इससे पहले की आप कहें मैंने अशुद्ध लिखा है, चलिए पढ़ते हैं ये कहानी
"हैल्लो..हैल्लो...कैन यु हेअर मी...आवाज़ आ रही है ना मेरी?"
" नहीं सर थोड़ा ज़ोर से बोलिए..कुुुछ समझ नहीं आ रहा है ,आपकी आवाज़ कट रही है लगता है कुछ नेटवर्क इशू है मैं बादमे फ़ोन करता हूँ।"
"अरे नहीं ना, तुम रुको मैं बाहर जाकर कॉल करता हूँ, बेवज़ह लाखों का नुकसान करवा रहा है ये कोरोना, लेना देना कुछ नहीं, सब बक़वास है " कोरोना को कोसते हुए मुरारीलाल जी चढ़ गए छत पर, वो राहुल से क्या जरूरी बात करने वाले थे ये भूल भाल कर कोरोना को कोसने लगे।
मुरारीलाल जी शहर के जाने माने हलवाई, शहर के हर कोने में उन्होंने अपनी मिठास की धाक सालों से जमाई हुई है। सुबह सुबह उनकी दुकानों के बाहर लम्बी कतार लगा करती , कचौरी-समोसे डोनो में भर भर के लोग चटकारे लेते। जिन्हें देख रोज़ मुरारीलाल जी का आधा किलो ख़ून बढ़ जाता, होठों पर मुस्कान लेकिन ऐसे की किसी को भनक भी ना लगे उनके मुनाफ़े की। लेकिन आग लगे इस कोरोना को जाने कहाँ से आ मरा जो दो महीने में चट कर गया शहर में फैली मीठी धाक, लंबी कतार और सबसे छुपी हुई उनकी मुस्कान को।
मुरारीलाल जी के हिसाब से ये कोई अफ़वाह थी जो किसी प्रकार के असमाजिक तत्वों द्वारा फैलाई गई, उद्देश्य पूछा जाए तो घुमा फिरा कर भारी भारी शब्द कहने लगते। सुनने वाला हाँमी में सर हिलाता चाहे मन से तर्क बेबुनियादी लगें। बस लेकिन पत्नी के आगे तो भला किसकी चली है। सो आ गए बोरिया बिस्तर उठा अपने गाँव में।
गाँव इस शब्द मात्र से ही प्रदर्शित होती है एक परिभाषा ,मान लिया जाए यदि गाँव है तो कच्चे रास्ते, एक चौपाल, हुक्के की गुड़ गुड़ में कुछ बूढ़े, कुँओं पर पनिहारी, पीपल- नीम के बड़े बड़े पेड़, लहराते खेत, पगडंडियों पर बैठे कुछ किसान ,कच्चे मटके, साइकिल के पुराने टायर से खेलते अधनंगे बच्चे इसके अभिन्न अंग होने ही चाहिए। मगर मुरारीलाल जी के लिए गाँव की परिभाषा थी ना ए.सी., ना फ्रीज़, ना मिनरल वॉटर, ना फोन में नेटवर्क, ना बच्चों के लिए क्लब हॉउस, ना गाड़ी के लिए सपाट सड़कें, ना लम्बी कतारें ,ना मुनाफ़ा, ना छिपी हुई मुस्कान और ऊपर से पुराने बहुत पुराने रिश्तेदार जिन्हें वो लगभग भूल ही चुका था, साथ में एक माँ ।
"माँ" जिसे घुटनों में अकड़न की बीमारी है, चलना फिरना तो दूर चारपाई से उठकर पानी लेना भी नामुमकिन है। पड़ोस की बिमला ही उनकी देखभाल किया करती,बिना किसी मेहनताने के।कुछ दो साल पहले मुलाकात हुई थी माँ जब वो घुटनों का ऑपरेशन कराने बेटे के पास शहर आई थी, माँ को शहर की आबोहवा तनिक भी रास नहीं आती। बस ये ही बात थी जिसे लेकर फ़ासले बढ़ते गए। मुरारीलाल जी के लिए अब वो भी एक पुरानी रिश्तेदार हैं। माँ के लिए वो अब भी मुरारी ही है, इसका प्रमाण देते हैं उसके आँसू जो सपरिवार अपने बेटे को देखकर फूट पड़े थे।
कोरोना को जी भर कोसने और, राहुल से शहर की एक एक ख़बर लेने के बाद मुरारीलाल जी अब भी बड़बड़ाते हुए छत से नीचे आये, बेटे को यूँ परेशान देख माँ से रहा ना गया
"का हुआ मुरारी, कोनो परेसानी ह का, काहे चिल्लाता रहे"
"ओहो माँ आप क्या बताऊँ तुम्हें, ये कोरोना सारा मुनाफा खा गया, जाने ये लॉकडाउन,क्वारनटाइन कब ख़त्म होगा, कब घर वापस जा पाएंगे हम सब,"
"ये कारन्टान का होत है कोनऊ नई बीमारी चली ह का, उह कॅरोना का नाम तो सुनी रही, अब ये कारन्टान का बला भई"
" कारन्टान नहीं क्वारनटाइन, मतलब की मानो सबसे अलग रहना, ना कहीं आना ना जाना, ना बाहर कहीं घूमना ,बस घर मे बन्द रहो, जैसे कोई कैदी, ना कचौड़ी-समोसे मिठाई खाना, ना लम्बी कतार ना मुनाफा "
कहते हुए मुरारीलाल जी का हाथ माथे पर और नज़रें मानों ज़मीन को खोद रही थी।
"ओह तो इमा का ह मैं तो सालों से कारन्टान हूँ,
हाँ साँझ सबेरे बिमला जरूर आत रही, तू मुँह ना लटका कछु दिन की बात भई, इह बहाने मरन से पहले पूरे परिवार को देख लई, भला हो इस कॅरोना का"
बड़े ही सहज भाव से माँ ने मुरारीलाल जी को एक अलग ही पक्ष दिखा दिया। मुरारीलाल जी की मध्दिम मुस्कान यह पुष्टि दे रही थी कि उन्हें असली मुनाफ़ा मिल ही गया, बिना किसी लम्बी कतार में लगे।