"गली के कोने में हरे सफ़ेद रंग की मटमैली सी सफेदी लिए जो मकान हैं, वो देखिये जिसके आँगन में ईंट गारे की बनी दीवार से बाहर झांकता बड़ा सा नीम का पेड़ दिख रहा हैं! वहीं मकान हैं फरीदा, जमालो, हामिदा का ये तीनो औरतें उसी घर में रहती हैं!" मौहल्ले का नौ दस साल का लड़का मौलवी साहब को हाथ के इशारे से मकान का पता बताते हुए बोला!
"शुक्रिया बच्चे अल्लाह तुम्हें खुश रखे!" मौलवी साहब रुमाल से मुँह का पसीना पोछते हुए बोले! मई की गर्म लू, तेज धूप में पैदल चलकर वो थक चुके थे! पान की पीक होठों के दोनों कोनो से पसीने के साथ मिल कर बह रही थी! मौलवी साहब को मकान ढूंढने में बहुत मशक्कत करनी पड़ी!
मकान के पास पहुँचते ही उन्होंने दरवाजे की सांकल खड़खड़ा दी! अंदर से एक महिला का कठोर स्वर गूंज उठा "कौन हैं?"
"हम हैं मौलवी अकबरुद्दीन, कासगंज, जमालो बी के मायके से आये हैं!"
मौलवी साहब को दरवाजे के बाहर खड़े खड़े पांच मिनट हो गए पर दरवाजा अभी तक नहीं खोला गया! गर्मी और प्यास से मौलवी साहब बेचैन हो रहे थे! "अमाँ मियां क्या लोग हैं, दरवाजा खोलने में भी इतना वक्त लगा रहे हैं! कहाँ फंस गया में?" अपने आप से मौलवी साहब बड़बड़ाते हुए बोले!
ची ची ची अंदर से कुण्डी खोलने की आवाज आई! दरवाजा खुलते ही सामने पचास पचपन वर्षीय अधेड़ औरत खड़ी थी! गहनो के नाम पर मोटी चौकोर नग वाली लोंग पहने हुए थी! आँखों में महीन सुरमे की लाइन, पान की पीक से रंगे होठ, बाल कुछ सफ़ेद कुछ मेहँदी के रंग से लाल थे! हरे रंग के सूट सलवार पर काले रंग की ओढ़नी ओढ़ रखी थी!
" अस्सलाम वालैकुम" मौलवी साहब बोले
"वालेकुम सलाम" औरत ने जवाब दिया!
" हामिदा के निकाह का पैगाम लेकर जमालो बी के मायके से आया हूँ!"
"आइये" औरत ने उन्हें अंदर आने को कहा!
उस औरत के पीछे चलते हुए मिटटी का बड़ा सा कच्चा आँगन पार करके मौलवी साहब बरामदे में पहुंचे जिसमे लकड़ी का तख़्त बिछा था! तख़्त के पास ही एक हुक्खा रखा हुआ था! पान का बीड़ा बनाने की छोटी से संदूकची तथा पीतल का पीकदान भी तख़्त की दूसरी तरफ रखा था! पीतल के पीकदान की शायद बरसों से सफाई नहीं हुई थी जिससे वो पीतल का कम लोहे का ज्यादा लग रहा था! तख़्त के सामने लकड़ी की दो पुरानी कुर्सी भी रखी हुई थी! बरामदे के दुसरे कोने में एक रस्सी बंधी थी जिसमें जनाना कपडे लटक रहे थे! सामने दीवार पर लोहे की मोटी कील गढ़ी थी जिसमे एक लालटेन झूल रही थी! बरामदे से ही सटा हुआ एक छोटा कमरा था कमरे के बगल में ही एक कोठरी दिख रही थी वो शायद बावर्चीखाना था! घर का बरसो पुराना सामान, रंग रोगन को तरसती दीवारे, उखड़ा पलस्तर घर की माली हालत को अच्छे से बयां कर रहे थे!
मौलवी साहब को तख़्त पर बैठने का इशारा कर वह औरत अंदर कमरे में चली गई!
थोड़ी देर में अंदर से दूसरी अधेड़ उम्र की औरत बाहर आई उसके हाथ में पानी का गिलास था! यही औरत जमालो बी थी! दुआ सलाम हुई और मौलवी साहब गट गट गट पूरा पानी का गिलास यूँ पी गए मानों कब के प्यासे हो!
"जमालो बी तुम्हारे भाई जान के कोई जानकार हैं वो अपने लड़के के लिए लड़की देख रहे हैं! तुम्हारे भाई चाहते हैं की तुम अपनी बेटी हामिदा का निकाह वहां कर दो! लड़का अच्छा हैं! पांच भाई बहनो में सबसे बड़ा हैं! पहली बीवी का इंतकाल हो गया हैं! एक बच्ची है! यही कोई तीन चार साल की होगी! लड़के की उम्र ज्यादा नहीं हैं यही कोई तीस बत्तीस साल का होगा! मौलवी साहब पान की गिल्लोरी मुँह में डालते हुए बोले!
"क्या कहा? दूसरे निकाह में हामिदा को दे दे! लो निगोड़ी के भाई ने रिश्ता भी भेजा तो शादीशुदा आदमी का!" जोर से कर्कश आवाज में चिल्लाती हुई जमीला की नन्द फरीदा कमरे से बाहर आते हुए बोली! यह वहीं औरत थी जिसने दरवाजा खोला था!
"मेरे भाई को क्यों कोसती हो? तुमने क्या घर में बड़ा रूपए पैसे का अम्बार लगा रखा हैं जो कोई रईसजादा निकाह का पैगाम लाएगा!" उलाहना देते हुए जमीला बोली!
"देख, जमीला में दो टूक बोलू हूँ! हामिदा मेरे भाई की भी लड़की हैं! मेरे भाईजान इस दुनिया में नहीं रहे तो इसका मतलब यह नहीं तेरे दो कोडी के मायके वाले उसका रिश्ता कही भी पक्का कर दे! मैं अभी जिन्दा हूँ! हामिदा का निकाह वहां हरगिज़ न होने दूंगी!" आँखे तरेरती हुई फरीदा बी बोल पड़ी!
"जब तक मेरे मायके वालों को घूँट भर भरकर कोस न लो तब तक तुम्हे चैन नहीं पड़ता!" जमीला के मुँह से एक आह सी निकल गई!
अंदर बावर्चीखाने में हामिदा मौलवी साहब के लिए चाय बना रही थी! अपनी अम्मी और फूफी की रोज की लड़ाई की वो अब आदी हो चुकी थी! चाय का कप बाहर बरामदे में बैठे मौलवी साहब को पकड़ा कर हामिदा वापस बावर्चीखाने में आ गई! बरामदे में फरीदा और जमीला दोनों नन्द भाभी की कहा-सुनी जारी थी! मौलवी साहब को औरतो के झगडे में पड़ना गवारा नहीं लगा! चाय का खाली कप एक तरफ रखते हुए वह बोले "आप लोगो का क्या जवाब हैं! वो बता दे! मैं अब निकलता हूँ कासगंज जाने वाली बस का समय हो रहा है!"
"बताना क्या हैं? मौलवी साहब आप जमालो के भाई से कह दे हमें ये रिश्ता मंजूर नहीं हैं!" जमालो के बोलने से पहले ही फरीदा जोर से बोल पड़ी! मौलवी साहब दुआ सलाम करके वापस लौट गए!
फरीदा, जमालो की बड़ी नन्द थी! आयु पचपन के लगभग होगी! दाए पैर में हलकी सी लचक थी थोड़ा लंगड़ाकर चलती थी जिसके कारण कही निकाह नहीं हो सका! जमालो भी भरी जवानी में बेवा हो गई थी! फरीदा तीन बरस की थी जब उसके अब्बु यानी की जमालो के शौहर की मलेरिया के कारण मृत्यु हो गई थी! इस घर में बस यही तीन औरते रहती थी! कोई पुरुष सदस्य नहीं था! ऐसा नहीं था कि हामिदा के अब्बु के और भाई नहीं थे! हामिदा के अब्बु के तीन भाई और थे लेकिन जब गरीबी, मुफलिसी रिश्तेदार बन जाए तो हाड़-मांस के बने रिश्ते कन्नी काट जाते हैं! यह इस दुनिया का ही दस्तूर हैं! फरीदा अविवाहित थी! वह शुरू से ही जमालो के परिवार के साथ रहती थी! पूरे मौहल्ले में उनका घर तीन औरतों का घर या नीम का पेड़ वाला घर के नाम से मशहूर था क्योंकि आँगन में बड़ा सा नीम का पेड़ भी था जिसकी डालें आँगन की दीवार से भी बाहर निकली हुई थी!
गली के दूसरे नुक्कड़ पर साबिर मियां की जनाना कपडे सिलने की दुकान थी! फरीदा साबिर की दुकान से कपडे घर लाती थी! उन कपड़ों जैसे सूट,दुपट्टे आदि पर वह तथा जमालो बी कढ़ाई करती,सितारे टांकती,गोटा लगाती! जिसकी एवज में साबिर उन्हें मजदूरी देता था! हामिदा की अम्मी और फूफी कपड़ो पर कढ़ाई, तुरपाई सितारे टाँकने का यही काम करती थी जिससे उनके घर की गुजर बसर होती थी!
साबिर पच्चीस साल का नौजवान था! किसी को भी कानो कान इस बात की खबर नहीं थी वह हामिदा से दिल ही दिल में मोहब्बत करता हैं! हामिदा घर से बहुत कम बाहर निकलती थी! लेकिन ईद के लिए वह अपने सूट, नक्काशीदार दुपट्टे सिलवाने उसकी दुकान पर आती तो साबिर उसकी एक झलक देख ही लेता! रंग बिरंगे कढ़ाई करे हुए, सितारे टांके हुए दुपट्टे हामिदा साबिर की दुकान से ही लेती! दुकान पर जब हामिदा इन दुपट्टों को ओढ़ ओढ़कर देखती तो साबिर को हामिदा बहुत खूबसूरत लगती! साबिर को देखकर हामिदा के चेहरे पर भी चमक आ जाती! होठो पर मुस्कान फैल जाती! साबिर को लगने लगा था हामिदा भी उसे चाहती हैं! हामिदा की अम्मी और फूफी का ख्याल जेहन में आते ही साबिर की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह अपनी महोब्बत का इजहार हामिदा के सामने करे! वो दोनों अपनी कड़वी, कर्कश, आवाज और लड़ाकू स्वभाव की वजह से पूरे मोहल्ले में खासी मशहूर थी! दोनों का ये सख्त रवैया ही था कि किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी उनकी चौखट पर झाँकने की! हामिदा की अम्मी और फूफी को शायद ये सबक जिंदगी ने ही सिखाया था कि भले मन से किसी से भी बात कर लो तो यहाँ लोग ऊँगली पकड़ कर पौंचा पकड़ने में देर नहीं करते! इसलिए दोनों के वयक्तित्व ने बाहर से बहुत सख्त लोहे का लबादा ओढ़ रखा था!
जब से साबिर ने मौलवी साहब को हामिदा के घर से बाहर निकलते देख लिया! बस तब से ही उसकी बैचैनी बढ़ती जा रही हैं! "हामिदा के घर कभी कोई रिश्तेदार आता जाता नहीं हैं फिर ये मौलवी साहब कौन हैं? हामिदा के घर क्यों आये थे? कहीं किसी रिश्ते का पैगाम लेकर तो नहीं आये? कही मैं बस सोचता ही रह जाऊं और हामिदा का डोला कोई और ही ले जाए!" साबिर को ये सोचते ही कंपकंपी छूट गई!
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क्रमश :