शौकीलाल जी फिल्ड में आते ही इतना अधीर हो गए कि झट मेरे कब्जे से स्कूटर लेकर फाइनल टच के लिए तैयार हो गए। मैंने एक नजर फील्ड पर डाली। तीन तरफ सेफ था, सिर्फ एक तरफ जहाँ कॉलनिओं के पानी के साथ-साथ बरसाती पानी के बहाव के कारण नाला जैसा बन गया था, शौकीलाल जी के लिये खतरा हो सकता था। इसके पहले कि शौकीलाल जी किक मारें, मैंने उन्हें समझाया। जब भी आपको टर्न लेना हो शौकीलाल जी, स्कूटर की गति को कम कर दें, फिर हैंडल को आहिस्ते से मोड़ें। जैसे ही सीधे हों, स्कूटर की गति बढ़ा दें।
-"समझ गए न, शौकीलाल जी? अब स्कूटर स्टार्ट कीजिए। सावधानी से चलाइये। भगवान करे, आपके हाथ- पाँव सलामत रहे।"
मेरी बात सुनने के लिये उनके पास धैर्य कहाँ था। वे स्कूटर को सरपट दौड़ा चुके थे। पहली बार मैंने उनके हाथ में स्कूटर का हैंडल पकड़ा कर स्वतंत्र चलाने को कहा था। कुछ अनर्थ न हो जाये। फिर लोग मुझे ही कटघरे में खड़ा कर देंगे। उधर शौकीलाल जी का जनून सिर चढ़ कर बोल रहा था। पहला मोड़ आते ही मेरा कलेजा काँपने लगा। शौकीलाल जी थोड़ा लड़खड़ाए लेकिन संभाल कर मोड़ काटने में सफल हो गए। मैंने ताली बजाकर उनका हौसला बढ़ाया। नजदीक से गुजरने पर मैंने शौकीलाल जी को ऊंची आवाज में मना किया-" गति पर लगाम लगाइये, शौकीलाल जी।" लेकिन वे कहाँ माननेवाले थे। बछड़े की रस्सी पहली बार खुली थी। कुलांचे तो मारनी ही थी। जो कभी सायकिल का हैंडिल तक नही पकड़ा था ,वह स्कूटर का स्टेयरिंग पकड़ा हुआ था। आसमान में उड़ना ही था। दूसरा राउंड भी शौकीलाल जी ने गिरते-डगमगाते किसी तरह पूरा कर ही लिया। लेकिन तीसरे राउंड में आखिर शौकीलाल जी ने अपना करतब दिखा ही दिया। नाली के साइड वाले एक मोड़ पर मुड़ते हुए स्कूटर को तेज गति में ही मोड़ने लगे। जब उन्हें लगा कि हैंडल को वे घूमा नहीं पाएंगे तो अचानक से उन्होंने ब्रेक ले लिया, नतीजा स्कूटर तो घिसट कर गिरा ही, खुद हैंडल के ऊपर से सरकते हुए नाले में गिर पड़े। खुद को धरती पर टकराने से रोकने के प्रयास में उनके एक हाथ की कलाई टूट गई। दौड़ कर मैंने उन्हें संभाला। तबतक दो चार लड़के आ गए। उन्होंने सहायता की। स्कूटर खड़ा किया। खैर था कि स्कूटर स्टार्ट हो गया। शौकीलाल जी को पीछे बैठाकर हॉस्पिटल लाया। संयोग था कि डॉक्टर भी मौजूद था।
पता नहीं शौकीलाल जी कितने दिनों तक हाथ झूलाते रहे। दूसरे ही दिन से मुझे घर जाना था। पहले से ही लंबी छुट्टी स्वीकृत थी। घर पर शादी थी और खेती वगैरह भी करवानी थी।घर पर व्यस्तता के बीच शौकीलाल जी की याद आती रही थी। खासकर उस दिन की दुर्घटना के बावत। शंका थी कि दुर्घटना के बाद कहीं उनका स्कूटर प्रेम के इतिश्री न हो जाये। बड़ी मुश्किल से अपना खटारा ठिकाने लगाने का मौका मिला था। कहीं चूक गया तो फिर दूसरा अवसर हाथ नहीं आनेवाला था।
यूँ तो शौकीलाल जी के शौकों से बराबर नाता रहा है। एक छूटा तो दूसरा हाजिर। शौक छूटा तो छूटा लेकिन कभी दिल नहीं टूता था शौकीलाल जी का। लेकिन इस बार शौकीलाल जी का दिल नहीं, हाथ टूटा था। शौक से परमानेंट नाता टूटने का संयोग बन रहा था।
मेरे सोच का अंत होता इस दुआ के साथ कि पहले शौकीलाल जी का हाथ ठीक हो जाए, खटारा के बारे बाद में सोच जाएगा।
दिन बिताते देर नहीं लगती। छुट्टी खत्म होते ही कर्मभूमि लौट आया। रात की शिफ्ट चल रहीथी इसलिये शौकीलाल जी से भेंट करने का सौभाग्य नही बन पा रहा था। एक दिन मेरी नजर शौकीलाल जी पर चली गयी। उस दिन मेरा रेस्ट था इसलिये तैयार होकर शौकीलाल जी से ही भेंट करने जा रहा था कि चौराहे पर खड़े साथियों ने रोक लिया और बात करने लगे थे। मैंने देखा,
शौकीलाल जी सड़क पर मेरे स्कूटर से भी जर्जर हालत के दूसरे स्कूटर को खींचते हुए चले आ रहे थे। सिर पर धूप ,हाथ में खटारे का हैंडल और पैर के नीचे तपती-पिघलती कोलतार की सड़क। पसीने-पसीने शौकीलाल जी को देख मुझे दया आ गई। मैंने उन्हें दूर से आवाज देकर रुकने के लिये इशारा किया। वे एक यात्री सेड की छाँह में रुक कर चेहरे का पसीना पोछने लगे। मैंने उनके पास आकर हाल- चाल पूछते हुए खटारे पर एक उचटती नजर डाली-" तो स्कूटर ले लिया आपने?"
यह पूछना था कि शौकीलाल जी पर चिढ़ गये- "खूब मजाक करना आता है आपलोगों को। जब एक बार कह दिया कि मेरे पास पैसा कहां है कि स्कूटर खरीदूँगा। एक सेकेंड हैंड सायकल खरीदने की औक़ात तो है नहीं मेरी, स्कूटर खरीदूँगा।"
शौकीलाल जी शायद मेरी बात से आहत हो गए थे। मैंने उनसे क्षमा मांग ली। फिर वे मेरे छुट्टी पर जाने के बाद कि आपबीती सुनाने लगे। सुनाते ही चले गए जबतक कि उनकी रामकहानी पूरी नहीं हो गई। मैं आज्ञाकारी बालक की तरह हाँ-हूँ करते हुए सुनता रहा।
शौकीलाल जी की राम कहानी बड़ी लंबी थी। संक्षेप में कहूँ तो उनके हाथ में मामूली -क्रैक हुआ था जो बैंडेज के बाद ठीक हो गया था। ठीक होने के दो दिनों बाद ही उनके साथ एक घटना घट गई। एक दिन सुबह उठने के बाद उन्होंने देखा, एक स्कूटर उनके दरवाजे के पास खड़ा है। स्कूटर पुराना था लेकिन देखने में अच्छा ही लग रहा था। उन्होंने ललचाई दृष्टि से स्कूटर पर एक नजर फेरी। फिर यह सोचकर कि किसी जान-पहचान वाले ने मेरे पास छोड़ गया होगा, फिर ले जाएगा, वे नित्य क्रिया में लग गए। शामको जब वे स्कूल से वापस आये तो दरवाजे पर स्कूटर उनका स्वागत कर रहा था। उन्हें आश्चर्य हुआ। जैसे प्रेमातुर हो माँ अपने लाल का गाल सहलाती है वैसे ही शौकीलाल जी ने स्कूटर के बॉडी पर प्यार से हाथ फेरा। फिर घर के अंदर चले गए।
दूसरे दिन सुबह घर के बाहर आते ही दरवाजे पर खड़े स्कूटर पर उनकी निगाह पड़ी। उन्हें विश्वास नही हुआ। नजदीक जाकर स्कूटर को छुआ तब यकीन हुआ। वे थोड़े चिंतित भी हुए। स्कूटर का मालिक आखिर स्कूटर को ले क्यों नहीं गया? इस तरह लावारिस खड़े स्कूटर से अब उन्हें डर लगने लगा था। आये दिन खबरे पढ़ने को मिलती थीं। आतंकवादी बम्ब आदि इसी तरह स्कूटर में डालकर जहां-तहां छोड़ देते हैं। एक मन हुआ उनका कि पुलिस को फ़ोन करके इसकी सूचना दे दें। लेकिन फिर रुक गए। उनका विवेक सजग हुआ और उन्हें बताया कि आतंवादी होता तो इस उजाड़ सी जगह में स्कूटर क्यों छोड़ता? छोड़ता चौराहे पर या मेले-ठेले में जहां लोगों की भीड़ होती है। जल्दीबाजी ठीक नहीं होती। वेट एंड वाच की नीति अपनाई उन्होंने। स्कूल प्रस्थान के पहले उन्होंने सोचा-" देखता हूँ दो एक दिन।"
शाम को वापस आते ही स्कूटर को देख उन्हें अंदर से खुशी हुई। उनकी नजर आसमान की ओर उठ गया मानानो भगवान को धन्यवाद दे रहे हों कि भक्त पर भगवान की कृपा आखिर हो ही गई। भगवान ने उनकी कामना पूरी करने की योजना आखिर बना ही डाली। जै हो।
जब तीसरे दिन भी स्कूटर का कोई दावेदार नहीं आया तो शौकीलाल जी ने भगवान का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण करने में कोई पाप नहीं समझा। उन्होंने उस पर सवारी करने की कोशिश की। हैंडल पकड़ा तो वह सीधा हो गया। मतलब स्कूटर अनलॉक्ड था। फिर तो शौकीलाल जी के स्कूटर-प्रेम को पंख लग गए। किक मारकर स्टार्ट करना चाह तो स्कूटर में किसी तरह की हलचल नही हुई। स्कूटर मरे हुए गोह की तरह पड़ा रहा। शौकीलाल जी ने दूसरा किक लगाया । नतीजा शिफर। फिर तो जुनून में आकर वे किक पर किक मारते गए। यहां तक कि पसीने से भीग कर उन्होंने अपनी गंजी तक उत्तर डाली लेकिन स्कूटर दिवंगत गोह बना रहा। जरा भी स्पंदन नही हुआ उसमें। उस पर सवारी करने की लगन ने उन्हें मीरा बना दिया। ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन। उन्हें स्कूटर में पेट्रोल है कि नहीं यह देखने की भी सुध नहीं रही।
थक-हार कर वे माथे का पसीना पोछने लगे। पसीना पोछकर वे एक बार फिर स्कूटर की तरफ रुख किया। वे इतनी आसानी से हार मानने वालों में से नहीं थे। इस बार बाहर निकलकर स्कूटर के साथ गली में दौड़ लगाई। एक छोर से दूसरे छोर तक। उन्होंने सोचा, शायद स्कूटर जी उठे लेकिन नहीं वह टस से मस नहीं हुआ। आखिर , क्रोध में आकर उन्होंने एक लात स्कूटर को लगाई और स्कूल जाने के लिये तैयार होने लगे। जाते-जाते एक बार देखा, भगवान का प्रसाद इतना भी मुलायम नहीं था कि सीधे मुंह मे गटक लो। बदरू के गैरेज में ले जाना पड़ेगा।
बदरू ने जांच-पड़ताल की। इधर उधर ठोका। फिर बोला-"मास्टर जी, यह खटारा कहाँ से उठा लाये?"
शौक़िलाल जी तिलमिला उठे। वे कहना चाह रहे थे- भगवान के प्रसाद को खटारा मत कहो, भाई। लेकिन चुप रहे। गहन निरीक्षण के बाद बदरू ने कहा-"मास्टर जी, तीन सौ लगेगा। तबतक आप पेट्रोल ले आइये। टंकी खाली है बिल्कुल ,एक बूंद भी नहीं है।"
करीब दो घंटे लग गए। स्कूटर आखिर जी ही उठा। जोरदार चीत्कार कर वह उठ बैठा। कानफाड़ू आवाज भी शौकीलाल जी के कानों में मिश्री घोल गई। पांच सौ रुपये लगे तो लगे उनकी साध पूरी हो गई थी। वे स्कूटर चलाते हुए घर आये। रास्ते में जो भी मिला उसके बगल से ऐसे गुजरे मानो राजा की सवारी पर सवार हों।
कल सोमवार था। वे रोमांचित थे। पहली बार वे स्कूटर की सवारी कर स्कूल जानेवाले थे। शिक्षक साथियों पर रौब गांठने में मजा आएगा। बच्चे जब दौड़कर स्कूटर के पास आएंगे और स्कूटर सहलायेंगे तो कितना अच्छा लगेगा! लेकिन फिर वे सोचते ,नहीं- नहीं बच्चों का क्या, किसी ने खरोंच- वरोंच लगा दी तो? वे उन्हें स्कूटर के पास फटकने नहीं देंगे।
रात उन्हें ठीक से नींद नहीं आई। सपने आते रहे। सपने में वे होते और भगवान का प्रसाद याने स्कूटर।
कभी वे दौड़ लगा रहे होते, कभी स्कूटर। कभी स्कूटर के आगे वे तो कभी उनके पीछे स्कूटर। कभी- कभी दोनों एक साथ मानों एक दूसरे से रेस ले रहे होते। स्कूटर के साथ लुका-छुपी का भी खेल खेल रहे होते शौकीलाल जी।
एक मिनट भी स्कूटर को आंखों से ओझल होते ही शौकीलाल जी व्याकुल हो उठते ।
सपने के खेल में अचानक स्कूटर के ओझल होते हैं शौकीलाल जी पागल होकर इधर- उधर दौड़ने लगे तभी उनकी आंख खुल गयी। सुबह हो चुका था। वे हड़बड़ाकर बाहर आये क्योंकि सपने का दृश्य उनके जेहन पर सवार था। ज्योंही बाहर आकर उन्होंने उस स्थान को देखा , जहां सोने से पहले वे स्कूटर खड़ा कर गए थे, वहां से स्कूटर गायब था। वे पागलों की तरह यहां- वहां देखते रहे लेकिन स्कूटर कहीं नहीं दिखा । वे सिर पकड़कर बैठ गए। आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो घंटो बैठे रहे। उनके पांच सौ रुपये पानी में बह गए थे सो अलग। स्कूल में साथी शिक्षकों पर रौब झाड़ने का मौक़ा भी गवाँ बैठे थे।
तीन दिनों तक शौकीलाल जी न ठीक से सो सके, न खा सके। शोक में डूबे रहते। हर समय स्कूटर उनकी आंखों में समाया रहता। धीरे -धीरे वे नार्मल होने लगे । अभी वे पूरी तरह नार्मल हो पाते कि फिर से भूचाल आ गया उनके जीवन में। एक दिन सुबह बाहर आते ही देखा, सामने स्कूटर खड़ा था। शौकीलाल जी की आंखों में चमक आ गई। चेहरे पर रौनक छा गया। वे दौड़कर स्कूटर के हैंडल से लटक गये, " कहाँ चले गए थे मेरे भगवान के प्रसाद। कहते हैं न भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं। वे ऊपरवाले का शुक्रिया मनाने लगे।
बिना देर किए वे झट-पट तैयार हुए। वे चाहते थे साथियों से पहले ही स्कूल चले जाएं और ठीक स्कूल के सामने स्कूटर खड़ा कर दें ताकि जो भी आये उसकी नजर पहले स्कूटर पर पड़े। और फिर उन्हें देखकर दंग रह जाये। आज स्कूल जाने की तैयारी भी उन्होंने कुछ विशेष अंदाज में की थी। प्रेस करके रखे कपड़े पहनकर आज एक बंडी भी ऊपर से डाल ली थी। सज संवर कर जैसे ही उन्होंने स्कूटर को किक मरना चाहा कि यह देखकर उनका दिल बैठ गया, स्कूटर का पिछला चक्का जमीन से चिपका पड़ा था। टायर पंचर हो गया था। उन्होंने घड़ी देखी, स्कूल का समय हो चला था। एक क्षण लगा यह निर्णय लेने में कि उन्हें क्या करना चाहिए, फिर स्कूटर को वहीं छोड़कर स्कूल के लिये प्रस्थान कर गए। सोच लिया था कि छुट्टी लेकर अब स्थिर से स्कूटर का पंचर ठीक करवाएँगे।
स्कूटर को धकेल कर लाते देख बदरू हंसने लगा-" क्या हुआ मास्टर जी, खटारा लिए हैं तो धक्का लगाने की आदत डाल लीजिए।"
बदरू के हंसने पर शौकीलाल जी चिढ़ गए। और वक्त होता तो मुंह नोच लेते उसका लेकिन चुप लगा गए। काम तो उसी से लेना था। स्कूटर धकेलने के कारण शौकीलाल जी की सांस भी तेज चलने लगी थी इसलिये भी कुछ बोला नहीं गया उनसे। स्थिर होने पर उन्होंने टायर पंचर होने की बात बताई। बदरू ने मुंह बनाया और देखने के बाद बोला-" मास्टर जी, दोनों टायर घिस चुका है। नया लगाना पड़ेगा। ट्यूब भी बदलाव दीजिए। "
-"हाँ हाँ , नया लगवा देंगे लेकिन अभी तो मरम्मत कर दो। "
किसी प्रकार पंचर बनवा कर और स्कूटर में पेट्रोल डलवाकर शौकीलाल जी घर आये। शाम से रात हो गयी थी। वे थककर चूर हो गए थे। खाना बनाने की शक्ति नहीं बची थी। पानी पीकर सो गए। सुबह उठकर सबसे पहला काम उन्होंने स्कूटर दर्शन का किया। आश्वस्त होने के बाद कि स्कूटर सही सलामत है, दूसरे कामों में व्यस्त हो गए।
स्कूटर पर सवार होते ही उनकी सोई हुई कामनाएं फिर जाग्रत हो गईं। स्कूल जाते वक्त शौकीलाल जी अपने सह शिक्षकों पर रौब गांठने और बच्चों को स्कूटर के पास नहीं आने देने की बात सोचते रहे। स्कूटर सवारी का पहला मौका उनके जीवन में मिला था। इस अवसर को यादगार बनाने के लिये भी वे सोचते रहे । लेकिन कैसे?
"आज अपने करीबी मित्रो को चाय पिला देते हैं। अच्छा सिलेब्रेशन हो जाएगा। इसी बहाने मित्र जान भी लेंगे कि मेरे पास स्कूटर है।" उन्होंने योजना का अंतिम रूप दे दिया।
स्कूल पहुचते ही बड़ी शान से वे स्कूटर से उतरे। कनखियों से देखा कि शिक्षक उन्हें ही देख रहे थे। बच्चे भी दूर से देख रहे थे। सब देख कर ही रह गए। टोका-टोकी किसी ने नहीं की। उन्हें सह शिक्षकों द्वारा ऐसी उपेक्षा की उम्मीद नहीं थी। चलो कोई बात नहीं। उन्होंने कंधे उचकाए और आगे बढ़ गए। इनकी चाय कैंसिल। उन्होंने मन ही मन निर्णय लिया। दो एक ने उनकी और उनके स्कूटर की सराहना भी की। वे चाय के लिये सलेक्ट हो गए।
छुट्टी हुई तो सब पैदल अपनी राह पकड़ लिये। शौकीलाल जी शान के साथ स्कूटर के पास आये। सोच रहे थे कि जब उन पैदल चल रहे शिक्षकों के बगल से स्कूटर भड़भड़ाते हुए गुजरेंगे तो मजा आ जायेगा। उनके कलेजे पर सांप लौटने लगेगा। वे स्कूटर के पास आये। वे स्कूटर पर सवारी करने की सोच ही रहे थे कि उन्होंने देखा,स्कूटर अपनी हालत पर बिसूर रहा है। अगले चक्के के टायर की हवा निकल गयी थी और स्कूटर एक टांग पर खड़ा रो रहा था।
शौकीलाल जी रोने- रोने को हो गए। बड़ी भद्द पिट गई थी उनकी। कैसे शिक्षकों के सामने स्कूटर घसीटते हुए जाएंगे! बच्चे भी खिल्ली उड़ाएंगे। दो चार बच्चे तो उन्हें घेर कर खड़े भी हो गए थे। क्या हुआ सर, क्या हुआ सर का रट लगा रहे थे। एक दो स्कूटर को धकेलने के लिये आगे बढ़ आये। शौकीलाल जी ने उन्हें डांटकर भगाया। फिर किसी तरह स्कूटर को बदरू के गैराज लाये। इस बार बदरू ने साफ मना कर दिया। टायर और ट्यूब चेंज करने का दबाव देने लगा। शौकीलाल जी अभी बदलने के पक्ष में नही थे। अभी उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने चिरौरी की तो बदरू सेकण्ड हैंड ट्यूब देने को तैयार हो गया लेकिन महीने दो महीने के बाद बदल लेने की हिदायत देते हुए काम चलाऊ काम कर दिया।
शौकीलाल जी घर आये। स्कूटर को स्टैंड पर खड़ा किया। अब स्कूटर फिट था। पेट्रोल भी था। वे संतुष्ट होकर दूसरे कामों में जुट गए।
सुबह स्कूल जाने को तैयार होकर बाहर निकले। स्कूटर अपनी जगह पर नहीं था। यह देखकर उनके हाथ के तोते उड़ गये । इधर- उधर झाँकने के बावजूद स्कूटर दिखाई नहीं पड़ा । शौकीलाल जी दुखी मन से पैदल ही चलकर स्कूल गए। कल स्कूटर देखकर जलनेवालों ने आज पूछ- पूछ कर उन्हें हलकान कर दिया कि स्कूटर कहाँ गया, क्यों नहीं लाये?
वे चुप ही रहे। किस - किस को जवाब देते। देते भी तो क्या? सब मजाक उड़ा रहे थे।
इसके बाद तो शौकीलाल जी के लिये आंखमिचौनी का खेल हो गया। दो तीन दिन के बाद स्कूटर उनके घर पर खड़ा मिलता। वे थोड़ी बहुत मरम्मत करवाते, पेट्रोल भरवाते। अगले ही दिन स्कूटर गायब हो जाता। वे इस खेल से अब तंग आ गए थे। उनके पास अब इतने भी पैसे नहीं बचे थे कि स्कूटर में ताला वगैरह लगवा पाते। कई बार ऐसा हुआ कि स्कूटर उनके दरवाजे पर खड़ा होता फिर भी क्रोध के मारे वे उसकी ओर ताकते तक नहीं थे लेकिन फिर स्कूटर सवारी की इच्छा जोर मारने लगती तो वे थोड़ा बहुत मरम्मत करवाकर पेट्रोल भरवा देते लेकिन वे जब कभी ऐसा करते उसके दूसरे ही दिन फिर स्कूटर गायब हो जाता।
मैंने ध्यान से उनकी बातें सुनीं। विचार किया। विचार मंथन के बाद मुझे लगा कि किसी धूर्त आदमी का यह करामात है जो शौकीलाल जी के स्कूटर सवारी के शौक का फायदा उठा रहा है। टूट-फुट होने पर स्कूटर शौकीलाल जी के मत्थे मढ़ देता है और जैसे ही चलाने लायक होता है, स्कूटर ले उड़ता है। वह इतना धूर्त है कि जब -जब पेट्रोल सस्ता होता है, स्कूटर ले जाता है और जिस दिन पेट्रोल महंगा होता है, स्कूटर छोड़ जाता है ताकि पेट्रोल शौकीलाल जी भरवाएं। सरकार के इस आदेश, कि पेट्रोल व डीजल का रेट प्रतिदिन के हिसाब से तय होगा , का फायदा उस धूर्त ने उड़ाना शुरू किया है।
दूसरे दिन से मेरे समझाने पर उस खटारे से तौबा कर लिया शौकीलाल जी ने। आज जब शाम को मैं रमेशर चाय दुकान पर बैठा था तब मेरी नजर शौकीलाल जी पर पड़ी। वे किसी टूटे हारे मुसाफिर की तरह धीरे- धीरे अपने घर की ओर चले जा रहे थे। मैंने उन्हें पुकारा। वे खामोशी से चलकर मेरे बगल में आकर बैठ गए। सिर अब भी उनका झुक हुआ था। मैंने उन्हें चाय ऑफर की। वे चाय ले कर खामोशी से पीने लगे। मैं भी चुप रहा। मैं उनका दर्द समझ रहा था। बेचारे का शौक पूरा नहीं हुआ था। खर्च भी हो गया था। साथियों के बीच भद्द पिटी थी वह अलग।
मैंने उनके सामने अपने स्कूटर की चाभी लहराई। उन्होंने एक नजर देखा फिर पूछा-" क्या है?"
-" स्कूटर की चाभी।"
-" तो मैं क्या करूँ?" उनकी आवाज में रूखापन था।
मैंने मीठी आवाज में कहा--"अपना स्कूटर आपको दे रहा हूँ। लीजिये चाभी। "
उन्होंने अजीब नजरों से मुझे देखा। उनमें थोड़ा संकोच था, थोड़ी बेचारगी भी ।
-"न न ,आपसे स्कूटर की कीमत नही मांग रहा हूँ। जब आपके पास पैसे हों, जितना संभव हो दे दीजियेगा। अभी ले जाइए और जी भर चलाइये। शौक पूरा कर लीजिए।"
मेरे अनुमान के विपरीत शौकीलाल जी झटके के साथ खड़े हो गए। ऊंची आवाज में बोले-"रहने दो भाई, अब मैंने स्कूटर-उस्कूटर से तौबा कर लिया है। अब मुझे गाड़ी-घोड़ा नहीं चाहिये। मैं पैदल ही ठीक हूँ।" कहकर उन्होंने अपनी कान पकड़ी और चल पड़े। मैं उन्हें देखता रह गया। मेरे चेहरे पर दुख था। अब पता नहीं, यह दुख शौकीलाल जी के एक और शौक टूटने का था या अपने खटारे का ठिकाने नहीं लगाने का।#
(समाप्त)
© कृष्ण मनु
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