Aouraten roti nahi - 11 in Hindi Women Focused by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | औरतें रोती नहीं - 11

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औरतें रोती नहीं - 11

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 11

अनजाने द्वीप

यह भी एक दुनिया है! दुनिया जहान से बेखबर लोग। कहां आ रहे हैं, कहां जा रहे हैं? इनके चेहरे इतने पारदर्शी क्यों नहीं? न यात्रा का उत्साह, न ठौर तक पहुंचने का रोमांच।

कितना फर्क है विमान और रेल के यात्रियों में। इस समय अगर ट्रेन से जा रही होती, तो साथ बैठी व्यापारी की पत्नी अब तक अपना भूगोल-इतिहास बता उससे भी बहुत कुछ उगलवा चुकी होती।

एक ही बार श्याम के साथ रेल में सफर किया था मन्नू ने। बहुत इच्छा थी तिरुपति जाने की। पढ़-सुन रखा था। पहली बार जब श्याम बीमार पड़े, तो उसने मन्नत मांग ली कि ठीक होते ही तिरुपति जाऊंगी। श्याम तैयार न थे, बहुत मुश्किल से राजी किया उनको।

स्लीपर क्लास में दो परिवार यात्रा कर रहे थे। ट्रेन चली ही थी कि सहयात्री ने पूछताछ शुरू कर दली। अपने बारे में बताने लगी कि दो बच्चों में से एक मानसिक रूप से अस्वस्थ है। उसी के लिए तिरुपति जा रही है। पता नहीं, कितन-किन मंदिरों के दर्शन कर चुकी है। घंटे भर बाद अपना खाना भी उसने मन्नू के सामने खोलकर रख दिया और बातों का पुलिंदा जारी रहा, ‘‘मैं सफर में खूब खाती हूं। इस रास्ते तो कुछ मिलता ही नहीं बहन। महाराष्ट्र तक तो ठीक है, इसके बाद तो पूरी-भाजी भी नहीं मिलती। हमें नहीं रुचती इडली-फिडली। मरे, रोटी तो बनाना ही नहीं जानते। मैं तो घर से पूरा स्टॉक लेकर चलती हूं।’’

अपने जवान बच्चे को भी वह ठुसाए जा रही थी। बच्चा घों-घों की आवाज निकालकर खा रहा था। मन्नू को उसने अपनी रामहानी ऐसे बताई कि वह पिघल गई। उसे पता ही नहीं चला कि कब सहयात्री ने उसकी जिंदगी पर हाथ रख दिया है। कब शादी हुई, बच्चे कहां हैं? कितने हैं? सास कहां रहती है? तुम्हारे वो तुमसे उम्र में इतने बड़े क्यों लग रहे हैं? दूसरी शादी है क्या उनकी? शादी पक्की तो है न? कहीं तिरुपति शादी करने तो नहीं जा रहे? तुमने अपना सामान एक अटैची से निकाला और उनका दूसरी से? साथ क्यों नहीं रखा सामान?

मन्नू का चेहरा फक पड़ गया। तो क्या उसका चेहरा इतना पारदर्शी है? श्याम खीझकर बाहर चले गए और देर तक दरवाजे के पास ही खड़े सिगरेट फूंकते रहे। मन्नू ने न चाहते हुए भी कुछ-कुछ बता ही दिया। पता था उसे कि श्याम को बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा उसका इतना अंतरंग होना।

पुरानी बातें। लगता है इस सदी की बात नहीं। ढीली सलवार और जेब वाले कुर्ते में आंखें मींचे बैठी मन्नू में जमीन आसमान का अंतर था। विमान जब रफ्तार भरते हुए आसमान में उड़ान भरने लगा तो मन्नू ने आंखें ही बंद कर लीं। मिनटों बाद आंखें खोलकर देखा, तो उज्ज्वला खिड़की से बाहर झांक रही थी। उसके चेहरे पर कहीं डर नहीं, बस एक उत्सुकता थी। पद्मा की जीन्स और काली लंबी टीशर्ट में उज्ज्वला अपनी उम्र से दस बरस छोटी लग रही थी। हाथों को घुटनों पर दिए वह सोच रही थी कि जिंदगी का यह अध्याय कितना विचित्र है, कितना अलग। ऐसी जिंदगी तो उसने कभी जी नहीं।

पहले वाली उज्ज्वला होती, तो ऐसा कभी न कर पाती। मां को पता चल गया है कि इन दिनों वह क्या कर रही है। एक ही शहर में रहते हुए वह साल में एकाध बार ही मिल पाती थी मां और भाई से। भाई दूज या दीवाली के दिन। पहले अंतरा उससे कभी-कभी मिलने आ जाया करती थी, पिछले दो साल से उसका आना कम हो गया था। सास की बीमारी से उसे तोड़ कर रख दिया था। अपनी छोटी बहन को इस हाल में देखना बुरा लगता था उज्ज्वला को। पहले अंतरा जब भी आती, उज्ज्वला कुछ रुपए पकड़ा दिया करती थी। मां भी उससे मांग लिया करती, कभी घर ठीक करने के नाम पर, तो कभी भाई के बिजनेस के लिए।

पिछले बरस मां ने उससे दो लाख रुपए लोन लेने को कहा। पहली बार उज्ज्वला हिचकिचाई। इतना बड़ा लोन? चुकाएगी तो वही। सोच कर देखा तो पाया कि मां और अनिरुद्ध ने उसके लिए कभी कुछ किया नहीं। न पैसे से न भावनात्मक रूप से। जब सहारा देने का समय आया तो उसे उठाकर रखवा दिया मन्नू के पास। पहले इतना गुस्सा नहीं आता था उन पर, अब खून खौलने लगता है।

उसने मना कर दिया तो मां नाराज हो गईं। आठ-दस महीने तक बात ही नहीं की। भाई दूज आकर चली गई, उसे बुलावा नहीं आया। उज्ज्वला खूब रोई उस दिन। मन्नू ने ताना कसा, ‘बेवकूफ है तू उज्ज्वला। क्या करेगी वहां जाकर? किसके लिए टसुए बहा रही है? देख लिया न, क्या है तेरी औकात? ये तो तेरे परिवार के खून में है। जरूरत के वक्त इस्तेमाल करते हैं, फिर दूध से मक्खी की तरह निकाल बाहर करते हैं।’

अंदर की असुरक्षा बड़ी घातक होती है। जानलेवा। यह अहसास कि कोई नहीं है तुम्हारा, लेकिन तुम अकेली नहीं। कई आंखों ने घेर रखा है। घेरे को तोड़ने का सास करोगी, तो मारी जाओगी। दूर रहते हुए भी महज कठपुतली ही तो थी मां के हाथों की। लगता था मां की सौ आंखें हैं। उसे देखती रहती हैं हर वक्त। वह अपनी परिधि लांघ तो नहीं रही?

पिछले सप्ताह अचानक बैंक में उससे मिलने अनिरुद्ध टपक पड़ा। सदियों बाद। बाहर ही बुलवा भेजा। उज्ज्वला काम बीच में छोड़ उठी। क्या हो गया? मां की तबीयत? या हमेशा की तरह पैसा?

उज्ज्वला को देखते ही अनिरुद्ध ने कुछ शुष्क स्वर में कहा, ‘‘मां ने कहलवाया है... तुम अब मन्नू चाची के घर नहीं रहोगी। अंतरा के ससुर की बड़ी बहन अकेली रहती हैं गुड़गांव में। तुम वहीं रहोगी। सामान बांध लेना...’’

पहले पहल तो उज्ज्वला को कुछ समझ न आया। इन दिनों वह पद्मप्रिया बन यह भूल सी गई थी कि उसे जिंदगी में खाने-पीने और सांस लेने का आदेश हाई कमान से लेना होता है। उसने जैसे सुना ही नहीं। अपनी धुन में पूछा, ‘‘यहां कैसे आ गए आप? मां ठीक तो हैं?’’

अनिरुद्ध भड़क गया, ‘‘मैं क्या कह रहा हूं और तुम क्या बकबक कर रही हो! सुन नहीं रहीं, मैं कह रहा हूं कि आज शाम तुम मन्नू चाची के यहां से अपना सामान बांधकर घर पहुंच जाना। आगे मां बताएंगी तुम्हें क्या करना है?’’

उज्ज्वला चौंक गई। अब इस तरह के आदेश लेने के लिए वह प्रस्तुत नहीं थी। इस समय वज जवाब देने के मूड में नहीं थी। अपनी आवाज को नियंत्रित करते हुए उसने बस इतना कहा, ‘‘मुझे कहां रहना है और कहां नहीं रहना है, यह मैं तय करूंगी। तुम्हें और कुछ कहना है तो जल्दी बोलो, मैं काम बीच में छोड़कर आई हूं।’’

अनिरुद्ध हक्का-बक्का रह गया। उज्ज्वला इस तरह से भी बोल सकती है? अबकी उसने कुछ जोर से कहा, ‘‘हमें सब पता पड़ गया है। तुम पागल हो गई हो। मन्नू चाची तो थी ही बावली, तुमने भी अक्ल बेच खाई है। अजीब-अजीब ढंग के कपड़े पहन कर घूमती हो, अय्याशी करती हो। ...तुम भूल गईं किस परिवार की लड़की हो! मां ने बुलाया है तुम्हें, वही बताएंगी...।’’

उज्ज्वला ने अपने भाई का चेहरा देखा। इतने सालों में बिल्कुल नहीं बदला। वही का वही। शायद उसे कोई पद्मजा अभी तक मिली नहीं, जो उसके सामने आईना रख पाती। बेचारा... दया आई उज्ज्वला को। मेरुदंड विहीन पुरुषों की जंदगी ऐसी ही होती हे। पहले भी दिखने में कोई खास न था अनिरुद्ध, मां ही उसे चढ़ाए रखती थी। बचपन में अतिशय दुबला था। कद निकलने लगा तो पीठ झुगी-झुकी सी रहने लगी। बाल सदा से कम थे, अब तो लगभग गंज निकल आई है। नाक के आसपास बाल, बेहद महीन सी मूंछ। उज्ज्वला से बात करने के बाद वह तेजी से बाएं हाथ की कनिष्ठ उंगली मुंह में दाबे नाखून चबा रहा था। आंखें फड़क रही थीं और होंठों पर झाग सा आ जमा था। कितना डर लगा रहता था उसे अनिरुद्ध से। कहीं वह उसे गलत न समझ ले। उसके घर से भी वह चुन-चुनकर बेरंग कपड़े पहनती, ऑटो छोड़ हमेशा बस में चलती। अनिरुद्ध मां से कह देगा कि वह सड़क किनारे शर्मा चाट भंडार के सामने गोलगप्पे खा रही थी। एक साथ दो चप्पलें खरीद ली हैं उसने। दो दिन ऑफिस नहीं गई। ऐसी तो तबीयत खराब न थी...

उसकी जिंदगी में भंवर पैदा करने के लिए ये छोटी-छोटी बातें ही काफी थीं। मां क्या कहेगी? अनिरुद्ध शिकायत न कर दे? हर वक्त डर, फिजूल सा डर। इससे? ये जो आदमी खड़ा है उसके सामने, जिसकी टांगें लगातार कांप रही हैं, जो यह सह नहीं पा रहा कि उसकी बहन उससे आंख मिलाकर बात कर रही हे, किस मिट्टी का बना है? उज्ज्वला को दया आ गई। भाई ने भी अपनी जिंदगी में क्या देखा? किशोर ही था, जब इस अहसास ने शर्म से गाड़ दिया कि पिता घर से बाहर किसी से मिलने जाते हैं। अवैध रिश्ता। मां ने मुट्ठी में इतना कस लिया कि अपने लिए कुछ रहा ही नहीं। शादी के इतने बरस बाद भी वह जब कभी बाहर जाता है, तो उसकी मारुति कार में उसके साथ मां आगे बैठती हैं और पत्नी पीछे। मां के बिना वह घर से पांव भी बाहर नहीं निकालता। सुबह उठते ही मां चाय का कप पकड़ाती हैं। मां-बेटे चैन से पैर पसारकर एक साथ चाय पीते हैं, ग्लूकोज बिस्किट को चाय में डुबो-डुबोकर। दफ्तर जाता है, तो मां दरवाजे तक आती हैं बाय कहने। शाम को लौटते ही सीधा मां के पास। घंटाभर उनसे गपशप। खाना भी दोनों साथ खाते हैं गर्म-गर्म। सोने से पहले भी साथ में टीवी देखते हैं। न बीवी के लिए वक्त, न अपने बच्चे के लिए। उसकी पत्नी भी एक दूसरी अनिरुद्ध तैयार कर रही है, अपना मोर्चा मजबूत करने के लिए। धीरे-धीरे।

उज्ज्वला ने उस दिन अपने को खून के रिश्ते के अंतिम तंतु से भी मुक्त कर दिया। इतने सालों में मां और भाई के होने भर का अहसास उसे एक रिश्ते की डोर में बांधकर रखता था। इस बेमानी रिश्ते का क्या मतलब? अपने ढर्रे को तोड़ने में इतनी दिक्कत क्यों?

अनिरुद्ध के जाने के बाद उज्ज्वला ने पांच मिनट भी उसके बारे में नहीं सोचा। बस रात को मन्नू और पद्मजा से जिक्र किया- कुछ हंसते हुए, तो कुछ व्यंग्यात्मक शैली में, तमाम नाटकीयता के साथ- मैं यहां नहीं रहूंगी। मां का आदेश है कि मन्नू आवारा हो गई और एक जादूगरनी के चक्कर में आ गई है, इससे बचाना होगा। फिर ढूंढना होगा ऐसा आशियाना जहां रहकर बेटी को बस सांस लेना भर याद रहे, जीना नहीं।

मन्नू खी-खी हंसने लगी। पद्मा ने गंभीरता से जोड़ा, ‘‘एक आवारा और जादूगरनी के साथ चुड़ैल को क्यों भूल गईं?’’

‘‘मैंने तो मरने के बाद नया जन्म लिया है चुड़ैल के रूप में। कम से कम इस रूप में ही सही, खुलकर सांस तो ले रही हूं।’’

कुछ देर बाद जब हंसी-मजाक का माहौल थमा, तो पद्मजा ने लंबी सांस लेकर कहा, ‘‘कहीं न कहीं हम तीनों की कहानी कितनी मिलती है। हम सब रिश्तों में छले गए हैं। मन्नू श्याम के हाथों, तुम अपनी मां के हाथों और मैं मैक के हाथों। जब तक हम उनकी भाषा बोलते हैं, उनके रंग में रंगे रहते हैं, उनके तय किए ढंग से जिंदगी जीते हैं, उन्हें अच्छे लगते हैं। और जैसे ही हम उनकी पकड़ से बाहर जाने लगते हैं, वे हमें अस्वीकार कर देते हैं।’’

उज्ज्वला की आंखें थोड़ी सी नम हो उठीं। मन्नू ने उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया, ‘‘तुम अकेली थोड़े ही हो। इस तरह घुट-घुट के बहुत जी लिया उज्जी, पता नहीं कितनी जिंदगी बाकी है। छोड़ परे अपने घरवालों को। बहुत नाच लिया उनके इशारे पर।’’

सर्दियों के दिन बस अभी-अभी विदा हुए थे। खुला सा मौसम। मन्नू सबके लिए गर्म-गर्म बादामवाला दूध लेकर आई। धीरे-धीरे चुस्कियों की आवाज। तीनों अपनी सोच में डूबी हुई थीं। खामोश। जब बरामदे में ठंड उतरने लगी, तब हड़बड़ा कर मन्नू बोली, ‘‘सोने नहीं चलनाक्या? दो बजने वाले हैं।’’

पद्मा की आंखों में नींद नहीं थी। उसे आदत नहीं थी इतनी जल्दी सोने की। उसने एक तरह से हाथ पकड़ खींच ही लिया मन्नू का, ‘‘रोज तो सोती हो, आज जरा जगकर देखो मेरे साथ... देखो, तुम्हारे उठते ही मेरा थॉट प्रोसेस भी रुक गया।’’

फिर उस रात की सुबह होने तक वे तीनों डटी रहीं। खामोशी के दौर के बाद लंबा बखान चला अपने-अपने दुख-दर्द बांटने का। वो रात उन तीनों को और भी करीब ले आई थी।

क्रमश..