महामाया
सुनील चतुर्वेदी
अध्याय – सत्रह
भोजनशाला से अपने कमरे की ओर जाते समय अखिल ने देखा कि मंदिर प्रांगण में सन्नाटा था। समाधि के लिये खोदे जा रहे गड्डे के पास कौशिक , जग्गा और जसविंदर बैठे-बैठे कुछ खुसुर-फुसुर कर रहे थे। अखिल कमरे में जाकर डायरी लिखने लगा-
डायरी: आज का दिन बहुत थका देने वाला रहा। लेकिन बहुत से सवाल जेहन में छोड़ गया। आखिर यहाँ हो क्या रहा है? कितने सारे पात्र है। अलग-अलग किरदार, चमत्कृत कर देने वाली घटनाएँ तो यहाँ लगभग रोज ही घट रही है।
विष्णु जी...... क्या केरेक्टर है। वह बाबाजी को साक्षात् शिव मानते है। पूरे भाव से बाबाजी की पूजा अर्चना करते हैं। बाबाजी के पैर धोकर पूरी श्रद्धा से उस पानी को पी जाते हैं। और अनुराधा इसे ही गुरू के सामने समर्पण मानती हैं। मुझे समझ में नहीं आता कि लोग ऐसा कैसे कर लेते हैं? शायद श्रद्धा पूरी दृष्टि बदल देती है। श्रद्धा एक नई दृष्टि को जन्म देती है। अंदर नये भाव पैदा होते हैं। एक नई मानसिक अवस्था का निर्माण होता है। लगता है कुल मिलाकर सारा खेल भावना का है। अंदर जैसी भावना होगी बाहर वैसा दिखायी देगा। भाव हो तो किसी व्यक्ति में शिव देखो.... किसी में कृष्ण..., जैसा भाव वैसा दर्शन। एक तरह से यह स्थिति सुखद है। सारे द्वंद्वांे से परे है।
मेरा मन झूले की तरह कभी ऊपर जाता है। कभी नीचे आता है। ऊपर जाता है तो एक गहरा नशा मन पर छाने लगता है। कोई सवाल जवाब नहीं। किसी पर कोई टीका टीप्पणी नहीं। फिर अचानक तंद्रा टूटती है तो मन खटाक से नीचे आ जाता है। यहाँ ढेरों सवाल है... एक द्वंद्व है। समझ में नहीं आता नीचे रहूँ या ऊपर जाऊं ।
यहाँ का हर किरदार रहस्यमयी है। दोनों माताएँ कौशिक , जग्गा, संतु महाराज, वानखेड़े जी , विष्णुजी, शास्त्रीजी, अंजन स्वामी, वैद्यजी... सबके सब अपने आप में रहस्य है। पागलों की तरह यहां-वहां डोलती साध्वी कुसुम... उस पर तो गहरी धुंध है। कुछ दिखायी नहीं पड़ता। कौन है..? कहाँ की है...? कैसे पागल हुई...? बाबाजी खुद क्या कम रहस्य है?
विचारों के धरातल पर सब कुछ साफ... पर व्यवहार संदेह पैदा करता है। विचारों में देवी दर्शन को एक भाव दशा बताते है और अगले ही पल भक्तों को देवी दर्शन कराके चमत्कृत कर देते हैं। ढकोसलों, आडम्बरों का पुरजोरी से विरोध करने वाले बाबाजी अंजन स्वामी को अपने साथ रखते हैं, क्यों? क्या बाबाजी नहीं जानते कि भक्तों को सम्मोहन, वशीकरण, उच्चाटन और मूठ चलाने जैसी क्रियाओं का हवाला देकर अंजन स्वामी उन्हें सिर्फ भ्रमित कर रहे हैं। उनसे पैसा ऐंठ रहे हैं। क्राइम की भाषा में यह एक फ्राड चिट फंड कंपनी चलाने जैसा नहीं है?
एक शास्त्री जी है। बाबाजी ने किशोरीलाल जी से खुद कहा था। विद्वान आचार्य जिस भूमि पर यह यज्ञ संपन्न कराता है। वहाँ दुख-दारिद्र और कष्ट हमेशा-हमेशा के लिये समाप्त हो जाते हैं। यज्ञ के वही विद्वान आचार्य हवन के पहले और बाद में मोर पंख से झाड़ा लगा रहे हैं। दस-बीस रूपये में लोगों के दुख दूर कर रहे है। लोगों के दुख तकलीफ दूर करने के लिये कौन सी विद्या सही है? दस महाविद्या यज्ञ या मोरपंख से झाड़ा लगाना ?।
क्या बाबाजी शास्त्री जी के इस झाड़-फूँक कार्यक्रम के बारे में नहीं जानते ? यदि जानते हैं तो फिर अध्यात्म को विज्ञान बताने वाले बाबाजी ने शास्त्री जी को यज्ञ के पहले और यज्ञ के बाद झाड़ने की इजाजत क्यों दे रखी हैं ?
संतु महाराज पार्ट टाइम में स्टॉललगाकर मालाएँ, बाबाजी की किताबें और फोटो बेचते हैं।
वैद्यजी... वैद्यजी तो मजेदार है। उन्हें दुनिया में एक ही प्राब्लम नजर आती है, ‘सेक्स की कमजोरी’। यदि वैद्यजी से पूछ लिया जाय कि नागासाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम क्यों गिराया गया था? वो तपाक से कहेंगे ‘सेक्स की कमजोरी’। इस समस्या का एकमात्र इलाज उनके पास है। एक हजार रूपये वाली चमकीली गोलियाँ। वो भी अपनी इस कारगुजारी को बाबाजी की पुण्य और सेवा का काम बताते है। यदि ऐसा है तो फिर सेक्स की दवाईयाँ बनाने वाली सभी क्या कंपनियाँ पुण्य कमा रही है? फिर तो वियाग्रा को सबसे ज़्यादा पुण्य मिल रहा होगा।
सच कहूँ तो कभी-कभी लगता है मैं किसी अध्यात्मिक ट्रेड फेयर में आ गया हूँ। जहाँ धड़ल्ले से बिकले वाले ज्यादातर उत्पाद अमूर्त है। बेचने की भाषा ऐसी है कि वो हताश-निराश आँखों में भी खुशी का समन्दर लहरा देती है। सभी बिजनेस स्कूल के बच्चों के लिये यह केस स्टडी है। न दिखायी पड़ने वाला उत्पाद भी किस तरह भारी मांग के साथ बेचा जा सकता है।
बाबाजी क्या सच में यह सब नहीं जानते... या फिर यहां भी उन्होने अपने ईगो को तिरोहित कर दिया है। अपनी विचारधारा के खिलाफ ‘गंगा पूजन’ की तरह इस सबको भी स्वीकार कर लिया है।
कभी-कभी मैं कितना कटु हो जाता हूँ। हो सकता है बाबाजी को वास्तव में कुछ पता न हो। बाबाजी के विचार और व्यवहार की भिन्नता मेरी दृष्टि का ही दोष हो...!
लगता है मेरे मन में दो फाड़ हो चुकी है। एक सवाल खड़े करता है। दूसरा बाबाजी की ओर खींचता मन। यह मन प्रारब्ध, संस्कार, समाधि, स्व की खोज, मुक्ति, जागरण जैसे शब्दों के साथ आकार लेने लगा है। हो सकता है यह अंतर्यात्रा की प्रक्रिया हो। बाबाजी कहते है न कि विपरीत प्रवाह ही अंतर्यात्रा है,’’ यह विपरित प्रवाह ही तो है।
इन द्वंद्वांे के बीच आज बाबाजी ने एक पत्रिका निकालने के लिये कहा। अच्छा लगा। मेरी ईच्छा है एक पत्रिका निकालने की। एक पत्रिका का संपादक होने की। पत्रिका चाहे धार्मिक हो, संपादक तो संपादक होता है। शायद अब मेरा सपना पूरा होने का वक्त आ गया।
दो दिन बाद सूर्यानंद जी समाधि लेने वाले हैं। मैं आज भी अनुराधा के साथ सूर्यानंद जी से मिलने गया था। विचित्र बात यह थी कि आज मुझसे बात करते समय सूर्यानंद जी संयत थे। मैं उनसे कुछ पूछता तो जवाब श्रीमाताजी देती। श्रीमाताजी यू ंतो अनुराधा के साथ सहज है लेकिन उनके व्यवहार से अंदर की असहजता छुप नहीं पाती है। मुझे अनुराधा का साथ अच्छा लगने लगा है।
क्रमश..