Paying Gest in Hindi Moral Stories by Raj Gopal S Verma books and stories PDF | पेईंग गेस्ट (कमलेश्वर स्मृति कथा सम्मान-२०१९ से सम्मानित)

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पेईंग गेस्ट (कमलेश्वर स्मृति कथा सम्मान-२०१९ से सम्मानित)

“आप हॉस्टल में क्यों ट्राई नहीं करती, पेइंग गेस्ट के बजाय!”.


नई दिल्ली की पॉश कॉलोनी सफदरजंग एन्क्लेव के बी-ब्लॉक की कोठी की उस लगभग सत्तर साल की मालकिन ने जब ऊपर से नीचे तक देखते हुए इशिता को ‘इंटरोग’ किया, तो उसने वही जवाब दिया, जो न जाने कितनों को अब तक दिया था. पर वह यह भी जानती थी कि उसके प्रति उपजे संदेहों को दूर करना उस के वश में नहीं है. एक तो उसकी अपनी कश्मीरी नैसर्गिक खूबसूरती, जो उसके चेहरे पर भरपूर उतर आई थी, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बीच भी, और उस पर दिल दहलाने वाले आतंकी कारनामों से कश्मीर का जुड़ा होना! सिर्फ ये कारण थे, उसे किसी घर मे अस्थायी पनाह न मिलने के.


दो-चार और बातें करने और उसके पिता की शहादत की जानकारी के बाद तो वह महिला बेचैन होकर उठ खड़ी हुई. यानि, अब आप जा सकती हैं. यह स्वाभाविक भी था. न जाने इस आतंकवाद के हाथ कब उन तक भी आ पहुंचें. उनका डरना भी बनता था.


पर इशिता नहीं समझती थी कि अब किस और तरीके से समझाया जाए कि जे एन यू का सेशन कब का आरम्भ हो चुका था, और स्कूल ऑफ फिजिकल साइंसेस के केमिस्ट्री विभाग में कश्मीरी माइग्रेंट कोटे से उसका एडमिशन इतनी देर से हुआ कि हॉस्टल में कोई सीट ही नहीं बची. फिर इशिता का आकर्षक व्यक्तित्व, औसत से ऊंचा कद, कश्मीरी खूबसूरती लिए सुर्ख चेहरा, सुंदर नयन-नक्श, घने लम्बे स्ट्रेट बाल जो थोड़ा भूरापन लिए हुए थे, वह कुछ लोगों के लिए शायद संशय और ईर्ष्या का कारण अधिक बनते थे, प्रशंसा का कम.


अब तक चार जगह से ‘न’ सुनने के बाद भी इशिता ने हिम्मत नहीं हारी थी. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के आज के एडिशन के क्लासिफाइड एड्स के कॉलम में अभी पेइंग गेस्ट की कुछ जगहें शेष थी, जिन पर भाग्य आजमाया जा सकता था.


वह कश्मीर के उस इलाके से आई थी जहां आतंकवाद का बोलबाला था. उसके पिता आतंक की राह में शहीद हो गये थे. आतंकवाद से सहानुभूति रखने वाले लोग उनकी मौत को गद्दारों को दी जाने वाली सजा कहते थे. यह सिर्फ चंद लोग जानते थे कि आतंकवादियों को हथियारों की फंडिंग के लिए धनराशि देने से साफ इन्कार उनकी हत्या का कारण बना था. हां, यही गद्दारी थी उनकी.


इशिता कश्मीर के पुलवामा जिले के अवंतिका इलाके में एक खुशहाल परिवार में रहती थी. पुश्तैनी घर था उनका, और कारोबार भी पीढ़ियों-दर- पीढ़ियों चला आ रहा था. ड्राई फ्रूट्स का. कहते हैं कि जब कश्मीर में बर्फ गिरती थी तो उसके पड़दादा दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के चुनींदा शहरों में फेरी लगा कर यह सूखे मेवे बेचा करते. इसी से उन्होंने जो पैसा और इज्जत कमाई, उससे उन्होंने न केवल अपनी जमीन के क्षेत्रफल में बढ़ोत्तरी कर ली थी, बल्कि अपना मकान भी आलीशान हवेली में चमका दिया था. बस यही एक वजह थी लोगों के उनसे जलने की. और आतंकियों का एक वर्ग उन्हें धन उगाही का “सॉफ्ट टारगेट” मानता था. वैसे देखी जाए तो कम नहीं थी यह वजह! कल तक उन्हीं के बीच का एक आदमी फेरी लगाते-लगाते जमींदार की तरह जीवन जीने लगे, तो भला किसे अच्छा लगेगा.


लेकिन तेजेन्द्र सिंह अपने इलाके के मुस्लिम परिवारों के साथ भी ऐसे ही घुल-मिल कर रहते, जैसे हिंदुओं से. खाने-पीने और त्यौहारों का कोई भेद नहीं था. ईद पर जितनी शिद्दत से तेजेन्द्र अपने परिवार के साथ शरीक होते, उतने ही प्रेम से होली-दीवाली पर सबको आमंत्रित करते. जश्न के दौर चलते, और सब भूल जाते अपने काम-धंधे, अपनी-अपनी जातियां, धर्म और व्यक्तिगत नाराजगियां.


लेकिन समय स्थिर नहीं रहता है. फिर शुरू हुआ आतंकवाद का वो दौर! न जाने क्यों उभर आया यह नासूर. उसके पिता इसके लिए ओछी राजनीति को दोषी मानते थे, जो इसका मुकम्मिल इलाज नहीं करना चाहती थी. वह उन दिनों इस आबोहवा में जन्म भी नहीं ले पाई थी कि बताते हैं कि पड़ौसी मुल्क के एक प्रधानमंत्री ने भाषण में कहा था कि, वो भारत को हज़ारों ऐसे जख्म देना चाहते हैं, जहां से लगातार खून रिसता रहे, जब तक कि यह देश नेस्तनाबूद न हो जाए! हज़ारों तो नहीं, पर एक ही नासूर ने इस देश की अखंडता पर एक पैबंद जरूर लगा दिया था.


विज्ञान की विद्यार्थी होने के बावजूद उसने इतिहास पढा था, मन से. वह राजनीतिशास्त्र में भी रुचि रखती थी और खबरों की दुनिया में भी. वह जानती थी कि भारत ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिससे पड़ौसी मुल्क को पूरे कश्मीर को दहशत के अंधेरों में धकेलने की इजाजत दे दी जाए. अभी कुछ दशकों ही की तो बात है, वो सब एक ही देश के वाशिंदे तो हुआ करते थे.


इस सब गमगीन हालात के बावजूद यह भी सही था कि हर रात की एक सुबह होती है, खूबसूरत-सी, सूरज की रुपहली किरणों के संग जब वो आपके आस-पास अपना आभामण्डल बिखेर देती है, बिना किसी लालच के. सिर्फ इसलिए कि यही उसका प्रारब्ध है, सुकून है, और कुछ भी नहीं. तो, आई आई टी कैंपस में उसे अपने मनमुताफिक होस्ट मिल गए थे, और पढ़ी-लिखी फैमिली का घर-सा साथ भी. खुशमिजाज माहौल मिला, न जाने कितने दिनों बाद. पर, फाइनल करते समय किराए की बात टाल दी थी उन लोगों ने. हौज़ खास का यह कैंपस उसकी यूनिवर्सिटी से ज्यादा दूर भी नहीं था. पिछले गेट से तो पांच सौ मीटर की दूरी पार कर कटवारिया सराय, और फिर जे एन यू की सुरम्य पहाड़ियां. इतना नजदीक तो न सफदरजंग एन्क्लेव होता और न ही आर के पुरम. फिर थोड़ी देर की मुलाकात में ही मिस्टर और मिसेज बनर्जी की सहृदयता, उनका अपनत्व और हमउम्र बेटी अनु का साथ! सब कुछ स्वप्निल-सा था इशिता के लिए. खास तौर से कई जगहों की भाग दौड़ और निराशा के बाद. किराए की जब भी बात होती बनर्जी सर कहते,


“बच्चों से भी कोई पैसा लेता है क्या? तुम क्या अनु से अलग हो हम लोगों के लिए!”


जीवन के तेईस बसंत देख चुकी इशिता दुनियादारी कुछ अधिक ही अच्छे ढंग से समझती थी. इसीलिए बनर्जी सर के लिए मन में सम्मान के भाव अधिक तो हुए ही, किसी भी उन लैंडलॉर्ड या लेडी की बातों को मन से नहीं लगाया जिन्होंने उसे अपने घर गेस्ट रखना स्वीकार नहीं किया. और क्यों लगाए वो. बातों का जवाब बातों से दिया जाना कोई हल नहीं, ऐसा उसका मानना था.

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नितांत अकेली होती तो याद करती वो अपने मृत पिता को. तेजेन्द्र सिंह इशिता के पिता ही नहीं थे. वे उसके बेहतरीन मित्र भी थे. बीते दिनों में उन्होंने शहर में ही ड्राई फ्रूट्स की होलसेल की दुकान खोल ली थी. वो चल निकली थी, क्योंकि उनका सामान बेहतर और डील खरी होती थी. दिन भर की थकान से चूर होकर जब वे घर लौटते तो इशिता के हाथ की खास चाय… नहीं कहवे को पीकर फिर से तरोताजा हो उठते. और इशिता भी न जाने क्या-क्या फ्लेवर और तरीके ट्राई करती, उन्हें खुश रखने के लिए. मां थोड़ा भी खुश होती तो बोलती कि,


“तू न होती, या तुझमें जान न बसी होती इनकी, तो ये मुझे छोड़कर कहीं और निकल जाते. बिजनेस को निभाते या मेरे दर्द को!”


और इस बात पर हर बार खिलखिलाकर हंस पड़ते तेजेन्द्र. एक दिन उन्होंने गम्भीर बन कर पूछा भी,


“क्या तुम्हें लगता कि सच में ऐसा हो सकता था मधु?”


और तब माँ सकपका जाती. बोलती,


“मैं क्या जानूं, मर्द लोगों की जात का क्या भरोसा..”, पर, पल्लू का कोना मुंह में दबाए उनकी निश्छल हंसी दिख ही जाती.


वह खौफनाक रात याद करके इशिता आज भी सिहर उठती है. जब उसके पिता नहीं, उनका गोलियों से छलनी शरीर दुकान से घर पहुंचा था. जो आदमी न मजहब में था, न जात-पांत के झमेलों में, अपनी स्थिति के अनुसार सबकी मदद करना, और सम्मान करना तेजेन्द्र जी के स्वभाव में रच-बस गए थे. ऐसे में इस घटना को क्या कहा जाता.


यह वह समय था, जब इशिता एम एस सी के अपने एग्जाम दे चुकी थी. वह पी एचडी करने के लिए वहां से कहीं बेहतर जगह बाहर जाना चाहती थी. जहां उसे अवसर भी मिलें और एक विस्तृत दुनिया भी. यूँ तो वह बहुत खूबसूरत जगह रहती थी, पर बचपन से ही उसको सहम कर रहना सिखाया गया था. कहें तो घुंटी में ही. वह स्कूल-कॉलेज के अलावा कहीं आती-जाती भी नहीं थी. सिर्फ खिड़की के पास बैठकर चिनार के वृक्षों, और रंग बदलते… पल्लवित होते उसके फूलों को निहार सकती थी, स्वर्णिम चादर बिछाते पत्तों से रोमांचित हो सकती थी, पर खुला विचरण असम्भव था. पर स्वप्न तो देख ही सकती थी. आतंकवाद के इस घिनौने चेहरे ने उसके सपने भी छीन लिए थे.


उस समय बहुत हलचल हुई. दबाव था उन लोगों को पकड़ कर सजा देने का, जिन्होंने यह कायराना हमला कर तेजेन्द्र की जान ली थी. उच्च स्तरीय पुलिस जांच में पता चल गया था कि यह एक प्रतिबंधित आतंकी संगठन का काम था. जो इंसान हमेशा भेदभाव से दूर रहा, उसे जेहादी लोग मार डालें, बिना किसी कुसूर के, यह टीस आज तक इशिता को खा रही है. तब, न जाने कितनी रातें उसकी खौफनाक सायों के डर में गुजरी, और किस तरह वह सम्भल पाई, बस मानो ईश्वरीय चमत्कार से उसका पुनर्जन्म हुआ हो!


माँ दुनियादारी समझती थी. छोटे भाई को सहारा बना कर उसने धीरे-धीरे दुकान पर बैठना शुरू किया. इशिता के हाथ से कई अवसर निकल चुके थे पर अंतिम मौके पर उसने खुद को तैयार कर ही लिया. अपने सपनों की उड़ान में रंग भरने के लिए उसने नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के इस अवसर को मुठ्ठी में बांध लिया था. अंततः माँ का आशीर्वाद लेकर वह दिल्ली के लिए निकल पड़ी थी. एक परिचित कश्मीरी परिवार के साथ जैसे-तैसे कुछ दिन गुजारे उसने. हर सुबह यूनिवर्सिटी जाती, और फ्री होकर अपने रहने की जगह की व्यवस्था ढूंढने निकल पड़ती इशिता.


कोई सवेरा ऐसा नहीं होता, जब इशिता अपने मरहूम पिता को याद न करती हो. और कोई रात ऐसी न हुई जब-जब उसने पिता से बातें न की हों. वह घड़ियां स्वप्न कम, जीवंतता ज्यादा महसूस होती थी. उसे रास्ता जो दिखाते थे, हिम्मत मिलती थी!

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पीएच डी का दबाव और अशांति तथा थोड़े सुकून के बीच झूलते दिन पहाड़ से दिखते थे, सोच कर सिहर उठती कभी-कभी कि न जाने कैसे कटेंगे ये दिन-रात. पर, समय सब घाव भर देता है. पेइंग गेस्ट के रूप में ऐसा परिवार मिला कि लगा ही नहीं उसके अपने नहीं हैं वे लोग. शुरू-शुरू में माँ को जब भी फोन करती तो उसकी रुलाई फूट पड़ती. पर वो संतुष्ट भी थी. कहती कि ईश्वर ने तेरे पिता के रूप में दिए हैं ये होस्ट.


दो बार इशिता की माँ भी दिल्ली आकर बेटी के पास रुकी थी. वह खुद ईश्वर को धन्यवाद अदा करती कि एक ओर जो अन्याय हुआ उनके परिवार के साथ, तो दूसरी ओर पिता के साये के रूप में ऐसा इंसान और परिवार मिला जो उन सबके लिए एक फरिश्ते से कम नहीं.


कभी जब मधु आंटी बीमार होती तो खुद बनर्जी जिद कर अंकल टोस्ट में बटर लगाते, नाश्ता कराते और दार्शनिक के रूप में बोलते,


“बच्चे लोगों को एनर्जी की जरूरत होती है, सो ये बटर लगाना जरूरी होता.!”


उसको खुद तो कभी काम करने ही नहीं देते. उनको आइडिया होता कि इशिता को आज लौटने में देर हो जायेगी तो ढेरों ड्राई फ्रूट्स-- पिस्ता, बादाम की गिरियां, काजू और किशमिश उसके बैग के किनारे वाली पॉकेट में ठूंस देते.


जब कभी उसे बिन बताए देर तक यूनिवर्सिटी में रुकना पड़ता, या लौटने में देर हो जाती तो लॉन में ही चिंतातुर बनर्जी जी को टहलते हुए पाती. हर रोज वह अनु के सी बी एस सी के होमवर्क और पढ़ाई की गुत्थियों के संकट मोचक के रूप में साथ होती. कश्मीरी डिशेज और कहवा बनाने की परीक्षाओं में भी डिस्टिंक्शन से पास होती. माँ और भाई से बात कर पिता के मामले की प्रगति की जानकारी लेना और उनकी भी हिम्मत बंधाना नहीं भूलती.


एक शाम जब वह लौटी तो ऐसा कुछ पता चला कि आई आई टी प्रशासन से प्रोफेसर बनर्जी के ऊपर नियमों के उल्लंघन का नोटिस सर्व किया गया था. उनके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही भी अलग से की जा रही थी, क्योंकि उन्होंने एक पेइंग गेस्ट को घर पर रख कर अपराध तो किया ही, वह लड़की भी कश्मीरी थी, जिसके परिवार के आतंकवादियों से निकट सम्बन्ध बताए गए थे. आनन-फानन में ही उन्हें तीन बैडरूम के इस सुंदर बंगले से बेदखली का नोटिस भी मिल गया था.


प्रोफेसर बनर्जी ने बहुत प्रयास किये. प्रशासन को समझाया कि इशिता उनके लिए बेटी की तरह है, और यह भी कि उसके पिता के आतंकवादियों से कोई रिश्ते नहीं रहे, बल्कि उन्होंने शहादत दी है. पर कोई फर्क नहीं पड़ा. वैसे भी आई आई टी के स्टाफ क्वार्टर के आवंटन की क्यू काफी लंबी है. जाहिर तौर पर उनकी शिकायत की गई थी, और लोगों ने यह सुनिश्चित भी किया कि उनके साथ कोई रियायत न बरती जाए.


अंततः धूर्तता की विजय हुई. प्रोफेसर बनर्जी को बेदखल कर दिया गया. इस कार्यवाही ने उन्हें हिला दिया था. उधर इशिता भी परिवार के साथ मानसिक रूप से टूट चुकी थी. उसने बनर्जी सर के नए किराए के मकान में शिफ्ट होने से मना कर दिया. कैंपस से दूर होने का तो बहाना भर था. पर वह उस परिवार के साथ हुए घटनाक्रम में स्वयं को दोषी मानती रही. बनर्जी परिवार के समझाने के बाद भी अवसर मिलते ही वह फूट-फूट कर रो पड़ती थी. उसके पिता के बाद जो सहारा उसे मिला था, वह उसे खोना नहीं चाहती थी. … और दुनिया उन्हें साथ देखना नहीं चाहती थी. नियमों के जाल ने एक बेहतर रिश्ते को ग्रहण लगा दिया था.


हालांकि इशिता का इस घटना क्रम में कोई दोष नहीं था. बनर्जी परिवार का स्नेह भी इशिता से यथावत था. वे उसे नए मकान में साथ ही रखना चाहते थे, पर इशिता अंदर से बेहद तनाव में थी. वह अपराध बोध के साये में जकड़ी थी, न जाने क्यों!


केमिस्ट्री में मास्टर्स किया था इशिता ने. पीएच डी कर रही थी. हमेशा टॉप स्लॉट में रही थी वो एकेडमिक्स में. पर, इस घटना ने उसे दोराहे पर ला खड़ा किया था. जब उसने सोचा कि कुछ अच्छा होगा, तभी कुछ न कुछ चोट मिली थी उसे.


उसका मन बनर्जी परिवार के साथ था, पर वो कहीं न कहीं इस घटना के लिए स्वयं को ही दोषी मानती रही. इस द्वंद्व के चलते, वह न ठीक से खा पा रही थी, न सो पाई.


क्यों होते हैं हम इतने जटिल… क्यों नहीं सरल रह सकते. कौन सा ऐसा अपराध था बनर्जी सर का, जो उनको सजा दी गई? जब भी सोचती चीखने लगती, और थोड़ी देर बाद सिसकियों के मध्य रुदन से कमरे की नीरवता भंग होती.


इशिता की खुद से यह कशमकश दो दिन तक लगातार चली. वह यूनिवर्सिटी नहीं गई, मधु आंटी की कॉल भी पिक नहीं की. आखिरकार सवेरे सात बजे बनर्जी अंकल उसका पता लेने नए पेइंग गेस्ट के घर पहुंचे. पर नॉक करने पर भी कोई जवाब नहीं मिल पाया. आखिरकार लैंडलॉर्ड और पुलिस की मौजूदगी में दरवाजा तोड़ा गया. आज के अखबारों में एक कोने में इशिता का नाम दर्ज हुआ था. उसने मुनीरका के डी डी ए फ्लैट में अपने उस नए मकान मालिक के घर पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली थी, जहां उसने आनन-फानन में शिफ्ट किया था.


चंद लोगों के अलावा कोई नहीं जानता था कि इशिता ने आत्महत्या क्यों की. जिंदगियां यूँ ही चलती जाती हैं. वही लोग, या उन जैसे लोग किसी और अच्छी-भली जिंदगी को बर्बाद करने की जोड़-तोड़ में जुट गए थे. जगह अलग हो सकती थी. आई आई टी का परिसर, मुनीरका, सफदरजंग एन्क्लेव या पुलमावा का कोई गांव, क्या फर्क पड़ता है!


जो बेटी किसी तरह अपने पिता की हत्या के सदमे से उबरने में कामयाब हो गई थी, वह अपने पिता-तुल्य होस्ट के स्नेह से जुड़ी स्मृतियों और परिवार के प्रेम से दूर होकर कुछ समय बाद ही जीवन का मोह त्याग गई थी. केमिस्ट्री में शोध कर रही थी पर शायद अपने मन की बदलती रसायनिकी से अनभिज्ञ रह गई थी!

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सम्पर्क :


राजगोपाल सिंह वर्मा

फ्लैट नंबर-103, रीगेल रेजीडेंसी,

कामायनी अस्पताल के पीछे,

आगरा एन्क्लेव, सिकंदरा,आगरा-282007


फोन : 9897741150,

ईमेल: rgsverma.home@gmail.com

परिचय:

पत्रकारिता तथा इतिहास में स्नातकोत्तर शिक्षा. केंद्र एवम उत्तर प्रदेश सरकार में विभिन्न मंत्रालयों में प्रकाशन, प्रचार और जनसंपर्क के क्षेत्र में जिम्मेदार पदों पर कार्य करने का अनुभव.

पांच वर्ष तक प्रदेश सरकार की साहित्यिक पत्रिका “उत्तर प्रदेश“ का स्वतंत्र सम्पादन. इससे पूर्व उद्योग मंत्रालय तथा स्वास्थ्य मंत्रालय, भारत सरकार में भी पत्रिकाओं और अन्य प्रकाशनों के सम्पादन का अनुभव.

वर्तमान में आगरा, उत्तर प्रदेश में निवासरत. विभिन्न राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्रिकाओं, आकाशवाणी और डिजिटल मीडिया में हिंदी और अंग्रेजी भाषा में लेखन, प्रकाशन तथा सम्पादन का वृहद अनुभव. कविता, कहानी, यात्रा वृत्तांत तथा ऐतिहासिक व अन्य विविध विषयों पर लेखन के साथ-साथ फोटोग्राफी में भी रुचि.

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