आधा आदमी
अध्याय-9
ज्ञानदीप का सेलफोन बजा। उसने कान से लगाकर हैलो कहा। फिर जी-जी करता बोला, ‘‘नहीं सर, मुझे कोई पत्रिका नहीं मिली। अगर मिली ही होती तो मैं पत्र के जरिये आप से क्यों पूछता? वैसे भी डाक व्यवस्था बहुत खराब हैं। मजबूरी में मुझे कोरियर करना पड़ता हैं। अगर आप दोबारा पत्रिका भेज देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी.‘‘ ज्ञानदीप ने सेलफोन रख दिया।
जबकि ज्ञानदीप ने कई बार पोस्टमैन से इस बात को लेकर चर्चा की थी, पर उसने यह कहकर अपनी बात खारिज़ कर दी, ‘‘बताइए मैं क्या करूँ? मुझे एक साथ कई एरियों के खत बाँटने पड़ते हैं। अब आप ही बताइए? मैं आप को अच्छी सर्विस कैसे दे सकता हूँ। अधिकारियों से कहों तो वे एक कान से सुनते हैं तो दूसरे कान से निकाल देते हैं‘‘
हालाँकि ज्ञानदीप ने भी पोस्टमास्टर से बात की थी। मगर उन्होंने यह कहकर अपना पलड़ा झार दिया, ‘‘लगभग पन्द्रह सालों से सरकार ने कोई नई भर्ती नहीं की हैं। जबकि इतने बरसों में हमारे न जाने कितने कर्मचारी रिडायर्ड हो गये। मैंने कई बार यह बात मीटिंग में उठायी मगर उसका कोई हल नहीं निकला.”
ज्ञानदीप के मन में आया कह दें, तब पोस्टमास्टर किसलिए बने हो? छोड़ क्यों नहीं देते यह सर्विस किसी मुल्ला-पंड़ित ने तो कहा नहीं हैं। जहाँ देखो वही कॅरप्पशन हैं।
ज्ञानदीप फ्रेश होने के बाद दीपिकामाई की डायरी पुनः पढ़ने लगा-
शरीफ बाबा ने डरा धमका कर मेरे साथ गलत काम किया और वहीं छोड़कर मुझे चला गया। मैं जैसे-तैसे घर आया और पूरी रात रोता रहा ।
अगले दिन जब मैं दुकान नहीं गया। तो अम्मा ने आकर पूछा। मैं बड़ी सफाई से झूठ बोल गया, कि मेरी तबियत ठीक नहीं हैं।
वह मुझे दवा खाने को कहकर कमरे से बाहर चली गई थी। मैं मन ही मन सोचे जा रहा था, ‘मैंने उसे अपना दोस्त माना कितना भरोसा किया उस पर, मगर उसने मेरे साथ यह सुलूक किया। भगवान उसे कभी माफ़ नहीं करेगा.‘
मैं चार दिन दुकान नहीं गया। पाँचवे दिन शरीफ बाबा मेरे घर आ गया। उसे देखते ही मेरे तन-बदन में आ लग गई। मैंने उसे बाहर लाकर हड़काया, ‘‘अब तुम यहाँ क्या लेने आये हो। हमारी जिंदगी बर्बाद करके तुम्हें चैन नहीं मिला। हमने तुम्हें एक अच्छा इंसान समझा, मगर तुमने हमारे साथ क्या किया। चले जाओं यहाँ से हम तुम्हारी सूरत भी नहीं देखना चाहते.‘‘
‘‘दीपक! सुनो तो, मानता हूँ कि मैने गलती की हैं पर ख़़ुदा के लिये एक बार माँफ कर दो.‘‘
‘‘तुम्हारे माँफी माँगने से क्या हमारी इज्जत वापस आ जायेगी? अगर हमारे घर वालों को पता चल गया तो वह तुम्हें भी मार डालेंगे और हमें भी.‘‘
‘‘तुम घबराओं नहीं यह राज-राज ही रहेगा। हम चोरी छिपे मिल लेंगे मगर आप पर दाग़ नहीं लगने देंगे। तुम नहीं जानते दीपक, मैं तुम्हें कितना चाहता हूँ और ऐसे ही जिंदगी भर चाहता रहूँगा.‘‘
‘‘आप के चाहने और न चाहने से क्या होगा.‘‘
‘‘ख़ुदा के लिए मुझे माफ़ कर दो अब दोबारा ऐसी गुस्ताखी नहीं करूँगा। आप कल से अपनी दुकान खोलिये.‘‘
शरीफ बाबा बीस रूपया देकर चला गया था।
2-2-1977
एक दिन चंदा मेरी दुकान पर आई और मेरी तारीफ़ में पुल बाँधने लगी,‘‘ तुम इतनी खूबसूरत होकर लोगों का जूठा गिलास धोती हो.‘‘
‘‘तो गुरू! तुम ही बताओं हम क्या करें?‘‘
‘‘अरी जैसे हम खान्जरा करती हैं लोगों को लूटती-खसोटती हूँ, वैसे तुम भी किया करों.‘‘
‘‘हम आप की तरह नहीं हैं। हम एक कलाकार हैं। हम जो भी करेंगे अपनी डांसरी के बल पर.‘‘
‘‘बड़ी आई हैं कलाकार की बुआ बन के, जब इतनी ही बड़ी कलाकार हो तो उस मोटर मालिक से क्यों अपना ज़िस्म नोचवाती हो? बोलों! अब क्यों चुप हो गई.‘‘ चंदा ने मुँह बिचका के ताली बजाई।
यह सुनकर मैं सन्न रह गया और सोचने लगा कि इसे कैसे मालूम?
‘‘अब क्या हुआ, साँप सूँघ गया.‘‘
‘‘सुनो बेटा, हमरे आगे झव्वा न औधाव, हम्म ई लइन में दस साल से हूँ। हम्मैं सब मालूम हय कि तुमरे साथ का-का हुआ हय.‘‘
चंदा की बातों से मेरा चेहरा पीला पड़ गया था। मैं अंदर ही अंदर डर गया था, कि कहीं यह बात घर वालों तक पहुँच गई तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा। मैंने वक्त की नजाकत को देखते हुए चंदा से गुज़ारिश की, ‘‘यह सब किसी से मत कहना.‘‘
‘‘तुम घबराव मत ई राज़-राज़ ही रहिये.‘‘
‘‘गुरू! तुम्हारा यह एहसान हम ज़िदगी भर नहीं भूलेंगे.‘‘
‘‘इमा अहसान की कौनों बात नाय हय, जिका तू अपना दोस कहत हव उ तुमरा फाइदा उठावत हय। उ तोहका अपनी बीबी समझत हय। इही मारे कहित हय कि ओसै खरचा-पानी लिया करव.‘‘ कहकर चंदा चली गई।
शाम को जब शरीफ बाबा दुकान पर आया तो मैंने छुटते ही पूछा, ‘‘इतने दिन से हमारा-तुमारा साथ हैं। आज तक न तुमने हमें कोई खर्चा दिया न ही कपड़ा-लत्ता लेकर दिया। बताइए हम कौन हैं आप के?‘‘
‘‘तुम मेरे अच्छे दोस्त हो और मेरी मोहब्बत हो.‘‘
‘‘क्या जीवन में मुहब्बत से ही पेट भरता हैं। इंसान के कुछ शौक और उसके कुछ अरमान भी तो होते हैं। इसलिए अगर आप हमें चाहते हैं तो खर्चा-पानी सब देंगे.‘‘
‘‘तुम्हें खर्चा चाहिए न, ठीक हैं लीजिए और अपने घर बैठिये.‘‘
‘‘आप कितना खर्चा देंगे जो हम घर बैठ जाए? और अगर बैठ भी जाय तो घर वाले पूछेंगे नहीं, कि तुम्हारे पास इतना पैसा आता कहाँ से हैं? इसलिए हमारी-तुम्हारी दोस्ती भी बनी रहे और प्रोग्राम भी करते रहे.‘‘
‘‘मैं तुम्हें दस रूपया रोज़ दूगाँ समझे, न तुम्हें प्रोग्राम करने की जरूरत हैं और न ही मेहरों से मिलने की, अगर मैंने तुम्हें इनके साथ देख लिया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.‘‘
‘‘ठीक हैं.‘‘
8-3-1977
उस दिन मेरी मुलाकात सन्नो से हुई। उसने बताया प्रोग्राम दो दिन का हंै अगर चलना हैं तो चलो। उसके साथ उसका कम्पनी मालिक भी था। काफी तयतोड़ के बाद कम्पनी मालिक ने पन्द्रह रूपये रोज देने को कहा।
अब बात आकर अटकी थी घर को लेकर कि घर पर क्या बताऊँगा। काफी सोचने-विचारने के बाद दिमाग में एक विचार आया, कि क्यों ना अम्मा को बताऊँ कि मैं दीदी के यहाँ जा रहा हूँ.”
फिर मैंने अम्मा को बताया तो वह बोली, ‘‘जब जा रहे हो तो उसकी साड़ियाँ और ब्लाउज भी लेते जाओं.‘‘
मैं दीदी की साड़ियाँ और ब्लाउज लेकर सन्नो के साथ प्रोग्राम करने चला गया। बस से उतरने के बाद जब गाँव में जाने के लिए कोई साधन नहीं मिला। तो हम-दोनों को पाँच किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। गाँव पहुँचते-पहुँचते शाम हो गया था।
हम-दोनों जल्दी-जल्दी अपने इंतज़ाम में लग गए। दो डांसर वहाँ और भी थे।
‘‘अरी ऐ, मेकअप क्यों नहीं करती?‘‘ सन्नों ने पूछा।
‘‘हमें मेकअप नहीं आता.‘‘
‘‘अरी भाग, यह आता-आता क्या लगा रखा हैं। अगर किसी ने सुन लिया तो प्रोग्राम से हाथ धो बैठोगी। इस लाइन में काम करना हैं तो तुम्हें जनानियों की भाषा बोलनी पड़ेगी.‘‘
‘‘ठीक हैं, पहले हमारा थोबड़ा तो सही कर.‘‘
‘‘अरी भाग, पहले हम तैयार तो हो जाऊँ फिर तुम्हें टाप की रन्डी बनाऊँगी.”
सन्नो की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी थी। मन में आया कि छोड़-छाड़ के चला जाऊँ। मैं यहाँ कलाकारी करने आया हूँ न कि अपनी इज्जत बेचने। सोचा कह दूँ। पर अपनी परिस्थितियों के आगे विवश था। प्रत्युत्तर में मैं सिर्फ़ इतना ही बोल सका, ‘‘अब तो तुम्हारे जाल में आ ही गया हूँ। चाहे रन्डी बनाओ चाहे रन्डा.......यहाँ भूख के मारे बुरा हाल हैं.”
‘‘फिर तुमने मर्दाना भाषा बोला.‘‘
‘‘ठीक हैं, ठीक हैं नहीं बोलूँगा.‘‘
‘‘क्या कहा तुमने?‘‘ सन्नो ने आँखें तरेरा।
‘‘नहीं बोलूँगी.‘‘ मैंने हड़बड़ा कर कहा।
सन्नो ने अपना मेकअप करके मेरा मेकअप किया।
‘‘अल्लाह, तुझे बुरी नज़र से बचाये.‘‘ सन्नो ने मेरी बलईयाँ उतारा।
नक्कारा बजने लगा। एक-एक करके तीनों डांसर स्टेज पर चढ़े। तभी एक गाने लगी-
मेरी कुटिया में राम आज आवेंगे
आवेंगे-आवेंगे, मेरे बेरों का भोग लगावेंगे।
मैं उन्हें वन्दना करते हुए देख रहा था और मन ही मन सोचे जा रहा था, ‘कि हमें तो कुछ भी नहीं आता हैं.‘
वन्दना ख़त्म होते ही परदा खुल गया। सन्नो स्टेज पर जाकर माइक पर गाने के साथ-साथ नाचने लगी-
बलम मेरा बड़ा उत्पाती।
तोड़ी पलंगइयाँ की पाटी
पहली बार मैं ब्याहली आई
हँस-हँस बनाय गई बाती
बलम मेरा.....
दूजी बार मैं गौने से आई
हँस के लगाय गयव छाती
बलम मेरा.....
तीजी बार मैं रहने को आई
हँस-हँस जगाई सारी राती
सन्नो गाना खत्म करके स्टेज के पीछे आयी और मुझसे बोली, ‘‘देख रही हैं तुम्हें भी ऐसे ही नाचना-गाना हैं.‘‘
‘‘हम इतनी पब्लिक के सामने घुँघरू बाँध के नहीं नाच पाऊँगी.‘‘
‘‘अच्छा चल बता तुम्हें कोई गाना याद हैं?‘‘
‘‘कौन-सा?‘‘
मैंने उसके कान में धीरे से गाया।
‘‘ठीक हैं स्टेज पर चढ़ते ही तुम यह गाना शुरू कर देना हम पीछे से आ जायेगी.‘‘
‘‘अगर नहीं आओंगी तो हम स्टेज से भाग आयेगी.‘‘
‘‘अरी भागो बहिनी, पहले जाओं तो.‘‘
मैं ऊपर वाले का नाम लेकर स्टेज पर चढ़ गया। अंदर ही अंदर मैं बहुत डरा हुआ था। नक्कारा बजते ही मैं नाचने के साथ-साथ गाने लगा-
पान खाये सईयां हमारो
साँवली सूरत हैं होंठ लाल-लाल
हाय-हाय मलमल का कुर्ता.....
मैंने अभी गाया ही था कि तभी चारों तरफ़ अफरा-तफरी मच गई। मैं बवाल देखकर स्टेज के नीचे छुप गया। भीम की तरह एक लम्बा-चैड़ा आदमी आया और मुझे कँधे पर उठा कर भागा ।
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