Aadha Aadmi - 13 in Hindi Moral Stories by Rajesh Malik books and stories PDF | आधा आदमी - 13

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आधा आदमी - 13

आधा आदमी

अध्‍याय-13

ज्ञानदीप का सेलफोन बजा। उसने उठकर हैलो कहा तो दूसरी तरफ़ से आवाज आई, ‘‘मैं इसराइल बोल रहा हूँ.’’

‘‘हाँ भाईजान बोलो.‘‘

‘‘लो बात करो.‘‘

‘‘नमस्ते माई.‘‘

‘‘नमस्ते बेटा, कैसे हो और क्या हो रहा हैं?‘‘

‘‘बस आप की डायरी में खोया था और बताइए सब खैरियत तो हैं?‘‘

‘‘अपनी खैरियत का तो अल्लाह ही मालिक हैं। कई दिनों से तुम आए नहीं थे तो सोचा तुमारा हाल-चाल ले लूँ.‘‘

‘‘यह बात हैं तो मैं अभी आप के दौलत खाने में हाज़िर होता हूँ.‘‘

‘‘तो ठीक हैं बेटा, हम इंतजार करेगी.‘‘

ऐ जीजा हमका ताज़महल दिखाई देव

‘‘मुस्कान बनाये रखो तो दुनिया साथ है, वरना आँसुओं को तो आँखों में भी जगह नहीं मिलती.’’ दीपिकामाई ने शायराना अंदाज में कहा।

‘‘अरे आगे की लाइन तो बोल.‘‘ केरली अम्मा ने गुजारिश की।

‘‘जितना दिल से निकला उतना बोल दिया। कहते हैं अल्लाह! जिस हाल में रखें उसी में खुश रहना चाहिए.‘‘

‘‘हमने जाने-अनजाने में किसी का दिल नहीं दुखाया फिर भी अल्लाह ने हमारे साथ ऐसा सुलूक क्यों किया। पूरे 15 ग्राम की सोने की चैन थी और पाँच-पाँच ग्राम की दो अँगूठियाँ थी.‘‘ लैला मामी ने अपनी पीड़ा व्यक्त की।

‘‘अल्लाह कसम! हमने तो तुम्हारी अँगूठियाँ और चैन देखी ही नहीं.‘‘ केरली अम्मा ने सफाई दी।

हदीस में लिखा है, जब गर्दन पर छुरी चले तब मेरी कसम खाओं, कुरान की नहीं।

लैला मामी के जाते ही मैकू ढोल बज्जा ने बताया, ‘‘अबैं रस्ते में कहत राहैं कि दीपिका के हाथ में चैन-उँगूठी दिया राहै.‘‘

दीपिकामाई आवेश में आ गयी, ‘‘हमसे कहे मैं गाँड़ फटत राहैं, हम्म तो कैती हूँ जो लेई गवा हय उका अमीरमा बाबा सुबह ही न हव.‘‘

‘‘जिका इक लाख का जिवर जइय्हें ऊँ मुँह फाड़ के हसय्हें नाय.‘‘ केरली अम्मा ने आँख मटकायी।

दीपिकामाई कोठरी की तरफ इशारा करके बोली, ‘‘हमरे भगवान खुदैं दिहे हय, हम्म काहे कोई का चुरइबैं‘‘

‘‘अरी इका गुरू मदरासी हय! जान जावें कि इहाँ अउर लखनऊ में टोली-बधाई करत हय तो सात लाख का दण्ड ले लेगी.‘‘ केरली अम्मा ने ताली बजाई। इसी बीच उनके सेलफोन पर काँल आयी। वह झट से उठी और दीपिकामाई से इज़ाज़त लेकर चली गयी।

ज्ञानदीप ने साइकिल खड़ी करके दीपिकामाई के चरण-स्पर्श किये।

‘‘अम्मा लेव, कोई का फून आवा हय.‘‘ शोभा ने आकर सेलफोन दिया।

दूसरी तरफ से बंसती की आवाज़ आई, ‘‘आव अकेली खा रही हूँ.‘‘

‘‘अनडुवेन की कमाई खाव.‘‘ दीपिकामाई ने सेलफोन को हैंड फ्री कर दिया।

‘‘लेव गुरू भाई, तुमरी खिदमत में ई ग़ज़ल पेश हयँ-

सबके दिल में समाना नहीं चाहिए।

खुद को तोहफा बनाना, नहीं चाहिए।।

जिस जगह जा के इंसान छोटा लगे

उस बुंलदी पे जाना नहीं चाहिए

आप से मैंने कुछ भी कहा न था।।

‘‘वाह! क्या बात कहीं है.‘‘ ज्ञानदीप ने तारीफ़ की।

‘‘केतनी पियें हव?‘‘ दीपिकामाई ने पूछा।

‘‘अब गिनीत तो हय नाय, ऐ री दीदियां जरा ड्राइवर से बात करा.‘‘ बंसती के कहते ही दीपिकामाई, ड्राइवर को सेलफोन न देकर वह स्वयं ही ड्राइवर बन कर बात करने लगी, ‘‘हाँ बोल.‘‘

‘‘कभई अपनी साली का भी याद कर लिया करव.‘‘

‘‘याद करके का मिलिये?‘‘ दीपिकामाई को मर्दाना भाषा में बात करते देख। ड्राइवर के साथ-साथ ज्ञानदीप भी लोट-पोट हुए जा रहा था।

‘‘अरे ऐ जीजा, हमरे पास आव तो हम्म तुमका खिलवा टिकायी अउर खूब मौज कराई.‘‘

‘‘तो अकेले आई.‘‘

‘‘ऐ जीजा, हमका ताज़महल देखाई देव.‘‘

‘‘ताजमहल का, कहव तुमका अपना खोल के तोप दिखाई दी.‘‘

‘‘ऐ जीजा! सही बताव कभई अपनी साली की भी लई लिया करव.‘‘

‘‘तुमरी लैब तो कित्ता दोगी?‘‘

‘‘दीपिकामाई कित्ता देती हय?‘‘

‘‘उ तो पाँच-सौ रूप्या देत हय.‘‘ कहकर दीपिकामाई ने फोन कट किया। सेलफोन रखते ही शरीफ बाबा की काँल आ गई। दीपिकामाई ने कान से लगाकर कहा, ‘‘हाँ बोलव का हाल-चाल हय इत्ते दिनव बाद मेरी याद कईसे आ गई?‘‘

शरीफ बाबा का नाम सुनते ही ड्राइवर और इसराइल का जैसे खून घट गया हो। जैसे भारत का नाम सुनते ही पाकिस्तान का घटता है। जैसे ऐश्वर्या का नाम सुनते ही सलमान का।

‘‘मैं तो हर पल आप को याद करता हूँ.‘‘ शरीफ बाबा ने सेलफोन पर ही सफाई दी।

‘‘बस-बस रहने दो, दिल्लगी करव तो जिंदगी भर की ई थोड़ी की दिल लगाया अउर छोड़ दिया। तुम सोचत हव जब हम तुमसे मिली तो धुराइली.......(सम्भोग) अरे नाती-पोते वाले हों गैं हव, कुच्छ तो शरम करव.‘‘

‘‘काहे का शरम.‘‘

‘‘हमरी लेंक लिये तुम इत्ता परीशान हव, पहिले ई बताव खड़ा होत हय?‘‘

यह सुनते ही ड्राइवर तैश में बोला, ‘‘कोई बईठा हय ई तो देखव, हरामीपन की तो माँ चैद दियव हव.‘‘

दीपिकामाई, ड्राइवर की बात को नज़र अंदाज करती हुई सेलफोन पर मशगूल थी, ‘‘अच्छा खुदा हाफिज़.‘‘

‘‘बड़ी आफत हय, जो तुम जवानी में किहें राहव उ सब अब नज़र आवत हय.‘‘ ड्राइवर के कहते ही दीपिकामाई मुस्करायी, ‘‘तुमसे कुच्छ छिपा होय तो कहव.‘‘

‘‘अरे भइया, तुमरी पहिली मोहब्बत हय उकै लियैं हम्म लोग का कर सकित हय.‘‘ इस बार इसराइल ने कमेंट की।

‘‘मोहब्बत नाय सदाम हुसैन का लन्ड हय। हमने कभई शरीफ बाबा से मुहब्बत नाय की.‘‘

‘‘तब किससे की?‘‘ ज्ञानदीप ने तपाक से पूछा।

‘‘हमने सिरफ ई दूनों से मुहब्बत की.‘‘ दीपिकामाई का इशारा, ड्राइवर और इसराइल की तरफ था।

‘‘अब ई सब छोड़व, भइया का बुलायें हव तो इनसे बातचीत करव.‘‘ इसराइल बोला।

‘‘अईसा हय बेटा, हम्म चार-छैं दिनों के लिए बाहर जा रही हूँ। इसलिये हमने सोचा तुमसे मिल लूँ.‘‘

‘‘यह तो आप की ज़र्रानावाज़ी हैं। वैसे सब खैरियत तो है?‘‘

‘‘अल्लाह का करम हय.‘‘

‘‘ठीक हैं माई .‘‘ ज्ञानदीप चरण-स्पर्श करके चला गया।

उस रात ज्ञानदीप, दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-

‘‘तुम्हें हम-दोनों में से किसी एक का हाथ पकड़ना होगा.‘‘ शरीफ बाबा ने कहा।

यह सुनते ही मेरे जैसे काटों खून नहीं। मैं कभी ड्राइवर को देखती तो कभी शरीफ बाबा को, जिसने मेरी मोहब्बत का नज़ायज़ फायदा उठाया। ड्राइवर जिसने इस टूटे दिल को बेपनाह मोहब्बत दी।

मैंने बढ़कर ड्राइवर का हाथ पकड़ लिया। लेकिन उसने यह कहकर अपना हाथ छुड़ा लिया, कि मैं गरीब हूँ और तुम इन्ही का साथ कर लो। उसकी बातों से मेरा दिल टूट गया। मैं ड्राइवर को अनाप-शनाप कहकर चला आया था।

17-9-1978

आदमी ख़ुद को कभी यूं भी सजा देता है

रोशनी के लिए शोलों को हवा देता है।

मैं नहीं जानती कि मैं क्या लिख रही हूँ। पर इतना जरूर जानती हूँ यह एक टूटे दिल के सार हैं-

मैंने तो उनसे मोहब्बत की थी।

पर यह बेवफाई कहाँ से आ गई।।

जब किसमत ने ही मेरे साथ बेवफाई की हैं। अगर इन दोनों ने की हैं तो क्या? शरीफ बाबा को तो मैं भूल चुका था। लेकिन मैं ड्राइवर को नहीं भूल पा रहा था। रात-दिन उसकी यादों में खोया रहता। पर निर्मोही मुझे देखने तक न आता। समझ में नहीं आ रहा था कि कहाँ जाऊँ? किसके पास जाऊँ? क्या इतने बड़े ज़हान में मेरे लिए कोई जगह नहीं? कोई अपना नहीं? जो मेरे दुख-दर्द को बाँट सकें?

धीरे-धीरे शराब मेरे अंदर उतरता जा रहा थी। दिल-दिमाग़ से मैं टूट चुका था।

27-11-1978

चराग़ अपने घर जलाते है।

अपने घर में दीया ज़लायेंगे।।

चंदा जैसी भी है ठीक हैं। वह मेरे आड़े वक्त काम ही आई हैं। इतनी बड़ी दुनिया मे वहीं तो हैं जिससे मैं अपना दुख-दर्द बाँट लेता हूँ। जब मैं उससे मिला और अपनी पीड़ा बताया। तो उसने कहाँ, ‘‘अगर तुमरी इही जिद् हय तो चलो दू-चार-दस-दिन हिजड़ो में घूम आव, तुम भी जान जावगी हिजड़े हय का.‘‘

मैं लेडीज शूट पहनकर रेलवे स्टेशन पहुँच गया।

‘‘आ मेरी लाडो! गले लग जा, आज तो तू कहर ढा रही हय। अल्ला तुझे बुरी नज़र से बचाये.‘‘ चंदा ने मेरी बलईयाँ उतारा।

‘‘जाव मइया तुम भी.‘‘

‘‘अल्ला कसम! ई शास्त्रे में तुम कयामत ढा रही हव.‘‘

बातचीत करते-करते हम दोनों पीलीभीत जाने वाली ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन कब चल पड़ी पता ही नहीं चला।

‘‘अरी बिटिया! कुछ ग़ज़ल-वजल गाव न जिससे टेम पास होई जाये, अईसे गिरिये भी लग जइय्हें, अउर वईसे आज तुम माशाल्लाहऽऽऽऽऽ‘‘

‘‘इत्ती तारिफ़ न करव कि हम्म बौराये जाई.‘‘

‘‘अरी, हमरा कहे का मतलब हय कुच्छ कमाती भी चले.‘‘

‘‘ठीक हय.‘‘ कहकर मैंने ग़ज़ल शुरू की-

दिल खिलौना समझ कर न खेलों मुझे

ज़िंदगी मेरी बर्बाद हो जायेंगी

यह नज़र शर्म गैरत से झुक जायेंगी

बात गुज़री हुई याद आ जायेंगी

लोग हैरान हो जायेंगे यह देखकर

वह कहेंगे ज़नाज़ा मेरा रोक कर

जाने वाले कसम है तुझे मेरे प्यार की हस्र तक

मेरी इमदाद हो जायेंगी

दिल खिलौना...............

मेरी मासूममियत का ज़नाज़ा लिये किस गली

से गुजरोंगे बता दो मुझे

हर तरफ़ एक कोहराम मच जायेंगी

बात गुज़री हुई याद आ जायेंगी।।

ग़ज़ल सुनते ही सभी वाहवाही करने लगे। तभी उनमें से एक ने दूसरी ग़ज़ल सुनाने की फरमाइश की। मैंने उनकी फरमाइश को सिर-आँखों पर लिया और दूसरी ग़ज़ल सुना दी।

ग़ज़ल सुनते ही किसी ने एक तो किसी ने दो रूपया दिया। लोगों ने फिर फरमाइश की, तो मैंने उन्हें यह कहकर मना कर दिया, ‘‘अब हम्म नाय गायंेगी हम्में तकलीफ़ होती हय। इसलिये आप बाबू लौगन से गुज़ारिश हय कि अपनी-अपनी सीट पैं चले जाइय्हें.‘‘

सभी लोग के डिब्बे से जाते ही चंदा ने पूछा, ‘‘काहे बहिनी, इकदम से ख़ामोश क्यू हों गई। का बात हय हम्में बताव?‘‘

‘‘कोई बात नाय हय गुरू, बस अईसे ही हम्में किसी की याद आ गई.‘‘

बात करते-करते कब हम-दोनों सो गए। यह पता ही नहीं चला।

सुबह जब हम-दोनों की आँख खुली तो देखा, स्टेशन आ गया। हमने बाहर आकर रिक्शा किया और बेटी अम्मा के घर आ गई। जो हिजड़ो की नायक थी। दुआ-सलाम होते ही बेटी अम्मा ने मुझसे पूछा,‘‘ बेटा! तुम कहाँ की बच्चा हव? अउर किकी चेला हव?‘‘

‘‘मइया, हम्म नेपाल बार्डर के पास रहती हूँ अउर किसी की भी चेला-नाती नाय हूँ.‘‘

‘‘ठीक हय बेटा, टोली-बधाई के लिये तय्यार हों जाव जजमानी कमाने जाना हय.‘‘

फिर हम लोग उनके साथ बधाई बजाने गए। बधाई बजाते-बजाते शाम हो गई थी।

जब मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने चंदा से पूछा, ‘‘गुरू! का इहाँ बधाई अईसे ही घूमती हय। अगर धूप में अईसे ही हम्म दुई-चार महीना बधाई घूम ली तो हम्म वईसे ही मर जाईगी.....।’’

‘‘बेटा! हमने पहिले ही कहा था कि हिजड़ों के घर की रोटी लोहें के चने बराबर होती हय। इसलिये अभई भी कहती हूँ दुई-चार दिन घूम फेर के लौट चलव.‘‘

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