एक अप्रेषित-पत्र
महेन्द्र भीष्म
बचाओ
मैं एक नन्हा—सा वृक्ष हूँ। इस सुन्दर संसार में आए मुझे कुछेक वर्ष ही हुए हैं। नीले आकाश के नीचे, पर्वतमालाओं की तलहटी में विस्तृत सुरम्य वन के ठीक मध्य में लताओं से आच्छादित वृक्षों की हमारी रमणीक बस्ती है। मेरे माता—पिता, भाई—बन्धु एवं बुजुर्ग सभी मेरे आस—पास हैं, जिनकी छत्रछाया में मैं पल—बढ़ रहा हूँ। प्रकृति के महत्त्वपूर्ण घटक— नाना प्रकार के जीव—जन्तु हमारे बीच पलते—बढ़ते हैं। जब सूर्य देव आकाश के बीचो बीच आ जाते हैं, तब हमारी जड़ों के ऊपर की कुछ भूमि पत्तों से छनकर आते प्रकाश से प्रकाशित हो उठती है।
छोटे—बड़े जड़ तरुओं की शाखाओं पर अनगिनत पक्षी अपना बसेरा बनाये हुए हैं; जिनके कलरव से दिवस का प्रारम्भ और स्तब्धता से अवसान प्रतीत होता है। रात्रि की नीरवता में हम वृक्ष विश्राम करते हुए भी विभिन्न प्रकार के प्रदूषण को स्वयं में आत्म—सात करना कतई नहीं भूलते और भोर होते ही, हम सभी प्राणी—मात्र के लिए प्राण—वायु के संचार में लग जाते है।
जड़वत रहते हुए भी हमें सारे संसार की सूचना रहती है। दूर—दूर तक विचरण करने वाले हमारे साथी पक्षी वापसी पर हमें अपने रोमांचक यात्रा—वृत्तांत सुनाते, साथ ही भूगोल, इतिहास और सम सामयिक घटनाओं की ढेर सारी जानकारी देते हैं।
मेरे जैसे नवागत वृक्ष अपने बुजुगोर्ं से बहुत—सी रोमांचक घटनाएँ और कहानियाँ नित्य सुनते रहते। इन्हीं से हमें ज्ञात हुआ था कि हम पेड़—पौधों को जीवधारी के रूप में सर्वप्रथम भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर जगदीश चन्द्र बसु ने सिद्ध किया था।
यद्यपि प्राचीन सनातन धर्मी मान्यता यह रही है कि हम पेड़—पौधे भी अन्य जीव जन्तुओं की भाँति सुख—दुःख का अनुभव करते हैं; फिर भी हमें सर्वप्रथम वैज्ञानिक प्रामाणिकता डॉ0 बसु के द्वारा ही मिल सकी है।
भारतीय संस्कृति में तो हमें देव तुल्य स्थान प्राप्त है। भारतीय आयुर्वैज्ञानिकों की तो यहाँ तक धारणा है कि संसार में ऐसी कोई वनस्पति नहीं जो अभिषज्य हो।
सनातनधर्मी हममें से कई वृक्षों को चिर्काल से पूजते चले आ रहे हैं। उनका प्रत्येक वृक्ष से कुछ—न—कुछ सम्बंध जरूर है। हमारी देख—रेख, हमारा रख—रखाव सब इसी प्रकृति के संचालन में होता चला आ रहा था; जिसके हम पेड़—पौधे महत्त्वपूर्ण घटक माने जाते हैं; किन्तु जब से मनुष्यों द्वारा अपनी प्रगति का वास्ता देकर हमारा सफाया करना प्रारम्भ कर दिया गया है, तब से हमारे सामने अपने अस्तित्व को बनाए रखने की चिन्ता सामने आ गयी है। परिवर्द्धन के प्रति मनुष्य के उत्साह एवं परिशोधन के प्रति उसकी उपेक्षा के फलस्वरूप ही प्रदूषण एक विभीषिका के रूप में वर्तमान में प्रस्तुत हुआ है। हमारी मानव जाति से अस्तित्व की लड़ाई प्रारम्भ हो चुकी है। संघर्ष में हमारे पास मूक अहिंसक विरोध के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है, जबकि मनुष्यों के पास हमें नष्ट कर देनें के अनेक उपाय हैं।
विगत वर्षों से जिस तेजी से हमारी दिन दूनी, रात चौगुनी घटोत्तरी हुई है; इसके लिए एक मात्र मनुष्य ही जिम्मेदार हैं, जो तमाम प्रतिबंधों के बावजूद आज भी हमें अपने निज स्वाथोर्ं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए नष्ट करते चले आ रहे हैं।
हम पेड़ पौधोें के कटाव को नियंत्रित करने के लिए मनुष्यों की सरकार ने अनेक कानून और नियम बना रखे हैं। हमारी सुरक्षा के लिए पूरा एक विभाग संगठित कर रखा है; फिर भी हम वृक्षों को किसी—न—किसी बहाने या चोरी छुपे आज भी काटा जा रहा है। अभी विगत वर्ष की घटना है। हमारी रक्षा के लिए नियुक्त एक वन रक्षक को जिसे हम वृक्षों की बहुत चिन्ता थी, ठीक दोपहर को उसे हमारे सामने दुश्मन मनुष्यों ने ठीक वैसे ही काट डाला; जैसे वे हम वृक्षों को काटकर मार डालते हैं। उस वन रक्षक ने हमारी रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर दिये, जिसे हम जड़ प्राणी सिवाय मूक सहानुभूति के कुछ न दे सके। यही तो हमारी लाचारी है। हम स्थिर रहकर सदैव कुछ न कुछ देते ही रहते हैं; परन्तु कुछ कह पाने या कर पाने में पूर्णतया असमर्थ रहते हैं। अरे! अपने ही भाई—बन्धु को अपने ही सामने कटते—मरते लाचार देखते रहते हैं। हाँ! प्रकृति जरूर बदला लेती है। हमारी कमी से वह बौखला उठती है और हमारी कमी को वह अपने बदले रुख से लोगों को महसूस कराती है।
हमारे बडे़—बूढ़े बताते हैं कि सदियों से हमने मनुष्य की हर प्रकार से मदद की। यहाँ तक कि उनके मृत शरीर को पंच—तत्त्व में मिलाते हुए चिता के रूप में हम स्वयं भस्म होते या ताबूत बनकर दफन होते चले आ रहे हैं; परन्तु जिस तरह से हम वृक्षों की अंधाधुन्ध कटाई जारी है, इससे यह भय उत्पन्न हो चला है कि क्या भविष्य में हमारा अस्तित्व ही नष्ट करके ये मनुष्य मानेंगे, जो अपनी प्रगति के सामने इतने अंधे हो चले हैं कि वे हमें नष्ट कर परोक्षतः स्वयं के लिए बहुत बड़ा खतरा मोल ले रहे हैं। एक तरह से वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
मनुष्यों के बीच के ही कुछ लोग हमारी सुरक्षा की आवाज उठाते हैं, ‘चिपको' जैसे आन्दोलन करते हैं। इसके बावजूद हम वृक्षों की कटाई निरन्तर जारी है। कोई कमी नहीं आने पा रही है। अवश्यकता है, जनमानस को पूर्णरूप से समझने की, चेतावनी देने की कि हमारे अस्तित्व के साथ ही उनका भी अस्तित्व जुड़ा हुआ है। अगर हम नहीं रहेंगे तो वह भी हमारे अभाव में अधिक समय तक रह नहीं पायेंगे।
यद्यपि हमारे रक्षकों ने हमारे बचाव और हमारी विभिन्न प्रजातियों की रक्षा के लिए भरसक प्रयत्न कर रखे हैं, विभिन्न प्रकार की नई—नई प्रजातियाँ विकसित कर वन—अभयारण्य विकसित कर लिये हैं; फिर भी जिस तेजी से हमारे कम होने का ग्राफ बढ़ता जा रहा है, उतनी तेजी से हमारी वृद्धि नहीं हो पा रही है। फलस्वरूप विश्व के कई स्थानों पर हम पर्यावरण के उस निर्धारित मानक से भी तेजी से पिछड़ते चले जा रहे हैं, जो पर्यावरण सन्तुलन को बनाये रखने के लिए अति आवश्यक है।
सुदूर प्रान्तों तक उड़कर जाने वाले पक्षियों के द्वारा जो घटनाएँ हमें बताई जा रही हैं, उसे सुनकर हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पक्षियों को भी आशंका हो चली है कि भविष्य में वे अपने नीड़ कहाँ बनायेंगे? कहाँ बसेरा करेंगे? जिस अंधाधुन्ध गति से अपनी प्रगति का वास्ता देकर मनुष्य हमें साफ कर रहे हैं, उनके काले कलुषित हाथ कभी भी हमारी गरदन दबोच सकते हैं। हमारी बस्ती में अजीब—सा मातम जैसा माहौल छाया रहता है। पता नहीं कब हम सबका नम्बर आ जाये। क्रूर मनुष्यों से कौन हमारी रक्षा करेगा? जब ये अपनी ही जाति के हमारे रक्षक को मार सकते हैं, तब हम सब तो उनके बहुत काम आने वाले हैं। हमारे शरीर के कई टुकड़े कर वह उन्हें नए—नए रूप देकर अपना तात्कालिक लाभ उठा सकता है। हमारी मौन वाणी कौन सुनेगा, हमें भी तो आखिर जीने का हक है। क्या संसार में केवल मनुष्य ही सभी प्राकृतिक उपादानों के उपयोग करने का अधिकारी है? क्या हमें जीवित बने रहने और अपनी वृद्धि का कोई अधिकार नहीं है? अपनी बात कहने के लिए हमें भी मंच चाहिए। मनुष्यों को समझाने का हमें भी कोई तरीका चाहिए।
क्या ये निरे मूर्ख मनुष्य इतनी—सी बात भी नहीं समझ सकते, जो आज अपने को सबसे बड़ा बुद्धिमान जीवधारी मानते हैं, कि हमारा पर्यावरण सन्तुलन में कितना बड़ा योगदान है। अरे, हमें नष्ट कर क्या वे प्रकृति के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं ? क्या इस तरह से वे पर्यावरण सन्तुलन को नहीं बिगाड़ रहे हैं ? क्या पर्यावरण सन्तुलन डगमगाते ही उनका अस्तित्व भी खतरे में नहीं पड़ जायेगा? अरे! कोई तो समझाए इन मनुष्यों को, कोई तो ऐसा अन्तरराष्ट्रीय कानून बने, जो सारी पृथ्वी में हमें पर्यावरण सन्तुलन के न्यूनतम् मानक से नीचे जाने से रोके। हमें नष्ट करने वाले आतताई दुष्टों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाए, जो कानून का उल्लंघन कर हमें किसी न किसी तरह से काटने पर आमादा रहते हैं।
दक्षिण से शीत ऋतु बिताकर लौटे पक्षियों के समूह ने यह सूचना देकर कि, ‘निकट से गुजरने वाली पहाड़ी नदी में मनुष्यों ने बाँध बनाने का निश्चय किया है।' हम सभी को भयभीत कर दिया है। उन्होंने बताया कि, 'बाँध बनाने की पैमाइश पूरी कर ली गयी है, हम सारे के सारे पेड़—पौधे बाँध के जलाशय की परिधि में आते हैं, जिसमें डूब कर पानी में घुल सड़ जाने से पहले बुद्धिमान मनुष्य हमें काटकर हमारे कीमती अंगों को अपने स्वार्थ की पूर्ति में लगायेगा।'
हे भगवान! कोई तो इन मनुष्यों को समझाये। कोई तो हमें इनसे बचाए, जो यह नहीं जानते—मानते कि यहाँ बाँध बनाने से उनको पर्यावरण असन्तुलन के लिए कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। प्रकृति की मार भूकम्प के रूप में इन पर पड़ेगी।
अब रात्रि को भी हम लोग चैन से सो नहीं पा रहे थे। रात—दिन बाँध निर्माण के कार्य की खटपट हमें अपनी—अपनी मौत की दस्तक दे रही थी। पता नहीं, कब और किस पल हमारा अस्तित्व ही खत्म करने मनुष्यों का दुष्ट दल यहाँ आ धमके। एक अजीब—सा, मौत का—सा सन्नाटा हम सभी के मन में पैठ कर चुका था।
दयालु प्रभु ने हम सभी की करुण पुकार जल्दी ही सुन ली। कुछ दिन के लिए बाँध निर्माण कार्य रोक दिया गया। पक्षियों ने हर्षित हो बताया, ‘बाँध निर्माण का विरोध कर रहे स्थानीय मनुष्यों ने बाँध निर्माण कार्य रोकने के लिए आन्दोलन छेड़ रखा है। उनके बीच के कुछ लोग उच्चाधिकारियों, शासन की बागडोर सँभाले नेताओं से बातचीत करने देश की राजधानी गये हुए हैं।'
कुछ दिन चैन और आराम के साथ हम सभी ने गुजारे, एक आस बँध गयी कि चलो कुछ मनुष्य अभी भी हमारे साथ हैं, जो हमारे अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। पर, हम ज्यादा दिन चैन से नहीं रह पाये। बाँध निर्माण कार्य पुनः प्रारम्भ हो गया। पक्षियों ने बताया, ‘‘देश के कर्णधारों ने, तथाकथित मनुष्यों की सरकार ने हमारे अस्तित्व की रक्षा करने वाले पर्यावरणविदों और स्थानीय नेताओं की बात नहीं मानी। ‘अधिक महत्त्व के लिए कम महत्त्व का त्याग करना ही होगा' का तर्क देकर दो टूक जवाब दे दिया; जिससे बाँध निर्माण का विरोध कर रहे लोगों में घोर निराशा छा गयी है।'' हम लोग पुनः अपने नष्ट हो जाने की आशंका में दिन—रात घुलने लगे।
पक्षियों से ही पता चला कि बाँध निर्माण कार्य करने वाले मनुष्यों ने भूख हड़ताल प्रारम्भ कर दी है। विरोध के कई तरीके अपनाने शुरू कर दिये हैं। बड़ी—बड़ी सभाएँ हो रही ंहैं। स्थानीय बच्चे, बूढ़े, महिलाएँ और नौजवान सभी एकजुट हो बाँध निर्माण का विरोध कर रहे हैं। शासन ने इस आन्दोलन को कुचलने की दिशा में प्रयास भी तेज कर दिये हैं। लाठी चार्ज, अश्रुगैस के गोले चलने की सूचनाएँ मिलने लगीं। किसी दिन किसी निर्दोष की निर्मम हत्या की सूचना से सभी पेड़—पौधे व्यथित हो उठते और हमारी रक्षा के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने के लिए उस महान कृपालु मनुष्य की पुण्य आत्मा के लिए दो घड़ी आँसू बहा कर अपनी शोक संवेदना प्रकट करते।
जिस तेज गति से बाँध निर्माण कार्य रात—दिन चल रहा था। उसी गति से बाँध निर्माण कार्य का विरोध मुखर हो उठा था। पक्षियों से ही पता चला कि दो पर्यावरणविद् आमरण अनशन के चलते अपनी देह त्याग चुके हैं; किन्तु इतना सब हो चुकने के बावजूद शासन के कानों में जूँ तक नहीं रेंगी थी।
पक्षियों ने बताया कि, ‘कुछ स्थानीय स्वार्थी नेताओं ने शासन से मुआवजे की माँग शुरू कर दी है, जो बाँध निर्माण के एवज में स्थानीय लोगों को मिले। विस्थापितों को अन्यत्र बसाने की माँग रखी गयी है।'
विस्थापित होने जा रहे, हम पेड़—पौधों को मनुष्यों की सरकार कहाँ स्थापित करने जा रही है? और क्या मुआवजा वह हमारे लिए तय करने जा रही है। क्या यह इनके लिए संम्भव है? कदापि नहीं, हम तो सदा से प्रकृति के साथ हैं।
बाँध निर्माण कार्य का विरोध शनैः शनैः मुआवजे की धनराशि में तब्दील होना शुरू हो गया। अब हम पेड़ पौधों की ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा था, सिवाय पर्यावरणविदों के। हमारी चिन्ता करने वाला कोई नहीं था। यहाँ तक कि शासन द्वारा हमारी रक्षा के लिए नियुक्त मनुष्य भी अपनी नौकरी के सामने हमारी रक्षा कर पाने में लाचार थे।
एक दिन भोर पक्षियों ने रोज की तरह चहचहाना छोड़ हम सभी को मनहूस खबर सुनायी कि, ‘सरकार के साथ स्थानीय नेताओं का एक समझौता हो गया है; जिसमें सरकार ने बाँध निर्माण कार्य रोकने के अलावा सारी बातें मान ली हैं।' मुआवजे की धनराशि, विस्थापितों के पुनर्वास की समस्या के समाधान हो जाने के बाद बाँध निर्माण कार्य का विरोध कर रहे स्थानीय लोग अब पुनर्वास मुआवजे की धनराशि को पाने की जोड़—तोड़ में लग गये। हम पेड़ पौधों की ओर किसी को देखने की भी फुर्सत नहीं थी। विभिन्न पर्यावरणविदों के बाँध निर्माण के विरोध में पत्र—पत्रिकाओं में बड़े—बड़े लेख छपे; परन्तु इन सबसे कुछ नहीं हुआ। उनका यह विरोध नक्कार खाने में तूती की आवाज बनकर रह गया। ‘अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' कहावत चरितार्थ हुई। हम सभी अपने—अपने अनिष्ट की सम्भावना से भयाक्रान्त हो उठे।
और फिर वह दुःखदाई दिन भी आ पहुँचा, जो हमारे लिए इस पृथ्वी ग्रह में अन्तिम दिन होने वाला था। चारों ओर मनुष्यों ने मार—काट मचा रखी थी। धीरे—धीरे वह हमारी बस्ती के छोटे—बड़े सभी वासिन्दों को काटते—मारते चले आ रहे थे। एक—एक कर हमारे सभी साथी, बड़े—बडे़ महारथी, बुजुर्ग जो हमें आदि काल से चली आ रही विभिन्न कथाएँ सुनाया करते थे। एक दूसरे को अश्रु—पूरित नेत्रों से देखते हुए प्राण उत्सर्ग कर रहे थे। मनुष्य बेरहमी से उनकी देह काट रहे थे। उनके कटे टुकड़े ट्रकों में लाद कर दूर भेजे जा रहे थे।
अन्त में, मेरे परिवार के सदस्य एक—एक कर मुझसे बिछुड़ने लगे। मैं मूक खड़ा रो पड़ा। मेरे भाई—बहन, बन्धु—बान्धव पहले ही दौर में साथ छोड़ गये। आतताइयों ने एक बड़ा—सा आरा लेकर मेरे पास स्थित मेरी माँ के शरीर पर चलाना प्रारम्भ कर दिया। माँ दर्द से कराह उठी उसके शरीर से बह रहे रक्त को देख मैं बिलख उठा। काश! ईश्वर ने हम पेड़—पौधों को इस संसार में भेजने के साथ ही हमें अपनी रक्षा स्वयं कर पाने लायक भी बनाया होता। काश! वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु जैसा कोई आज होता, जो इन आतताइयों को हमारे खून और आँसू को इस समय पढ़ा सकने में समर्थ होता। काश! कोई....... ऐसा होता, जो हमारी रक्षा कर सकता।
मेरी माँ कराहते हुए ईश्वर से प्रार्थना कर रहीं थीं, ‘‘ईश्वर इन मनुष्यों को माफ कर देना, क्योंकि यह नहीं जानते कि जो यह कर रहे हैं; वह इनके लिए भी ठीक नहीं है। ये नादान मनुष्य प्रकृति के नियमों से पूरी तरह से आज भी वाकिफ नहीं हैं; जो यह नहीं जानते कि वह हमें नष्ट कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।''
अब मेरी माँ के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे, उनकी आँखें झपक रहीं थीं, उनका आधा शरीर कट चुका था। वह किसी भी पल लहराकर गिर सकती थीं। दो मोटे अर्द्धनग्न काले आतताई बेरहमी से अपना आरा उनके कोमल शरीर पर चलाए जा रहे थे। चारों ओर हमारे ही लोगों की लाशें थीं। क्षत—विक्षत लहूलुहान शरीर कटे पड़े थे।
आकाश मै सूर्य तेजी से चमक रहा था। वह धरा, जो कभी सूर्य की किरणों को तरसती थी। आज पूरा प्रकाश पाकर भी दुःखी थी। उसे भी हम सबसे बिछुड़ने का बेहद अफसोस है। परन्तु हाय! उसे भी विधाता ने सिवाय अफसोस करने के कुछ नहीं दिया, जो विरोध कर पाती। क्या? विधाता ने मनुष्य के सिवाय किसी को भी विरोध करना नहीं सिखाया? विधाता ने ऐसा अन्याय क्यों किया? आखिर क्यों उसने हम सबको अपनी रक्षा और विरोध कर पाना नहीं सिखाया? काश.....
‘बेटे'! माँ की कारुणिक पुकार सुन मैं चौंका। वह कराह कर मेरे ऊपर मेरी रक्षा करने के लिए झुक गयी थी। मैं बिलख उठा। माँ की बेवश आँखों में मैंने झाँक कर देखा, जिसमें अपने से ज्यादा मेरी चिन्ता थी। उसने मेरी आँखों से बह रहे आँसुओं को पोंछ मुझे अपने आँचल में समेट लिया..
बेसुध होने से पहले मैं तेज स्वर में माँ से लिपटते हुए चीख पड़ा, ‘‘माँ...... माँ...... बचाओ...... माँ..... मुझे ब...चा...ओ ऽऽऽ
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