Aadha Aadmi - 7 in Hindi Moral Stories by Rajesh Malik books and stories PDF | आधा आदमी - 7

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आधा आदमी - 7

आधा आदमी

अध्‍याय-7

‘‘अरी नंगी जय्यहें तो जादा भीड़ लगयहे, हिजड़ों को नंगी देखने की तमन्ना सबकी छाती में करवट लेती हय। चलो-चलो निकलो री बच्चा जब बुढ़ा होई जइयहें तब पहुँचोगी का?‘‘

वे सब सलाम करती हुई चली गई।

बिजली जनानी रिक्शे से आयी। वह तहमत और जॉकेट पहने थी। उसके साथ पाँच साल की लड़की थी। ड्राइवर ने शोभा से कुर्सी लाने को कहा। मगर वह हाथ धोने में मस्त थी। जबकि ड्राइवर बार-बार उससे कुर्सी लाने को कह रहा था। बिजली बैसाखी के सहारे खड़ी तो थी। मगर नशे में धुत थी। उसकी तिरछी निगाहें शोभा पर टिकी थी।

‘‘ऐ री तौरे घमंड केतना हय‘‘

‘‘अरी भाग हमरे घमंड कहाँ हय’‘ शोभा ने कुर्सी रखकर ताली बजायी।

‘‘हम्म रांड हय बेटा। हमरा गेरिया कचर के लुगर गवा.‘‘ कहकर बिजली ड्राइवर की तरफ मुख़ातिब हुई, ‘‘ऐ जीजा जरा हमरे मुँह में मूत देते तो हम्म तर जातिन.‘‘

‘‘अरी भागव बहिनी, हिजड़ा हव कि बवाल.....ऐ रिक्शे वाले इका लई जाव अउर घाघरा में फेंक देव‘‘ दीपिकामाई बाल बाँध कर बोली।

‘‘ऐ जनखे, चुपचाप निकल लेव।‘‘ शोभा ने आँखें तरेरकर कहा।

‘‘अरी ऐ शोभा, तौरे खूमड़ पर बड़नी [झाड़ू], फेरू, तोहरे खूमड़ पर हग मारी.‘‘ बिजली हाथ नचाकर बोली।

‘‘मान गई बिजली तुमका, इक नमबर की बेतुकी हव। जबसे आई हव तबसे बकबक किये जाय रही हव, खाना-पीना दोसवार कर दियौं हव.‘‘

‘‘परेसान न हो जाइत हय.’’ बिजली झल्लाती हुई चली गयी।

इसी बीच ज्ञानदीप साइकिल खड़ी करके दालान में आ गया। ड्राइवर, इसराइल को नमस्ते करके उसने दीपिकामाई के चरण स्पर्श किए।

‘‘अईसे बेतुके मेहरे जनाने से तो अल्लाह बचाये, जबसे आई हय तब से टर-टर लगाये हय.’’

‘‘क्या हुआ माई?‘‘ ज्ञानदीप ने पूछा।

‘‘कुच्छ नाय, सुभह से आई हय तभसे खोपड़ी चाटे हय.’‘

‘‘इनका पैर कैसे खराब हो गया?‘‘

‘‘अपने यार की याद में आग लगाई लिहिस, अउर जब बच गई तो उप्पर वाला फालिश गिराई दिहिस। अउर जानत हव भइया, ई अपने बखत पे हिटलर मेहरा थी। आते-जाते लोगों की जेबों से पईसा निकाल लेना अउर उनके साथ जबरदस्ती धन्धा करना इका पेसा था.‘‘ कहकर दीपिकामाई ने उगलदान उठाकर पीक की।

ड्राइवर ने बातों का रूख मोड़ा, ‘‘परसौं पारटी के नेता जनम देन हय। बस लई के जाना हय। चाहे जिधिर से जाई कौनो पूछें वाला नाय हय। अउर पूच्इहें भी तो कईसे, बस पै मायावती का झंडा तो रहिये। फिर चाहे शराब पी या चाहे कुच्छ अउर करी.‘‘

‘‘तो क्या ड्रिन्क करने के बाद आप बस ड्राइव कर लेते हैं?‘‘

‘‘अउर का उम्में कौनों फरक नाय पड़त हय.’’

’’अगर रास्ते में कोई पुलिस वाला मिल गया तब?‘‘

पुलिस वाला हमरा कुच्छ नाय कर सकत हय। अगर हाँ आईटियों वाले मुझे ई हालत में पाई जय्यहें तो हमरा लाईसेंस ख़तम कर देहै.‘‘

‘‘ई सब छोड़व, पहले ई बताव जुआ में कित्ता पइसा जीते हव?‘‘ दीपिकामाई ने पूछा।

‘‘गुलली खेलित राहे उही में तीस पैंतीस जीता राहे.‘‘

‘‘हमरे आगे झव्वा ना अवधाव समझेव, दुनिया बकसिये लेकिन हिजड़ा न बकसिये ई जान लेव‘‘

‘‘तुमका तो हमरी बात पै कभई विसवासे नाय होत हय‘‘

‘‘नीचे से लेई के उप्पर तक तो मक्कार हव, ज़ींदगी भर हमरे साथ तो मक्कारी किहे हव‘‘

‘‘अब अपना सियापा लई के न बईठव, भइया आये हय उनसे कुछ बात चीत करव‘‘ ड्राइवर खड़ा हो गया।

‘‘अब कहाँ चल दिहेव?‘‘

‘‘स्टैण्ड तक जाईत हय.‘‘

‘‘स्टैण्ड तक जात हव कि अपनी निहारन का सीपो चाटै जात हव?‘‘

‘‘जरा भी तुमरे में हया नाय हय.‘‘

‘‘हाँ तुम तो बड़े हया की बुवा हव न.‘‘ कहकर दीपिकामाई ने पान की गिलौरी मुँह में रखी।

ड्राइवर चला गया।

दीपिकामाई, ज्ञानदीप को कमरे में ले आयी। अचानक उसकी निगाह दीवार पर लगे कैलेण्डर पर घूम गई।

दीपिकामाई को समझते जरा भी देर न लगी। उन्होंने उगलदान उठाकर पीक किया। और बोली, ‘‘तुम यही सोच रहे हव न कि एक तरफ भगवान का कैलेण्डर हय, दूसरी तरफ मक्का -मदीना.‘‘

प्रत्युत्तर में ज्ञानदीप मुस्कुराया।

‘‘बेटा, हमरे तो सभई जजमान हय। फिर उ चाहे हिंदू होय चाहे मुसलमान या सिख इसाई। हमरे लिये तो सभई एक समान हय.‘‘ दीपिकामाई के वाक्य पूरा करते ही उनका सेलफोन बज उठा। उन्होंने झुंझला कर सेलफोन उठाया और ‘हैलो‘ कहा। दूसरी तरफ से सारी बात सुनने के बाद वह तिलमिला उठी, ’’ई सारी बात डोंगर खाना में पहुँची कईसे?‘‘

‘‘गुरूभाई, ई सारी हरामीपन टिन्नी अम्मा की हय, इही आग बो रही हय.‘‘

‘‘ऊ खरखाचोदी से तो हम्म बाद में निपटबै.‘‘ झल्लाकर दीपिकामाई ने फोन कट कर दिया। क्रोध की रेखाएँ अब भी उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी।

शोभा चाय-नमकीन रखकर चली गयी थी।

‘‘ल्यो बेटा, चाय पियौं.‘‘

‘‘जी माई, क्या आप लोगों की भी अपनी भाषा होती हय?‘‘

‘‘ई सब जो हम्म बोलित हय इही तो हमरी भाषा हय.‘’

‘‘क्या आप लोगों में भी गोत्र होता हैं?‘‘

‘‘अउर का, जईसे लश्करवाला, ललनावाला, डोंगरीवाला, पूनावला, बलाकवाला, चकलेवाला अउर भेनड़ी बाजार वाला.‘‘ दीपिकामाई ने बताया।

‘‘क्यों न माई से मैं साफ-साफ कह दूँ कि मैं आपके जीवन पर एक किताब लिखना चाहता हूँ। पर कहीं माई नाराज हो गई तब? नहीं-नहीं......।.‘‘

‘‘का सोचेव लगे बेटा?‘‘

‘‘कुछ नहीं‘‘

‘‘देखव बेटा, जो भी तुमरे मन में हय बेझिचक पूछ सकत हव.‘‘

‘‘माई! मैं आप पर किताब लिखना चाहता हूँ.‘‘

दीपिकामाई चौंकी और बोली, ‘‘किताब! का करोंगे हम्म पै लिख के, सिवाये दुःख-तकलीफ के कुछ नाय मिलेगा बेटा! हिजड़ों की जिंदगी भी कोई जिंदगी हय? हम तो जानवरों से भी बदतर हय.‘‘

‘‘ऐसा मत कहिये माई, यही सब पीड़ा को तो मुझे लिखना हैं। क्योंकि समाज ने आप लोगों के जीवन की सिर्फ़ एक ही तस्वीर देखी हैं। मैं चाहता हूँ दुनिया आप लोगों के इस रूप को भी देखे, जाने और सोचे? कि ताली बजाने वाले ये हाथ सिर्फ़ ताली ही नहीं बजाते। यह दूसरों की मदद में भी उठते हैं। उन्हें सहारा देने के लिए भी उठते हैं.‘‘

‘‘तुमरा कहिना सब सही हय, फिर भी हम्म नाय चाहित कि कोई हमरे बारे में लिक्खें‘‘

दीपिकामाई ने सिगरेट सुलगायी।

‘‘एक तरफ़ तो आप हमे बेटा कहती हैं, और दूसरे पल मुझे पराया कर दिया.‘‘ ज्ञानदीप सीरियस हो गया।

‘‘अईसी बात नाय हय बेटा, अगर तुम लिक्खै चाहत हव तो लिक्खव, एक मिनट रूकव मैं आई.‘‘

दीपिकामाई अपने शयनकक्ष में चली गयी। जब वापस आयी तो उनके हाथ में कुछ तुड़े-मुड़े पन्ने थे, ‘‘ल्यो बेटा इका सम्बाल कै रखना, ई कागज के टुकड़े-टुकड़े नाय हमरी तमाम ज़ींदगी के टुकड़े हय जिका हमने आज तक जिया हय‘‘

ज्ञानदीप ने बड़ी सहजता से उन पन्नों को समेटा, ‘‘आप बिलकुल चिंता मत कीजिए इन पन्नों को मैं अपनी जान से भी ज्यादा संभाल कर रखूँगा.‘‘

‘‘हम्में अकीन हय तुम पै मगर जानत हव बेटा, लिक्खना भी एक तरह से हमरी मजबूरी बन गई थी। का करतेन अउर किससे कहतेन अपना ग़म? ज़माने ने जो सेतम ढ़ाये थे उसे हम्म सेहती या दुःख दर्द बयां करतिन.‘‘ दीपिकामाई की आँखें भर आई। चेहरे पर अनगिनत दुख की रेखाएँ उभर आई थी। जैसे अंदर का ज्वालामुखी फट पड़ेगा और उसके लावे से पूरी धरती द्रवित हो उठेगी । दीपिकामाई ने गर्दन घुमा ली। जिससे ज्ञानदीप उनकी आँखों में आँखे डालकर मन की बात निकालने की कोशिश न करें।

दीपिकामाई ने तो सुलगती सिगरेट को स्ट्रे में बुझा दिया था। पर जो आग उनके अंदर सुलग रही थी उसे कौन बुझायेगा?

ज्ञापनदीप, दीपिकामाई के डायरी के पन्नों को लेकर चला आया।

25-4-76

पीड़ा-पीड़ा बन गई।

दर्द-दर्द बन गई

परिस्थितियों के आगे मैं

हिजड़ा बन गई।।

रात का आधा पहर बीत चुका हैं। पर जाने क्यों नींद मुझसे कोसों दूर होती जा रही। बिलकुल वैसे ही जैसे एक-एक करके मेरे अपने मुझसे दूर होते गए। मैं हर रोज़ नींद का इंतजार करती हूँ। मगर नींद न जाने कहाँ खो गई। शायद वह भी मुझे अपनों की तरह तन्हा छोड़़़कर चली गई हैं। अब मैं हूँ या मेरी तन्हाई या वह अतीत! जिसके दृश्य-अदृश्य मेरी आँखों पर फैलते और सिकुड़ते जा रहे हैं।

लेकिन आज जब लिखती हूँ तो उगलियाँ दर्द करती हैं। क्यों कि जो हाथ बरसों से तालियाँ बजाते रहे और भीख माँगते रहे। आज उन्हें लिखना पड़ रहा हैं तो तकलीफ होगी ही। दर्द जब हद से गुज़र जाये तब दवा हो जाती हैं। मैं इन कोरे पन्नों को अपने दर्द और पीड़ा से भर देना चाहती हूँ। उन तमाम पीड़ाओं को निचोड़ देना चाहती हूँ। वह सब बयां कर देना चाहती हूँ जो मेरे ऊपर बीती हैं।

मैं इस वक्त नशे में तो जरूर हूँ मगर जो भी लिखूँगी वह एकदम सही। कहते हैं शराब के नशे में बोलने वाला कभी झूठ नहीं बोलता। खैर, जो भी कहना चाहती हूँ वह आखि़र शुरू कैसे करूँ ?

रास्त़े खुद ही तबाही के निकाले हमने।

कर दिया दिल किसी पत्थर के हवाले

मैं भी शहर का एक अच्छा नागरिक था। मेरे भी माँ-बाप और चार भाई-तीन बहनें थी। बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी। मुझसे बड़ा एक भाई था। अम्मा मेरी नेपाल की थी। पढ़ाई के नाम पर काला अक्षर भैस बराबर थी। मगर पिताजी इन्टर तक पढ़े थे। हम लोगों की रोटी उनके छोटे से चाय के होटल से चल रही थी। यह होटल शहर के एक सिनेमा हाल में था। कभी-कभार मैं और मेरी छोटी बहन पिताजी को खाने का टिफिन देने जाते थे। मगर वह नहीं चाहते थे कि हम भाई-बहन होटल में आये। उनका तो एक ही सपना था कि हम लोग पढ़-लिखकर उनका नाम रोशन करें।

लेकिन मेरा मन पढ़ाई में कम नाचने में ज्यादा लगता था। दिन-रात यही सोचता रहता कि कब मैं एक बड़ा डांसर बनूँगा। जब भी रेडियों पर कोई गाना सुनता तो मैं नाचने लगता।

सब कुछ सही चल रहा था। मगर एक दिन सिनेमा हाल बंद हो गया। सुनने में आया कि सिनेमा मालिक को काफी घाटा हुआ था। सिनेमाहाल बंद होते ही पिताजी का होटल भी बंद हो गया। भाग्य का खेल तो देखो, हम दोनों-भाइयों की पढ़ाई बीच में ही छूट गई। आरथिक स्थितियाँ इस कदर बिगड़ी कि हम लोगों के खाने के लाले पड़ गए। मोहल्लें के बनिये ने उधार देना बंद कर दिया। पेरिचित और रिश्तेदारों ने ऐसे मुँह मोड़ लिया जैसे वह हमें पहचानते ही न हो।

सुख की घड़ी में साथ रहने वाले।

दुख की घड़ी में हाथ छुड़ाकर चल दिए

मैं इन्हे दोष दूँ या अपने भाग्य को।।

जब हम लोगों की दशा पिताजी से देखी न गई। तो उन्होंने चाय का ठेला जब हम लोगों की दशा पिताजी से देखी न गई। तो उन्होंने चाय का ठेला खींचना शुरू कर दिया। पीछे-पीछे हम-दोनों भाई लोगों का जूठा गिलास धोने लगे। दिन-रात की कड़ी मशक्कत के बाद हम लोगों को एक वक्त की रोटी नसीब हो पाती थी।

मैं उस दिन ठेले पर अकेला था। तभी वहाँ एक हिजड़ा आयी और मुझसे पूछने लगी, ‘‘क्या तुम्हारा नाम दीपक हैं?‘‘

मैंने कहा, ‘‘हाँ.‘‘

‘‘सुना हैं तुम बहुत अच्छा नाचते हो?‘‘

‘‘किसने कहा?‘‘

‘‘बेटा! हम हिजड़े हैं हम तो पेट देख के बता दे कि उसमे टेपका (लड़का) हंै या टेपकी (लड़की).‘‘

मुझे हिजड़े का ताली बजाना जरा भी अच्छा नहीं लगा था।

‘‘ऐ बेटा, अगर तुम हमारे साथ चलोंगे न तो खूब पैसा मिलेगा.‘‘

तभी पिताजी आ गये।

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