जय श्रीकृष्ण बंधुजन!
आज फिर श्रीगीताजी के कृपा से श्रीगीताजी के छठे अध्याय और उसके महात्म्य के साथ आपके प्यार के अभिलाषा के लिए उपस्थित हु। भगवान श्रीकृष्ण जी आप सभी बांधो के सभी मनोरथो को पूर्ण कर तथा आप सभी भी श्री गीता जी के इस अद्यस्य के अमृतमय शब्दो को पढ़कर अपने जीवन को सफल बनायें।
जय श्रीकृष्ण!
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श्रीमद्भगतगीता अध्याय-६
श्री भगवान् जी बोले- हे अर्जुन! जिस की कर्मफल में आसक्ति नहीं और कर्मों को करता है वही सन्यासी और योगी है और जिसने हवनादिक लौकिक कर्म छोड़ दिए हैं वह योगी है। है अर्जुन! जिसको संन्यासी कहते हैं उसी को कर्मयोगी जानों क्योंकि संकल्पो के त्याग बिना कोई भी योगी नहीं हो सकता। जो मुनि योग प्राप्ति की इच्छा रखते हैं उनके लिए उसका साधन कर्म ही है और उनके योगी होने पर उनका ज्ञान पूर्ण होने का धन चित्त का समाधान है। जब मनुष्य विषय और कर्मों की आसक्ति से छूट गया और सम्पूर्ण वासनाओं को उसने त्याग दिया उसी समय वह योगरूढ़ कहा जातक है। उसने मन स्वाधीन कर लिया वह स्वयं अपना हितकारी है और जिसने विवेक का त्याग किया है वह स्वयं ही अपना शत्रु है। मन को जीतने वाले शान्त स्वाभाव मनुष्य की आत्मा शीत, उष्ण, सुख, दुःख, मान और अपमान इनके होने पर भी अत्यन्त स्थिर रहती है। जिसने ज्ञान विज्ञान से अपने अन्तःकरण को तृप्त कर लिया है, जो निर्विकार हो गया है तथा जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो मिट्टी पत्थर और सोने को एक सा समझता है, वही योगी कहलाता है। सुह्रद, मित्र, द्वेषी, मध्यस्थ, द्वेष करने योग्य, बंधु वर्ग, साधु और पापी इन सब में जो समान दृष्टि रखता है वह श्रेष्ठ है। योगी पुरुष को मन और आत्मा को अपने वश में करके वासनाओं और समस्त प्रपंचों को त्याग, किसी एकान्त स्थान में पहले कुश, उसके ऊपर मृगादिकों का चर्म, उसके ऊपर वस्त्र बिछावे स्थाकन न तो बहुत ऊंचा न बहुत नीचा हो, उसी पर मैन को एकाग्र करके चित्त और इंद्रोयों को रोक कर बैठना चाहिए। आत्मशुद्धि के लिए योग करना चाहिए। शरीर, मस्तक और गर्दन को सम करके अचल होकर स्थिर हो और अपनी नाक के अग्र भाग को देखता हुआ सब दिशाओं से अपनी दृष्टि हटाए रहे। भय रहित होकर शांत चित्त से ब्रम्हाचर्य व्रत पालन कर मन को रोककर मुझ में लीन हो मैन योग में लगावे। इस प्रकार मन को वश में करने वाले योगी को निरन्तर योगाभ्यास करते रहने से मुझमें रहने वाली और अंत में निर्वाण अर्थात् मेरे स्वरूप में लीन करने वाली शांति प्राप्त होती है। हे अर्जुन! जो अधिक भोजन खाता है या अनेक दिन उपवास करता है, या जो बहुत सोता यहां जागता है उसको योग प्राप्त नहीं होता। जो उपयुक्त आहार और विहार करता है, कर्मों का योग रोटी से पालन करता है, जो यथा समय सोता और जागता है, योग ऐसे पुरुष का दुःख मिटा देता है। तब संयम को प्राप्त हुआ चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर हो जाता है और सब कामनाओं से निवृत्त हो जाता है, तभी योगी पैड पा जाता है। जिस प्रकार वायु रहित स्थान में रखा हुआ दीपक चलायमान नहीं होता। उसीप्रकार योगी अपने चित्त को निश्चल रखकर उसका संयम करता है और अन्तःकरण की समाधि लगता है। जिस-जिस अवस्था मे योगाभ्यास के कारण चित्त का वेग रुककर विषयों में पृथक होने लगता है और जब शुद्ध अन्तःकरण से आत्मा को ही देखकर आत्मा में ही संतुष्ट होता है, जिस अवस्था में वह अत्यंत सुख को अनुभव करता है, जो इन्द्रियों द्वारा जाना नहीं जा सकता वरन् केवल बुद्धि से जाना जाता है, और जब वह योगी आत्मस्वरूप में स्थित होता है उससे विचलित नहीं होता, जिस अवस्था को पाकर फिर और कोई लाभ उसको नहीं जंचता और जहां स्थिर होने से और कोई बड़ा भारी दुख उसे वहां से चलायमान नहीं कर सकता ऐसी अवस्था को दुःख संयोग वियोग कारक योग नामक जानना चाहिए। ऐसा योग निर्विकल्प चित्त निश्चय ही करना चाहिए। संकल्प में उतपन्न होने वाली समस्त कामनाओं को त्यागकर और मन मे सकल इन्द्रियों को चारों ओर से रोक धैर्य के साथ बुद्धि को अपने आधीन कर धीरे-धीरे विषयों से दूर हटे और भली-भाँती मैन को आत्मा में स्थिर करके किसी पदार्थ की चिन्ता न करें। यह चंचल और स्थिर मैन जिधर -जिधर जाय उधर-उधर से हटा कर आत्मा के वश में करना चाहिए। इस प्रकार शांत चित्त तथा रजोगुण से रहित निष्पाप तथा ब्रम्हास्वरूप योग को उत्तम सुख होता हैं। इस रीति से निन्तर योगाभ्याश करने वाला योगी समस्त पांपो से छूटकर सहज ही उस आराम सुख को पा लेता है जो ब्रम्हासंयोग से प्राय होता है। जिसका मन योग में स्थिर हो गया उसकी दृष्टि भी सर्वत्र समान हो जाती है। वह सब प्राणियों में अपने को और अपने मन में सब प्राणियों को देखता है। जो सब में मुझको तथा मुझमें सबको देखता है, उससे मैं अलग नहीं रहता। जो अभेद भाव से रहता हिसाब ओरणियों में स्थिर मेरा मन करता है वह योगी चाहे जिस अवस्था में रहे मुझको मिल जाता है। है अर्जुन! जो समस्त प्राणियों के दुःख सुख और सबको समभाव से देखता है वही श्रेष्ठ योगी है। अर्जुन ने कहा- है मधुसूदन! आपने जो यह योग सिखाया की सबको अपने समान देखे, सो मन के चंचल होने के कारण मैं अपने मे यह नही देखता। है कृष्ण! चंचल मन बड़ा ही हठी पराक्रमी और दृढ़ है। इसको अधीन रखना तो मुझे वायु को बांधे रखने के ही समान प्रतीत होता है। श्री कृष्ण भगवान ने कहा- है महाबाहो! इसमें संदेह नहीं कि मन अति चंचल है और इस वश में करना बड़ा ही कठिन है तो इसे अभ्यास और वैराग्य से अधीन कर लिया जा सकता है जिसका मन वश में नहीं उसको योग अत्यंत दुर्लभ है ऐसा मत है। परंतु मन को वश में करने वाले प्रयत्न करते रहने से उपाय द्वारा इस योग को प्राप्त कर सकते हैं। अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! जिसमे श्रद्धा तो है पर जो योग प्राप्त करने में सफल नहीं हुआ है और जिसका चित्त योग से विचलित हो गयौ है, वह योग सिद्धि नहीं पाने से किस गति को जा पहुँचता है? है महाबाहो! जिसका पहला आश्रय भी गया और ब्रम्हा प्राप्ति भी नहीं हुई वह दोनों ओर से भ्रस्ट होकर विभिन्न मेघ के समान नष्ट तो नहीं हो जाता? है कृष्ण! मेरा यह संदेह आपको ही दूर करना पड़ेगा, इसको दूर करने वाला आपके अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है। श्री भगवान बोले- हे तात्! उसका यह नाश नहीं होगा और परलोक में भी नही होगा, क्योंकि उत्तम कार्य करने वाले किसी मनुष्य की दुर्गति नहीं होती है। वह योग में असफल मनुष्य बहुत दिनों तक पुण्यावनों को प्राप्त होने वाले लोकों में वास करता है और वहां से फिर किसी पवित्र और धनवान के घर में आकर जन्मता है अथवा वह बुद्धिमान योगियों के कुल में ही जन्म पाता है। इस प्रकार का जन्म पाना भी इस लोक में दुर्लभ है। हे कुरुनन्दन! यह योगियों के वंश में जन्म लेकर पूर्व जन्म के बुद्धि संस्कार अर्थात आत्मज्ञान को पाता है और उस3 अधिक शिद्धि के लिए यत्न करता है। पूर्व जन्म में किए योगाभ्यास के बल से अनेक विघ्नों के पड़ने पर भी मोक्ष को प्राप्त होता है। योग की यदि केवल इच्छा ही हो तो भो पुरुष शब्द ब्रम्हा के पार जा पहुंचता है। बड़े श्रम और यत्न से जो योगाभ्यास करता है वह पांपो से शुद्ध होकर अनेक जन्मों में प्रयत्नं परिश्रम करके सफल होता है और परमगति को पाता है। बड़े-२ तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ हैं। इसलिए हे अर्जुन! तुम योगी बनो। केवल मुझ में ही मन लगाकर मेरी प्राप्ति के लिए जो मेरा भजन करता है, उसको समस्त योगियों के मध्य मैंने अत्यन्त श्रेष्ठ माना है।
अथ छठा अध्याय समाप्तम्
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🙏अथ छठवें अध्याय का महात्म्य 🙏
श्री भगवान बोले- है लक्ष्मीजी! छठे अध्याय का महात्म्य सुनो। गोदावरी नदी के तट पर एक नगर था , वहां एक जनश्रुत राजा था। बड़ा धर्मज्ञ था। एकदिन उस नगर में हंस उड़ते-2 आ निकले उनमें से एक बैठते ही उतावला उड़ गया। तब नगर के पकंडितो ने कहा, हे हंस तू ऐसा उतावला उड़ा है क्या तू राजा जनश्रुति से आगे ही स्वर्ग को जाना चाहता है तब उन पक्षियों में जो सरदार था उसने कहा, इस रक़्क़जव से भी एक रैयक मुनि ऋषि श्रेष्ठ हैं। वह बैकुण्ठ का अधिकारी होवेगा बैकुण्ठ लोक स्वर्ग से ऊँचा है। तब यह वार्ता राजा ने श्रवण की, तब मन में विचार किया कि मेरे से उसका पूण्य बड़ा होवेगा जिसकी यह हंस स्तुति करते हैं, ये विचार के कहा उसका दर्शन करना चाहिए। राजा ने सारथी से रथ मंगवाकर सवारी करी, प्रथम बनारास श्रीकाशीजी में जाकर गंगा स्नान किया, दान किया, शिवजी महाराज का दर्शन किया, फिर लोगो से पूछा यहां कोई रैयाक मुनि हैं, लोगों ने कहा नहीं। तब राजा दक्षिण दिशा को गया द्वारिकानाथ को परसा वहां स्नान ध्यान कर दान किया, लोगो से पूछा यहां कोई रैयक मुनि है, उन्होंने ने कहां नहीं, तब राजा पश्चिम दिशा को गया जहां-२ तीर्थो पर जावे तहां-२ जा दान स्नान कर रैयक मुनि को पूछे। फिर राजा ने उत्तर दिशा को जाकर बद्रीनारायणजी को परसा। वहां से राजा का रथ चल नहीं तब राजा ने कहा मैंने सकल धरती की प्रदक्षिणा करी है किसी स्थान पर रथ नहीं अटका यहां अटका यहां कोई ऐसा पुण्यात्मा रहा है जिसके तेज से मेरा रथ नहीं चलता। तब राजा रथ से उतर कर आगे चला देखा तो एक पर्वत की कन्दरा में अतीत बैठा है उसके तेज से बहुत प्रकाश हो रहा है जैसे सूर्य की किरणें होती हैं। तब राजा ने देखते ही कहा यह रैयक मुनि होगा। राजा ने दण्डवत् कर चरण वन्दना करी हाथ जोड़ करके स्तुति करी। तब रैयक मुनि ने राजा का आदर किया और कहा हे पृथ्वीपति! तू चार धाम का परसनहारा धर्म का साधनहारा है तो पुण्यात्मा है। तब राजा ने मुनि से पूछा कि आपका तेज ऐसा किसके बल से है। तब मुनि ने कहा- हे राजा! में नित्य-प्रति गीताजी के छठे अध्याय का पाठ करता हूँ। इस कन्दरा में इसी का उजाला है। यह सुनकर राजा ने अपने पुत्र को बुलाकर कहा- हे पुत्र! आज से तू राज्य कर में तीर्थो को जाता हूँ। इतना कहकर राजा राज्य को त्याग दिया रैयक मुनि से गीताजी के छठे अध्याय का पाठ करना आरम्भ किया तब पाठ करने लगा। इस पाठ के प्रताप से राजा त्रिकालदर्शी हुआ इस प्रकार वन में रहते कई वर्ष बीत गये।एक दिन प्राणायाम करके दोनों ने देह-त्याग किया। स्वर्ग से विमान आये जिस पर बैठ कर बैकुण्ठ को गये। श्रीनारायण जी कहते हैं। हे लक्ष्मी! यह छठे अध्याय का माहात्म्य है जो तूने श्रवण किया है।
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💝~Durgesh Tiwari~