“उलझने से सुलझने तक” / कहानी / सन्दीप तोमर
स्टेला जिन्दगी के थपेड़े झेलते हुए एक बार फिर दिल्ली आ गयी, रोहन का ठीक से कहीं भी सेटल न हो पाना उसके लिए बड़ी सिरदर्दी थी। वह छोटी-मोटी नौकरी शुरू करता, मन उकता जाता तो नौकरी छोड देता। दोनों ने एक फ़्लैट किराये पर लिया हुआ था। प्रेम-विवाह किया था दोनों ने, रोहन एक ब्राह्मण परिवार का लड़का है तो स्टेला दलित क्रिश्चियन। आशुतोष ने दोनों की शादी में बहुत मदद की थी। जब उसे लगता कि वह दु:खी है, तब वह आशुतोष को ही याद करती, आशुतोष उसे हर समस्या का निदान लगता। आशुतोष उसका दोस्त है, पत्रकारिता का एक बड़ा नाम है आशुतोष।
स्टेला ने आशुतोष से मिलने की इच्छा जाहिर की थी, वह तयशुदा जगह पर पहुँच गया।
“क्या बात है स्टेला, इस तरह यूँ अचानक क्यों बुलाया?”
“एक दुविधा में हूँ।“
“किस दुविधा में हो?”
“असल में जहाँ मेरा फ्लैट है, वहाँ मेरे से ऊपर वाले फ्लैट में एक औरत रहती है, नाम है लक्ष्मी, लेकिन सिर्फ नाम की लक्ष्मी है।“
“क्या किया उस लक्ष्मी ने, कहीं रोहन पर तो डोरे नहीं डालने लगी?”
“आपने कैसे अंदाजा लगाया?”
“पत्रकारिता जो की है, ऐसी कितनी ही कवर स्टोरी कर चुका हूँ।
“लेकिन रोहन ऐसा कैसे कर सकता है, आखिर हमने प्रेम-विवाह किया है।“
“कोई आपको प्यार करता है या नहीं, ये बात ज्यादा मायने नहीं रखती, किसी के प्यार में धोखा देने से आपके ऊपर, उससे किये प्यार पर क्या असर होता है, महत्वपूर्ण ये बात है। यदि तुमने किसी से वास्तव में प्यार किया है तो उसे चिरस्थायी होना चाहिये, वह यदि बदल गया तो फिर प्यार नहीं हुआ, आपके प्यार को अडिग होना चाहिए, किसी की बेवफाई से डगमगा गया तो फिर प्यार कहाँ हुआ?
“हाँ, लेकिन क्या प्यार निभाने की जिम्मेदारी किसी एक ही है, दोनों की नहीं?”
“नि:संदेह, दोनों की है, लेकिन अगर भटकाव है तो उसे रास्ते पर लाने के भी उपाय हैं।“
“प्यार में बेवफाई मुझे बर्दास्त नहीं।“
“प्यार ही एकमात्र करणीय है जिसे बदला नहीं जा सकता, युग बदलते हैं लेकिन प्रेम की भावना नहीं बदलती। प्रेम में सिर्फ पात्र बदलते हैं भावना नहीं। भावना बड़ी प्रबल होती है। प्रेम पर काल का भी प्रभाव नहीं होता। हर युग में, सिर्फ पात्र बदले हैं केन्द्रीय भाव वही रहते हैं, समय या स्थान बदलने पर भी प्यार करने वाले की मन:स्थिति एक समान ही रही है, यह कभी नहीं बदली। कितने ही पात्र हैं जिनके प्यार की तड़प को आज भी महसूस किया जा सकता है, उनकी तपन को महसूस किया जा सकता है। प्रेम तो शाश्वत है, इसे न वक़्त ही बदल सकता, न ही कोई मानव ही, यह प्रकृति-प्रदत्त है, यह सृष्टि का उपहार है, जानती हो अगर हम किसी से सच्चा प्रेम करते हैं तो वह अमरत्व तक जाता है, उसकी क्षति सम्भव नहीं।“
“लेकिन, एक तरफा क्यों?”
“एक तरफ़ा हो या दो तरफा, इससे क्या अन्तर आता है, इतना समझ लो- कैसे किसी को एक पल देखकर दिल की धड़कने बढ़ने लगती हैं, और जब वह अपने मन में जगह पा लेता है, तब कैसे हम कल्पना लोक में विचरण करने लगते हैं, भावनाओं से एक मुलांकुर और एक प्रांकुर फूटता है जो हमारे दिल में गहरे तक पैठ जाता है, किसी की सूरत जब हम मन में बैठा लेते हैं तब उसे मिटा पाना सम्भव नहीं होता। यदि हमने किसी को अपने दिल में बसा लिया तो हम उसकी एक-एक अदा पर अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जाते हैं।“
“वही तो मैंने किया, रोहन को बेइन्तहा मोहब्बत जो की, सर्वस्व लुटाया उस पर, लेकिन आज उसने जो धोखा मुझे दिया, वह अब मेरे दिल को तार-तार कर रहा है।“
“हाँ, ये बात तो है, तब हमें इस पर विचार करना होगा, हमारा उद्देश्य सिर्फ इतना है कि रोहन को उसकी गलती का अहसास कराया जाए।“
“लेकिन कैसे, ये बात मुझे घुन्न की तरह खाए जाती है, क्या ये सम्भव होगा कि मेरा प्यार वापिस लौट आये?”
“असम्भव तो कुछ भी नहीं, बस देखना ये होता है कि हमारे प्रयास कितने सफल होते हैं?”
आशुतोष का जो भी स्टेला के प्रति स्नेह और सहानुभूति है, उसका कारण उनकी दोस्ती थी, प्रेम का अंश नाममात्र भी नहीं था। स्टेला के प्रति उसका स्नेह दिन-प्रतिदिन बढ़ता रहा था।
आशुतोष ने स्टेला से पूछा, “प्रकाशन विभाग में नौकरी करोगी?”
स्टेला ने कोई उत्तर न देकर केवल अपनी नजरें उसके चेहरे पर टिका दी। उसे समझ आ रहा था, ‘शायद स्टेला के एकाएक नौकरी छोड़ पूरी तरह से गृहणी बनने से रोहन असहज हुआ हो, और उसका मोह भंग हो गया हो। इतनी गहराई तक शायद स्टेला न सोच पायी हो।‘
उस समय मन हुआ कि वह उसे कहे--‘स्टेला, अब जो कुछ होना था हो चुका। जो सम्बन्ध तुम दोनों का हो चुका, वह इन छोटी-मोटी बातों से टूट नहीं सकता, इस सम्बन्ध को पुनः जुड़ना ही होगा।‘-लेकिन उसने ऐसा कुछ कहा नही।“
आशुतोष ने स्टेला को प्रकाशन विभाग में नौकरी करने की पेशकश की तो स्टेला ने जवाब देने में कुछ पल इंतजार किया। उसने विचार-मनन करने के बाद प्रकाशन विभाग में नौकरी की सहमति दे ही दी।
नौकरी को महीना हुआ तो एक दिन आशुतोष ने साथ लंच करने की फरमाईश की।
दोनों पास ही के रेस्तरो में लंच पर गए, लंच करते हुए आशुतोष ने कहा-“न तुम अलग हो सकती हो और न रोहन ही छूट सकता है।'
“हाँ, लेकिन रोहन की बेवफाई मुझे अन्दर तक झकझोरती है।“
वहीँ बैठकर उन्होंने एक योजना बनायीं, उस पर अमल का विचार बना। स्टेला ने कहा-“आशुतोषजी, तो आज से प्रेक्टिस शुरू की जाए?”
ज्यादा तर्क-वितर्क करके सोचने की क्षमता शायद उन दोनों में ही नहीं थी।
स्टेला ने कहा-“अगर ये नाटक करते हुए हम सच में......?”
“सुनो ! स्टेला, भविष्य के बारे में ज्यादा मत सोचो, अभी सब कुछ वक़्त पर छोड़ दो।“
“सच बताओ…., क्या आप इस बात पर बिल्कुल विश्वास नहीं करते? क्या अभिनय करते हुए प्रेम नहीं हो जाता?”
“हाँ, स्टेला, प्रेम सिर्फ कम उम्र में ही नहीं होता है, बड़ों के साथ भी ऐसा होता है। और हाँ, बचपन की मासूमियत भी उसमें नहीं होती है। बचपन का प्यार निश्छल होता है। अब तुम्हें मुझसे प्रेम हो गया तो सोच लो, रोहन के साथ ये बेवफाई होगी या फिर रोहन से बदला?”
आज उसके प्रेम पर जो कुठाराघात हो रहा था, उसका उसे दु:ख न था। दु:ख था तो केवल इस बात का कि इस उम्र में उसे रोहन की बेवफाई देखनी पड़ी। उसने इस अभिनय को जारी रखने का निर्णय ले लिया। लंच खत्म करके दोनों ऑफिस की ओर बढ़ गए।
स्टेला और आशुतोष का प्रेम का स्वांग शुरू हुआ, ये मात्र रोहन को सही रास्ते पर लाने की गरज से हुआ, लेकिन स्टेला का स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि कोई भी उससे प्रेम करना चाहे। सीधी सरल लड़की लेकिन प्रेम से ओतप्रोत। सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति लेकिन उसे अपने रूप सौंदर्य पर रत्तीभर भी अभिमान न था, प्रकाशन विभाग में नौकरी के चलते अब आर्थिक तंगी पर भी अंकुश लगने लगा था, एक समय था जब उसने बताया था, उसके ससुराल वालो ने उसकी शादी में कितना कर्ज लिया था, उसकी नौकरी न होती तो शायद वह कर्ज उतरते-उतरते रोहन और वह दोनों बूढ़े हो जाते और कर्ज के बोझ से कमर टेढ़ी। कर्ज तो उतर गया था लेकिन अभी भी जिन्दगी की जद्दोजहद बाकि थी। अब दौलत की तंगी न थी लेकिन तंगदिल पति उसके जीवन को जरुर परेशान करता।
स्टेला ने फोन पर कहा था-“ आशु, मेरा दम घुट रहा है, मैं जब-जब लक्ष्मी और रोहन की कारगुजरियाँ देखती हूँ तो मन.... ।“
“स्टेला, एक काम करो कुछ दिन के लिए कहीं घूम आओ, घूमोगी तो शायद मन बहल जाए।“
“आप चलेंगे, मेरे साथ?”
“अरे, रोहन को बुरा लगेगा, उसे क्या कहोगी?”
“वो मेरे ऊपर छोड़ दो।“
उन दोनों के बीच घूमने जाना तय हो गया। उसने रोहन को कहा कि मैं और मेरी कुछ सहेलियाँ घूमने जा रहे हैं तीन-चार दिन का टूर है। रोहन ने विरोध करना चाहा था लेकिन स्टेला ने ये कहकर उसे चुप कर दिया-“जब तुम लन्दन टूर पर अपनी सहेलियों के साथ गए- “मैंने तुम्हें रोका? जो आज आप मुझे रोक रहे हैं, और सुनो रोहन ! शायद ये टूर हमें फिर से पास होने में मदद ही करे, इसलिए मत रोको।“
तय समय पर वह स्टेला को लेकर लेंस्डाउन के लिए निकल पड़ा। लेन्सडाउन पहुँच एक कॉटेज बुक किया। यहाँ बड़ी कलात्मक इमारतें थीं। अंग्रेजों के बनाये क्वार्टर थे। शानदार ऊँची बुर्जियाँ, शानदार चर्च, बड़े-बड़े खिड़की-दरवाजोंदार क्वार्टर, जिनमें आज आर्मी एरिया बनाया गया था। बाँस, अमलताश और मोल्सरी के पेड़ों का सघन झुरमुट और घास के लॉन में झरी उनकी सूखी, भूरी, नुकीली पत्तियाँ, कितना मोहक एहसास करातीं थी। शाम के वक़्त किराये की गाड़ी से घूमते हुए बहुत मोहक दृश्य आँखों से होते हुए गुजरे। गाड़ी की हैडलाइट्स में झुरमुट की छायाएँ बंगलों की दीवार पर बनती और गाड़ी के आगे बढ़ते ही फिर गायब भी हो जातीं।
गाड़ी कोटेज पहुँची तो अँधेरा बढ़ गया, घनी शाम के अलसाये अँधेरे में गाड़ी की हेडलाइट ही कोटेज के आसपास का दृश्य दिखा पा रही थी, पोर्च में झड़ी पत्तियाँ धीरे-धीरे तैरती हुई लॉन में बिखर गयी थी, पोर्च की सीढ़ियों पर, कोटेज के बरामदे में भी। कोटेज में मौलसिरी का पेड़ था, स्टेला गाड़ी से उतर उस पेड़ ने नीचे रुक गयी, गाड़ी का ड्राईवर अपना नम्बर नोट करा सुबह आने का कहकर जा चुका था। पेड़ के नीचे रखी हुई बेंत की बेंचनुमा कुर्सी पर वह बैठ गयी, आशुतोष ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रखा, उसने अपनी अँगुली के पोर उसके हाथ पर रख दिए। नुकीली पत्तियाँ पेड़ के नीचे, हमारे आस-पास काँपती रही और साथ में काँप रहे थे उसके होठ। ये माघ के महीने में झड़ी पत्तियाँ थीं, घनी सर्दी के पाले ने धरती की, बाग-बगीचों, खेतों की हरियाली को बड़ा नुकशान पहुँचाया था, इतनी सर्दी में पत्तियाँ भी ठिठुर गयी थी। स्टेला का शरीर भी ठिठुर रहा था। आशुतोष के मन में गर्माहट बाकी थी।
आशुतोष का हाथ अभी भी उसके कंधे पर था, अचानक स्टेला ने कहा-“आशु, एक विचित्र ध्वनिपुंज मेरे कानों को झंकृत कर रहा है, मैं जीवन के अजीब चक्रों के बीच से गुजर रही हूँ। मेरे अंदर प्रेम की अजीब सी अकुलाहट है, ये प्रेम न ही राधा-कृष्ण सा है, न ही पांचाली-कृष्ण सा, मीरा-कृष्ण सा तो बिलकुल भी नहीं, लेकिन ये प्रेम एक अद्वितीय प्रेम है।“
उसकी गहरी आँखें उनमें चमकता काजल,, उसकी आँखों के आकर्षण को बढ़ा रहे थे। वह उसकी आँखों की गहराई में उस निश्छल प्रेम को स्पष्ट देख रहा है, धीरे-धीरे अंधेरा और अधिक घिर आया, कोटेज के चारों और की दीवारों के साथ लगी खम्भेनुमा बत्तियाँ टिमटिमाने लगी। कोटेज का साज-सज्जा से युक्त कमरा इंतजार में था कि उसके गेट पर पड़े ताले को चाबी से कोई खोले, लेकिन उन्हें होश ही कहाँ था? प्रेम के आकर्षण में उन्हें अब सर्दी का भी अहसास नहीं रहा, दोनों एक-दूसरे के करीब खिंचे चले गए। वह बेंचनुमा कुर्सी के पीछे से उसके करीब आ गया। स्टेला ने अपनी भीगी हथेलियाँ उसकी हथेलियों पर रख करीब मुँह लाकर कहा-''मैं गलत तो नहीं हूँ न आशु?”
“मैं तुम्हें प्यार करने लगा हूँ स्टेला।''
वह सिहर उठी। उसने घबराकर उसके होठों पर अपनी तर्जनी रख दी, उसके होठ हल्के से हिले-''कुछ मत कहो आशु सिर्फ सुनो, सर्द हवा को, कपकपाते पत्तो को, सुनो मेरे दर्द को, मेरे रुदन को, और सुनो उससे निकलती उस आह को जो रोहन ने मुझे दी।“
“कोशिश कर रहा हूँ, लेकिन ये रुदन कहीं उस प्रेम को तो नहीं लील लेगा- जो मेरे मन में पनपा है?”
“प्रेम को शब्द नहीं चाहिए। ये सच है कि रोहन और लक्ष्मी की बेवफाई के चलते हमने ये ड्रामा शुरू किया, लेकिन आशु ये भी उतना ही सच है कि ये अहसास जो हमारे बीच पनपे हैं ये निरर्थक नहीं है।“
“लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि जब हम वापिस लौट रहे होंगे तो तुम रोहन की दुनिया में लौट रही होगी, जिस दुनिया में मेरे या मेरे प्रेम के लिए कोई जगह नहीं होगी, काश हम यहाँ न आते?”
“सुनो, ये सच है कि वापसी पर हम फिर वही सिर्फ दोस्त होंगे लेकिन एक सच ये भी है कि ये अनोखा प्रेम कभी खत्म न होगा भले उसे प्रदर्शित न किया जाए, शायद मैं मन से तुम्हारी हूँ, हमेशा तुम्हारी ही रहूँगी।“
लेकिन इस रहने और न रहने के बीच कितने ही लोग हैं, ये बात वह अच्छी तरह जानता था, रोहन, उसकी पत्नी रश्मि, बेटी टेम्स, स्टेला की बेटी पल्लवी इन सबके बीच इस प्रेम का अस्तित्व क्या होना था?
आशुतोष चाहकर भी उसकी ओर नहीं देख पा रहा था। एक अजीब सी गम्भीरता उसे अकारण ही अपनी ओर खींच रही थी, वह अपना हाथ स्टेला के हाथ से छुड़ा कोटेज के गेट को खोल अन्दर जाने लगता है, वह अभी भी कुर्सीनुमा बेंच पर बैठी है। हवा की ठण्डक अन्दर भी बाहर जितनी ही है। हवा से हिलती अधमुखी खिड़की से बाहर का दृश्य देखने को उसकी आँखें बाहर झांकती हैं। महसूस होता है अब ओस पड़ने लगी है, उसे ख्याल आया स्टेला ने ओवरकोट नहीं पहना है, कहीं वह ओस की बर्फीली बूँदों से भीग तो न जाएगी। बर्फीली हवा के झोंका अन्दर आया कि शरीर में सिहरन हुई, वह स्टेला के पास जाने को मुड़ता ही है, वह अन्दर आकर खिड़की का खुला हुआ पल्ला बन्द कर देती हैं, अब बाहर की रोशनी का अन्दर आना कम हो गया है, वह बेड पर जाकर एक किनारे बैठ गयी, वह अभी भी उसे अपलक निहार रहा है, अन्दर का तूफ़ान थमना ही नहीं चाहता। कोटेज की छत से झूलते नाईट बल्ब का स्विच दबाते ही कमरा हल्की लाल रोशनी से भर गया। वह अब उसकी ओर टकटकी बाँधे निहार रही है, आशुतोष का मन भी उसके पास बैठ जाने के लिए पुनः उत्सुक हुआ। प्रेम का अंकुर मानो पल्लवित होने को उतावला हुआ जाता है, शायद नियति कुछ और तय किये है।
वह बेड के बीचोंबीच लेटने की गरज से सरक गयी, उसने अपना सिर तकिये पर टिका दिया। बल्ब से आने वाली रोशनी के विपरीत करवट ले लेटते हुए कम्बल को पैरो पर डाल उसने पलकें बन्द कर ली हैं। अब उसके चेहरे पर रोशनी बहुत मन्द आ रही है, लेकिन इस रोशनी में भी उसके नाक, ओठ और ठोड़ी को स्पष्ट देखा जा सकता है, पूरा वातावरण उसे सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बना रहा है। उसका तन आशुतोष को मादक प्रतीत हुआ मानो पुरानी अंगूर की शराब का जाम सामने है। इस स्वर्णाभ निश्छलता पर उसका कौतूहल बार-बार अटकता जाता है। उसकी पलकें अभी भी बन्द हैं।
स्टेला के होठ हिलते हैं – “आशु, ये सांसारिक सम्बन्ध बहुत विचित्र हैं! जिसके साथ विवाह किया, वह प्रेम-विवाह अवश्य था लेकिन वहाँ प्रेम लुप्त हैं एकदम विलुप्त, बड़ी विचित्र बात है कि आपको सात जन्मों के बन्धन जैसी जड़ताओ में जीना होता है, यहाँ सब कुछ जन्म लेता है अगर कुछ है जो जन्मता नहीं- वह प्रेम ही है, प्रेम अजन्मा है। अगर अजन्मा न होता तो आज हम दोनों यहाँ नहीं होते, तुम रश्मि से साथ होते और सम्भवतः मैं रोहन के साथ जिन्दगी की पटरी चला रही होती।“
वह गहरी लम्बी साँस लेता है-“स्टेला, हमें किसी व्यक्ति से प्रेम होता है तो प्रेम जन्म लेता है। फिर ये अजन्मा कैसे हुआ, हमारी मित्रता और प्रेम में अंतर है, माना कि ये प्रेम नहीं लेकिन कुछ जरूरतें प्रेम से भी आगे होती हैं... ।“
“शायद आप सत्य कहते हैं, मित्रता एक निजी विचार है, लेकिन प्रेम और वासना में बहुत अंतर है, वासना शारीरिक उफान है जिसकी अवधि बहुत कम है लेकिन प्रेम का समय लम्बा है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी है परन्तु जाने क्यों मुझे प्रेम पर भी आज संशय है।“
आशुतोष प्रेम और वासना के बीच शब्दों की गहमागहमी में उलझ गया है, स्टेला को शायद अंदेशा भी नहीं है- आशुतोष किन उलझनों में फँसा है, स्टेला की उलझाने सुलझाते-सुलझाते वह खुद किन खाइयों में उतर रहा है। स्टेला के चेहरे पर अभी भी छत से लटके बल्ब का मन्दिम प्रकाश पड़ रहा है। उसने अपनी पलकें मूंद ली हैं।
टूर से स्टेला अकेले ही वापिस आई, आशुतोष ने ये कहकर मना कर दिया कि वह अभी प्रकृति की वादियों में कुछ दिन और गुजारना चाहता है। लौट कर स्टेला अपने फ्लैट पर पहुँची, थकी देह के साथ वह सोफे पर ही लेट गयी, माँ के घर से पल्लवी को वापिस लाने की भी हिम्मत उसमें नहीं है। रात के तरकीबन नौ बजे रोहन अपनी नयी जॉब से वापिस आया, मेनगेट अन्दर से बन्द देख उसने डोरबेल बजायी, स्टेला अर्धनिन्द्रा में दरवाजा खोलने आई, अन्दर आते हुए रोहन ने कहा-“ लगता है काफी थक गयी हो?”
“हाँ, रोहन सच में थक गयी हूँ, टूर की थकान के साथ-साथ मानसिक थकान भी बहुत है, सुनो- तुम बाहर से खाना लाकर खा लो, मैं इतनी थकान में नहीं बना पाऊँगी, प्लीज।“
“स्टेला ! मुझे याद था तुम्हारी आज की वापसी है, और ये भी अहसास था कि तुम थकी होगी, मैं पहले ही खाना पैक कराके लाया हूँ, तुम जल्दी से वाशरूम जाकर फ्रेश हो जाओ, हाथ वगैरह धो लो और कपडे बदल लो, तब तक मैं खाना निकालता हूँ।“
“जाती हूँ वाशरूम, पर मैं पहले एक कॉफ़ी पीना चाहती हूँ, अभी खाने का मन नहीं है, तुम बना दोगे न मेरे लिए कॉफ़ी?”
स्टेला वाशरूम गयी, तब तक रोहन दो मग कॉफ़ी तैयार करता है। स्टेला कपडे बदलकर आई तो रोहन ने उसके हाथ में कॉफ़ी का मग पकड़ा दिया। स्टेला ने रोहन का मग देखा तो कहा-“तुम तो खाने से पहले कॉफ़ी नहीं पीते, फिर आज?”
“मैंने सोचा अभी साथ में कॉफ़ी पीते हैं, जब तुम्हारा खाना खाने का मन होगा, मैं भी तभी ही खा लूँगा।“
रोहन स्टेला के साथ वाले सोफे पर ही बैठा है। दोनों कॉफ़ी पी रहे हैं, रोहन ने कहा-“स्टेला ! इन दिनों में अकेला रहकर आत्म-निरीक्षण का मौका मिला- मुझे अहसास हुआ, छोटी-छोटी चीजों में हम जीवन की बड़ी खुशियों को खो रहे थे, मैंने लक्ष्मी से कभी न मिलने, कभी कोई वास्ता न रखने का फैसला किया है, वह अब इस बिल्डिंग को छोड़ भी गयी, मैंने उसे समझाया कि इस बिना वजह के रिश्ते के चलते खुबसूरत जीवन को नष्ट करना बेवकूफी है, बहुत समझाने के बाद उसने मेरा फैसला स्वीकार कर लिया। तुम्हें मेरी हर बात पर विश्वास करना चाहिए, हम आज से एक नयी जिन्दगी की शुरुआत करते हैं। तुम समझ रही हो न मैं क्या कह रहा हूँ?”
स्टेला ने कॉफ़ी मग मेज पर रख दिया, वह रोहन के हाथ को अपने हाथ में ले लेती, उसके अँगुली के पोर रोहन की अँगुली के पोर में उलझने को आतुर हैं, स्टेला की आँखों के सामने आशुतोष का चेहरा उभरा- हँसता- मुस्कुराता चेहरा। आशुतोष के कहे शब्द उसके कानों में गूँजे- “.......जब हम वापिस लौट रहे होंगे, तुम रोहन की दुनिया में लौट रही होगी, जिस दुनिया में मेरे या मेरे प्रेम के लिए कोई जगह नहीं होगी,.....?”
उसने मन में उसे धन्यवाद दिया।
अचानक बिजली गुल हुई, स्टेला ने महसूस किया- उसकी अँगुलियों पर रोहन की अँगुलियों का दाब बढ़ गया है। उसने अपना कन्धा रोहन के सीने पर टिका दिया।