लगता था मुझ सा कोई दुखी नहीं
आज देखा जो अंदर उसके झाँककर
तो उस सा दुखी कोई है ही नहीं...
कोई मिला उसे भी उस घड़ी
दुनिया थी एक तरफ और वो थी अकेली
मोड़ था कुछ अजीब तब
और ज़िन्दगी बनी थी पहेली।
उस समय वो निकला भीड़ से
कि उस सा हमदर्द कोई है ही नहीं...
वैसे तो सिर्फ परिचय था
पर आया वो भगवान बनकर
अपनों से भी जब हार चुकी थी
तब आया वो इंसान बन कर
वो अजनवी जो हाथ थाम लिया तो
लगा उस सा अपना कोई है ही नहीं...
उसकी ज़िन्दगी में आया वो कुछ ऐसे
पतझड़ के बाद आई हो बहार जैसे
सोची न थी कि मिलूँगी कभी मैं किसी से
यूँ अचानक मिला वो खुशी की बौछार जैसे
मिलते ही उस पर निसार हो गई
कि उस सा जना कोई है ही नहीं...
वो दोस्त बना फिर यार बना
धीरे धीरे दुनिया संसार बना
खो दी खुद की सुध बुध भी
ना जाने कब वो प्यार बना
जो छुआ उसने तो सहम गई
कि उस जैसी छुअन कहीं है ही नहीं...
वो छूता रहा वो पिघलती रही
संग उसके गहराई में उतरती रही
सम्भलना जो चाही तो उसने रोक दिया
एक आग थी जिसमें वो जलती रही
जलकर के भी वो खुशी मिली
कि उस खुशी की सीमा कोई है ही नहीं...
जिसे प्यार के रूप में देखती रही
वो प्यार नहीं एक छलावा था
एक आवश्यकता थी जो वो पूरी किया
जिसे प्यार समझा वो बस दिखावा था
आवश्यकता थी तुम मेरा प्यार नहीं
वो सुनकर भी चुप पड़ी रही
कि उस सा हार्ड कोई है ही नहीं...
ना रोई कभी ना बात किया
वो सबसे अच्छा था यही कह कर याद किया
वो खेला उसके रूह जिस्म से
फिर भी उसने उसे माफ किया
जब भी सुनी तारीफ सुनी
कि उस सा इंसान कोई है ही नहीं...
वो घुटती रही अपने अंदर
दर्द का लिए गहरा समंदर
दिखाती जितनी भी हार्ड वो खुद को
पर दबाए है कितना बड़ा बवंडर
मुस्कराने को ऐसे मुस्कराती है
कि उस सा खुश कोई है ही नहीं...
पर बातों की गहराई में
एक दर्द मुझे भी दिखता है
कहना नहीं कुछ उसके बारे में
पर बातों में सिर्फ वही रहता है
शब्दों पर नियंत्रण लगाके सोचती
कि उस सा समझदार कोई है ही नहीं...
देखी हैं मैंने वो छलकती आँखें
दर्द हैं जिसमें उसी के नाम का
बातें भी जो सुनती हूँ उसमें
फर्क नहीं उसके किसी काम का
बहाने भी ऐसे बनाती है
कि उस सा दिमागदार कोई है ही नहीं...
वो जो छोड़ दिया कुछ ऐसे
और बातें भी करीं दिल तोड़ने वाली
एक बार न पूछा इसकी मर्जी
और वजा भी दी बिखरने वाली
आवश्यकता जरूरत नीड बता दिया
कि इसके पास तो दिल है ही नहीं...
शायद लड़कों की यही फितरत होती है
वो जुड़ते हैं बस नीड पूरी करने को
कोई पत्थर नहीं यहाँ दिल भी है
जो धड़कता है सिर्फ प्यार करने को
वो कहती है कोई फर्क नहीं
जो कदर नहीं तो नहीं सही
सहती है सब कुछ अकेले छिपाकर
कि उस सा बहादुर कोई है ही नहीं...
कोई और होती तो शिकायत करती
क्यूँ तूने इंसान नहीं समझा
समझा अपनी आवश्यकता का साधन
और क्यूँ मेरा प्यार नहीं समझा
पर तू लड़की क्या अजीब चुप है
कि उस सा गूँगा कोई है ही नहीं...
जब भी मैंने उससे बात किया
बहाना देकर हमेशा टाल दिया
कहती कोई फर्क नहीं उसके जाने से
सिर्फ मैंने ही शायद उससे प्यार किया
जाने वाले को रोकते नहीं
और रोकने से कोई रुका है क्या
मान गई मैं भी अब तो
कि उस सा समझदार कोई है ही नहीं....।