Tumhari nandini in Hindi Moral Stories by Neelima Tikku books and stories PDF | तुम्हारी नन्दिनी!

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तुम्हारी नन्दिनी!

तुम्हारी नन्दिनी!

नन्दिनी! ....हाँ वही थी तीस साल बाद अचानक उसे देखकर मेरे दिल की धड़कने बढ़ गईं थीं। कभी एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसमें खायीं थीं हमने। हडबडाती सी वह सामने से चली आ रही थी। प्लेन में केवल मेरे बगल वाली सीट ही खाली थी ज़ाहिर सी बात थी वो वहीं बैठती। मैं ज़बरन अख़बार में आँखे गड़ाये बैठा रहा। विंडो सीट पर निशा पसरी हुई थी। कॉलेज में नन्दिनी के साथ अकेले वक्त बिताने की चाह में जिस निशा से पीछा छुड़ाने के लिए मैं कई तरह के झूठ बोला करता था वही निशा मेरी पत्नी बनकर हमेशा के लिए मेरी जिंदगी में आ गयी थी और जिससे बेइंतेहा प्यार करता था वही नन्दिनी अब मेरी कुछ भी नहीं यहाँ तक की उससे मित्रता भी नहीं रही थी। निशा की उपस्थिति में उसके साथ बैठने में भी मैं असहज हो उठा था।ऐसा नहीं था कि निशा मुझ पर जबरन थोप दी गई थी या नन्दिनी से सम्बन्ध विच्छेद मुझे मज़बूरी में करना पड़ा। उस वक्त मैंने ये निर्णय बहुत सोच समझ कर लिया था। मैं बेहद साधारण परिवार का इकलौता बेटा था। निशा एक बेहद पुरातनपंथी विचारधारा की लड़की थी इसके विपरीत नन्दिनी खुले दिमाग की मिलनसार लड़की थी। हमारे विचार परस्पर मिलते-जुलते थे। नन्दिनी और मेरे विषय एक से थे इसलिए हम पुरा समय कॉलेज में साथ ही रहते थे। निशा केवल पोलिटिकल साइंस के पीरियड में हमारे साथ होती थी। आरम्भ में निशा जबरन मुझ पर अधिकार जमाने की कोशिश किया करती थी, उसे मेरा और नन्दिनी का साथ फूटी आँख नहीं सहाता था। मैं बेबस सा केवल एक पीरियड के लिए निशा को जैसे-तैसे झेल पाता था। धीरे-धीरे निशा समझ गई थी कि मैं नन्दिनी से ही प्यार करता हूँ, तंग आकर उसने हमसे दूरी बना ली थी। नन्दिनी के पिता आसाम में व्यवसाय करते थे।

मैं दिन-रात उसके सपनों में खोया रहता था। नन्दिनी के साथ भविष्य में ठाठबाठ से रहने के मेरे सपने तब धाराशायी हो गये। जब नन्दिनी के पिता की किसी ने गोली मार कर हत्या कर दी और नन्दिनी को अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़कर वापिस जाना पड़ा। कॉलेज के हॉस्टल में रखा उसका सामान ज्यों का त्यों पड़ा रहा, नन्दिनी फिर कभी वापिस नहीं आ सकी। फोन पर रो-रोकर उसने बताया था कि किस तरह पिता के व्यवसाय से सम्बन्धित अनगिनत लेनदार आकर धमक गये थे और जिनसे पैसा लेना था वो सब लोग गायब हो गये थे। दुकान-मकान बेच कर बड़ी मुश्किल से कर्जे चुकाकर नन्दिनी अपने छोटे भाई व माँ के साथ ननिहाल चली गयी थी। मैं नन्दिनी को प्यार ज़रूर करता था लेकिन ज़िंदगी में पैसे का इतना अभाव देखा था कि उसके साथ विवाह करके पूरी जिंदगी उसके और अपने परिवार की गाड़ी खींचने वाला बैल बनने की हिम्मत मुझमें नहीं थी। निशा अब भी मेरी तरफ आकर्षित थी जिस निशा को मैंने मानसिक स्तर पर कभी अपने योग्य नहीं समझा था उसी की लम्बी-चौड़ी जायदाद ने मेरी आँखें चौंधिया दी थी तिस पर वो अपने पिता की लाडली इकलौती बेटी थी, जिन्होंने अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद भी बेटी की वजह से दूसरा विवाह नहीं किया था। मुझे लगने लगा था कि निशा भी कोई बुरी नहीं है। उसके चेहरे से टपकता रईसी मिज़ाज़ उसके पारिवारिक हालात की देन है। हमारे विचार आपस में मेल नहीं खाते क्या फ़र्क पड़ता है विवाह के बाद सब ठीक हो जायेगा। मेरे चालबाज़ मन ने तब सोची समझी साजिश के तहत उससे सम्बन्ध बढ़ाने शुरू कर दिए थे। निशा को तो मानो मुँह माँगी मुराद मिल गई थी। निशा से विवाह मेरी जिंदगी का पहला और आखिरी निर्णय साबित हुआ था। उसके बाद की जिंदगी में मैंने कभी किसी मुक़ाम पर कोई निर्णय नहीं लिया था या निर्णय लेने की स्थिति में नहीं रहा ये दीगर बात है। मुझे अब भी याद है निशा के पिता द्वारा दिये गये हमारे विवाह के रिसेप्शन में वो गर्व से ऐंठी मेरे पास बैठी हुई थी और कॉलेज का फ्रैंड सर्किल जिनके साथ मिलकर मैं सदा निशा से पीछा छुड़ाने के उपाय सोचा करता था। मुझे आ आकर बधाई दे रहा था। किसी की आँखों में हैरत, किसी नज़र में व्यंग्य तो कोई तरस खाती निगाहों से मुझे सांत्वना दे रहा था। एक-दो तो कान में फुसफुसा गये थे, "बेटा दिखने में ही सीधा लगता था तू लेकिन मोटी मुर्गी फंसा ली।अब ज़िदंगी भर कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। हमारी मान तो ससुर के पैर पकड़ ले तर जायेगा।

मैं ढीठ बना सारी चुहलबाजियाँ नज़र अंदाज़ करता रहा था। विवाह के बाद मैंने भी निशा की खुशी में ही अपनी ख़ुशी मान ली थी। मिट्टी का माधो बना ज़िदंगी को गुज़रते हुए देखता रहा। मेरे माता-पिता अति उत्साह में इकलौते बेटे के निर्णय को सिर आँखों पर लेते हुए निशा को बहू बनाकर अपने घर ले आए थे। धनाढ्य परिवार की इकलौती, बिगडैल लड़की को जैसा होना चाहिए था निशा बिल्कुल वैसी ही थी। उसकी कही हर बात पत्थर की लकीर होती थी। पैसों का घमंड और पारिवारिक रिश्तों के प्रति बेहद लापरवाह निशा से उलझने का साहस घर में कोई नहीं कर सकता था। मेरे माता-पिता तो उससे दूर-दूर ही रहते थे। बात-बात पर अपने पिता के घर चले जाने का खौफ़ दिखाकर वो हम सब का दम साधे रखती थी। मैंने शकर मनाया था कि निशा के बहुत कहने पर भी मैंने अपनी बैंक की नौकरी नहीं छोड़ी थी।विवाह के एक साल बाद ही बेटी का जन्म हुआ और मानो घर में विस्फोट हो गया। पढ़ी लिखी निशा इस बात के लिए हमारे घर के सामने रहने वाली शचि भाभी को ज़िम्मेदार ठहराती रही। निशा का कहना था कि रोज़ सुबह शचि भाभी अपनी दोनों बेटियों को स्कूल बस के लिए छोड़ने के लिए घर के बाहर खड़ी होती थीं और वह सुबह उठते ही बॉलकनी से उनका चेहरा देखती थी इसीलिए उसके भी लड़की पैदा हो गई । जहाँ मैं उसकी इस बेतुकी बात से हैरान था वहीं माँ-बाऊजी इतनी पढ़ीलिखी बहू की ऐसी बात सुनकर शर्मिंदा हो गये थे। बेटी को देखने आयी शचि भाभी को निशा ने मुँह बनाते हुए यह बात कह भी दी थी। उसके बाद से वो हमारे घर कभी नहीं आयीं। इस घटना से एक-दूसरे के दुःख-सुख में वर्षों से साथ निभाते एक अच्छे पड़ौसी परिवार के स्नेह से हम हाथ धो बैठे थे। ज़िदंगी एक अलग ही ढर्रे पर चलने लगी थी।

निशा दूसरी बार माँ बनने की तैयारी कर रही थी और इस बार वो अपने पिता के घर चली गयी थी। इसके पीछे टोटका यही था कि रोज़ सामने वाली शचि भाभी का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। मुझे भी अक्सर ससुराल जाना पड़ता। एक रात अचानक ससुराल से फ़ोन आया कि सीढ़ियों से गिरने की वजह से निशा का गर्भपात हो गया है। शहर के एक बड़े नर्सिंग होम में भर्ती निशा की हालत बहुत गंभीर थी। पानी की तरह पैसा बहा और किसी तरह निशा बच गई थी लेकिन डॉक्टर ने चेतावनी दे डाली थी कि उसका गर्भाशय बहुत कमजोर हो गया है इसलिए भविष्य में माँ बनना उसके लिए खतरनाक हो सकता है। इतना सब होने के बाद भी निशा के चेहरे पर दख या परेशानी के चिन्ह दिखाई नहीं दिये। अब वो अपना अधिक समय पिता के घर ही व्यतीत करती थी। ससुराल और घर के बीच झूलता मैं कई बार निशा की तुलना अनायास ही नन्दिनी से करता हुआ पश्चाताप से भर उठता। नन्दिनी से मैंने सम्बन्ध खत्म करते हुए फ़ोन पर उसे माता-पिता के सामने सिर झुकाये श्रवण कुमार वाले अपने रूप का हवाला दिया था। उसने भी मेरे निर्णय को उचित ठहराते हुए मानो मुझे आज़ाद कर दिया था। पढ़ लिखकर भी निशा ने नौकरी नहीं की थी उसका कहना था कि "जिन घरों की स्थिति फटीचर होती है वहीं औरतों को नौकरी करनी पड़ती है।" इसी सोच के साथ वो अपने पिता के पैसों पर ऐशोआराम की जिंदगी निकाल रही थी। मैं बैंक में मैनेजर बन गया था। निशा और उसके व्यवसायी पिता की नज़रों में वो एक टुच्ची नौकरी थी। मैं अपनी नौकरी से सन्तुष्ट था। दस से पाँच घर से बाहर रहकर चैन की सांस लेता था और इसी बहाने अपने स्वाभिमान को क़ायम रख पा रहा था। निशा को बेटी में ज़रा भी रूचि नहीं थी। दादा दादी और नौकर मिलकर नन्हीं समिधा को संभाल लेते थे। जेवर-कपड़ों से लदी-फदी निशा अपने पिता के सोशल सर्किल में मूव करती थी। कभी-कभी मुझे भी सूट-बूट पहनाकर नुमाइश की तरह साथ ले जाती थी। मैं खुद ऐसी दिखावे की बड़ी-बड़ी पार्टियों से बचने की कोशिश में लगा रहता था। बेटी तीन साल की हो गई थी कि अचानक एक दिन निशा मेरे कानों में फसफसाई, "तुम फिर से पिता बनने वाले हो।"मैं दहल गया था, "क्या कह रही हो निशा? तुम होश में तो हो ना, डॉक्टर ने मना किया था ना। बच्चे की वजह से तुम्हारी जान को खतरा हो सकता है। क्या तुमने प्रिकाशन लेना बंद कर दिया था?" बेहद लापरवाह सी वो बोली थी, "मुझे कुछ नहीं होगा, पिताजी बड़े से बड़ा डॉक्टर खड़ा कर देंगे।" हुआ भी यही निशा पूरे नौ महिने अस्पताल में बैड रेस्ट करती रही और सिजेरियन ऑपरेशन द्वारा उसने एक बेटे को जन्म दिया उसकी हालत ठीक नहीं थी लेकिन बेटे को जन्म देने की खबर सुनकर उसकी मानसिक हालत के साथ ही शारीरिक हालत में आश्चर्यजनक रूप से सुधार होने लगा। कई दिनों तक अस्पताल में रहने के बाद निशा वहाँ से सीधी अपने पिता के घर चली गयी थी। जहाँ दिन रात खड़ी नौकरों की फौज़ ने उसे फिर से स्वस्थ कर दिया था। अक्सर पलंग पर लेटी गरिष्ठ खाना खाती निशा एक थुलथुल काया की मालकिन बन गई थी। गर्व से दपदपाती वह हर समय अपने बेटे की बलैया उतारती रहती। अक्सर कहती, "मेरे पिता की लम्बी-चौड़ी ज़ायदाद संभालने के लिए एक वारिस बेहद ज़रूरी था।"

"अगर दूसरी भी बेटी हो जाती तो क्या कर लेती तुम?"

मेरी बात सुनकर उसने मुझे घूरते हुए कहा, "तुम बहुत मूर्ख हो अबीर इसीलिए मैंने तुम्हें कभी बताया नहीं। इससे पहले जो मेरा गर्भपात हुआ था वो मैंने स्वयं करवाया था क्योंकि गर्भ में बेटी थी।"

"निशा तुम पागल तो नहीं हो बिना मुझसे पूछे.... चलो पूछा नहीं, लेकिन अपनी जान की भी फिक्र नहीं की तुमने ? तुम्हें कुछ हो जाता तो हमारी नन्हीं बेटी का क्या होता? और एक मासूम की जान लेने से पहले तुम्हारा दिल नहीं दहला?"

वो बेहद लापरवाह अंदाज़ में बोली, "सब ठीक हो गया ना? इस बार भी टैस्ट करवाया था, लड़का था इसीलिए ये रिस्क लिया।" निशा की बात सुनकर मैं बेहद व्यथित हो उठा था। धीरे-धीरे मैंने गौर किया कि निशा के बेटा होने से मेरे अपने माता-पिता भी बेहद खुश हैं। पहले उन्हें बुरा लगता था कि निशा पीहर में जाकर रहने लगी थी लेकिन अब उन्हें कोई एतराज़ नहीं है पोता जो हआ है उनके इकलौते बेटे का। उनके खानदान का वारिस । मुझे पहले मन ही मन ऐसी बातों पर हँसी आती थी। नन्दिनी को हमेशा से बेटी अच्छी लगती थी और मुझे भी। मैं अक्सर सोचता था बेहद मामूली परिवार से सम्बन्ध रखता हूँ। मेरे पास कौन सी बाप-दादा की लम्बी-चौड़ी ज़मीन-जायदाद है या कोई बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे चलाने के लिए वारिस ही होना चाहिए लेकिन अब धीरे-धीरे मैं भी इन सबके रंग में रंगने लगा था। कहाँ सोचा करता था कि विवाह के बाद मेरे साथ रहकर निशा के विचार बदल जायेंगे उलटा मैं ही निशामय होने लगा था। निशा के बार-बार कहने से मुझे भी बेटे के बाप होने का गर्व महसूस होने लगा। मुझे लगने लगा कि शायद मेरी आदर्शवादी सोच बेवकूफ़ी से भरी थी। जिंदगी में बेटा होना बहुत बड़ी बात है। निशा ने अपनी जान पर खेलकर मुझे तोहफ़े के रूप में बेटा दिया है। अब मैंने अपने माता-पिता को महत्त्व देना कम कर दिया था। मेरे लिए निशा और दोनों बच्चों की दुनिया ही सब कुछ थी। बेटी का नाम 'समिधा' मैंने रखा था क्योंकि निशा को उस समय बेटी में कोई रूचि नहीं थी। इसलिए उसने मेरे रखे नाम पर कोई आपत्ति भी नहीं की लेकिन अब बेटे के जन्म पर उसने मेरे द्वारा सुझाये नाम से असहमति जताते हुए उसका नाम 'निशान्त' रखा। हँसते हुए कभी-कभी कहती भी थी तेरे आने से मेरे जीवन में उजाला आ गया। तेरे जन्म पर मेरा अंत करीब-करीब पास ही आ पहुंचा था। बेटे के जन्म के बाद तो निशा ने मुझे पूरी तरह से भुला दिया था। नौकरों के साथ घिरी उसकी देखभाल में लगी रहती। जब कभी मैं उसका साथ चाहता वो बिदक जाती, "अब ये चोचले छोड़ो। मैंने तुम्हें दो बच्चे दे दिए तुम्हारा परिवार पूरा हुआ और मेरा कर्त्तव्य।" पत्नी का भी कुछ कर्त्तव्य होता है ये उसकी समझ में नहीं आता था या वो जानबझ कर समझना ही नहीं चाहती थी। युवावस्था में ही मुझे जबरन वैराग्य ढोना पड़ रहा था। ऐसे में नन्दिनी कई बार याद आ जाती, जो अक्सर कहा करती थी अस्सी-नब्बे साल तक तो हमें एक-दूसरे से फुर्सत नहीं मिल पायेगी अबीर, सौ वर्ष के हो जायेंगे तब भजन-कीर्तन की सोचेंगे। उसकी बात सुनकर मैं ज़ोरदार ठहाका लगाता था, "बहुत नेक ख्याल है बालिके.... तुम साथ होगी तो जिंदगी में रस घुले रहेंगे नन्दी....''

इस बीच समय ऐसे निकला जैसे मुट्ठी से रेत..... दोनों बच्चों ने पढ़ लिखकर नौकरियाँ पकड़ लीं। घर में कोहराम मच गया था लेकिन दोनों बच्चे नहीं माने। बेटा मुम्बई और बेटी बंगलौर चली गई। बात यहीं खत्म नहीं हुई दोनों ने अपनी पसंद से विवाह करना चाहा। निशा ने बेटे को लम्बी-चौड़ी जायदाद से बेदख़ल करने का डर भी दिखाया लेकिन वो नहीं माना। स्वभाव के अनुसार निशा ने एक झटके में ही दोनों बच्चों से सम्बन्ध तोड़ लिए थे। बेटी-दामाद तो विवाह कर सीधे घर में आ धमके थे और उसे आशीर्वाद देना ही पड़ा लेकिन बेटे को निशा ने फ़ोन कर दिया था कि उसकी पत्नी बनी लड़की उसके जीतेजी कभी घर में कदम नहीं रख सकेगी।

आज वो बॉस्टन बेटी-दामाद के पास ही जा रहे हैं। बेटी की डिलीवरी होने वाली है वैसे तो बच्चा बह के भी होने वाला है। बेटे ने फोन पर बेहद दखी होकर माँ से अनुनय-विनय की थी, "तुम्हारी बहू को कोई संभालने वाला नहीं है माँ तुम यहाँ आ जाओ या तुम कहो तो मैं उसे तुम्हारे पास छोड़ जाता हूँ।" लेकिन निशा ने आननफानन में बेटी के पास जाने का फैसला कर लिया था। बेटा माँ से तो कुछ कह नहीं सका लेकिन मुझसे बोला था,

"पापा, दीदी और मैंने दोनों ने ही अपनी पसंद से विवाह किया था, फिर माँ का हमारे प्रति ये भेदभाव क्यों है? आप घर के बड़े हैं पापा, आपको मम्मी को समझाना चाहिए था, आख़िर आपका भी घर में कोई डिसीज़न चलता है या नहीं।"

मैं उसे कैसे बताता कि मैंने वर्षों पहले उसकी माँ से विवाह करने का जो निर्णय लिया था उसके बाद मैं कोई और निर्णय लेने लायक नहीं रहा था। प्रत्यक्षतः यही बोला, "तेरे निर्णय से तुम्हारी माँ को बेहद दुख पहुँचा है बेटा तू इकलौता बेटा था तुझे लेकर उसने दिल में कई अरमान सजा रखे थे।"

निशा को अपने पिता द्वारा छोड़ी गई जिस ज़मीन-जायदाद का घमंड था उसे नकार कर बेटा अपनी मनपसंद युवती के साथ विवाह कर मुम्बई के एक कमरे के फ्लैट में रह रहा है। उसके मुँह पर वक्त ने ऐसा तमाचा जड़ दिया है कि अब घायल शेरनी सी वो बहू की शक्ल तक देखने को तैयार नहीं है। इधर दामाद की माँ भी अपनी बह के पास जाने को तैयार बैठी थी, लेकिन अचानक निशा के वहाँ जाने के निर्णय न उनके उत्साह पर भी पानी फेर दिया था। जीवन के उबड़-खाबड़-पथरीले रास्तों से गुज़रता मैं पचपन वर्ष का हो चला था। उम्र के इस पड़ाव पर नन्दिनी के साथ बैठा मैं उससे बचने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ। तभी प्लेन के टेक ऑफ करने की घोषणा होने लगी। मैंने निशा को हिला कर सीट बेल्ट बाँधने को कहा। उसे शायद झपकी आ गई थी. वो हडबडा कर उठ गई। उसने उचक कर मेरे पास वाली सीट पर किसी महिला को बैठे देखा और फूहड़ता से मुस्कराते हुए आँख से इशारे करने लगी। मैं जानबूझ कर अपना मुँह उसकी तरफ कर उसकी बेल्ट बँधवाने में मदद करने लगा। कब तक यूँ गर्दन टेढ़ी करके बैठा रहूँगा। यही सोच रहा था कि तभी चिरपरिचित स्वर कानों में रस घोल गया, "क्या हुआ अबीर मुझे पहचाना नहीं ? मैं हैरत से भर उठा, इसका मतलब नन्दिनी ने मुझे पहले ही देख लिया था। उसकी बात सुनकर निशा चौंक गई थी। नन्दिनी को पहचानने में उसे ज़रा सी भी देर नहीं लगी थी। मैंने जबरन आश्चर्य प्रकट किया, "अरे नन्दिनी तुम! कैसा संयोग है आज इतने वर्षों बाद यूँ मिलना हुआ।" निशा के चेहरे पर ईर्ष्या के भाव उभर आये थे, "तुम बिल्कुल नहीं बदली, अभी तक वैसी ही हो स्लिम-ट्रिम-सुन्दर।"

नन्दिनी निशा को पहचानने की कोशिश कर रही थी। अचानक उछल पड़ी, "निशा तुम! कमाल है तुम तो बिल्कुल ही पहचान में नहीं आ रही हो।माशाअल्लाह से खूब सेहत बना ली है।" अबीर सिहर गया था। वो सोच रहा था कि निशा को मेरी पत्नी के रूप में देखकर नन्दिनी ने ना जाने मेरे बारे में क्या सोचा होगा। वहीं नन्दिनी के इस मज़ाक से कहीं पत्नी भड़क ना जाये सो तुरन्त बोल उठा, "खाते-पीते घर की लड़की है हट्टी-कट्टी दिखनी चाहिए। तुम्हारी तरह जीरो फिगर के चक्कर से दूर है।"

वह मुस्कराई, "ऐसा कुछ नहीं है अपन तो ना सावन हरे ना भादो सखे। जैसे थे वैसे ही हैं।"

अबीर उसकी बात का अर्थ समझने की कोशिश कर रहा था लेकिन नन्दिनी के चेहरे पर पुराने सम्बन्धों की लेश-मात्र भी झलक दिखायी नहीं दी। वह बेहद सामान्य दिख रही थी। अचानक उसने महसूस किया, नन्दिनी के पास वाली सीट पर उसका बैठना निशा को रास नहीं आ रहा है। वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ। भई तुम दोनों सहेलियाँ बातें करो मैं किनारे हो लेता हूँ। वह विंडो सीट पर बैठ गया था। हालांकि वो जानता था कि निशा और नन्दिनी एक नदी के दो किनारे थे। उनमें कभी घनिष्ठता थी ही नहीं । निशा ने एक बार अपनी मोटी थुलथुल काया को देखा और फिर मोटी ऐनक को ठीक किया। अपनी साड़ी को ठीक करती वो नन्दिनी की कमनीयता को हैरानी से निहार रही थी, "तुमने अपने आपको इतना फिट कैसे रखा हुआ है नन्दिनी? तुम तो अभी भी वैसी की वैसी हो जैसी कॉलेज के ज़माने में दिखाई देतीं थी।"

नन्दिनी सरलता से मुस्करा रही थी, “ऐसा कोई फिटनेस का प्रयास मेरी तरफ से नहीं हुआ।अपने आप ही सब हो रहा है।"

"बच्चे कितने हैं तुम्हारे?" निशा की खोजी निगाहें मानों नन्दिनी के जीवन के सभी रहस्य जानने को उत्सुक थीं। आखिर एक वक्त था जब उसके पति और नन्दिनी के प्यार के चर्चे जग ज़ाहिर थे।

"तीन"

निशा आश्चर्य से भर उठी थी, "कमाल है तुम्हें देखकर भला कौन कह सकता है कि तुम तीन बच्चों की माँ हो।"

नन्दिनी पूर्ववत मुस्कराते हुए बोली, "पहली बार जुड़वां बच्चे हुए थे लेकिन मेरी हसरत अधूरी रह गई थी। सो पाँच साल बाद फिर माँ बनी लेकिन फिर भी मन की इच्छा मन में ही रह गई।"

इस बार निशा ने गर्व से गर्दन अकड़ायी, "ओह ! अच्छा.... वैसे तो मेरा भी यही हाल हुआ था। पहली लड़की सिजेरियन से हुई थी तब डॉक्टर ने दूसरे बच्चे के बारे में सोचने से भी मना कर दिया था, लेकिन मेरे पिताजी की इतनी लम्बी-चौड़ी ज़ायदाद को संभालने वाला तो लाना ही था और फिर अबीर और उसके परिवार को वंशचालक देने का फर्ज़ भी बनता था। सो दो साल बाद ही जान पर खेल कर बेटा थमा दिया।"

नन्दिनी बड़ी हैरानी से निशा की बातें सुन रही थीं, "निशा जब डॉक्टर ने तुम्हें सख्ती से मना कर दिया था तो तुम्हें इतना बड़ा रिस्क उठाने की क्या ज़रूरत थी। मैं तो उसे सरासर बेवकूफी ही कहूँगी।"

"नन्दिनी ये तुम कह रही हो? जब कि तुम खुद ये बेवकूफ़ी कर चुकी हो। तुमने ही कुछ देर पहले कहा था कि अधूरी हसरत की वजह से तुमने दो बच्चों के होते हुए भी पाँच साल बाद एक और बच्चे को जन्म दिया था..."

"मेरी बात अलग थी, मैं पूरी तरह स्वस्थ थी इसीलिए एक और चांस लिया था।"

निशा का चेहरा कुटिलता से टेढ़ा हो गया था, "नन्दिनी हैरान हूँ तुम औरत होकर भी दूसरी औरत का दर्द नहीं समझती हो।" अबीर ने बात को नज़रअंदाज़ किया, "छोड़ो ये सब बातें।" लेकिन निशा दया भाव दिखा रही थी, "नन्दिनी तीन बच्चों के बाद भी तुम्हारी हसरत अधूरी ही रह गई। इसका हमें बहुत दुःख है।" उसकी बात सुनकर नन्दिनी खिलखिलाई, "हाँ पहले मैं भी काफी समय तक मायूस रही लेकिन ये सब चीज़े हमारे हाथ में कहाँ हैं ? ... उसकी बात बीच में काटते हुए अबीर ने फिर हस्तक्षेप किया. "अब छोडो. हमारा इरादा तम्हारे ज़ख्मों को करेदने को बिल्कुल नहीं है। खुशी की बात यह है कि हम अपनी बेटी के पास जा रहे हैं।" निशा चहकी, "हाँ वो एक्सपैक्ट कर रही है। इस महीने के अंत तक, और तुम!? तुम अकेली कहाँ जा रही हो? तुम्हारे पति कहाँ हैं ?"

नन्दिनी मुस्कराई, "पतिदेव अपने बिज़नेस में व्यस्त हैं वो बाद में आयेंगे। वैसे मैं भी इसी काम से जा रही हूँ। श्रद्धा भी एक्सपैक्ट कर रही है।"

निशा के स्वर में व्यंग्य का पुट था, "अच्छा कौनसे नम्बर वाली बेटी है ?"

"पहले नम्बर वाली।" कहती नन्दिनी खिलखिलाकर हँस दी। निशा उसके चेहरे पर दर्द की लकीर ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी लेकिन वो बेख़बर-बिंदास हँसे जा रही थी। हँसते-हँसते ही बोली, "मेरी तीनों बेटियाँ, बॉस्टन, न्यूयार्क और न्यूजर्सी में जा बसी हैं।"

निशा का दिल अब भी नहीं भरा था। मानो कॉलेज के ज़माने की पुरानी खुदक आज ही निकालने की ठाने बैठी थी,

"ओह तो तुम पति-पत्नी अकेले ही रह रहे हो?"

नन्दिनी खिलखिलाई, "हम अकेले कहाँ हैं दोनों साथ मिलकर रहते हैं। बढ़िया टाइमपास होता है। यूं समझो कि पहले तो तीनों बच्चे पालने उन्हें सैटल करने में व्यस्त थे अब रियल सैंस में हनीमून मना रहे हैं। सारे नाते-रिश्तेदार, दोस्तों सभी से मिलते-जुलते रहते हैं। समय का पता ही नहीं चलता। अभी भी प्लेन में आने में इसलिए देर हो गई कि जनाब फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहे थे।आराम से जाना मैं जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करूँगा। मेरा तो अभी से ही मन नहीं लग रहा... बड़ी मुश्किल से फ़ोन बंद किया वर्ना आज प्लेन छुड़वाने की ठान ली थी पतिदेव ने। वैसे तुम्हारा बेटा तो इंडिया में ही है तुम तो साथ रहकर रिश्तों का मज़ा ले रहे होंगे?"

नन्दिनी की बातों से वैसे ही निशा के दिल पर सांप लोट रहे थे लेकिन आखिरी प्रश्न से तो उसका मुँह फक्क हो गया था। मैंने तरन्त बात संभाली. "अरे नहीं भई. हम युवा बच्चों के बीच कबाब में हड्डी बनकर नहीं रहना चाहते। हम चाहते हैं कि बच्चे आज़ाद पंछियों की तरह अपनी जिंदगी निकालें। बच्चे मम्बई में रहते हैं और हम भी मस्ती से लखनऊ के अपने बंगले में सुकून से रहते हैं।" ना चाहते हुए भी बंगले शब्द पर ज़्यादा ज़ोर दे बैठा था। अपने आपको नन्दिनी से कम ख़ुश कैसे बताता।हमारे ज़ज़्बातों से बेखबर वो खिलखिलाई, “यानि अकेले ही रहते हो?"

इस बार भी बड़ी सफाई के साथ मैंने झूठ बोला, "नहीं जब मर्जी होती है मुम्बई रह आते हैं। घर की याद आती है तो लखनऊ आ जाते हैं। हम भी बिंदास पंछी हैं।"

थोड़ी देर के लिए नन्दिनी वाशरूम चली गई थी और इसी बीच निशा अपने जाहिल रूप में लौट आयी थी, "तुम इससे प्यार की पींगे बढ़ा रहे थे। विवाह कर लेते तो तुम्हारी ये सो कॉल्ड आदर्शवादी दोस्त तीन लड़कियों की लाइन लगा देती।" उसकी मूर्खतापूर्ण सोच पर मैं लज्जित हो उठा था। उसके अंदर अभी भी कुंडली मार कर बैठे शक के फन को कुचलने के लिए मैंने इतना ही कहा, “छोड़ो तुम भी कहाँ कॉलेज की बचकानी बातें याद कर रही हो। उस समय हमारी उम्र ही क्या थी। वो एक बचपना था। तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ। तुमने प्यारे-प्यारे दो बच्चे उपहार में दिए लेकिन तुम अपने बेटे के साथ ज्यादती कर रही हो।"

निशा ने खा जाने वाली नज़रों से मुझे घूरा, "बेटा तो मेरा ही है लेकिन वो उस जादूगरनी के बिना मेरे घर में आने को तैयार नहीं है।'' "तो तुम क्यों नहीं उसे अपने घर में आने की स्वीकृति दे देतीं, अपनी बहू को अपना लो निशा। वो भी किसी की बेटी है।"

वह धीमे से गुर्राई, "मैं बेटी के पास अपना गम हल्का करने जा रही हूँ। तुम फालतू के उपदेश मत झाड़ो। पुरानी प्रेमिका को देखते ही कहीं तुम्हारा पुराना प्रेम फिर से हिलोरे तो नहीं मारने लगा, जो मेरी कमियाँ गिनानी शुरू कर दीं। ये तुम्हारी नन्दिनी, तीन-बेटियों की माँ बनकर भी ऐसा दिखावा कर रही है जैसे कुछ हुआ ही न हो। बड़ा घमंड था ना इसे अपनी योग्यता पर, पढ़ाई-लिखाई, गाना-नत्य. पेंटिंगडिबेड, हर चीज़ में पारंगत होने को उछलती रहती थी। यहाँ मात खा गई ना मुझसे, बनावटी औरत!" मुझे नन्दिनी पहले की तरह ही सरल-सहज लग रही थी कहीं से भी बनावटीपन का एहसास नहीं हो रहा था। तभी नन्दिनी को आते देख मैं फुसफुसाया, "अब चुप भी करो। कुछ अंट-शंट मत बोल देना, उसे बुरा लगेगा।" निशा चिहुँकी, "लगता है अभी तक भुला नहीं पाए अपने पहले प्यार को!?" निशा को खुश करने के लिए मुझे दिल पर पत्थर रखकर कहना पड़ा, "पहला प्यार, माय फुट।"

उसकी ये बातें सुनकर निशा ने चैन की सांस ली। पूरी यात्रा के दौरान निशा ने नन्दिनी को बोलने का मौका नहीं दिया। बढ़ा-चढ़ाकर अपने बेटे की तारीफ करती रही और नन्दिनी भी एक अच्छे श्रोता की तरह मस्करा कर उसकी बातें सनती रही। एमस्टरडम पहुँचने पर उसे दामाद का मैसेज मिला कि उसकी अर्जेन्ट मीटिंग आ गई वो टैक्सी से घर आ जायें। एमस्टरडम से बॉस्टन तक भी निशा का 'बेटा राग' ही बजता रहा। बॉस्टन एयरपोर्ट पर नन्दिनी को लेने आए युवक को नन्दिनी के पैरे छूते हुए देखकर अबीर आश्चर्य से भर उठा, कितना सभ्य दामाद है। नन्दिनी ने परिचय कराया, “बेटा इनसे मिलो ये मेरे कॉलेज के फ्रैंड अबीर और इनकी वाइफ निशा और ये.... मेरा बड़ा बेटा। निशा को नन्दिनी के दामाद का स्नेह-प्रेम सहन नहीं हो रहा था, जल भुन गई थी। मन ही मन सोच रही थी कि कैसी जादूगरनी है ये, कॉलेज में अबीर को ऐसे काबू में किया हुआ था कि वो आँख उठाकर भी उसकी तरफ नहीं देखता था और अब दामाद को पालत कत्ता बना रखा है। विदेश में रहते हए भी सास के पैर छ रहा है ।खैर अभी तो गधों को बाप बनाना था सो वो भी उस पर बनावटी स्नेह बरसाती रही। नन्दिनी के दामाद ने अबीर व निशा को टैक्सी में बैठाते हुए अपना कार्ड थमा दिया था जिसे बिना देखे ही अबीर ने अपनी जेब में रख लिया था। पराया देश है ना जाने कब ज़रूरत पड़ जाये।

एक दिन अचानक से बेटी को लेबर पेन शुरू हो गये थे। दामाद और निशा उसे लेकर अस्पताल चले गये थे। काफी देर बाद दामाद का फ़ोन आया था कि बेटी को लेकर लेबर रूम में जा रहे हैं। उसके मोबाइल की बैट्री खत्म होने वाली है। चार्जर भी वो घर पर ही भूल गये थे। दामाद का फ़ोन आये करीब छह घंटे बीत गये थे। मैं इधर से उसका फ़ोन लगा रहा था और उधर से फ़ोन स्विच ऑफ है का संदेश आ रहा था। मैं घबरा रहा था बेटी एनीमिक है परदेस में बैठे हैं। भगवान सब ठीक करे तभी अचानक मुझे नन्दिनी का ख्याल आया हालांकि निशा के शक्की स्वभाव की वजह से मैं उसे अपने घर के नम्बर नहीं दे सका था लेकिन उसके दामाद ने मुझे अपना कार्ड दिया था। काफी तलाश के बाद पुरानी जींस में से उसका कार्ड निकल आया था। नाम पढ़कर ठिठक गया। डॉ. कबीर जायसवाल, मैं वर्षों पुरानी कॉलेज की रूमानी दुनियाँ में पहुँच गया था... किन्हीं रोमांटिक पलों में उसने नन्दिनी का हाथ पकड़ कर कहा था विवाह के बाद बेटा हुआ तो उसका नाम कबीर रखेंगे। धत् कहती नन्दिनी शर्म से लाल हो गई थी। संयोग ही है कि नन्दिनी के दामाद का नाम भी कबीर है उसने अपने सिर को झटकते हुए कार्ड से नम्बर डायल किया। उधर मैसेज रिकार्डर पर चल गया था।वह इतना ही बोल सका, “मैं अबीर सिन्हा मेरे घर का नम्बर ये है नन्दिनी जी फ्री हों तो बात करवाइयेगा।" तुरन्त ही नन्दिनी का फ़ोन आ गया था, "हैलो अबीर कैसे हो?" "मैं ठीक हूँ नन्दिनी तुमने बताया नहीं की तुम्हारे दामाद डॉक्टर हैं।" नन्दिनी चिरपरिचित अंदाज़ में खिलखिलाई, “पूरे सफ़र में निशा ने मुझे कुछ बोलने का अवसर ही कहाँ दिया? मुझे तो लगता है कि तुम अपने काम में कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहते हो और बिचारी निशा को कुछ बोलने का अवसर ही नहीं देते हो। इसीलिए पूरे सफ़र में निशा अपने मन का गुबार निकलती रही। वैसे मैं हॉस्पीटल जा रही हूँ। मेरी बड़ी बेटी के नन्हीं परी हुई है उसे लेने जा रही हूँ।"

"बधाई हो नन्दिनी ! तुम किस हॉस्पीटल में जा रही हो?"

"मैं मास जनरल हॉस्पीटल में।"

"ओह नन्दिनी मेरी बेटी भी वहीं एडमिट है क्या तुम मुझे वहाँ ले जा सकती हो?"

हाँ-हाँ क्यों नहीं, हम तुम्हारे घर के पास से ही निकलेंगे, अस्पताल वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है।

कुछ ही देर में मैं नन्दिनी और उसके दामाद के साथ अस्पताल जा रहा था। नन्दिनी बेहद खुश थी, "अरे तुम मुँह लटकाये क्यों बैठे हो अबीर मुझे बधाई नहीं दोगे?'' मैंने गौर से उसका चेहरा देखा। उसके चेहरे पर छायी खुशी में दुख की हल्की सी भी परछाईं नहीं थी। अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि मेरी बेटी के बेटा हुआ है। निशा का चेहरा खिला हुआ था। "नन्दिनी मैं बहुत खुश हूँ मेरी बेटी के बेटा हुआ है। अब मैं निश्चित हूँ तुम्हारी बेटी कैसी है।" नन्दिनी प्रसन्नता से निशा के गले लग गयी थी।

"मेरे घर नन्हीं परी आयी है निशा। मैं उसका नाम 'कामना' रखूगी।" निशा विस्मित सी उसे घूर रही थी। धीरे से मुझसे बोली, "लगता है बेटियों के गम ने इसे पागल कर दिया है। भला ऐसी कौन सी ख़ुशख़बरी है ये?"

मैंने उसे चुप रहने का इशारा किया। नन्दिनी अपनी बेटी और दामाद के साथ छोटी बच्ची को घर ले जाने की तैयारी कर रही थी। निशा उसकी बेटी से मिली फिर उसे प्यार से सहलाते हुए सहानुभूति व्यक्त करती हुई बोली, "कोई बात नहीं अगली बार बेटा होगा तब तुम्हारी मम्मी की वर्षों पुरानी मन में दबी इच्छा पूरी हो जायेगी।" उसकी बेटी हैरानी से निशा को ताक रही थी।

"कैसी बातें कर रही हैं आंटी, मम्मी की तो वर्षों से एक ही तमन्ना थी कि उनके एक बेटी हो लेकिन भगवान ने उनकी एक ना सुनी। पहले जुड़वा बेटे हुए और पाँच साल बाद बेटी की चाह में एक और बेटा हो गया। अब जाकर हमारे घर में बेटी हुई है। उनकी वर्षों की साध पूरी करी है मैंने । वो गर्व से सिर ऊँचा किए प्रसन्नता से चहक रही थी।"

"क्या!?" निशा तो मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी थी। मैं भी कम हैरान नहीं था। निशा की आवाज़ लड़खड़ा गई थी, "तो तुम... नन्दिनी की बहू हो?"

वो मुस्करायी, "हाँ समाज के हिसाब से यही रिश्ता है पर वो मेरी मम्मी हैं और मैं उनकी प्यारी बेटी, है ना मम्मा!? और अपनी पोती को गोद में उठाये भावविव्हल नन्दिनी ने उसे चूम लिया था।"

मेरी बरसों पुरानी मनोकामना पूरी हो गई । मेरी 'कामना' आ गई फिर प्यार भरी नज़रों से अपने बेटे-बहू को देखते हुए अपने बेटे से बोली, "बेटा मुझे तेरी पसंद पर गर्व है।"

निशा उनके आपसी प्रेम को देखकर हैरान थी। उसे ये सब हज़म नहीं हो रहा था।

इधर उसके बेटे के साथ चलते हुए मुझे ना जाने क्या सूझा कि मैं अचानक बोल उठा, "तुम्हारे घर में सभी बच्चों के नाम नन्दिनी ने ही रखे हैं ना? कितना सुन्दर नाम है तुम्हारा ‘कबीर!' मैं अब अपने पुराने प्यार के सुरूर में आ गया था। तभी कबीर मुस्कराया, "नहीं अंकल मेरा नाम मम्मी को तो बिल्कुल पसंद नहीं था। मेरे पापा का नाम दीपक है। मम्मी ने तो मेरा नाम सुदीप रखा था। लेकिन मेरी दादी को 'कबीर' नाम पसंद था। इसीलिए ना चाहते भी कबीर' नाम ही रखना पड़ा।मम्मी तो आज भी मुझे सुदीप ही कहती हैं। उसकी बात सुनकर मैं दिवास्वप्न से यथार्थ की पथरीली ज़मीन पर आ गिरा था। दूर जाते उस खुशहाल परिवार को मैं तब तक ताकता रहा जब तक वो मेरी आँख से ओझल नहीं हो गये।तभी निशा ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए अपने चिरपरिचित अंदाज़ में ज़हर उगला, "चले गये वो लोग, कमाल की चालबाज़ लड़की है ये तुम्हारी नन्दिनी। सफर में सारे रास्ते मज़े ले लेकर हमारी राम कहानी सुनती रही अपने बारे में एक शब्द भी नहीं बताया...।"

पत्नी ना जाने क्या-क्या बड़बड़ाती जा रही थी और ... अपनी विवाहित जिंदगी में पहली बार उसके ज़हरबुझे वाक्य मुझ पर बेअसर हो रहे थे। केवल उसका कहा... "ये तुम्हारी नन्दिनी... मेरे कानों में रस घोल कर मुझे भाव विभोर किए जा रहा था। ... काश ये सच होता!"

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