Aadha Aadmi - 8 in Hindi Moral Stories by Rajesh Malik books and stories PDF | आधा आदमी - 8

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आधा आदमी - 8

आधा आदमी

अध्‍याय-8

ज्ञानदीप आगे की लाइनें पढ़ पाता कि दरवाजें पर दस्तक हुई। लगा जैसे खाने के बीच कंकड़ आ गया हो। उसने पन्ने उठाकर एक तरफ रखा और दरवाजा खोला। सामने अली खड़ा था।

‘‘भैंया, जल्दी चलिये अम्मी को दौरा पड़ा हैं.‘‘ अली हाँफता हुआ बोला।

ज्ञानदीप दरवाजा बंद करके उसके साथ चला गया।

लगभग तीन घँटे बाद ज्ञानदीप वापस आया। उसका चेहरा ऐसे पीला पड़ गया जैसे किसी ने उसके ज़िस्म से खून की एक-एक बूंद निचोड़ ली हो। कई सवाल उसके ज़ेहन में चुभ रहे थे, ‘गरीबी भी इंसान के लिए एक सज़ा ही हैं। जिसे भोगता हैं संसार का गरीब तबका। कब आएगा वह दिन जब सारा आलम मिल कर एक कुटुम्ब होगा। हर एक को काम मिलेगा। भर पेट भोजन मिलेगा.‘

ज्ञानदीप काफी सोचने-विचारने के बाद दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-

पिताजी ने हिजड़े को बहुत अनाप-शनाप कहा। वह हिजड़ा चुपचाप भाग खड़ी हुई। पिताजी ने मुझे मारा और सख़्त हिदायत दी, ‘‘खबरदार! अगर तुमने उससे दोबारा बात की तो...।‘‘

जब यह बात अम्मा को पता चली तो उन्होंने मुझे बहुत डाँटा। जबकि उस वक्त मुझे हिजड़ों के बारे में कुछ भी नहीं पता था। मगर विघि का विधान तो देखिये जिस हिजड़े समाज से बोलने के लिए मुझे इतनी बड़ी सज़ा मिली थी। आज मैं उसी हिजड़े समाज की नायक हूँ।

2-8-1976

न था कुछ, तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता

डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।

नसीबों के खेल भी कितने निराले होते हैं। यह मैंने इस उमर में जाना था। भाग्य के मैं कितने रूप बखान करूँ, हर एक रूप में दर्द ही दर्द हैं। अब तो मैं इस दुर्भाग्य को अपनी तकदीर मान बैठी हूँ और उसी के सहारे घिसटती जा रही हूँ। न जाने कब तक घिसटती जाऊँगी। माँ-बाप ने क्या सोच कर मेरा नाम दीपक रखा होगा, कि एक दिन दीपक की तरफ सारे संसार में चमकूँगा। मगर अफसोस! मैं बदनसीब दीपक न बन सका।

जहाँ चमकना था वहाँ चमक न सका।

जहाँ बुझना था वहाँ चमक उठा।।

क्या करती परिस्थितियों के आगे विवश थी। परिस्थितियाँ इंसान को क्या से क्या बना देती है। जब भाग्य का पहिया चलता हैं तो वह किसी को नहीं बख़्शता सिर्फ़ रौंदता चला जाता हैं।

उस हिजड़े वाले हादसे के बाद से पिताजी मुझे अपने साथ रखते। उनकी पैनी निगाहें हर पल मुझ पर रहती।

दिन-रात की कड़ी मेहनत के बाद भी परिवार का खर्चा नहीं चल पा रहा था। दो छोटी बहन और दो छोटे भाइयों की पढ़ाई का खर्चा ठेले से निकाल पाना दूभर हो गया था।

फिर क्या था पूरा परिवार दस पैसे किलों पर टाफी लपटने लगा। दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद बीस किलो टाफी पैक हो पाती थी। यह सब देखकर हम-दोनें भाइयों को बहुत तकलीफ़ होती थी। काफी सोचने-विचारने के बाद हमने यह निश्चय निकाला कि हम लोग देहरादून जायेंगे। वहाँ जाने का सबसे बड़ा कारण यह था कि वहाँ हमारे रिश्तेदार थे। जबकि अम्मा-पिताजी नहीं चाहते थे कि हम में से कोई भी किसी से पल भर के लिए दूर हो। कहते हैं ना, तकदीर जो न कराये वह कम हैं।

हम-दोनों भाई तैयारी करके देहरादुन चले गए। हमारे रिश्तेदारों ने मदद करना तो दूर, बात करना भी गंवारा न समझा। हम लोगों ने जैसे-तैसे कई रातें फुटपाथ पर काटी। दिन में हम लोग होटलों में काम करते और रात में टैम्पों पर कनडकटरी करते।

देखते-देखते मेरा भाई टैम्पों चलाना सीख गया था। तभी अल्लाह का एक बंदा मिल गया जिसने मेरे भाई को टैम्पों दिया और कहा चलाओं।

ऐसे करते-करते देढ़-दो महीने गुज़र गए। एक दिन बड़े भाई ने कहा, ‘‘इतने दिन हो गए है तुम घर चले जाओं। पैसा भी दे आओं और हाल-चाल लेते आओं.‘‘

मैं अगले दिन ट्रेन पकड़ कर अपने शहर आ गया।

एक हफ्ता रहने के बाद जब मैं देहरादुन आने लगा तो पिताजी मेरे साथ चल पड़े। यह तो मुझे बाद में पता चला कि वह घूमने नहीं, छोटी बहन के लिए लड़का ढूढ़ने आए हैं। तभी दूर की रिश्तेदारी में पिताजी को एक लड़का मिल गया था। पिताजी ने साफ़-साफ़ कह दिया था कि मेरे पास सिर्फ लड़की हैं और कुछ नहीं।

लड़के वालों ने भी अपनी बात रख दी, हमें सिर्फ लड़की चाहिए जो हमारे परिवार को चला सके। नतीजा यह निकला कि शादी देहरादून में करनी होगी।

पिताजी वापस अपने शहर आ गये। फिर एक हफ्ते के बाद अम्मा और भाई-बहनों को लेकर देहरादून आ गए। हम लोगों ने तो जो शादी में पैसा लगाया साथ-साथ लड़के वालों ने भी हमारी काफी मदद की। शादी ठीक-ठाक निपट गई थी। पिताजी सबको लेकर शहर आ गए थे।

आठवे दिन मैं भी शहर आ गया। उसी के दूसरे दिन मेरे भाई का एक्सीडेंट हो गया। देहरादून के रिश्तेदारों ने मेरे बड़े भाई को खैराती अस्पताल में भर्ती कर दिया, और पीछे मुड़कर नहीं देखा। पिताजी-अम्मा को बहुत दुःख हुआ। डॉक्टरों के अनुसार, भाई का एक हाथ बेकार हो चुका था। और अगर जल्दी नहीं काटा गया तो ज़हर पूरे ज़िस्म में फैल जाएगा।

पिताजी भाई को लेकर अपने शहर आ गए थे। डॉक्टरों को दिखाया गया तो उन्होंने फौरन आप्ररेशन करने को कहा। रकम एक हज़ार थी मगर जहाँ खाने के लाले लगे हो, वहाँ यह रकम बहुत बड़ी थी।

पिताजी ने हर एक के आगे गुज़ारिश की मगर किसी ने उनकी मदद नहीं की। वह पैसे के लिए इधर-उधर भागते रहे।

पैसा मिला भी तो ब्याज पर, भाई का आप्ररेशन हुआ। पर डॉक्टर उसका दाया हाथ नहीं बचा सके।

25-8-1976

शहर में मेरे भाई का नाम था चाहे खेल का मैदान हो या पढ़ाई, वह हर जगह अव्वल आता था। मगर आज वह विकलांग बन कर रह गया था। भाई के ग़म में पिताजी घुटते जा रहे थे।

और एक दिन पिताजी को फालिज़ का अटैक हो गया। उनका दायाँ हाथ और दायाँ पैर लुन्ज़ हो गया था। हम लोगों पर मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा था। अब परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरे कन्धों पर थी। मगर मैं सोच नहीं पा रहा था, कि मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? न ही मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा था और न ही मेरे हाथों में कोई हुनर था। मरता क्या न करता, इसलिए मैं चाय का ठेला खींचने लगा। बड़ी मुश्किल से तो घर कर का खर्चा निकलता था। फिर भाई और पिताजी की दवा कहाँ से लाता? मैंने सोचा, ’क्यों न मैं डांसिंग शुरू कर दूँ.‘

फिर क्या था मैंने उन कलाकरों से मिलना-जुलना शुरू कर दिया, और गुज़ारिश की वे भी मुझे अपने साथ प्रोग्राम में ले चले। उस समय मेरी उम्र चैदह साल की थी।

उन लोगों ने मुझे पाँच रूपया रोज पर रामलीला में नाचने का काम दिला दिया। दिन-भर मैं चाय का ठेला खींचता और रात-भर रामलीला में नाचता। फिर सुबह भाई को अस्पताल में ले जाकर डेसिंग कराना। यह सब मेरा रोज का काम था।

देखते-देखते रामलीला भी खत्म हो गया था। एक दिन पिताजी को मेरे ऊपर शक हो गया। उन्होंने छुटते ही पूछा, ‘‘रात-रात भर तुम कहाँ रहते हो?‘‘

मेरे तो जैसे काटों खून नहीं।

ज्ञानदीप आगे की लाइनें पढ़ पाता कि अचानक बिजली गुल हो गई। उसे रह-रहकर बिजली विभाग पर गुस्सा आ रहा था। मगर वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सका। इस वक्त अँघेरे का वर्चस्व कायम था। तो क्या मज़ाल थी रोशनी की। ठंड़ भी अपने चरम सीमा पर थी। कोहरे का अपना बवाल था। जहाँ दिन में यह मोहल्ला कान फोड़ता हो, वही इस वक्त सन्नाटा अपनी चादर ओढ़े पड़ा था।

ज्ञानदीप ने लालटेन में देखा उसमें तेल नहीं था। उसे अपने ऊपर काफी गुस्सा आया। उसका दिल-दिमाग दीपिकामाई के डायरी के पन्नों में खोया था। आगे क्या हुआ? उसकी उत्सुकता बनी हुई थी।

ज्ञानदीप दरवाजा बंद करके रोड पर आ गया। मगर दुकान बंद देख वह आगे बढ़ गया। फिर भी उसे मोमबत्ती नहीं मिली तो वह हताश मन से लौट आया। जैसे ‘रावन‘ फ्लाप होने से शाहरूख खान लंदन से मुंबई वापस आए थे।

ज्ञानदीप बिस्तर पर ऐसे ढहे, जैसे जीरों पर आउट होने पर कोहली ढहे थे। ज्ञानदीप का दिल-दिमाग अभी भी दीपिकामाई के उन पन्नों में डूबा था। उन्होंने कितना कष्टमय जीवन जिया। जिस उमर में उन्हें खेलना-कूदना, पढ़ना-घूमना, मौज़मस्ती करना था। उस उमर में उन्होंने जी-तोड़ मेहनत करके अपने परिवार को पाला। वैसे तो दुख-तकलीफ़, परेशानी हर एक के साथ होती हैं। मगर दीपिकामाई के खाते में कुछ ज्यादा ही थी। जब परिस्थिति वश दीपक! दीपिकामाई! बनी होगी? तब उन पर क्या नहीं गुज़री होगी? कैसी-कैसी बातें परिवार वालों को सुननी पड़ी होगी। क्या बीती होगी उनके माँ-बाप, भाई-बहनों पर। कल्पना करता हूँ तो रूह काँप उठती हैं।

कहते हैं घूर का भी एक अस्तित्व होता हैं। तो क्या दीपिकामाई का कोई अस्तित्व नहीं? ज्ञानदीप के ज़ेहन में तरह-तरह के समीकरण बन रहे थे। वह कभी दायें करवट लेता तो कभी बायें। उसकी भूख-प्यास ऐसे गायब हो गई। जैसे इंसान के जीवन से सच्चाई।

इसी बीच लाईट आ गई। ज्ञानदीप झट से उठा और डायरी के उन पन्नों को दोबारा पढ़ने लगा-

मैंने डरते-डरते कहा, कि रामलीला देखने गया था।

पिताजी ने मुझे समझाया, ‘‘अच्छे घर के बच्चे इतनी रात को बाहर नहीं घूमते। बेटा, मुझे तुझे पर बहुत भरोसा हैं, इसलिए ऐसा कभी कोई काम मत करना जिससे मेरा विश्वास तुम्हारे प्रति टूटे जाए.”

पिताजी की यह बातें मेरे दिल-दिमाग को झकझौर गई थी। शायद उन्हें मुझ पर शक हो गया था कि मैं कहाँ जाता हूँ, और क्या करता हूँ। वह अपनी बीमारी और परिस्थितियों के आगे विवश थे। वरना वह अब तक मेरे हाथ-पैर तोड़ चुके होते हैं। क्या करूँ मैं भी उनसे झूठ नहीं बोलना चाहता था, पर जो मजबूरियाँ थी उसके आगे मैं मजबूर था।

आखि़रकार एक दिन मुझे चाय का ठेला बंद ही करना पड़ा। क्यों कि बनिये ने उधार देना बंद कर दिया था।

3-9-1976

याह ख़ुदा अगर मेरी झोली में और भी ग़म हैं।

तो उठा ले मुझे, वरना खुशी का एक ही लम्हा दे दें ।।

वक्त कभी नहीं थमता। थमता तो इंसान हैं। वक्त का पहिया तो हमेशा चलता ही जाता हैं। घर की परिस्थितियाँ दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी। छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी। समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ? मगर परिवार तो चलाना ही था। भाई और पिता जी की बीमारी की चिंता मुझे रात-दिन खाये जा रही थी।

मैं मरता क्या न करता, सीधे चंदा से मिली जो एक हिजड़ा थी। मैंने अपनी सारी बात उसे बताई।

इतना सब कुछ सुनने के बाद चंदा ने मेरे आगे शर्त रखी, ‘‘अगर हमारे साथ प्रोग्राम करना हैं तो जनानियों वाले कपड़े पहननी पड़ेंगी.‘‘

‘‘क्यों.‘‘

‘‘क्योंकि जहाँ हम तुम्हें नचाने ले जायेगी अगर वे लोग जान गये, कि तुम लौन्डें हो तो घर में प्रोग्राम करना तो दूर, वह तुम्हें घुसने नहीं देगी.‘‘

‘‘तुम जो कहोंगे हम वहीं करेंगे। पर मेरे परिवार वालों को इसके बारे में जरा भी पता नहीं चलना चाहिए। वरना वे सब जीते जी मर जायेंगे.‘‘

‘‘तुम हमारा कहना मानों हम तुमारा मानेंगे। और सुनो, जैसे हम चटक-मटक कर बतवाती हूँ, ऐसे तुम भी दीदी बू-बू कहकर बेतवाया करो तभी तुम्हें नचाने ले जायेंगी.‘‘

‘‘ठीक हैं.‘‘

‘‘शाम को चली आना और जानानी कपड़े ले आना.‘‘

‘‘पर मेरे पास तो हैं नहीं.‘‘

‘‘ठीक हैं, तुम ऐसे ही चली आना.‘‘

मैं शाम होते ही चदां के घर पहुँच गया। वह मुझे प्रोग्राम कराने ले गई। वही पर मैंने जनानी कपड़े पहने, चंदा ने मेरा मेकअप किया और कहा,‘‘ तुम तो बहनी, बहुत अच्छी लग रही हो। पूरा का पूरा इलाका लूट लोगी का.‘‘

‘‘जाओं गुरू! तुम भी का कह रहे हो.‘‘

प्रोग्राम शुरू होने से पहले उसने मेरे पैरों में एक-एक किलों का घुघरूँ बाँध दिया। मैंने जैसे-तैसे उल्टा-सीधा डांस किया। प्रोग्राम खत्म होने के बाद चंदा ने मुझे दस रुपये दिए।

मैंने पैसे लाकर अम्मा को दे दिए।

जब यह नाचने वाली बात पिताजी को पता चली तो उन्होंने मुझे बहुत गाली दी। अगर उनकी तबियत ठीक होती तो न जाने वह मेरा क्या हाल करते।

15.11.1976

मैंने चंदा से पचास रूपये लेकर बस स्टैण्ड पर चाय की दुकान खोल ली। दिन मैं दुकान करता और रात मैं उसके साथ प्रोग्राम।

फिर एक दिन मेरी मुलाकात बस स्टैण्ड पर शरीफ बाबा से हुई। वह अक्सर यही तारीफ़ करता कि आप चाय बहुत अच्छी बनाते हैं। मैं भी मजाक में कह देता, ‘‘हम बहुत कुछ अच्छा कर लेते हैं.‘‘

एक दिन उसने मुझे अपनी बस में डांस करते देख लिया। मैं डर गया, कि अगर इसने किसी से भी कह दिया तो मेरी बड़ी बदनामी होगी। तभी वह पीछे से आया और मेरे प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगा, ‘‘तुम बहुत अच्छा डांस करते हो.‘‘

मैंने उससे गुज़ारिश की यह बात किसी से मत कहना।

‘‘तुम बिलकुल घबराओं मत मैं तुम्हारा दोस्त हूँ कोई दुश्मन नहीं। सोचो मत, आओं हाथ मिलाओं.‘‘

इसी तरह मेरी उसकी दोस्ती हो गई। हम रोज़ मिलने लगे। मैंने अपने घर की सारी बातें उसे बतायी।

24-11-1976

हमारी ज़िंदगी की दास्ता हालात लिखते हैं

हमारे हाथ में अपना क़ल़म कागज नहीं होता।

मैं उस दिन दुकान से सीधे चंदा के घर गया। उसने मुझे शराब पीने को कहा तो मैंने साफ मना कर दिया, ‘‘हम शराब नहीं पीते हैं.‘‘

‘‘तुमसे कितनी बार कहा हैं जनानियों की की भाषा बोला करों.‘‘

चंदा के बार-बार हिदायत देने से भी मैं मर्दाना भाषा नहीं छोड़ पा रहा था। और वैसे भी जनानियों की भाषा बोलना मुझे जरा भी अच्छी नहीं लगता था।

मैं जैसे ही जाने के लिए उठा कि तभी दो आदमी आये। उनमें से एक ने मेरा हाथ पकड़ा और जबरदस्ती मुझे अपने पास बैठाने लगा।

उसकी इस हरकत से मैं तैश में आ गया और चंदा की तरफ़ मुखा़तिब हुआ, ‘‘देखो गुरू! इन्हें समझा लो हमसे बत्तमीजी न करे नहीं तो ईटा-वीटा उठा कर मार देगें.‘‘ मेरे इतना कहते ही उसने मेरा हाथ छोड़ दिया।

दूसरे दिन जब चंदा दुकान पर आयी तो मैंने उससे पूछा, ‘‘वे लोग तुम्हारे कौन थें?

‘‘वे सब हमारे ग्राहक हैं। हमें दारू पिलाने के साथ-साथ खर्चा-पानी भी देते हैं। रात भर हम उनके साथ धंधा करती हूँ और दिन भर आराम से सोती हूँ। ऐसे तुम भी किया करो बहुत पैसा कमाओंगी.‘‘

‘‘ऐसा हैं गुरू! तुम कुछ भी करो हमसे कोई मतलब नहीं। लेकिन इस दलदल में हमें मत फँसाओं, कहीं हमारे घर वालों और दोस्तों को पता चल गया तो जाने क्या होगा.‘‘

‘‘बड़ी आयी हैं दोसवाली, जरा मैं भी तो सुनूँ वह तुम्हें किस बात का खरचा देता हैं?‘‘

‘‘तुमसे का मतलब.‘‘

‘‘मैं सब जानती हूँ वह तुम्हें का बना के देता हैं.‘‘

‘‘हम तुम्हारी तरह धंधा नहीं करता.”

उसी बात को लेकर हम दोनों में खूब बहस हुआ।

26-12-1976

उस दिन शरीफ बाबा दोपहर में आया और पिक्चर चलने की जिद् करने लगा। मुझे उसकी जिद् के आगे झुकना पड़ा। अभी आधी ही पिक्चर ही हुई थी कि उसने मुझे घर चलने को कहा। वह घर चलने के बहाने मुझे ऐसे रास्ते पर ले गया जहाँ उसने मेरे साथ.....।

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