महामाया
सुनील चतुर्वेदी
अध्याय – पंद्रह
चाय वाला भी अखिल और अनुराधा को पहचानने लगा था। दोनों को दुकान की तरफ आते देख छोटू ने जोर से कहा ‘‘दो कट चाय कम शक्कर कड़क और एक पारले।’’ दुकान वाले ने भी तेज-तेज स्टोव्ह में हवा भरना शुरू कर दी। हमेशा की तरह आज भी दोनों बैंच पर आमने सामने बैठ गये। छोटू चाय और बिस्कुट का पैकिट रखकर गुमटी की साफ-सफाई करने में व्यस्त हो गया।
अखिल ने चाय की एक लम्बी चुस्की ली फिर कहने लगा-
‘‘बाबाजी का प्रवचन सुनकर ऐसा लगता है कि आध्यात्मिक संसार की चाबी सिर्फ और सिर्फ गुरू है।’’
‘‘हाँऽऽ.. गुरू की कृपा के बिना तो आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते’’ अनुराधा ने सहमति जताई।
मुझे तो कईं बार बाबाजी की बातें विरोधाभासी लगती है। उन्होंने कल रात को मुझसे कहा था कि जो कुछ करना है तुम्हें ही करना है गुरू तो पुल मात्र है।’’ अखिल ने संशय प्रकट किया।
‘‘अखिल, हम जैसे तथाकथित बुद्धिजीवियों के साथ यही दिक्कत है, हम हर बात को बौद्धिकता के पैमाने पर कसने की कोशिश करते है। हर छोटी-बड़ी बात को लेकर सवाल-जवाब करने लगते हैं। हमारा सारा जीवन इसी बहस में गुजर जाता है। दूसरी तरफ विष्णु जी जैसे लोग हैं। कोई सवाल-जवाब नहीं। दिल ने कहा मान लिया।
‘‘विष्णु जी के किस्से में आपको क्या लगता है ? अखिल ने प्रश्न किया।
‘‘तुम ही बताओ तुम्हे क्या लगा ?
‘‘मुझे तो साइक्लाॅजिकल गेम लगता है।
‘‘हो सकता है। पर एक बात तो सच है कि हम लोगों में गुरू के प्रति समर्पण को वो लेवल नहीं है जो विष्णु जी जैसे लोगों का होता है।’’ अनुराधा ने अपना मत प्रकट किया।
‘‘समर्पण को मापने का पैमाना क्या है? हम कैसे जाने की हम ने पूर्ण समर्पण कर दिया है।
‘‘आई थिंक इट्स सिम्पल। देखो विष्णु जी ने बाबाजी के पैर धोकर श्रृद्धा से उस पानी को पिया। लेकिन हमारे मन में घिन पैदा हो रही थी। सच बताना हो रही थी कि नहीं।’’ अनुराधा ने अपने दाहिने हाथ की तर्जनी को अखिल की ओर तानते हुए कहा।
‘‘हो रही थी, फिर यह बात कितनी अमानवीय भी है कि एक व्यक्ति दूसरे के पैरों की धोवन पिये’’ अखिल ने आखिर में जोर देकर कहा ‘आई थिंक इट्स फ्यूडल माइंड सेट।’
‘‘यही....यही तो दिक्कत है। तुमने ढेर सारी बातें सोच ली। तुमने इसे फ्यूडल माइंड सेट भी करार दिया। लेकिन विष्णु जी की श्रद्धा ने उसे पैरों की धोवन नहीं सिर्फ चरणामृत माना। मुझे लगता है यही समर्पण है। यही श्रद्धा है। अनुराधा ने स्पष्ट किया।
‘‘यदि यह समर्पण है तो फ्रेंकली मुझे सोचना पड़ेगा’’ अखिल ने दो टूक कहा।
‘‘सोचना तो मुझे भी पड़ेगा। एक ओर तो हम जो सदा से रहस्य है उसे जानना चाहते हैं और ऊपर से शर्त यह कि रास्ता आरामदायक और हमारी रूचि के अनुसार होना चाहिये। अखिल, यदि कुछ अनमोल पाना है तो हमें किसी भी लेवल तक जाने को तैयार रहना चाहिये। पैर धोकर पानी पीना तो बहुत छोटी बात है’’ अनुराधा की बात में दृढ़ निश्चय था।
‘‘अनुराधा, ऐसे समर्पण का क्या मतलब है? आपकी इनडीविजुयलिटी कहाँ रह जायेगी? अखिल ने तर्क किया।
‘‘देखो अखिल, हमें पहले अपना लक्ष्य तय करना चाहिये। यदि हमारा लक्ष्य इन्डीविजुअल आईडेंटिटी है तो फिर हमारा यहाँ कोई काम नहीं है। यदि जीवन में एक दिव्य अनुभव से गुजरना है तो इस इनडीविजुयलिटी को समर्पण में बदलना ही होगा।’’ अनुराधा ने स्पष्ट किया।
‘‘देखिये अनुराधा जी यदि यही सही है तो फिर गुरू के ‘मैं’ का क्या ? जो कुछ कर सकता है वो गुरू ही कर सकता है। क्या यह गुरू का अहम नहीं है? क्या गुरू इन सारे नियमों से परे है ? अखिल ने अनुराधा से प्रश्न किये।
‘‘देखों अखिल मेरे पास तुम्हारे इन सवालों का जवाब नहीं है।’’ अनुराधा कुछ पल चुप रही फिर उसने चर्चा को विराम देने की गरज से कहा। चलो आधी-आधी चाय और पीते हैं।’’
छोटू दो चाय अनुराधा और अखिल के सामने रख गया। चाय पीकर दोनों माई की बगीची की ओर चल दिये।
माई की बगीची में काले कपड़े पहने, हाथ में मोर पंख की झालर लिये यज्ञ के प्रमुख आचार्य शास्त्री जी पेड़ के नीचे बैठे थे।उनके सामने एक तीस-पैंतीस वर्षीय महिला अपनी गोद में एक बच्चे को लिये बैठी थी। शास्त्री जी कुछ बुदबुदाते हुए मोरपंख की झालर से बच्चे को झाड़ रहे थे। इस महिला के हटते ही एक दूसरी महिला ने अपने पाँच-छह साल के बच्चे को शास्त्री जी के सामने खड़ा कर दिया। बच्चा बहुत कमजोर था। उसके हाथ पैर पतले दुबले थे। पेट बाहर की ओर निकला हुआ। आँखें अंदर धंसी हुई थी। शास्त्री जी ने एक बार जोर से अपने सिर को गोल-गोल घुमाया। दोनों हाथ जमीन पर पटके फिर कड़क आवाज में पूछने लगे।
‘‘क्यों लायी है... क्यों लायी है, इस बच्चे को मेरे पास’’
‘‘बाबा इसके अंग कुछ नहीं लगता’’ महिला ने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा।
शास्त्री जी फिर गरदन को गोल घुमाया और भारी आवाज में कहने लगे।
‘‘नजर है... नजर है... बहुत भयानक नजर है’’
‘‘किसकी नजर है बाबा’’
‘‘तेरे करीबी रिश्तेदार की।’’ शास्त्री जी अभी भी गरदन घुमा रहे थे।
‘‘जी बाबा... मेरी देवरानी बाँझ है। करमजली, मुझसे जलती है इसलिये मेरे बच्चे को खा रही है’’
‘‘पर तू चिंता मत कर। पाँच रोज आना पड़ेगा’’
‘‘आऊँगी बाबा’’
‘‘यह ठीक हो जायेगा...। खाया पिया अंग लगने लगेगा’’ कहते हुए शास्त्री जी ने ग्यारह बार बच्चे को झाड़ा। उनकी गरदन का गोल-गोल घुमना जारी था। महिला ने भेंट स्वरूप इक्कीस रूपये शास्त्री जी के चरणों में चढ़ाये और बच्चे को लेकर एक ओर हट गई। महिला के हटते ही एक प्रौढ़ ने धकेलकर एक नवयुवक को शास्त्री जी के सामने बिठा दिया।
‘‘क्या परेशानी है’’ शास्त्री जी ने गरदन के साथ-साथ अपने पूरे शरीर को घुमाते हुए पूछा-
‘‘गुमसुम रहता है बाबा... कुछ भी बोलता चालता नहीं। अजीब-अजीब हरकतें करता है। कभी खुद के कपड़े फाड़ लेता है... कभी घर के सामान उठा-उठाकर पटकने लगता हैं। प्रौढ़ ने कहा।
‘‘इस पर कोई साया है। कहे तो अभी सबके सामने कबुलवाऊँ’’ कहते हुए शास्त्री जी नवयुवक के दायें हाथ की सबसे छोटी अंगुली अपने हाथ में पकड़कर भारी और गंभीर आवाज में पूछने लगे -
‘‘सच-सच बोल तू कौन है?
नवयुवक अंगुली छुड़ाने के लिये पूरा जोर लगाते हुए जमीन पर लौटने लगा और लौटते-लौटते चिल्लाता जा रहा था।
‘‘छोड़ दे... छोड़ दे मुझे.....’’
‘‘ऐसे कैसे छोड़ दूँ। पहले कसम खा की इसे परेशान नहीं करेगा।’’
नवयुवक के मुँह से लार टपकने लगी थी। शरीर पसीना पसीना हो चुका था। चिल्ला-चिल्ला कर उसकी आवाज बैठ चुकी थी। उसने घरघराते हुए कहा-
‘‘अब नहीं करूंगा महाराज... मुझे छोड़ दो.....’’
‘‘अब आया लाइन पर। चल, आज तुझे छोड़ देता हूँ लेकिन फिर दुबारा परेशान बोतल में बंद करके नदी में फैंक दूंगा’’ कहते हुए शास्त्री जी ने नवयुवक की ऊंगली को छोड़ दिया।
नवयुवक शांत हो चुका था। शास्त्री जी का घुमना भी बंद हो गया था। उन्होंने सामान्य होते हुए प्रौढ़ से कहा -
पाँच दिन रोज मेरी गादी पर लाना यह ठीक हो जायेगा।
‘‘हओ बापजी’’ कहते हुए प्रोढ़ ने शास्त्री जी को प्रणाम किया और इक्यावन रूपये भेंट में चढ़ाये।
शास्त्री जी का हल्के-हल्के झूमना जारी था। लोग एक के बाद एक सामने आते। शास्त्री जी झाड़-फूँक कर उनका इलाज करते जाते।
भीड़ में एक दम्पत्ति भी अपनी दो बेटियों के साथ थे। बड़ी लड़की लगभग तेरह-चैदह वर्ष की और छोटी बेटी सात-आठ वर्ष की होगी। दोनों लड़कियाँ यह सब उत्सुकता से देख रही थी। छोटी बेटी ने अपने पिता से पूछा -
‘‘पापा ये साया क्या होता है’’
‘‘भूत बेटा’’ पिता ने जवाब दिया।
‘‘ये आदमी गोल-गोल क्यों घूम रहा था’’ छोटी बच्ची ने फिर प्रश्न किया।
‘‘इसके.........इसके शरीर में दूसरी आत्मा ने प्रवेश कर लिया था इसलिये ये गोल-गोल घूम रहा था’’
‘‘पर अभी तो आप कह रहे थे कि साया माने भूत होता है’’
‘‘बुरी आत्मा को ही भूत कहते हैं बेटा। आत्माएँ दो तरह की होती है अच्छी और बुरी। अच्छी आत्मा शरीर में आ जाए तो वो हमसे अच्छे काम करवाती है। बुरी आत्मा बुरे काम’’ पिता ने समझाते हुए कहा।
‘‘आत्मा, क्या होती है पापा’’ बच्ची के मन में ढेरों सवाल पैदा हो रहे थे।
‘पापा’ अपनी बेटी के इस सवाल पर अचकचा गये। बच्चियों की माँ ने अपने पति को निरुत्तर देख लड़की को झिड़का।
‘‘चुप हो जाओ सोनू बहुत बोलती है’’
‘‘हाँ मम्मा, ये एक बार शुरू हो जाती है तो फिर चुप नहीं होती’’ बड़ी बेटी ने अपनी माँ का साथ दिया।
‘‘पापा आत्मा क्या होती है’’ छोटी बेटी ने फिर पूछा।
‘‘बेटा आत्मा.....आत्मा हमारे शरीर में रहती है।’’
‘‘हमारे शरीर में कोई और भी रहता है’’ छोटी बेटी की जिज्ञासा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
‘‘हाँ...हमारी आत्मा हमारे शरीर में रहती है’’ पिता ने जवाब दिया।
‘‘पर वो हमको दिखाई क्यों नहीं देती?’’
‘‘वो दिखाई क्यों नहीं देती.......क्यों नहीं देती.......तुम्हें कैसे समझाऊँ......। हाँ.....जैसे फूल में तुमको गंध नहीं दिखायी देती है फिर भी होती है। ठीक वैसे ही हमारे शरीर में आत्मा होती है।’’ पिता ने सोच-विचारकर कहा।
‘‘किसी की भी आत्मा किसी के भी शरीर में घुस सकती है’’ इस बार बड़ी बेटी ने प्रश्न किया।
हाँ जिनकी आत्मा कमजोर होती है। उनके अंदर दूसरे की आत्मा घुस सकती है’’ पापा ने जवाब दिया।
‘‘पापा यदि मेरी आत्मा बबली दीदी के शरीर में घुस जाए तो क्या होगा? छोटी बेटी ने भोलेपन से पूछा।
‘‘तू तो मेरे शरीर में घुसना ही मत। नहीं तो मैं भी दिन भर तेरी तरह बकर-बकर करने लगूंगी’’ बड़ी बेटी ने बीच में ही कहा।
‘‘पर तू क्लास में मेरी तरह फस्र्ट भी तो आने लगेगी’’
‘‘मुझे माफ कर, मुझे नहीं आना फर्स्ट । देखो पापा इसे समझाओ न। यदि इसकी आत्मा मेरे अंदर आ गई तो मेरी सहेलियाँ मेरा कितना मजाक उड़ायेंगी’’ बड़ी बेटी गंभीर हो गई थी।
‘‘तुम अपनी आत्मा को मजबूत करो। फिर दूसरी आत्मा तुम्हारे अंदर घुस नहीं पायेगी’’ बच्ची की माँ ने जवाब दिया।
‘‘आत्मा को मजबूत कैसे बनाते हैं’’ बड़ी बेटी ने प्रश्न किया।
‘‘देखो जैसे हम शरीर को मजबूत बनाने के लिये रोज खाना खाते हैं। खाना खाने से हमारे अंदर ताकत आती है। वैसे ही भजन-पूजन, साधु-महात्माओं की सेवा करने से हमारी आत्मा में ताकत आती है’’ पिता ने समझाया।
‘‘मैं तो आज से दोनो समय एक-एक घंटा पूजा करूंगी’’ बड़ी लड़की ने कहा।
‘‘मैं भी करूंगी, फिर मुझे भूत से भी डर नहीं लगेगा’’ छोटी बेटी ने उत्साहित होते हुए कहा।
‘‘अभी चलकर बाबाजी को भी प्रणाम करना। तुम्हारे पापा ने अभी बताया था न कि साधु संतों की सेवा से भी आत्मा में ताकत आती है।’’ माँ ने दोनों बच्चियों को समझाईश दी।
‘‘चलो पापा। हम बाबाजी के पास चलें’’
‘‘चलो’’ कहते हुए पूरा परिवार मंदिर की ओर मुड़ गया।
शास्त्री जी का झूमना अभी भी जारी था।
वे बीच-बीच में कभी-कभी जोर-जोर से झूमने लगते जमीन पर हाथ पटकते। कभी किसी को झाड़ते... कभी किसी के सिर पर खड़ा नींबू काटकर दोनांे फांक उसके दोनों ओर फैंक देते। कभी कटोरी में पड़ी राई के दानोें को सामने बैठे व्यक्ति पर उड़ाकर उसका इलाज करते।
अनुराधा और अखिल एक जगह खड़े होकर यह सब देख रहे। शास्त्री जी का यह नया रूप देखकर अखिल को आश्चर्य हुआ। शास्त्री जी की निगाह अचानक अखिल और अनुराधा पर पड़ी। पहले तो वह सकपकाये फिर उन्होंने हाथ के ईशारे से दोनों को अपने पास बुलाया।
अखिल ने शास्त्री जी से सीधे प्रश्न किया -
‘‘यह कौनसी विद्या है शास्त्री जी।’’
शास्त्री जी थोड़ा सा झेंपे फिर गला साफकर कहने लगे -
‘‘सब विद्या ही विद्या है। जिसको जो लग जाये उसके लिये वही विद्या है। परेशान लोग हमारे पास आते हैं हम बाबाजी का नाम लेकर झाड़ा लगा देते है। उन लोगों को संतोष हो जाता है कि टोना-टोटका करा लिया है। अब फर्क पड़ जायेगा। हमें भी दो पैसे मिल जाते हैं। बस इतनी ही विद्या है प्रभू।’’
पर इस झाड़-फूँक से फायदा होता है? अखिल के मन में संदेह था।
‘‘हम तो अपनी तरफ से सबके फायदे के लिये ही झाड़ा लगाते हैं। कुछ को फायदा हो भी जाता है। कुछ को नहीं भी होता। जिन्हें हमारे झाड़े से फायदा नहीं होता वो कहीं और जाकर झड़वा लेते हैं। इस सबका कोई हिसाब-किताब हम नहीं रखते, कहते हुए शास्त्री जी ने अपना झोला कंधे पर टांगा और वहाँ से चल दिये।
अखिल ने अनुराधा की ओर देखा अनुराधा खामोश थी। अनुराधा ने अखिल को चलने का ईशारा किया और दोनों वहाँ से चल दिये।
क्रमश..