vakt kee vyaakhyaa in Hindi Short Stories by कल्पना मनोरमा books and stories PDF | वक्त की व्याख्या

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वक्त की व्याख्या

वक्त की व्याख्या


"गंगू तुम गरीबी में भी अपनी ईमानदारी, तराजू पर रखता है और ये बहुत बड़ी बात है आज के समय में ।" सोसायटी में

रहने वाले हेगड़े साहब ने जब ये कहा, तो गंगू बोल पड़ा-"बाबू साहिब थोड़ा कमाओ या जियादा सब कुछ यहीं छोड़के जाने पड़ता है ऊपर । उसने हाथ आसमान की ओर ताना और फिर अपनी छाती पर टिका लिया ।

"साहिब देखो न ! इन दिनों कितनों की दुकानें बखत ने जबरिया बन्द करवा दीं हैं ।" कहते हुए गंगू अपने बीते वक्त की बातें चाव से बताने लगा । उसने बताया कि जब वो परिवार के साथ अपना गाँव छोड़ शहर आया था तब शहर की महँगाई ने उसे उल्टे पाँव खदेड़ दिया था। दो दिन रेलवे स्टेशन पर बिताने के बाद वह जमुना मैया के किनारे पर बसी, बस्ती में आया था यदि उस दिन बस्ती ने आसरा न दिया होता तो आज गंगू कहाँ होता, पता नहीं मालिक । उसने और दुखियाते हुए कहा कि अपने दुःख में डूबे हुए पहले उसने किनारे पर झोपड़ी भर जगह बनाई और जब मन बिल्कुल लग गया तो पाँच से दस क्यारियाँ भी बना लीं और सब्जी उगाने लगा था ।उसकी लगन-मेहनत ने जल्द ही एक ठेली की जुगाड़ करवा दी थी । पहियों वाली ठेली का मनोबल देख गंगू शहर तक सब्जी लाने लगा था लेकिन दिन-पर-दिन जमुना जल का बदलता रँग-रूप, सूरज के कड़क तेवर और शहर की रफ़्तार ने गंगू की रफ़्तार को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया था। हँसमुख स्वभाव वाला गंगू अचानक कहो या धीरे-धीरे मौन फ़ेरी लगाने के लिए। मजबूर हो गया था। गंगू अपने अतीत में गहरे उतरते चला जा रहा था ये देख सोसायटी के नए मेम्बर मेहरोत्रा साहब ऊँची आवाज़ में बोल पड़े।

"अरे गंगू! अब क्या हाल है? तुम्हारी जमुना मैया के ?"

"अरे बाबू साहिब ! पूछो मत! उनका जल जो काला हो गया था अब शीशे-सा चमक उठा है ।किनारे पर बैठकर पानी में पाँव लटका भर लो कि पूरी थकान छू मन्तर हो जाती है । साहिब , बुरा तो लगता है कि आप सब साहिब लोग घरों में बंद हैं लेकिन हमारी जमुना मैया बड़ी खुशहाल हैं ।" एक साँस में कहते हुए गंगू ने कानों तक खींसे निपोर दीं।

"ऐसा भी क्या ?"

"हाँ बाबू साहिब !बिल्कुल ऐसा ही हुआ है ।

कहते हुए उसका पसीने से भरा काला चेहरा चमक उठा था।अपना मुँह पोंछते हुए उसने बताया जब से शहर घरों में सिमट आया है और सड़कों ने रुकना-सुस्ताना सीख लिया है तब से जमुना मैया किल्लोलें करने लगी हैं । हवा उसकी झोपड़ी में अकूत खुशबू भर जाती है। किनारे पर खड़े पेड़-पौधे झुक -झुक जमुना जल में अपना मुख देख कर इतराते लगे हैं । साँझ को जब सूरज जमुना जी में घुसकर अपना मुँह धोने आता है तब छोटी-बड़ी सभी लहरें सुनहरी हो उठती हैं। रात को आसमान पर निकला दूधिया चाँद थोड़ा नीचे होकर क्यारियों में लगी सब्जी में ढेरों मिठास छोड़ जाता है। पंछी संध्या गीत गा-गाकर जमुना जी किनारों को गुलज़ार कर रहे हैं । गंगू ने जोर डालते हुए फिर कहा

"साहिब कुछ भी कहो.. कितना भी संकट आआदमजात पर घिर आया हो लेकिन बखत ने कुछ तो जादू किया है।" कहते-कहते अचानक गंगू फफक पड़ा।

ठेली के पास खड़े महरोत्रा साहब घबरा गए ।"गंगू क्या हुआ रे ? तू हँसते-हँसते रोया क्यों?"

"साहिब ,ये शहर बहुत निर्दयी है। इसने मेरे कई भाई-बहनों को बेघर कर दिया है। बेचारे भूखे-प्यासे भटक-भटक कर कब अपने गाँव लगेंगे जाकर ।"

गंगू आँसू पोंछता और ठेली धकेलता हुआ चला गया था लेकिन महरोत्रा साहब मज़दूरों की पीर में पिघले जा रहे थे लेकिन उन्हें कुछ उपाय न सूझ रहा था ।


कल्पना मनोरमा

13.6.2020