Karm path par - 44 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 44

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कर्म पथ पर - 44




कर्म पथ पर
Chapter 44


इंद्र श्यामलाल के बुलाने पर उनके बंगले पर पहुँचा था। नौकर भोला उसे श्यामलाल के कमरे में ले गया। श्यामलाल की दशा देखकर इंद्र समझ गया कि वह अपने बेटे को लेकर बहुत चिंतित हैं।
"नमस्ते चाचा जी... आपने बुलाया था।"
"हाँ बेटा। कुछ बात करनी थी। आओ बैठो।"
इंद्र उनके पास जाकर बैठ गया। श्यामलाल ने बड़े ही दुखी स्वर में कहा,
"बेटा... तुमसे जय के नारे में पता करने को कहा था। कुछ पता चला।"
"नहीं चाचा जी...अगर कोई खबर होती तो मैं आपको ज़रूर बताता। पर मुझे तो लगता है कि जय लखनऊ में ही नहीं है।"
"लखनऊ में नहीं है तो कहाँ चला जाएगा ?"
"चाचा जी पिछले दिनों वह मेरठ और कानपुर गया था। हो सकता है कि वहाँ कोई पहचान वाला हो। उनमें से किसी के घर पर रह रहा हो।"
"पता नहीं बेटा। पर इतने दिनों तक अपने यहाँ कौन रख लेगा। मैं तो शरीर और मन दोनों से टूट गया हूँ। इकलौती औलाद ना जाने कहाँ भटक रही है। क्या करूँ ? मैं तो कुछ कर भी नहीं सकता।"
श्यामलाल भावुक होकर रोने लगे। इन दिनों उनका यही हाल हो गया था। कई बार भोला के सामने भी रो पड़ते थे।
इंद्र मन ही मन खुश हो रहा था कि जैसा उसने सोंचा था वैसा ही हो रहा है। पर ऊपर से हमदर्दी दिखाते हुए बोला,
"चाचा जी ऐसे ना रोइए। मैंने आपको अपने पिता की तरह माना है। आपका ये दूसरा बेटा है। वह ढूंढ़ कर लाएगा जय को।"
"बेटा एक तुमसे ही तो उम्मीद है। वरना कौन है जिससे मदद की आस करूँ।"
इंद्र यह कह कर लौट गया कि वह अपनी कोशिशें तेज़ कर देगा। अगली बार जय की खबर के साथ ही आएगा।
इंद्र जब घर लौटा तो उसने एक कांस्टेबल को अपनी राह देखते हुए पाया। उस कांस्टेबल ने उसे एक पत्र पकड़ाते हुए कहा,
"ये पत्र इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर ने भिजवाया है।"
पत्र देकर कांस्टेबल जवाब की प्रतीक्षा करने लगा।
इंद्र ने फौरन पत्र खोला और पढ़ने लगा।
डियर,
मि. इंद्रजीत खन्ना
आपको याद होगा कि पिछली बार आपने उस बागी लड़की वृंदा की खबर देकर हमारी सहायता की थी।
उसके लिए आपका धन्यवाद
एक बार फिर मुझे आपके सहयोग की आवश्यकता है।
कल संडे की मास के बाद मैं पुलिस स्टेशन के पास वाले चर्च पर आकर मिलें।

पत्र पढ़ कर इंद्र ने कांस्टेबल की तरफ देखा। वह जवाब की राह देख रहा था।
इंद्र ने कहा,
"इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर से कहना कि मैं उनसे मिलूँगा।"
कांस्टेबल चला गया।

इंद्र का दिमाग काम करने लगा।
वह खुद वृंदा से बदला लेने के लिए बेचैन था। उसे लगता था कि वृंदा के कारण ही उसके इरादों पर पानी फिर गया है।
वृंदा को पकड़वा कर वह उसे उसके किए की सज़ा देना चाहता था।
इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर ने अपनी तरफ से उसे मदद के लिए बुलाया था। इसका मतलब था कि वह खुद वृंदा को गिरफतार करने के लिए बहुत परेशान है।
ऐसे में वृंदा की खबर देने के एवज में वह इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर से मनचाही चीज़ मांग सकता है।
इंद्र खुशी से पागल हो रहा था। उसे लग रहा था कि अब तक जो परिस्थितियां उसके विरुद्ध थीं वह अब उसके अनुकूल हो रही हैैं।‌ उसे जय का पता चल चुका था। आज श्यामलाल की दशा बता रही थी कि वह अपने बेटे के लिए कुछ भी करने को तैयार हो सकते हैं। अब इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर का संदेश मिला था।
वह सोंच रहा था कि अपनी दुश्मन वृंदा को गिरफतार करा कर जहाँ उसके कलेजे को ठंडक पहुँचेगी वहीं उसके बदले में लाभ भी हो सकता है।
उसके दोनों हाथों में लड्डू थे। वह बेसब्री से जेम्स वॉकर से मिलने की राह देखने लगा।

जय अपने कमरे के बाहर छत पर टहल रहा था। टहलते हुए वह सोंच रहा था कि उसे अपना घर छोड़कर आए अब चार महीने हो रहे हैं। जब वह घर से निकला था तो उसके पास कुछ भी नहीं था। ना पैसे, ना सर छुपाने को छत और ना ही अपनी कोई पहचान।
उसके पास जो पैसे, घर और नाम था सब उसके पिता श्यामलाल टंडन की देन थे। दुनिया उसे श्यामलाल टंडन के बेटे के रूप में ही जानती थी। पर घर छोड़ते समय वह सबकुछ वहीं छोड़ आया था।
पर आज स्थिति अलग थी। उसकी अपनी पहचान थी। वह जयदेव टंडन ही था। पर श्यामलाल टंडन के बेटे होने से इतर भी लोग उसे पहचानते थे। उसने अपनी मेहनत से अपनी पहचान बना ली थी।
जय छत पर पड़े तखत पर बैठ गया। उसके अपने पापा की याद आ रही थी। वह सोंच रहा था कि अगर उसके पापा को उसकी इस पहचान के बारे में पता चले तो वह कितने खुश होंगे। उन्होंने तो सदा यही चाहा था कि जय अपना नाम बनाए।
वह जानता था कि उसके घर छोड़कर चले आने से उसके पापा बहुत दुखी होंगे। उसका मन किया कि वह एक बार जाकर उनसे मिल आए। उन्हें बताए कि इन चार महीनों में उनका बेटा अपने पैरों पर खड़ा हो गया है। उसने पैसे खर्च करने की जगह कमाना सीख लिया था। लेकिन उसने अपने आप पर काबू कर लिया।
उसके विचारों की धारा दूसरी तरफ मुड़ गई। वह सोंचने लगा कि क्या वह इसी उद्देश्य से घर छोड़कर आया था। ये ठीक था कि उसने बहुत कुछ हासिल किया था। सबसे बड़ी बात यह थी कि उसका अपने आप पर यकीन बढ़ गया था।
किंतु यह तो उसकी व्यक्तिगत उपलब्धियां थीं। पर वह तो देशहित में काम करने के लिए घर छोड़कर निकला था। पर अभी तक उसने उस दिशा में कुछ खास नहीं किया था।
विष्णु के घर में रहते हुए जय को एक अच्छी आदत पड़ गई थी। विष्णु के पास हिंदी और अंग्रेज़ी की पुस्तकों का संकलन था। जय को जब भी फुर्सत मिलती थी वह विष्णु की इजाज़त से उनमें से एक पुस्तक लेकर पढ़ने लगता था। जब वह पुस्तक समाप्त हो जाती थी तो वह नई पुस्तक लेकर पढ़ना आरंभ कर देता था।
इन पुस्तकों के माध्यम से उसने कई देशों के इतिहास, उनकी आर्थिक तरक्की, सामाजिक उत्थान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की थी।
इसके साथ ही वह अपने विशाल देश के गौरवशाली इतिहास, इसकी विविधता आदि के बारे में जानकर वह बहुत प्रभावित हुआ था।
उसके मन में एक इच्छा जागी थी कि वह अपने इस देश का भ्रमण कर उसे अच्छी तरह से जाने।
पर अभी तो उसे अपने देश व समाज के लिए बहुत कुछ करना था। पर वह यह नहीं समझ पा रहा था कि क्या करे ?
उस दिन जब वह मोहनलाल गंज गया था तो मदन के सवाल ने उसके मन में एक विचार अवश्य उत्पन्न किया था। उसने कई देशों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान के बारे में पढ़ा था। उसे पढ़ कर एक बात उसकी समझ में आई थी।‌ उन सभी देशों ने अपने देश के नागरिकों की शिक्षा पर खास ध्यान दिया था। इस बात का ध्यान रखा था कि प्रगति का लाभ समाज के हर वर्ग तक पहुँचे।
खासकर इन देशों में स्त्रियों की सामाजिक दशा को सुधारने के विशेष प्रयास किए थे। स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान किए थे। वहाँ की स्त्रियों की समाज में बराबर की हिस्सेदारी थी।
स्त्रियों के बारे में सोंचते हुए उसे वृंदा की याद आ गई। वह सोंचने लगा कि भले ही स्थिति इतनी अच्छी ना रही हो पर वृंदा जैसी स्त्रियों ने समाज के निर्माण में हमेशा से भागीदारी निभाई है।
काका ने आकर कहा कि विष्णु खाने के लिए उसे नीचे बुला रहे हैं।