Kuber - 48 - Last Part in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 48 - अंतिम भाग

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कुबेर - 48 - अंतिम भाग

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

48

बच्चे क्या कहते, जानते थे उनका लक्ष्य, उनका काम। अपने नये मिशन को पूरा करने वे वहीं रहने लगे। यद्यपि इन बच्चों के लिए की गयीं ये व्यवस्थाएँ पर्याप्त नहीं थीं वे उनके जीवन को इतना आसान बनाना चाहते थे कि किसी भी स्पेशल चाइल्ड को किसी पर निर्भर न रहना पड़े।

ऐसा क्या करें कि इन बच्चों की तकलीफ़ें कम हों। अपने इन्हीं विचारों में खोए हुए थे कि पास्कल साहब ने कहा – “सर, धीरम के प्रेज़ेंटेशन का समय हो रहा है हमें चलना होगा।”

वे फिर भी अपने विचारों में खोए थे। “सर, आपकी तबीयत तो ठीक है न?”

“हाँ, हाँ, पास्कल साहब चलिए।”

“सर तबीयत ठीक नहीं हो तो हम वहाँ जाना केंसल कर सकते हैं।”

“तबीयत तो ठीक है पास्कल जी, मगर मैं इन बच्चों के लिए चिंतित हूँ।”

“जी, मगर क्यों?”

“जो अभी हमने व्यवस्थाएँ की हैं वे पर्याप्त नहीं हैं, फिर से कोई दुर्घटना घट सकती है इसी बात का अंदेशा बना रहता है।”

“तो इनके लिए क्या योजना है सर?”

“दिक्कत तो यही है कि कोई योजना नहीं है, यहाँ आकर मैं अटक जाता हूँ, मेरी सोच भोथरा जाती है।”

पास्कल साहब और वे अपने-अपने रोज़ के इन दौरों में व्यस्त रहते हुए एक दूसरे के साथी हो गए थे। एक सफल और एक असफल व्यक्ति का यह जोड़ा एक दूसरे का पर्याय बनता जा रहा था। उनकी हताशा और निराशा ने अपनी जड़ें काट दी थीं। आशा की हल्की किरण अपना उजाला फैलाते उनके मन को भरपूर रौशनी देने लगी थी। पास्कल साहब समझ ही नहीं पा रहे थे कि – “सर क्यों इतना सोच रहे हैं।”

“सर, काम करने वालों के लिए तो आपने बहुत सारे प्लान बनाए हैं तो इतनी निराशा क्यों?”

“बनाए तो थे पास्कल साहब पर वे सब उनके लिए थे जिनके शरीर के सारे अंग काम करते हैं। जिनके अंग काम नहीं करते उनके बारे में मैंने कभी सोचा ही नहीं कि ये अगर काम करेंगे तो इनके रास्तों में आनेवाली रुकावटों से कैसे पार पाएँगे। जीवन के गड्ढों में कैसे संतुलन बना पाएँगे। इनके लिए तो हर रास्ता ऐसा फिसलता रास्ता हो जाता है कि एक बार जहाँ पैर फिसला तो उठ नहीं सकते। उनकी इस फिसलन को ख़त्म करना चाहता हूँ मैं।”

“सर हम पहुँच गए हैं।” सामने गाड़ी पार्क करवाने की व्यवस्था में जुट जाते हैं पास्कल जी।

धीरम की प्रस्तुति है। बड़ी स्क्रीन पर धीरम और उसके प्रोजेक्ट से संबंधित सारी जानकारियाँ एक के बाद एक चल रही हैं। काफी चहल-पहल है। तकरीबन चार सौ से पाँच सौ युवा बुद्धिजीवी हैं। पापा को देखते ही सारे बच्चे उनके इर्द-गिर्द आ कर अपनी सीट ले चुके हैं। धरा ने अपनी शिकायत शुरू कर दी कि – “पापा, आने में इतनी देर क्यों कर दी।”

“अभी तो कार्यक्रम शुरू भी नहीं हुआ है बच्चे, देर कहाँ हुई।”

“मैं तो आपका आधे घंटे से इंतज़ार कर रही हूँ।”

“अच्छा बाबा कान पकड़ता हूँ, आगे से ऐसा नहीं होगा।”

और वह अपनी जीत पर मुस्कुरा कर उनके पास बैठ जाती है। सामने बड़े मंच पर धीरम आता है और आँखों से झुककर पापा का आशीर्वाद लेता है। यह एक सरप्राइज़ है पापा के लिए।

“हैलो, एंड वेलकम टू माय स्पेशल प्रेज़ेंटेशन – आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस। आर्टिफिशियल यानि जो हमें प्रकृति ने नहीं दिया है, प्राकृतिक रूप से प्राप्त नहीं है जिसे हमने यानि मनुष्य ने बनाया है। ऐसी बुद्धि जो कृत्रिम कही जा सकती है जिसमें मनुष्य के मस्तिष्क की भांति सोचने और समझने की क्षमता हो। ठीक वैसे ही जैसे हमने कम्प्यूर को इतना समझदार बना दिया है, ड्रॉन बना दिए हैं, रोबॉट बना दिए हैं, ऐसे ऐप बना दिए हैं जो हर तरह से हमारी मदद करते हैं। बगैर ड्राइवर के चलने वाली गाड़ियाँ बना दी हैं। ऐसी संगणक प्रोग्रामिंग को उन्हीं तर्कों के आधार पर चलाने का प्रयास करते हैं जैसे एक मनुष्य का मस्तिष्क चलता है। हमारे कई प्रयोग कारगर हुए हैं और कई हो रहे हैं। जीपीएस जब चलता है तो एक गलत रास्ता पकड़ने पर तुरंत कहा जाता है कि – “आप यू टर्न लीजिए” और यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह मानव के मस्तिष्क से ही बनायी हुई डिवाइस उससे भी बेहतर काम करती है। इस तरह एक नहीं अनेक क्षेत्रों में हमारे मस्तिष्क ने ऐसे कई छोटे-छोटे मस्तिष्क बना दिए हैं जो बटन दबाते ही मदद के लिए तत्पर रहते हैं।”

“अध्ययन चल रहा है। ऑटो पायलट तो थे ही अब ऑटो ड्राइवर भी सड़कों पर होंगे। जब टेस्ट ट्यूब बेबी का पहला कामयाब केस हुआ था तो यह एक विस्मय था। अब संसार में न जाने कितने टेस्ट ट्यूब बेबी हैं जिनकी अपनी संतानें भी इस दुनिया में आ चुकी हैं। जटिल कामों को न्यूनतम समय में करके समय और ऊर्जा की बचत कर रहे हैं हम।” वह बोलता रहा और सभा सुनती रही।

कुबेर के मन में एक सवाल था, वही सवाल जो दिन भर से कचोट रहा था। सवालों-जवाबों के सत्र में सबसे पहले उन्हें पूछना होगा अपना सवाल। वे अपने इसी ख़्याल में थे कि तालियाँ बजने लगीं। अब क्वेश्चन-आन्सर सेशन था, सबसे पहले उन्होंने हाथ खड़ा किया तो धीरम मुस्कुराया, जानता था कि पापा ही पहला सवाल पूछेंगे। पहले तो उसे बधाई देंगे अच्छी प्रस्तुति के लिए और बाद में अपना सवाल पूछेंगे।

ऐसा कुछ नहीं हुआ सीधे दनदनाता सवाल आया – “क्या हम दिव्यांग लोगों के लिए ऐसे प्रोग्राम तैयार कर सकते हैं जिसमें एक दृष्टिहीन अपने हाथ में उस यंत्र को लेकर अपने दिमाग़ में सब देख सके, एक बधिर उसके माध्यम से सब कुछ सुन सके और एक मूक उसके द्वारा बात करके निर्देश दे सके?”

“जी हाँ पापा, हम ऐसा कर पाएँगे, असक्षम लोगों को कुछ हद तक सक्षम बना सकेंगे….।”

धीरम ने आगे भी बहुत कुछ बोला पर उन्होंने नहीं सुना। जो सुना था, वह इतनी अधिक ख़ुशी दे रहा था कि वे खड़े होकर बच्चों की तरह ताली बजाने लगे। मानों उन बच्चों की चिन्ता का हल निकल गया जो उन्हें इन दिनों बेहद परेशान कर रहा था।

उनके साथ कई तालियाँ बजने लगीं। वे पीछे मुड़े तो देखा कि वहाँ उपस्थित सारे नौजवान खड़े होकर जोश से तालियाँ बजा रहे थे।

वे गर्व से मुस्कुराए, धीरम की ओर हाथ हिलाते हुए कुछ कह रहे थे, धीरम भीड़ की तालियों से मुस्कुराता अपने पापा को देखने लगा। उनके चेहरे पर उसकी नज़रें टिकीं तो लगा कि पापा ताली बजाते-बजाते लुढ़क-से रहे हैं। वह दौड़ कर वहाँ पहुँचा, तब तक धरा थाम चुकी थी अपने पापा को। तालियाँ अब भी बज रही थीं। उनकी थमती साँसों में मानो हर बजती ताली उनके कानों में फुसफुसा रही थी – “यहाँ एक नहीं, कई कुबेर खड़े हैं।”

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