सन्दर्भ: कन्या भ्रूण हत्याओं के विरुद्ध जन जागृति के लिए रचनाधर्मियों ने विभिन्न प्रयोग किए. गर्भस्थ (अजन्मी ) बिटिया की, माँ से जन्म देने और गर्भपात न कराने की मार्मिक प्रार्थना उन्हीं प्रयोगों से जन्मी जिसने पहले जन मानस को झकझोरा और फिर बहुत से कवियों, लेखकों, चित्रकारों, कथाकर्रों, नाटककारों, फिल्म जगत के लोगों को यश और धन दिलाने के साथ साथ, “एक्टिविस्ट” होने का तमगा भी दिलाया. कुछ ही समय में अजन्मी बेटी और माँ का ये संवाद इतना लोकप्रिय हो गया कि स्त्री सशक्तीकरण के किसी भी या लगभग प्रत्येक विषय में प्रयोग होने लगा. धीरे धीरे इस संवाद पर आधुनिक नारीवादियों, वामपंथी तथा वामपंथ से प्रभावित रचनाधर्मियों जो भारतीय इतिहास के प्रत्येक नारी पात्र को अबला, शोषित, पीड़ित आदि सिद्ध करने के प्रयास में रहते हैं उनका एकाधिकार सा हो गया.
ऐसे छोटे बड़े तमाम रचनाधर्मी, अब रचनाओं में माँ बनकर अजन्मी बेटी को कुछ स्पष्ट निर्देश देने लगे . उदाहरण स्वरुप, “मत बनना सीता किसी राम की, देती रहोगी अग्नि परीक्षा फिर भी समा जाओगी धरती में”, “मत बनना किसी कृष्ण की राधा, जीवन भर पछताओगी”, “द्रौपदी खुद ही अस्त्र उठाना, मत कान्हा को आवाज़ लगाना”, “हर पुरुष यहाँ दु:शासन है,कृष्ण कोरी कल्पना है” “तुम पुरुष से कमतर नहीं,पति कोई भगवान नहीं”, “तुम किसी विष्णु की लक्ष्मी नहीं, न उसके चरणों की दासी हो”, “जब बनना तुम चंडी बनना”. वेद, पौराणिक आख्यान, इतिहास कहीं से कुछ भी उठा लिया और अजन्मी बेटी से संवाद के माध्यम से भारतीय इतिहास और संस्कृति के प्रति मन की घृणा को रचनाधर्मिता कह कर प्रस्तुत कर दिया.
और इस प्रकार पिछले कई दशकों में जन्मी बेटियां,अजन्मी बेटियों को दिए गए ये निर्देश सुनती रहीं और अपने आप से ही घृणा करते हुए बढ़ती रहीं. आज एक अजन्मी बेटी ऐसे माँ बने तमाम रचनाधर्मियों को उत्तर दे रही है. पढ़ कर देखिये संभवतः आप भी इससे सहमत हों.
गर्भस्थ बेटी का उत्तर : माँ, तुम कितनी अच्छी हो, मुझे कितना प्यार करती हो. अभी मैं जन्मी भी नहीं और तुम्हें मेरी इतनी चिंता है. तुम हर दिन मुझे नए नए सन्देश देती हो कि जन्म लेने के पश्चात मुझे क्या करना चाहिए, मुझे कैसे रहना चाहिए, मुझे किसके जैसा नहीं होना चाहिए? मुझे अच्छा लगता है लेकिन मैं भी आज तुमसे अपने कुछ रहस्य साझा करना चाहती हूँ और कुछ कहना भी चाहती हूँ.
जानती हो माँ, मैं भारत की धरती पर पहली बार जन्म नहीं ले रही. न जाने कितने सहस्त्र जन्म ले चुकी हूँ. मैंने ब्रह्मवादिनी लोपामुद्रा, गार्गी और अपाला जैसी स्त्रियों को देखा है. सीता और सुलोचना को देखा है, राधा और याज्ञसैनी को भी देखा है, मैंने सारे सामाजिक बंधन तोड़ने वाली मीरा को भी देखा है और शिवाजी का निर्माण करने वाली माँ जीजाबाई को भी. मैंने शस्त्र संपन्न तेजस्वी दुर्गा की आराधना भी की है और राष्ट्र की रक्षा के लिए खड्ग उठाने वाली रानी दुर्गावती को भी देखा है. मणिकर्णिका तो जैसे बस कल की बात हो. ये तो केवल कुछ नाम हैं माँ जो संभवतः तुमने सुने हैं वास्तव में तो इनकी सूची बनाना भी असंभव सा है. जानती हो, माँ इनमें से कोई भी बेटी न शोषित थी न अबला वरन सब की सब विशिष्ट शक्तियों और योग्यताओं का भण्डार थीं.
माँ तुम सदा मुझे ये क्यों कहती हो कि मैं अपनी इन पूर्वज स्त्रियों की तरह न बनूं ? तुम्हें क्यूँ लगता है कि ये सब पीड़ित और सतायी गयी स्त्रियाँ हैं? ये तुम्हारा अज्ञानजनित पूर्वाग्रह भी तो हो सकता है न माँ ? और ये बताओ माँ क्या ऐसा करके तुम मुझे अपने पूर्वाग्रहों का दास नहीं बना रही हो? मुझे जन्म लेने दो. मुझे शिक्षा लेने दो. मुझे तर्क करने दो. मुझे अपने निर्णय स्वयं लेने दो. ये मैं तय करुँगी माँ कि मैं किसके जैसी बनना चाहती हूँ. मुझे जन्म से पहले ही अपने पूर्वाग्रहों की बेड़ियों में मत जकड़ो माँ.
जो तुम्हें अग्नि परीक्षा देती असहाय सीता दिखती है, वो मुझे प्रबल आत्मविश्वास की धनी वो योद्धा दिखाई देती है जिसने रावण के आत्मविश्वास को छलनी कर इस धरा को रावण से मुक्त कराया. हो सकता है मैं सीता सा आत्मविश्वास पाना चाहूं. तुम्हें लगता है कि राधा प्रेम में चोट खायी एक पराजित स्त्री थी, मुझे लगता है राधा प्रेम का चरमोत्कर्ष है हो सकता है मुझे कृष्ण ही मिल जाएँ और मैं राधा बनाना स्वीकार कर लूं. तुम्हें क्यूँ लगता है कि मुझे हमेशा पुरुष और स्त्री में कौन बड़ा कौन छोटा, कौन आगे कौन पीछे के झगडे में पड़े रहना चाहिए हो सकता है मैं दोनों के वैशिष्ट्य को सामान रूप से स्वीकार करने में सक्षम हो जाऊं?
माँ मुझे अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर जन्म दो. मुझे स्वयं को पहचानने दो. मुझे अपने आदर्श ढूँढने दो. मुझे अपने प्रतिमान गढ़ने दो. मुझे अपने ज्ञान का विस्तार करने दो. मुझे नीर क्षीर विवेक में समर्थ होने दो माँ.