके, किसी एक्सीडेंट में दो साल पहले ही उनकी मौत हो गयी थी। बाली घर की अकेली संतान था व बड़े-बूढ़ों में पास के, दूर के, कई चाचा-मामा-मौसा थे। रुपया-नारियल का आदान-प्रदान हो गया था। रिश्ते का “रोका” था वह रुपया। एक नज़र के उस दीवानेपन में नेह और प्यार की कोंपलें ऐसी फूटीं कि मिलने का उतावलापन संभाले नहीं संभलता। मतवाला मन ऐसा हो गया था कि बस एक झलक पाने के लिये कुछ भी करने को तैयार रहता।
उसके फोन आते। धानी से घंटों बातें होतीं पर मिलने की बेचैनी के आगे ये फोन कॉल कुछ भी नहीं थे। किसी भी मूल्य पर मिलना ही होता था। न किसी की डाँट का डर, न ही किसी के नाराज होने का। मिलना है तो बस मिलना है। छुपते-छुपाते, रास्ते के लोगों से बचते-बचाते, चहकती-फिरती पहुँच ही जाती बाली के पास जहाँ वह पहले से उसका इंतजार कर रहा होता। माँसा-बाबासा से कह कर जाती कि वह अपनी सखियों से मिलने जा रही है। पहुँच जाती उन रेतीले रास्तों पर जहाँ से वह मोटरसायकिल से आता था।
बाली के व्यक्तित्व में यह दोपहिया गाड़ी अच्छा तड़का लगाती थी। इसकी फट-फट करती आवाज के कारण इसे मोटरसायकिल कम और फटफटी अधिक कहा जाता था। काला चश्मा पहनकर जब वह सीना चौड़ा करते हुए गाड़ी से आता दिखता तो धानी को ऐसा लगता जैसे वह रानी है और कोई महाराजा उससे मुलाकात के लिये पधार रहे हैं। फटफटी से आता था वह और चला जाता था। छोड़ जाता था धड़कता संगीत जो धानी के अंग-अंग को थिरकन देता रहता। उस दिन के बाद से किसी भी फटफटी की आवाज कानों में ऐसा अमृत घोलती मानो वह फट-फट नहीं उसके बाली का कोई संदेश हो जो अपनी इस चिर परिचित आवाज में उससे कुछ कहने की कोशिश कर रहा हो।
बालेंदु प्रसाद कुछ सालों से अमेरिका में रह रहा था। कहते हैं कि अपने कस्बे का इकलौता पढ़ा-लिखा नौजवान था जो अपने बलबूते पर अमेरिका में झंडे गाड़े हुए था। एक बार उसका ठिकाना न्यूजर्सी के एडीसन शहर में बना तो कई दोस्तों को एक-एक करके बुला लिया था। पढ़ने के लिये, नौकरी करने के लिये। उसके दोस्त आते गए, बसते गए। घर से दूर, एक-एक घर बनाते गए, एक छोटा-सा राजस्थान अपने लिए बसाते गए। सुना है कि वहाँ बाली ने बहुत बड़ा घर लिया हुआ है। शुरू में जो भी दोस्त जाता उसी के साथ रहता फिर सैटल होने के बाद ही अपने घर में रहने के लिये जाता।
इतने होनहार लड़के का रिश्ता आना भी माँसा-बाबासा का गौरव बिंदु बन गया था। अपनी प्यारी बिटिया धानी के प्यारे से भविष्य को अपने सामने सँवरता हुआ देख रहे थे वे। ठीक वैसे ही जैसे बंजर धरती पर लहलहाती फसल सिर्फ हरियाली लेकर ही नहीं आती बल्कि आने वाले कल के कई सपने भी बुन जाती है। उन अनुभवी आँखों के सपनों में अपनी लाडो की खिलखिलाती हँसी वाली छवि ही होती। बाबासा की अपनी खुशी थी, माँसा की अपनी। कल्पनाओं में दौड़ लगाते दोनों सोचते भले अलग-अलग, किन्तु सार एक ही होता कि सब कुछ वैसा हो, जैसा धानी चाहे। वही हो भी रहा था। अपनी-अपनी दुनिया में खोते घर के तीनों प्राणी बाली के प्रवेश को वही अर्थ देते जो वे चाहते। अपनी-अपनी खुशियों की सौगात को स्वीकार करते हुए वही सोचते जो वे सोचना चाहते। अपने-अपने चश्मे से वह आने वाला कल देख लेते जो उनके तन-मन को खुशी से सराबोर कर देता।
बाबासा सोचते, उनकी धानी का एक छत्र राज होगा उसके अपने घर में। “उसकी हँसी ऐसी ही रौशनी वहाँ भी फैलाएगी, जैसी यहाँ उनके अपने आँगन में फैलाती थी।”
“बाली अपनी धानी के जीवन में सारे रंग भर देगा। कभी किसी चीज की कोई कमी न होगी।”
“बाबासा की आँखों का तारा धानी बिटिया अब जल्दी ही चली जाएगी अपना घर बसाने।”
“यहाँ तो सूना हो जाएगा पर जहाँ जाएगी वहाँ एक और घर बसेगा, हँसता-चहकता-खिलखिलाता।”
वे सोचते रहते और हाथ उठने लगते आशीर्वादों की झड़ी लगाते, धानी के माथे को ऐसे छूते जैसे वह ढाल बना दे अपनी लाडो के सिर पर। कोई भी संकट आए तो ये हाथों की ढाल रोक ले उस मुसीबत की घड़ी को। इतनी दूर तक धकेल दे कि फिर कभी कोई मुसीबत उसकी ओर झाँक भी न पाए।
माँसा की कल्पना भरी सोच धानी में उनका अपना अक्स देखती।
“बच्चों से भरा घर धानी को जब माँसा बना देगा तब वे जाएँगी उसके घर को अपनी खुली आँखों से देखने, महसूस करने कि कैसे उनके बोए संस्कारों के बीज लहलहाती फसल को खड़ा कर रहे हैं।”
“अपनी बेटी को उसके अपने बच्चों से खेलता देख आत्मा तृप्त हो जाएगी।”
“कैसा लगेगा जब बच्चे धानी के आसपास माँसा-माँसा की रट लगाएँगे और नानीसा देखेंगी- बच्चों की रौनक से भरा बिटिया का घर।”
तब बस और कुछ नहीं माँगेंगी वे भगवान से। अपनी जीवन भर की प्रार्थनाओं का मनचाहा फल बस यही होगा। उसके बाद तो फिर चाहे भगवान उठा ले उन्हें।
उनका अपना जीवन तो धन्य हो ही जाएगा पर धानी के बाबासा को भी बहुत सुकून मिलेगा। अपनी पलकों पर बैठा कर बड़ा किया है बाबासा ने अपनी बिटिया को। हर सुबह उठते तो उनका हाथ धानी के सर पर होता और सोते तब भी सर पर हाथ फेरकर सोते। धानी के जन्म के बाद से आज तक यह सिलसिला कभी टूटा नहीं, लेकिन अब टूटेगा। एक पतली-सी पानी की लकीर अनजाने ही आँखों की पोरों से बह जाती। खुशी के आँसुओं में विछोह की तकलीफ। मीठे शकरपारे में खारेपन का स्वाद।
धानी की बातें भी तो शक्कर की मिठास से लबालब होती थीं, शक्कर की शौकीन जो थी। माँसा को याद है कि एक बार चींटियाँ आने से शक्कर का डिब्बा धूप में रखा था तो दो साल की धानी ने खेलते-खेलते सारी शक्कर खा ली थी। तब बहुत घबरा गयी थीं माँसा। बाबासा आए, उन्हें बताया तो हँसने लगे थे वे – “कुछ नहीं होगा बच्ची को, अभी घंटा भर बाहर खेलेगी तो सारी शक्कर पच जाएगी।”
“पेट में कीड़े न पड़ जाएँ।”
“कुछ नहीं होगा, आप चिंता न करें।”
माँसा अपनी चिंता को दूर करने का जतन करतीं, उसे दौड़ते-खेलते देख आश्वस्त होतीं कि कुछ नहीं होगा। बचपन से ही लाडो को शकरपारे बहुत पसंद हैं। माँसा बनाती भी तो बहुत थीं। आसपास के बच्चे भी खेलने आते तो बच्चों के लिये इससे अच्छा नाश्ता कोई था ही नहीं उनके लिये। आटे में थोड़ा घी का मोयन डालकर गूँथ लो। बड़ी सी रोटी बनाकर उसे ऐसे आकार में काटो कि छोटे-छोटे पारों का ढेर लग जाए। उन्हें घी में अच्छी तरह तल कर चाशनी में डाल दो। सूखने के बाद माँसा के हाथों के बने वे स्वादिष्ट पारे, शकरपारे बनकर ऐसे मीठे लगते कि खाते ही रहो। धानी भी खाती और अपनी सखियों को भी खिलाती। पता नहीं धानी के ब्याह के बाद घर में शकरपारे बनेंगे भी या नहीं।
यही सोचते-सोचते उनके हाथ बढ़ जाते, आज फिर से शकरपारे बनाने के लिये।
और धानी, वह तो अपने दीवानेपन को कोशिश करके भी नहीं छुपा पाती। सोते-जागते प्यार की उड़ान भरती वह, दूर-दूर तक। अनजाने ही खयालों में खोते हुए हल्के से स्पर्श से ऐसी फुरफुरी दौड़ती शरीर में कि मन का मतवालापन मनमानी करने पर उतर आता। बाली का चेहरा अपने चेहरे के पास महसूस करती जिसमें और कुछ नहीं दिखाई देता। सिर्फ दोनों की आँखें होतीं जो टकटकी लगाए देखती रहतीं, अपने-अपने मीत को, एक दूसरे में समा जाने के लिये। कानों में घंटियों के टकोरे टन-टन करते, अपनी ओर से स्वीकृति दे देते, उस प्यार की जो दो युवा दिलों की धड़कनों में उमग रहा था।
घर के तीनों सदस्य, आने वाले चौथे सदस्य का स्वागत करने के लिये अपनी-अपनी भूमिका बनाते। तीन कोणों से तीन रेखाएँ मिल कर चौथी रेखा को अपने में समा लेतीं जो बाली के रूप में उन रेखाओं की गहराई बन जाता।
कजरी और सलोनी उसकी वे सखियाँ थीं जो उसके लिये उससे भी कहीं ज्यादा खुश थीं। पहली कक्षा से ही ये तीनों साथ पढ़ रही थीं, साथ खेल रही थीं। स्कूल के दिनों से साथ निभाती ये बच्चियाँ कब यौवन के द्वार पर खड़ी हो गयीं, पता ही नहीं चला। दु:ख दर्द के साथी तो थे ही, ये एक दूसरे के राजदार भी थे। ऐसे सच्चे सलाहकार जो सलाह के साथ मदद के लिये भी उतावले रहते। टोली की पहचान थीं ये तीन चुलबुली छोरियाँ। बदमाश छोरों को पास भी ना फटकने देतीं। स्कूल से कॉलेज तक का सफर तय करते कई ऐसे रोचक संस्मरण थे जिनकी जुगाली गाहे-बगाहे होती रहती।
“कजरी, याद है तुझे वह लड़का जो काँच के टुकड़े से रौशनी फेंकता रहता था। और तू हाथों से आँखों को ढँकते हुए निकल जाती थी चुपचाप।”
“हाँ, फिर सलोनी जाकर उसे बस के पीछे से पकड़ लाती थी। हाथ जोड़ कर माफी माँग लेता था बेचारा।”
“और वह लड़का जो धानी को टकटकी लगाए देखता रहता था। सलोनी ने पीछे से जाकर कंधे पर जो मारा था, बुरी तरह डर गया था वह। उसके बाद तो वहाँ बैठना ही छोड़ दिया था उसने।”
“सलोनी तो हमारी बॉडीगार्ड है। वह लड़का जो किताब लेने के बहाने आता था उसी के पास आता था। सलोनी कह देती थी - तेरी यहाँ दाल नहीं गलने वाली। इसलिये कोई और ढूँढ ले अपनी तरह।”
“कोई नंबर पूछने के बहाने आता था तो कोई टेस्ट की कॉपियाँ लौटाने आता था। एक वह लड़का भी था जो कुछ नहीं कहता था बस मेज के पास आकर एक पल रुकता और चला जाता।”
तीनों ने जोर का ठहाका लगाया।
“डरपोक कहीं का”
एक के बाद एक लड़कों की कतार थी जो कजरी, सलोनी या फिर धानी के साथ आँखों के इशारों का लेन-देन करते रहते थे। तीनों जानती थीं कि इन लोगों के साथ कोई बड़ा सपना नहीं देखना है। इनके साथ तो अपना वही रिश्ता है जो एक कक्षा के साथियों के साथ होता है, बस इतना-सा अलग कि उनकी बात करते हुए आँखें फैल कर मुस्कुराने लगें, कानों में मसखरियों के ठहाके गूँजने लगें और धड़कनों की गति में बस जरा-सा ही इज़ाफा हो।
तीनों युवतियाँ अपने व्यक्तित्व से ये सोचकर खुश होतीं कि कुछ लड़के मरते हैं उन पर। यह प्रारंभिक उन्माद अभी गहराने की उम्र में नहीं था। बस हँसी-ठिठोली ही होती। अपनी मस्ती में मस्त, अपनी रौनक के साथ सबको हँसाते इस गैंग की सरगना तीनों ही थीं, अलग-अलग व्यक्तित्व की धनी, धानी, कजरी और सलोनी।
क्रमश...