एक बूँद इश्क
(4)
गणेश ने अपनी साँसों को रोक लिया और बस एकटक उसे ही देखे जा रहा है। उसे समझ नही आ रहा कि वह इस वक्त क्या करे? ये मेमशाव शाधारण औरत नही लगतीं, जरूर कोई बड़ी बात है। लेकिन अब हम कैशे पता करें? हे जागेश्वर बाबा! आप ही कोई राश्ता निकालो।"
"आइये मेमशाव वहाँ कोई नही है" गणेश ने हौले से कहा है।
नदी की कल-कल की आवाज़ आनी शुरु हो गयी है। उसकी भीगी हवा की फुहार तन-मन सब-का-सब भिगो रही है। गणेश की पुकार जागेश्वर बाबा ने सुन ली है और रीमा पत्थर को छोड़ कर आगे की तरफ बढ़ने लगी जैसे वह कुछ ढ़ूँढ रही है।
उन दोनों के बीच दो तरफा मौन है, न तो गणेश कुछ बोल पा रहा है और न रीमा कुछ पूछ रही है। वह जैसे सब जानती है, यह उसी का इलाका है। बरसों बाद अपने घर लौटने का सुख ले रही है, ऐसा आनन्द, ऐसा अपनत्व जो उसे पहले कभी नही मिला वह खोई हुई चाल से स्वतः ही आगे बढ़ रही है और वह इसमें घुलती जा रही है।
आस-पास के पेड़ों पर बंदरों का झुण्ड उछल- कूद मचा रहा है, उनमें से एक बंदर उन्हें देख कर अजीब-अजीब मुँह बनाने लगा तो गणेश ने झाड़ियों मे से एक पतली सूखी टहनी को तोड़ लिया है। जो बंदरों से बचने के लिये एक हथियार की तरह है। वैसे बंदर स्वभाविक तौर पर खूंखार प्रवृत्ति के नही होते उन्हें तो खाने के लिये कुछ मिल जाये बस इसीलिये गुर्रा कर अपनी माँग रखते हैं। दूसरा आवा-जाही न होने से बंदरों ने अपना एकछत्र राज्य जो बना लिया है अब किसी का आना उनकी स्वतंत्रता में बाधा जैसा है। सो उनके बीच हलचल होना स्वभाविक ही है।
ढलान से उतरते ही पानी का शोर तेज हो गया है। पत्थरों के बीच से अपना रास्ता बनाती हुई नदी का पानी अपनी धुन में बह रहा है। वहाँ बड़े-बड़े पत्थर हैं जिनको यह जाने कितना ऊपर से बहा कर लाई होगी। अदभुत नजारा है वहाँ का, जहाँ हरियालीहै, पहाड़ हैं, नदी है, पानी है, पत्थर हैं खुशबू है, पक्षीं हैं और प्रेम है, हजारों चिड़ियें ची चीं का शोर कर रही है जिसने पूरे आकाश को गुँजा दिया है.. ...नही है तो इन्सानी खुश्बू नही है वहाँ पर।
अब गणेश ने चुप्पी को तोड़ा है- "देखो मेमशाव, ये वही नदी है जहाँ............."
उसकी बात अधूरी सुनते ही रीमा बोल पड़ी है...
"हाँ, देखो दादा...वो रहा जिसने बैजू को घायल कर दिया था...यह वही पत्थर है जिसने बैजू को मारा है....देखो दादा उसमें बैजू का खून भी लगा है.....ये वही है...वही है......जिसने मेरे बैजू को मार दिया....मेरा बैजू...कहाँ है? ....दादा इसी ने मारा है ये हत्यारा है दादा.....बैजू.......बैजू......देखो मैं आ गयी हूँ....तुम कहाँ हो आ जाओ एक बार.....एक बार आ जाओ बैजू...मैं तुमसे ही मिलने आई हूँ... बैजू......"
वह पागलों की तरह चीखे जा रही है। उसकी आवाज़ पत्थरों से टकरा कर लौट रही है। वहाँ एक भंयकर गूँज पैदा हो गयी है जो दिल को कँपा रही है। वह चक्कर खाकर गिरने को है कि गणेश ने उसे संभाल लिया है। वह उसे वहीं एक पत्थर पर बैठा कर बोतल से पानी पिलाने लगा है-
"लो मेमशाव थोड़ा सा पानी पी लो, आप की तबियत ठीक नही लग रही...चलो वापस चलते हैं ऊपर.." गणेश उसे संभाल रहा है और डर भी गया है। न तो उसके पास मोबाइल है और न ही कोई साथ है ऐसे में वह क्या करे? इतना नीचे कोई आता-जाता भी नही है। थोड़ा ऊपर की तरफ शंकर रहता तो है मगर उशको बुलाने में वक्त लगेगा तब तक इनको यहाँ अकेला कैशे छोड़ा जा शकता है। गणेश उधेड़-बुन में लगा है।
"काश! मेमशाव की तरह कोई पथिक आ जाये जो प्रकृति प्रेमी हो"
रीमा की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे हैं। वह खामोश बैठी है बिल्कुल निढाल सी। गणेश भी वहीं घास पर बैठ गया है उसे डर है कहीं रीमा गिर न जाये। रीमा अपनी सुध में नही है बस रोये जा रही है। गणेश उसे सांतवना देने की कोशिश में लगा है-
"मेमशाव आपने कोई स्वप्न देखा होगा ये उशी का अशर है? यहाँ कोई बैजू नही है और न ही किशी पत्थर पर खून है...आइये हम दिखाता है आपको...."
रीमा अभी भी एकदम खामोश बैठी है जैसे वह भी यहाँ का एक पत्थर हो। उसका इस तरह जुड़ जाना खतरे का संकेत दे रहा है। पहला तो यही कि अगर इन्हें कुछ हो गया तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो जायेगी, दूसरा अगर यह सच हुआ तो ....? ये बैजू कौन है? और इनका क्या रिश्ता है बैजू से? फिर ये तो पहली बार ही आई हैं यहाँ पर? इतनी पुरानी बात जो कहानी दादी सुनाया करती थीं वो इन्हें कैसे मालुम है? कहीं इनका चन्दा से कोई रिश्ता तो नही? क्यों कि ये जगह चन्दा की कहानी से ही जुड़ी है और उसके बाद लोगों ने यहाँ आना भी छोड़ दिया.....जो भी हो हे जागेश्वर बाबा! रास्ता दिखाओ..मद्द करो बाबा!"
गणेश रीमा को चेतना में लाने की कोशिश कर रहा है। उसने थोड़े से पानी के छीटें उसके मुँह पर मारे हैं। मगर वह बेहोश नही है, सुध-बुध खोये बैठी है, जैसे कोई बुत हो। अब गणेश ने उससे आग्रह किया है-
"आइये मेमशाव थोड़ा हिम्मत करिये..चलिये वापस रिजार्ट चलते हैं।" उसने रीमा को सहारा देकर खड़ा करने की कोशिश भी की। मगर वह जाने को तैयार नही है। अब गणेश हार कर उसके पास ही बैठ गया है। उसकी हथेलियों को सहला कर गरम कर रहा है जो एकदम बर्फ की तरह ठंडी हो गयी हैं। वह कभी उसके पैर के तलवे रगड़ता तो कभी हाथ की हथेली...रीमा का शान्त हो जाना बेहद डरावना है उस पानी की जोर दार आवाज़ से भी ज्यादा जो अनवरत बहता जा रहा है अपनी गर्जना के साथ, अकेला न जाने कब से?
अचानक रीमा के शान्त पड़ी देह में कुछ हलचल सी हुई है। वह सुबुक-सुबुक कर रो रही है। बस रोती ही जा रही है। उसकी हिचकियाँ बँध गयीं हैं। गणेश स्तिथी को समझने की जद्दोजहद में लगा है। कभी वह उसे चुप कराता तो कभी पानी पीने को कहता तो कभी अपने ईष्ट बाबा जागेश्वर! को याद करता। न जाने आगे क्या होने वाला है?
रीमा एकदम उठी और उठ कर पानी की तरफ बढ़ने लगी। गणेश उसके पीछे-पीछे चल रहा है। रीमा ने पानी के बिल्कुल नज़दीक पहुँच कर उसको अपने हाथों में भर लिया है- "बैजू ..देखों मैं आ गयी हूँ..कहाँ हो तुम...देखो आकर इसी पानी में हम बैठा करते थे न? तुम्हारी सूरत मुझे दिखाई पड़ रही है ..ये पानी, ये नदी, ये पेड़, ये पहाडियाँ हमारे प्यार की गवाह है...हमारा प्यार सच्चा है बैजू...और देखो मैंने अपना वायदा निभा दिया...तुम क्यों नही आते? मैं तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ..तुम्हे आना ही पड़ेगा..... "
कहते-कहते रीमा काँपने लगी और बेहोश हो गयी है फिर वहीं कटीली घास में गिर पड़ी है।
जिसका डर था वही हुआ। कई बार हालात हमारे हाथ में नही होते मगर उसकी सूचना पहले दे जाते हैं। रीमा की हालत देख कर गणेश को अन्देशा हो गया था कि कुछ बहुत खराब होने वाला है। अब घबराने की बजाय समझदारी से काम लेना है। मुश्किल घड़ी अपने साथ कई और मुश्किलों को लेकर आती है। ऐसे वक्त में इन्सान की कठोर परीक्षा होती है।
वह अकेला रीमा को उठा कर नही ले जा सकता था और न ही छोड़ कर जा सकता था। वह सोचने गा कि क्या किया जाये? तभी उसे ध्यान आया कि हो- न -हो मेमशाव के पर्श में जरुर इनका मोबाइल होगा, हम किसी को बुला लेते हैं।
गणेश ने रीमा के पर्स को न चाहते हुये भी खोल कर उसमें से उसका मोबाइल निकाल लिया। ऐसा करना उसकी मजबूरी थी। मगर यह क्या ? वह तो लॉक है। गणेश ने कई बार उसे खोलने का प्रयास किया मगर सब व्यर्थ।
अब क्या किया जाये? एक ही रास्ता है कि उसे यहाँ छोड़ कर ऊपर मद्द के लिये किसी को ढूँढा जाये। उसमें भी एक डर है यहाँ चारों तरफ बंदरों का बसेरा है, जो उसे नुकसान पहुँचा सकते हैं। तमाम कीट हैं जो सुनसान जगह में बास कर लेते हैं। अगर किसी ने काट लिया तो? नही..नही..मैं मेमशाव को इस खतरे में नही डाल सकता।
"हे जागेश्वर बाबा! हमें हिम्मत दो, कहते हुये उसने रीमा को अपनी बूढ़ी परन्तु मजबूत बाहों से उठा लिया और उठा कर एक पत्थर पर पैर के सहारे टिका दिया। अगले ही पल एक जोर दार आवाज़ निकालते हुये उसे अपनी पीठ पर लाद लिया। "आह...बस बाबा हिम्मत देना हम किसी तरह थोड़ा ऊपर पहुँच जाये वहाँ तो कोई-न-कोई मिल ही जायेगा।"
गणेश अपनी पीठ पर रीमा को लादे चलता चला जा रहा है। पहाड़ का मर्द है तो ताकत भी है और हिम्मत भी, लेकिन उम्र न तो जगह देखती है और न ही हालात, पचास बरस की उम्र में किसी पच्चीस बरस की औरत को उठाना मजाक नही है। गणेश अपने पूरे जोशो-खरोश से चढ़ रहा है।
करीब दो मील की चढाई के बाद अब इक्का-दुक्का झोपड़े दिखाई पड़ रहे हैं। गणेश की फूलती हुई साँसों में फिर से जान लौट आई है। शंकर का घर भी करीब ही है लगभग सौ-डेढ सौ मीटर आगे ही....ये रास्ता भी कट ही जायेगा।
"अरे गणेश! ये तू कहाँ से आ रहा है? और ये कौन है तेरी पीठ पर? " कहने के साथ ही शंकर ने रीमा को उतारते हुये जल्दी से अपनी पीठ पर ले लिया है। गणेश बुरी तरस हाफ रहा है।
"तू यहीं ठहर हम पानी लेकर आते हैं और इन मेमशाव को खाट पर लिटा देते हैं।" दर असल शंकर स्तिथी को भाँप गया है। उसके बाल धूप में सफेद नही हुये। अनुभव का पिटारा है उसके भी पास, फिर दोनों में दोस्ती भी पक्की है। वेश-भूशा देख कर ही वह समझ गया है कि यह कोई शहरी औरत हैं जो जरुर घूमने की इच्छा से आई होगीं और पहाड़ों की कठीन चढाई से थक कर बेहोश हो गयी होगीं।
ऐसे में शंकर न भी मिलता तो सब झोपड़े अपने ही हैं। उस छोटी सी बस्ती में अभी शहरी आवरण नही चढ़ा है। सबके घर सबके लिये खुले हैं। न तो कोई हिचकता है और न ही कोई एतराज करता है। सो गणेश वहीं पसर गया। उसका मुँह सूख रहा है और बोलने की हिम्मत नही बची है।
क्रमशः