akkad bakkad in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | अक्कड़ बक्कड़- सुभाष चन्दर

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अक्कड़ बक्कड़- सुभाष चन्दर

आम तौर पर हमारे तथाकथित सभ्य समाज दो तरह की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। एक कामकाजी लोगों की और दूसरी निठल्लों की। हमारे यहाँ कामकाजी होने से ये तात्पर्य नहीं है कि...बंदा कोई ना कोई काम करता हो या काम के चक्कर में किसी ना किसी हिल्ले से लगा हो अर्थात व्यस्त रहता हो बल्कि हमारे यहाँ कामकाजी का मतलब सिर्फ और सिर्फ ऐसे व्यक्ति से है जो अपने काम के ज़रिए पैसा कमा रहा हो। ऐसे व्यक्ति जो किसी ना किसी काम में व्यस्त तो रहते हों लेकिन उससे धनोपार्जन बिल्कुल भी ना होता हो तो उन्हें कामकाजी नहीं बल्कि वेल्ला या फिर निठल्ला भी कहा जाता है।

ऐसे लोगों के लिए पुराने लोगों को कई बार कहते सुना था कि खाली बैठे आदमी का दिमाग शैतान का होता है। उसे हर वक्त कोई ना कोई शरारत..कोई ना कोई खुराफ़ात ही सूझती रहती है। अब बंदा कुछ करेगा धरेगा नहीं तो भी तो उसे किसी ना किसी तरीके अपना समय तो व्यतीत करना ही है। तो ऐसे में इस तरह की प्रजाति के लोगों को कोई ना कोई शरारत...कोई ना कोई खुराफ़ात...कोई ना कोई शैतानी अवश्य सूझती है जिससे कि दूसरे को परेशान और खुद का मनोरंजन किया जा सके।

ऐसे लोगों पर ना शहरों का...ना कस्बों का और ना ही गांवों का एकाधिकार पाया जाता है। इस तरह के निठल्ले लोग सर्वत्र याने के हर तरफ...हर दिशा में पाए जाते हैं। ऐसे ही वेल्ले लोगों को ध्यानाकर्षण का केंद्र बना कर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार सुभाष चन्दर जी ने अपने व्यंग्य उपन्यास "अक्कड़ बक्कड़" का पूरा ताना बाना रचा है।

इस उपन्यास में कहानी है नंगला नाम के एक गांव की जिसे जलन वश अन्य गांवों वालों के द्वारा कंगलों का नंगला भी कहा जाता है। आतिथ्य देवो भव की तर्ज पर इस गांव के निवासी अपने गांव में आने वाले लोगों का फजीहत की शक्ल में स्वागत करने से कतई नहीं चूकते हैं। गांव के निठल्ले युवाओं में ठरकीपना, लालच, चुगली तथा मारपीट जैसी सहज सुलभ इच्छाओं एवं खासियत का स्वत: ही प्रचुर मात्रा में समावेश हो जाता है। इस गांव में हर बुराई..हर कमी को तर्कसंगत ढंग से एक उपलब्धि के तौर पर लिया जाता है और बुरे व्यक्ति का सर्वसम्मति से अपने सामर्थ्यनुसार यशोगान तथा महिमामंडन भी किया जाता है।

इस एक उपन्यास के ज़रिए उन्होंने हमारे पूरे ग्रामीण एवं कस्बाई समाज का नक्शा हमारे सामने हूबहू उतार के रख दिया है। जहाँ एक तरफ उनके उपन्यास में मारपीट, दबंगई, हफ्ता वसूली, अक्खड़पने जैसे सहज आकर्षणों के चलते गांव देहात के युवाओं में पुलसिया नौकरी की तरफ रुझान पैदा होने की बात है तो वहीं दूसरी तरफ इसमें आदर्श ग्राम जैसी थोथी सरकारी घोषणाएं, सफाई, कीचड़..बदबू से बजबजाती कच्ची नालियाँ की पोल खोलती पंक्तियाँ भी हैं। उनकी पारखी नज़र से सरकारी विद्यालयों की दुर्दशा, मिड डे मील की धांधली और विद्यालयों में अध्यापकों की गैरहाज़िरी भी बच नहीं पायी है।

इसमें गांव- कस्बों की टूटी सड़कों के साथ साथ बिजली की लगातार चलती आंखमिचौली की बात है तो इसमें अस्पतालों, डॉक्टरों और मेडिकल सुविधाओं की कमी का जिक्र भी है। इसमें एक तरफ सहजता से गरीबी, बेरोज़गारी, लूटमार, ठगी, राहजनी इत्यादि का वर्णन है तो दूसरी तरफ ठसके के साथ इसमें विकास के नाम पर चल रहे गोरखधंधों और उनमें गांव के मुखियाओं का कमीशन को लालायित होना भी है। इसमें बेवजह मांग से उत्पन्न होता भ्रष्टाचार है तो भ्रष्टाचार की वजह से राजनीति में पदार्पण का सहज आकर्षण भी अपने चर्मोत्कर्ष पर है। इसमें भाइयों के आपस के झगड़े और उन झगड़ों से फ़ायदा उठा, उन्हें शातिर किस्म के कमीने और काइयां वकीलों के चंगुल में फँसा कर फायदा उठाते बिचौलिए भी हैं।

इसमें भारतीय रेल और उसकी एक्प्रेस ट्रेनों तथा जनरल बोगी की दुर्दशा है तो इसमें बिना टिकट यात्रियों, ठगों तथा लंपटों की वजह से छेड़खानी का शिकार होती युवतियों तथा प्रौढ़ाओं का भी विस्तार से वर्णन है। इसमें अगर चलते पुर्ज़े और मजनूँ टाइप के आवारागर्द लड़के हैं तो चालू किस्म की चुलबुलाती लड़कियाँ भी कम नहीं हैं। इसमें चुनाव और उसके ज़रिए सरकारी पैसे से अपना..खुद का विकास करने की मंशा वाले लोग हैं तो दूसरी तरफ चुनावों में मुफ्त की दारू और साड़ी वगैरह पाने के इच्छुक भी बहुतेरे हैं। इसमें चुनावों के दौरान पनपता जातिगत संघर्ष है तो इसमें जुगाड़ू, खुराफ़ाती,ऐय्याश, दबंग लोगों को महिमामंडित किया जाना भी है। इसमें पुलिस की जबरन वसूली, उनकी दबंगई, उनकी आपसी खींचतान और पुलसिया पैंतरे भी कम नहीं हैं।

बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखे गए इस धाराप्रवाह उपन्यास का हर पृष्ठ यकीन मानिए आपको हँसी के..आनंद के कुछ ना कुछ पल अवश्य दे कर जाएगा। हालांकि एक पाठक की हैसियत से इस उपन्यास में एक किरदार की जोधपुर यात्रा के आने जाने का वर्णन मुझे थोड़ा लंबा और खिंचा हुआ लगा जिसे थोड़ा छोटा किया जा सकता था लेकिन इस बात के लिए भी लेखक बधाई के पात्र हैं कि उन पृष्ठों को भी उन्होंने उबाऊ नहीं होने दिया है और किसी ना किसी रूप में, उन्हीं पृष्ठों में हमारे समूचे कस्बाई भारत का एक खाका सा हमारे सामने बहुत ही सहज एवं सरल ढंग से रख दिया है।

अपनी पंक्तियों और कथानक में "रागदरबारी" शैली की झलक दिखाते इस मज़ेदार उपन्यास को पढ़ने के बाद सहज ही विश्वास होने लगता है कि हमारे देश में भी ब्लैक ह्यूमर लिखने वाले दिग्गज अब भी मौजूद हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उनके इस उपन्यास पर जल्द ही कोई वेब सीरीज़ या फिर सीमित श्रृंखलाओं का कोई सीरियल बनता दिखे।

160 पृष्ठीय इस मज़ेदार संग्रहणीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है भावना प्रकाशन ने और उसका बहुत ही जायज़ मूल्य ₹200/- मात्र रखा गया है जिसके लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत बधाई। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।