Return gift in Hindi Moral Stories by Sudhir Kamal books and stories PDF | रिटर्न गिफ्ट

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रिटर्न गिफ्ट

रिटर्न गिफ्ट

--“आज जल्दी लौट आना, गैस चूल्हा सुधरवाना है।“ मां ने दाल बघारते हुये पापा से कहा।

--“आज नहीं आ सकता जल्दी, ऑडिट वालों का अंतिम दिन है, फायनल करते-करते शाम हो जायेगी।“

--“तुम्हारा तो हमेशा यही चलता रहता है, आज ये ऑडिट, आज वो ऑडिट, जैसे तुम्हीं भर काम करते हो

ऑफिस में।“ इस बार मां गुस्से से बोली।

--“चिल्लाओ मत, तुम क्या करती रहती हो दिन भर घर में, चली जाओ रिक्शे से बाजार …………..इनके लिये हर

रोज जल्दी घर आओ, इन्हीं की नौकरी करो, बस।“ पापा ने उनसे भी ऊंची आवाज में कहा।

--“अब सब काम मैं ही कर लूं ……..तुम कुछ मत करना ……..बस बैठ के ऑडिट कराना ………मैं दिन भर घर में खटूं,

मरुं………… किसी को क्या?”

इस बार मां की आवाज जरा नीची पर गुस्से से भरी थी। पापा ने कोई जवाब नहीं दिया पर जिस तरह उन्होंने बाथरुम का दरवाजा जोर से बंद किया, लगा कि वो खीझे हुये हैं। बंटी ने कनखी से मेरी ओर देखा, मैंने उसकी ओर, फिर किताब में नजर गड़ा ली। सामान्यतया ऐसा होता नहीं था पर न जाने आज क्या बात थी। मां ने पापा का टिफिन बॉक्स जोर से टेबल पर पटक किया, हम लोग अपने कमरे में सहम गये।

--“दादा, अब क्या?” बंटी मेरी तरफ देखते हुये फुसफुसाया। मैंने उसकी तरफ देखा तो पर कोई जवाब नहीं सूझा।

--“पापा अभी निकल जायेंगे, बात करो न दादा एक बार।“ मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी, आज घर का माहौल ठीक न था, कम से कम महीने के अंतिम दिनों में खीझे हुये पापा से पैसे मांगने लायक तो बिल्कुल भी नहीं। --“दादा, सब गड़बड़ हो जायेगा, प्लीज दादा, करो न बात।“

बंटी मेरा छोटा भाई था, मुझसे तीन साल छोटा, कुल नौ साल का, बेहद प्यारा। वह भी मुझसे बेहद प्यार करता था। मजाल है कि कोई उसके सामने मुझे कुछ कहकर चला जाये। पिछले ही महीने स्कूल में मेरी किताब छीन रहे एक तगड़े बच्चे का सिर पत्थर मारकर फोड़ दिया था, सीधे-सीधे हम दोनों ही उससे लड़ जो नहीं सकते थे। बंटी के याचनायुक्त दबाव का असर यह हुआ कि मैं पापा के सामने जा खड़ा हुआ।

--‘क्या है?’ पापा ने भौंहों के इशारे से पूछा। मतलब, अब वे एकदम सामान्य थे, मेरी हिम्मत बढ़ गयी।

--“पापा सौ रुपये चाहिये।“

--“सौ रुपये! क्या करोगे?” मैं चुप रहा। पीछे आहट हुई, देखा तो मुझसे थोड़ा पीछे बंटी खड़ा था, दोनों हाथ हाफ पैंट की जेब में डाले। मेरी हिम्मत और बढ़ गयी।

--“चाहिये पापा, ऐसे ही।“

--“चार-पांच सौ मुझे भी चाहिये, पोस्ट ऑफिस वाले शर्माजी रिकरिंग डिपॅाजिट लेने आयेंगे आज।“ मां ने भी अपनी मांग रख दी। अब उनकी भी आवाज में नरमी थी। --“चलो तुम दोनों दूध पी लो, ठंडा हो जायेगा नहीं तो।“

पहले भी अक्सर मां-पापा की तकरार हो जाया करती थी जो घंटे दो घंटे से ज्यादा नहीं चलती थी। मध्यमवर्गीय भारतीय समाज में पति-पत्नी का रिश्ता फूल में सुगंध, मधु में मिठास और दूध में पानी के समान होता है, ईश्वर द्वारा संसार में रचे गये हर मानवीय संबंध में प्रगाढ़तम, पूर्णतया अविभाज्य!

--“तुम लोगों को दे दूंगा तो मुझे कम पड़ जायेंगे। बबलू, मैं तुम्हें एक चेक दे देता हूं, बैंक से जाकर पैसे ले आना। अब

तुम बड़े हो गये हो, फिर कब सीखोगे?” पापा ने जूते के तस्मे बांधते हुये कहा।

--“कर लेगा ये? कहीं कुछ हो न जाये।“ मां ने शंका प्रकट की, मुझे अच्छा नहीं लगा। पापा ने मां को अनसुना करते हुये पांच सौ रुपये का एक चेक मेरे हाथ में देकर बैंक से पैसा निकालने की पूरी प्रक्रिया समझायी और मेरी पीठ पर हल्की सी धौल जमा कर दरवाजे से बाहर निकल गये। पापा शहर से कोई चालीस किलोमीटर दूर बिजली विभाग के ऑफिस में काम करते थे। मुझे अपने पापा दुनिया के सबसे अच्छे पापा लगते थे, बेहद दुलार करने वाले, भावुक और सीधे-सादे इंसान। अब बंटी जेब से हाथ निकाल कर दोनों हाथों में चेक लेकर उसे पढ़ रहा था।

शहर की एक कॅालोनी में बने मकान में हम कुल चार लोग रहते थे। बाबा बहुत पहले नहीं रहे थे, दादी की धुंधली सी छवि कई साल मेरे जेहन में रही। पहले मैं अक्सर दादी को याद करके भावुक हो जाया करता था। उनके मरने के बाद उनका कमरा प्रायः बंद ही रहता था, एक पलंग, एक पुराना टीवी तथा ऐसा ही कुछ सामान उस कमरे में भरा था। बैंक घर से ज्यादा दूर तो नहीं था पर इतना पास भी नहीं था कि पैदल जाया जा सके। फिर, आज तो एक बड़ा काम करने जाना था सो साइकिल से जाना तय किया। मैं साइकिल ठीक-ठाक चला भी लेता था। मां ने उससे कहीं ज्यादा हिदायतें दीं जो एक मां दे सकती थी। हिदायतों में मुख्य थीं कि साइकिल धीरे-धीरे किनारे-किनारे चलाना, पैसा संभाल कर जेब में रखना और सबसे महत्वपूर्ण कि जल्दी व सीधे घर लौटना। बैंक के सामने साइकिल खड़ी करके ताला लगा ही रहा था कि बंटी ने मेरी पीठ पर उंगली गड़ाकर बैंक के गेट के पास बैठी एक बुढ़िया की ओर इशारा किया। बुढ़िया मनुष्य कम, हड्डियों का ढांचा अधिक नजर आ रही थी। अब हम दोनों उस बुढ़िया के ठीक सामने खड़े थे। उम्र रही होगी यही कोई 80-85 साल, पूरा शरीर झुर्रियों से भरा, खाल और हड्डियों के दरम्यान कोई फासला नहीं, सिर पर बाल न के बराबर। आंखों में बेहद मोटे कांच का एक चश्मा जिसमें बायीं डंडी की जगह एक मोटा धागा कान से लपेटा गया था। साड़ी घुटनों से ऊपर थी, गले में काले धागे का मालानुमा कुछ लटका था जिसमें मोती एक भी न था। बुढ़िया के दायें पैर में घुटने के नीचे एक बहुत बड़ा सा घाव था जिसे मक्खियों से बचाने के लिये उसने एक पतली पॅालीथीन से ढंक रखा था पर घाव पॅालीथीन से बड़ा था जिसमें खून और मवाद साफ दिख रहे थे। जैसे इतना काफी नहीं था, हमारी निगाह उसकी आंख पर पड़ी। बायीं आंख तो जैसे आंख के कोटर से उबल कर बाहर लटक आई थी, एकदम खून से सनी। हम दोनों बुरी तरह सहम गये, बंटी ने तो पीछे से मेरी शर्ट पकड़ ली। बुढ़िया ने आहिस्ता से अपना सिर उठाकर ऊपर देखा और फिर घाव से मक्खियां उड़ाना बंद कर हाथ मेरे सामने पसार दिया, --“कुछ दे दो बाबू!” मेरे जीवन का यह वीभत्सतम दृश्य था जो अचानक मेरे सामने आ पड़ा था। श्रंगार आदि कोमल रसों को लीलकर जुगुप्सा और करुणा आदि रस तांडव करते प्रतीत हो रहे थे।

--“क्या कर रहे हो लड़को, बैंक का कोई काम है क्या?” कंधे पर बंदूक टांगे बैंक के गनमैन ने हम लोगों से पूछा। हठात् मैं तन्द्रा से बाहर आ गया पर उसे कोई जवाब न देकर उसकी तरफ एक बार देखा, फिर बुढ़िया को देखने लगा। --“अरे जाओ, अपना काम कर लो। ये रोज का किस्सा है।“ गनमैन बोला। हम दोनों ने अब उसकी ओर जिज्ञासा से देखा। गनमैन ने बताया कि इस बुढ़िया को रोज इसका लड़का बैंक के गेट के पास बैठा जाता है, लड़का निठल्ला, शराबी तो है ही, परले दर्जे का कमीना भी है। हर दो-तीन घंटों में आकर बुढ़िया से भीख के पैसे छीनकर ले जाता है, उसे चौबीस घंटे शराब चाहिये। ये पैर और आंख की चोट उसी ने दी है। इस हालत में इसे ज्यादा पैसे मिलेंगे, यह सोचकर वो इसकी दवाई भी नहीं कराता। एक बार एक बैंक मैनेजर साहब ने बुढ़िया को डॅाक्टर को दिखाने की कोशिश की थी, इसके लड़के ने बाहर खड़े होकर उन्हें गंदी-गंदी गालियां दीं, तब से इसमें कोई हाथ नहीं डालता। --“क्या कर सकते हैं हम लोग!” गनमैन बोला।

अब हम बैंक के अंदर थे। पैसे मिलने में जरा भी देर नहीं हुई। प्रक्रिया सरल भी थी और छोटी भी। पापा ने प्रक्रिया एक बाप की तरह समझायी थी, बैंक ने पेशेवर तरीके से निपटायी। पैसे सहेज कर जेब में रखते हुये मैंने बंटी की आंखों में देखा। उन छोटी-छोटी गोल-गोल आंखों में एक याचना का भाव था, एक स्पष्ट संदेश छिपा था जो मैं अच्छी तरह पढ़ पा रहा था। बाहर आकर मैंने गनमैन से कहा, --“मैं इनका इलाज कराना चाहता हूं, पैसे हैं मेरे पास।“ गनमैन के चेहरे पर किंचित आश्चर्य एवं लज्जा के मिश्रित भाव उभर आये। उसने बुढ़िया को कुछ समझाया, फिर उठाकर एक रिक्शे में बैठा दिया, मैं व बंटी भी उसी रिक्शे में बैठ गये। इस समय मेरे हृदय में जो भाव, जो रस उमड़ रहे थे, विश्व के किसी भी साहित्य ने उन्हें अब तक कोई संज्ञा नहीं दी थी। --“तीर्थ नर्सिंग होम ले जाना, अभी इसका लड़का एक-दो घंटे नहीं आयेगा। मैं तुम्हारी साइकिल देखे रहूंगा।“ गनमैन बोला।

नर्सिंग होम में बड़ी भीड़ थी। बुढ़िया के घाव की ड्रेसिंग तो जल्दी हो गयी पर आंख के डॅाक्टर से निपटते-निपटते पूरे दो बज गये। दवा खरीदने के बाद मेरे पास मात्र दस रुपये बचे। अब मैं यथार्थ के धरातल पर आ गिरा, उसके पहले तो मैं एक प्रकार की नीमबेहोशी में था, मुझ पर एक प्रकार का नशा सा गा़फ़िल था। यह एक बार भी नहीं सोचा कि जो मैं कर रहा हूं, उसका परिणाम क्या होगा? बेशक बंटी छोटा था पर अब वही मेरी एकमात्र ताकत था। पार्किंग वाले लड़के की मदद से बुढ़िया को रिक्शे में बैठाकर हम दोनों रिक्शे में बैठे ही थे कि बुढ़िया के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं जैसे कोई यमदूत देख लिया हो। उसका लड़का नर्सिंग होम आ धमका था। पहले उसने हमारा मुआयना किया, फिर अपनी मां का। बुढ़िया अपनी कमजोर आवाज से हाथ जोड़-जोड़कर लड़के से उसे बख़्श देने की याचना कर रही थी, और यह याचना भी कि वह हम दोनों को भी कुछ न कहे। लड़के ने ऐसा ही किया। उसने मेरी जेब से दस रुपये का अंतिम नोट और दवाई की पॅालीथीन छीनकर हमें रिक्शे से उतारा और खुद बैठ गया। हम दोनों स्तब्ध से रिक्शे को जाते हुये देखते रहे। --“कमीना है साला, हरामी का पिल्ला, अभी दवाई भी बेचकर पैसे खड़े कर लेगा!” पार्किंग वाले लड़के ने जमीन पर थूकते हुये कहा।

--“वो रहे दोनों!” घर के गेट पर खड़े तीन-चार लोगों में से कोई बोला। साइकिल खड़ी भी न कर पाया था कि मां बिफरती हुई आगे बढ़ी और, --“कहां मर गये थे तुम दोनों?” कहते हुये मुझे तीन-चार झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिये। --“आज चलो घर के अंदर, टांग तोड़कर रख दूंगी तुम्हांरी“, कहती हुई घसीटते हुये घर के अंदर ले चलीं। --“दो घंटे से परेशान हैं बेचारी, हम लोग स्कूटर से सब जगह देख आये थे, कहीं नहीं मिले ये लोग।“ कहती हुई सिन्हा आंटी ने अपना स्कूटर स्टार्ट कर लिया। --“पैसे कहां हैं?” मां ने पूछा। मैंने सिर झुका लिया। --“देखो सच-सच बताओ पैसे का क्या किया वरना आज मैं तुम्हांरा वो हाल करुंगी कि जिंदगी भर याद रखोगे।“ कहते हुये मां ने मेरी सारी जेबें खंगाल डालीं। मेरे मौन और खाली जेबों ने उन्हें गुस्से से भर दिया, फिर उसके बाद मुझे पिटाई की मात्रा और अवधि याद नहीं। इस दौरान बंटी सिर झुकाये खड़ा रहा, मैं रोते-रोते बिस्तर में जाकर लेट गया, फिर न जाने कब आंख लग गयी। पर यह तय है कि मैं मां द्वारा की गयी पिटाई के कारण बिल्कुल नहीं रोया था, पिटाई ने तो मात्र मेरी सुप्त भावनाओं के बांध के गेट खोल दिये थे। बुढ़िया द्वारा निरंतर भोगे जा रहे कष्टों की तुलना में मेरा कष्ट शून्यतुल्य था।

नींद खुली तो देखा कि अंधेरा हो चुका था, मैंने सामने बंटी को खड़े पाया। अरे, यह किस तरह बेफिक्री से खड़ा है, दोनों हाथ पीछे बांधे, हल्का सा मुस्कुराता हुआ। मैं बिस्तर पर ही पालथी मारकर बैठ गया। बंटी पास आकर फुसफुसाया, --“दादा, याद है कि भूल गये मां वाली बात?” बालपन में दुःख, क्रोध आदि भावनायें जैसे आती हैं, वैसे ही जल्दी चली भी जाती हैं, जेठ की बदली की तरह! मैं मुस्कुरा उठा।

--“तुमने मां को अभी बताया तो नहीं न?” मैंने पूछा।

--“नहीं, वो वाली बात बिल्कुल नहीं बताई।“

--“पर अब देंगे क्या?”

--“ये है न!” कहते हुये बंटी ने अपने दोनों हाथ आगे कर दिये, उसके हाथ में एक बड़ा सा लाल सुर्ख गुलाब का फूल था। --“घर के बागीचे का ही है!” बंटी बोला। कमरे में आया तो मां-पापा दोनों को बैठे देखा। हम दोनों ने मां के पास जाकर कहा, --“हैपी मदर्स डे मां!’ मां एकदम भौंचक्की रह गयी। हरहराकर उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने हमारे हाथ से गुलाब लेकर हमें जोर से भींच लिया, पापा मुस्कुरा रहे थे। बोले, --“आई एम प्राउड ऑफ़ यू बोथ! अरे क्यों, अब तुम भी इन्हें कुछ दोगी कि नहीं?” बंटी मुस्कुरा रहा था, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मां हम दोनों का हाथ पकड़कर उस कमरे में ले गयीं जहां दादी रहा करती थीं। दरवाजा खोलते ही मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी, बैंक वाली बुढ़िया बिस्तर पर लेटी सो रही थी। मैं अवाक था! पापा ने गुलाब का फूल बुढ़िया के सिरहाने रख दिया।

--“पर ये तो मां के लिये था!”

--“मां को मदर्स डे गिफ्ट तो तुम लोग दोपहर में ही दे चुके हो।“

--“तो ये क्या है?” मैंने बुढ़िया की ओर इशारा करके पूछा।

--“ये तुम लोगों के लिये रिटर्न गिफ्ट है, हम दोनों की तरफ से!”

मेरे पैसे छीनने और अपनी मां को सताने के जुर्म में पुलिस लॅाकप में बंद इस बुढ़िया के लड़के का हाल तो मुझे पता नहीं, पर लग रहा था जैसे मेरे पापा को उनकी मां वापस मिल गयी हो। मेरी झोली में तो जैसे सारा संसार आ चुका था।

Copyright : Sudhir Kamal/XIX1215/MP