जय श्री कृष्ण बंधुजन!
भगवान श्रीकृष्ण जी की अशीम अनुकामप्पा से आज मैं श्रीगीताजिनके पांचवे अध्याय तथा उसके महातत्म्य के साथ उपस्थित हु। आप सभी बंधुजन श्री गीता जी के अमृत शब्दो को पढ़कर अपने आप को तथा श्रीगीताजी को पढ़के सुना कर अपनो को भी कृतार्थ करे! ईश्वर आप सभी बंधुओ के जीवन को सुखमय बनाये।
जय श्रीकृष्ण!
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श्री मद्भगवतगीता (अध्याय-५)अर्जुन बोले- हे कृष्ण! आप पहले कर्मों का त्याग करने को कहा, फिर कर्म करने की प्रशंसा करते हो, इन दोनों में जो अधिक हितकर है वह एक बात निश्चय करके बताओ। श्री कृष्ण जी बोले- कर्मो का त्याग और कर्मों का करना ये दोनों ही मोक्ष देने वाले हैं परंतु इन दोनों में कर्म त्याग से कर्म योग हितकर है। जो किसी से द्वेष नहीं रखता, न किसी पदार्थ की इच्छा ही करता है, वह नित्य सन्यासी है। ऐसा पुरुष संसारिक बंधनो से छूट जाता है। सांख्य और योग को मूर्ख लोग ही पृथक-पृथक कहतें है, पंडित नहीं कहते। जो इन दोनों में सीक में भी अच्छी तरह स्थिति हो जाता है उसको दोनों का फल प्राप्त होता है, ज्ञान योगियों को जो स्थान मिलता है वही कर्मयोगियों को प्राप्त होता है, ज्ञान योग व कर्म योग एक ही है जो ऐसा देखते हैं वही उत्तम हैं। कर्मयोग के बिना संन्यास का प्राप्त होबा दुष्कर है। कर्म करनेवाले मुनिजन को ब्रम्हा प्राप्त होने में विलंब नहीं लगता। कर्मयोग युक्त अन्तःकरण वाला, मन तथा इन्द्रियों को जीतने वाला सम्पूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को देखने वाला कर्म करता हुआ भी कर्म फल में लिप्त नहीं होता। योगयुक्त तत्ववेत्ता पुरुष देखते हैं, सुनते हैं, स्पर्श करते हैं, सूँघते हैं, खाते हैं, चलते हैं, श्वांस लेते हैं तो भी यह मानते हैं कि मैं कुछ नहीं करता। ये बोलते हैं, त्यागते हैं, ग्रहण करते हैं परंतु यही मानते हैं कि मैं कुछ नहीं करता, यह बुद्धि धारण करते हैं कि इन्द्रियाँ ही अपने-अपने विषयों में वर्तती हैं जो प्राणी ब्रम्हा में अपने संग को त्याग कर कर्म करता है वह पाप से लिप्त नहीं होता, जैसे कमलपत्र पर जल नही ठहरता। योगीजन शरीर से, मैन-बुद्धि से तथा इन्द्रियों की आसक्ति से हित आत्म शुद्धि के निमित्त कर्म करते हैं। योग-युक्त पुरुष कर्म फल त्याग कर मोक्ष रूप शांति का लाभ करता है और जो योग रहित है वह कर्म की इच्छा के बंधन में पड़ जाता है। सब कर्मों को मन में त्याग करके प्राणी इस नवद्वार कि देहरूपी पूरी में न कुछ करता है, न कराता हुआ आनंद पूर्वक रहता है। परमेश्वर किसी कर्म में प्रवृत्त नहीं करता, कर्म और कर्मफल को उत्पन्न नहीं करता, ये सब प्रवृत्ति द्वारा होते रहते हैं। परमेश्वर किसी के पुण्य तथा पाप को नहीं लेता। ज्ञान जो अज्ञान से आच्छादित है, उससे जीव मोह को प्राप्त हो जातें है, परन्तु आत्मज्ञान के द्वारा जिनका अज्ञान नष्ट हो गया है उनका वह आत्मज्ञान परमेश्वर के रूप को ऐसा भाषित करता है, जिस प्रकार सूर्य संसार को प्रकाशित कर देता हैं उसी परमात्मा में जिसकी बुद्धि स्थिर है उसी में मन लगाते हैं, उसी में निष्ठा रखते हैं और जो सदा उसी के ध्यान में लगे है, वे इस संसार में जन्मते नहीं। विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राम्हण में, गाय में, कुत्ता और चांडाल में पंडितजन कि दृष्टि सकमान रहती है। जिसके मन में इस तरह की समानता उत्पन्न हो गई है उन्होंने इस लोक में जन्म मरण रूप संसार को जीत लिया है, क्योंकि ब्रम्हा निर्दोष और सर्वत्र समान है, इसलिए वे ब्रम्हा को प्राप्त हो जाते है। जो प्रिय पदार्थ को न पाकर खिन्न नहीं होते ऐसे स्थिर बुद्धि वाले, मोह रहित ब्रम्हावेत्ता को ब्रम्हा स्थिर जानो। बाहरी पदार्थों में जी चित्त को आसक्त नहीं होने देता वही आत्म सुख का अनुभव करता है और ब्रम्हा में अन्तःकरण को मिलाकर अक्षय सुख (मोक्ष) प्राप्त करता है। इन्द्रियों के स्पर्श से जो भोग देते हैं वे वस्तुतः दुखदाई होते हैं। उनका आदि भी है और अन्त भी है। हे कौन्तेय! ज्ञानी लोग ऐसे भोगों से रत नहीं होते। शरीर छूटने के पहले जो मनुष्य काम और क्रोध के वेग को सहन करने में समर्थ होता है वही योगी और सच्चा सुखी है। जो योगी आत्मसुख से सूखी, अन्तररात्मा के आनंद से आनन्दित और अंतर ज्योति से ही प्रकाशित है वह ब्रम्हारूप होकर ब्रम्हनिर्वाण(मोक्ष) को प्राप्त होता है। पाप जिनके नष्ट हो गए हैं कुबुद्धि दूर हो गयी है मन को जिन्होंने
वश में कर लिया है, जीवमात्र का जो हित चाहते हैं ऐसे योगी को ब्रम्हानिर्वाण प्राप्त होता है। काम तथा क्रोध जिनमें नहीं है मन के वेग को जिसने रोक लिया हसि ऐसे आत्मज्ञानी योगियों को ब्रम्हा निर्वाण सहज प्राप्त होता है । बाहरी पदार्थों के संयोग से अलग रहकर दोनों भौहों के बीच में दृष्टि लगाकर , नासिका के भीतर चलने वाले प्राण तथा अपान वायु को सम करके इन्द्रियाँ मन और बुद्धि को वश में करके इच्छामय क्रोध को त्याग मोक्ष की इच्छा करने वाले योगी जीवन मुक्त हैं जो मुझको सब यज्ञों और तापों का भोक्ता सम्पूर्ण लोकों का स्वामी और सब प्राणियों का मित्र जानते हैं उन्हीं को शांति प्राप्त होती है।
श्रीमद्भगतगीता पाँचवा अध्याय स्माप्तम्
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🙏अथ पांचवें अध्याय का माहात्म्य🙏
श्री भगवानजी बोले- है लक्ष्मी! पांचवें अध्याय का महात्म्य सुनो, एक ब्राम्हण पिङ्गल नाम का अपने धर्म से भ्रष्ट हुआ वह कुसंग में बैठ मच्छी मांस खावै मदिरापान करे, जुआ खेले, टैब उस ब्राम्हण को भाई चारे में से निकाल दिया तब वह किसी और नगर को चला गया। दैवयोग कर वह पिङ्गल एक राजा के यहां नौकर हो गया राजा के पास और लोगों की चुगलियां किया करे जब बहुत दिन बीते तब वह धनवंत हो गया तब उसने अपना विवाह कर लिया। पर स्त्री व्यभिचारिणी आई वह स्त्री को मारे एकदिन उस स्त्री को बड़ी मार पड़ी उस स्त्रीने दुःखी होकर अपने भर्ता को विष दे दिया। वह ब्राम्हण मर गया उस ब्राम्हण ने गिद्ध का जन्म पाया, कुछ काल पीछे स्त्री भी मर गई। उसने तोता का जन्म पाया, तब वह एक तोते की स्त्री हुई।
एकदिन उस तोती ने तोते से पूछा- है तोते तूने टोटे का जन्म क्यों पाया तब तोते ने कहा- है तोती मैं पिछले जन्म की वार्ता कहता हूँ। मैं पिछले जन्म में ब्राम्हण था अपने गुरु की आज्ञा नही मानता था। मेरा गुरु बड़ा विद्वान था उसके पास और विद्यार्थी रहते थे सो गुरुजी और किसी विद्यार्थी को ओढ़ावें मैं उनकी बात में बोल पड़ता कि बार डाटा मैं नही माना। मुझको गुरुजी ने श्राप दिया कहा जा तू तोते का जन्म पावेगा इस कारण से तोते का जन्म पाया, अब तू कह किस कारण से तोती हुई, उसने कहा मैं पिछले जन्म में ब्रम्हाणी थी जब ब्याही आई तब भर्ता की आज्ञा नही मानती थी। भर्ता ने मुझे मारा तो एकदिन मैने भर्ता को विष दे दिया वह मर गया। जब मेरी देह छूटी तब बड़े नरक में मुझे गिराया के नरक भुगतवाकर अब मेरा तोती का जन्म हुआ। तोते ने सुनकर कहा तू बुरी है जिसने अपने भर्ता को विष दिया। तोती ने कहा नरकों के दुःख भी तो मैंने ही सहे है अब तो तुझे मैं भर्ता जानती हूँ एकदिन वह तोती वन में बैठी थी वह गिद्ध आया। तोती को उस ने पहिचाना वह गिद्ध तोती को मारने चला।आगे तोती पीछे गिद्ध जाते। तोती एक श्मशान भूमि में थक कर गिर पड़ी। वहां एक साधु का दाह हुआ था, साधु खोपड़ी वर्षा जल के साथ भारी हुई पड़ी थी वह उसमे गिरी। इतने में गिद्ध आया और तोती को मारने लगा। उस खोपड़ी के जल के साथ उन की देह से धो गई और आपस मे लड़ते-लड़ते मर गये और अधम देह से छूटकर देव देहि पाई। विमान आये जिस ओर बैठकर बैकुंठ को गये। वह खोपड़ी एक साधु की थी जो श्रीगीताजी के पांचवे अध्याय का पाठ करता था उसके जलसे दोनों पवित्र हो गये, जो प्राणी श्रीगंगा जी का स्नान करके श्रीगीताजी का पाठ करते हैं वह बैकुंठ को जाते है।
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💝~Durgesh Tiwari~