घर में सबकी लाडली मैं। जब जो चाहा , मिला। ननिहाल के भरे - पूरे छह नाना - नानी वाले परिवार के इस पीढ़ी की प्रथम संतान - सबका भरपूर प्यार मिला था मुझे। कभी सोचा ही नहीं कि मुझे भी कभी कोई ना कह सकता है। लग रहा था अचानक रिक्त सी हो गई मैं।
तीन - चार दिन वही दीवानगी की हालत रही। सब मित्र आकर मिल रहे थे मुझसे। सौरभ को बुलाया मैंने। आया वह।
" मन को संभालो। मैंने उससे बात की थी। सही में वो नहीं जानता तुमको। अच्छा लड़का है। गलत नहीं बोलेगा।"
ये सारे साल कौंध गए मन में। सामने से आता हर्ष और उसे निहारती मैं। जब कभी उससे दृष्टि टकराती, तटस्थ भाव से आगे बढ़ जाता। कई बार अपनी उस मित्र से पूछा भी मैंने, जिसने उसका पत्र दिया था मुझे -" हर्ष मेरी तरफ देखता क्यों नहीं। ऐसा लगता है मुझे जानता भी नहीं।" हर बार उसने यही कहा कि लोगों के सामने ये बात सामने आना उसे पसंद नहीं। समय आने पर जरूर मिलेगा।
क्या ये सब झूठ था। मुझे धोखे में रखा गया इतने सालों तक और मैं आंख मूंद कर विश्वास करती गई। और करती भी क्यों नहीं, मेरी बहुत प्रिय मित्र रही थी वह।
सौरभ बोल रहा था - " भूल जाओ उसे। तुम्हारे लायक नहीं है वो। तुम हरेक दृष्टि से उससे बेहतर हो। बहुत लोग मिल जाएंगे तुम्हें।"
"पर मुझे तो वही पसंद है। मुझे कोई और चाहिए ही नहीं। तुम जानते हो उसे। बात करो उससे कि मेरी मित्र को तुम ही पसंद हो।" अनुनय किया मैंने सौरभ से।
" हथेलियों पर इश्क की
मेहंदी का कोई दावा नहीं
हिज्र का एक रंग है
और खुशबू है तेरे जिक्र की
मैं , जो कि तेरी कुछ नहीं लगती।"
- अमृता प्रीतम
सौरभ भी समझ गया कि मैं मानने वाली नहीं हूं।
परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। स्नातक का परीक्षाफल आना बाकी था तो पूरा समय था मेरे पास। सौरभ के जाने के बाद मैंने तय किया कि पत्र लिखूंगी मैं तुम्हें। मेरे हिसाब से यह दूसरा पत्र होता क्योंकि पहला पत्र तो मैं ५ वर्ष पूर्व लिख चुकी थी तुम्हें।
रात होने का इंतजार किया मैंने कि घर में किसी का ध्यान ना जाए। रात्रि करीब १०बजे पत्र लेखन प्रारंभ किया जोकि सुबह ३बजे पूरा हुआ। करीब ५घंटे लगे मुझे। लगा चित्त शांत हो गया लिख कर। मन में विश्वास हो गया कि इसे पढ़ कर कोई हृदय हीन ही मना कर पाएगा मुझे। पूर्ण संतुष्ट होकर सुबह तैयार होकर निकल गई अपने एक अन्य मित्र के घर। इस बार कोई गलती नहीं चाहती थी मैं। रीतेश का घर नजदीक था मेरे घर से। जाकर पूछा कि एक काम है, करोगे? जानने पर तुरंत तैयार हो गया रीतेश। मेरे सामने ही निकल गया तुम्हें वह पत्र देने।
आश्वस्त थी मैं अपने पत्र लेखन कला पर। कुछ अच्छा ही होगा अब।
कहीं से आवाज आ रही थी रेडियो पर ' सावन बरसे, तरसे दिल ' और मेरा किसी और जहां में खो जाना - पहली बार नहीं था।