सीता: एक नारी
॥ प्रथम सर्ग ॥
गाथा पुरानी है बहुत, सब लोग इसको जानते
वाल्मीकि ऋषि की लेखनी के तेज को सब मानते
है विदित सबको राम सिय का चरित-रामायण कथा
वर्णित हुआ मद, मोह, ईर्ष्या, त्याग, तप, दारुण व्यथा
अनुपम कथा यह राम के तप, त्याग औ' आदर्श की
उनके अलौकिक शौर्य, कोशल राज्य के उत्कर्ष की
पर साथ में ही है कथा यह पुरुष के वर्चस्व की
नर-बल-अनल में नारि के स्वाहा हुए सर्वस्व की
लंका विजय के बाद कोशल का ग्रहण आसन किया
श्रीराम ने तब राज्य को लोकाभिमुख शासन दिया
उद्देश्य में था निहित मानव मात्र का केवल भला
नूतन व्यवस्था ने मगर था राज-रानी को छला
बदली व्यवस्था राज्य की, पर सोच तो बदली नहीं
कोशल जनों की मान्यताएँ, रूढ़ियाँ पिछली रहीं
अर्धांगिनी को आमजन-मत जान निष्कासित किया
सम्पूर्ण जीवन के समर्पण, त्याग को शापित किया
सीता विपिन में बैठकर पन्ने विगत के खोलतीं
तर्कों-वितर्कों पर सभी घटनाक्रमों को तोलतीं-
बनकर गरल जो घुल रहा, वह कौन सा अभिशाप है
बड़वाग्नि सा हिय मध्य जलता, कौन सा वह पाप है
उत्तर रहित ही प्रश्न यह, है सामने मेरे पड़ा
है कौन सा दुष्कर्म मेरा फलित हो सम्मुख खड़ा
क्यों घेर लाई है नियति, फिर वेदना की यामिनी
है आज क्यों वनवास फिर से, विवशता मेरी बनी
विधिनाथ से मेरी खुशी, पल भर नहीं देखी गई
किस कर्म का है दण्ड, वन रघुकुल-वधू भेजी गई
था घोर कितना पाप मेरा, दण्ड पाने के लिए
कम पड़ गए चौदह बरस, वनवास जो हमने किए
वन मध्य रह जो दानवों के वेदना मैंने सही
वह आज मन की दग्धता के सामने कुछ भी नहीं
मैं बंदिनी असहाय थी, पर प्रियतमा रघुवीर की
हूँ आज परित्यक्ता, कलंकित, मूर्ति कोई पीर की
फिर से विवश विधि हाथ मैं, कितना प्रबल दुर्भाग्य है
अर्धांगिनी अवधेश की, वनवास को फिर बाध्य है
हा! काल छलना बन गया है आज फिर मेरे लिए
उर बिद्ध करते दंश कोटिक बिच्छुओं के नित नए
सहती रहूँगी दंड कब तक , स्वर्ण मृग के लोभ का
मृग-चर्म ही कारण बना है, आज इस दुःख भोग का
सुंदर सुघड़ अपनी गृहस्थी, बस यही थी कामना
मृग चर्म के प्रति लोभ का मेरे, यही कारण बना
हैं आज भी चलचित्र से वे पल दृगों के सामने
आश्रम बनाया था सघन दण्डक-विपिन में राम ने
पावन मनोरम स्थान वह था प्रकृति सुषमा से भरा
आवास को उपयुक्त उससे वन नहीं था दूसरा
श्रीराम, लक्ष्मण संग मैं सुख शांति से थी रह रही
पर एक पल में छिन गया सब, शेष फिर कुछ भी नहीं
मन गत दिनों के कुछ अप्रिय घटनाक्रमों से खिन्न था
अनुभव नया, अब तक हुए सब अनुभवों से भिन्न था
मैं लाड़ली दुहिता जनक की, बस महल तक ही रही
पहले भयावहता कभी थी युद्ध की देखी नहीं
सुन्दर महल, रमणीय उपवन, पुष्करिणियाँ मोहतीं
खगवृंद कलरव बीच सखियाँ हास्य सम्पुट खोलतीं
परिचय यही बस था अभी तक जगत के व्यवहार से
अनभिज्ञ थी बिल्कुल समर के तीर औ' तलवार से
मैं डर गई थी राक्षसी की देखकर विकरालता
विच्छिन्न श्रुति औ' नासिका से रक्त अविरल टपकता
फिर राक्षसों का जो मचा चहुँ ओर हाहाकार था
चारो तरफ से कर्णभेदी उठ रहा हुंकार था
था पट गया नभ अस्त्र-शस्त्रों की सतत बौछार से
गुंजित दिशाएँ हो उठीं कोदंड के टंकार से
श्रीराम, लक्ष्मण के शरों से असुर सब घिरने लगे
फिर छिन्न होकर अंग उनके भूमि पर गिरने लगे
मारे गए खर और दूषण, बाहुबल जिनका बड़ा
शर-बिद्ध होकर शीश उनका भूमि पर था गिर पड़ा
भय का तिमिर जो था घिरा, तत्क्षण उसे प्रभु ने हरा
उन सा धनुर्धारी कहाँ त्रैलोक्य में है दूसरा
सानिध्य में प्रभु राम के भय ठहरता पल भर नहीं
फिर भी लहू की कालिमा थी खिन्न मन को कर रही
अनभिज्ञ बिल्कुल भी नहीं श्रीराम थे इस बात से
करने लगे थे जतन, होऊँ मुक्त मैं आघात से
आकर निकट मुख म्लान मेरा स्निग्ध अंजलि में लिया
कुम्हला गए मृदु जलज को देकर सुधा सिंचित किया
छूने लगी थी दृष्टि उनकी चक्षुओं को नेह से
अभिसिक्त हिय होने लगा मधु के निरंतर मेह से
बातें जनकपुर वाटिका की औ' प्रथम एकांत की
पहले मिलन पर उल्लसित, सकुचित हुए उर-प्रान्त की
अत्यन्त प्रियकर मधुर वचनों से हृदय को खोलते
अति प्रेम-पूरित शब्द कानो में शहद से घोलते
नव प्रेमियों सा वे प्रशंसा रूप की करने लगे
उपमान लेकर प्रकृति से सम्मुख कई धरने लगे
मैं भाव विह्वल हो उठी, उर पर टिकाया माथ को
फिर कँपकँपाते निज करों से था धरा हरि-हाथ को
हाँ, राम हैं मेरे यही, यह मूर्ति ही मन में पली
इनके लिए ही त्याग कर प्रासाद मैं वन को चली
मेरे लिए तो महल से सुखकर अधिक है झोपड़ी
श्रीराम रहते सामने मेरे दृगों के हर घड़ी
निज प्राण-प्रिय के साथ रहने से सुखद कुछ भी नहीं
व्यक्तित्व घुलने के लिए एकांत ही होता सही
थे बंद मेरे दृग पटल आनंद के उन्मेष से
प्रिय-उँगलियाँ संवादरत थीं घने मेरे केश से
मैं चाहती थी काल रुक जाए प्रणय की छाँह में
औ' उम्र सारी सिमट जाए उन पलों की बाँह में
जब सिर हटाया वक्ष से कुछ झिलमिलाता सा दिखा
गतिमान हों समवेत मानो सैकड़ों दीपक-शिखा
ओझल हुआ था एक पल, फिर आ गया था सामने
अत्यंत विस्मय से भरी उसको लगी मैं देखने
आकृति हुई थी स्पष्ट, वह तो दिव्य कोई हरिण था
था चर्म सोने का बना, तन माणिकों से जड़ित था
यूँ तो स्वतः सौंदर्य मृग का मुग्ध करता सर्वथा
फिर दामिनी सा दीप्तिमय वह स्वर्ण का सारंग था
माया कुलाँचे भर रही थी, रूप धर मृग स्वर्ण का
चहुँ ओर फैला था उजाला, सौम्य कंचन वर्ण का
मन प्रेम पाकर सघन, था उल्लास से पहले भरा
अद्भुत, अलौकिक हरिण का सौंदर्य-सुख था दोहरा
आनंद-पुष्कर मध्य पंकज कामनाओं का उगा
मृग चर्म पाने को हृदय था मचलने तत्क्षण लगा
था स्वर्ण प्रिय, लेकिन नहीं आसक्ति थी मुझको कभी
किंचित नहीं दुःख था, चली वन, त्याग आभूषण सभी
भौतिक पदार्थों के लिए कुछ मोह था मन में नहीं
था सूक्ष्म अतिशय प्रबल मेरा, सादगी प्रियकर रही
पर भाग्य मेरा क्षुद्र जिसने बुद्धि को था हर लिया
"मृग स्वर्ण का संभव नहीं", यह तक नहीं गुनने दिया
वाहक कई उत्पन्न मन में कर दिया था लोभ के
जो अंततः कारण बना मेरे दुसह दुःख भोग के
मन में उठी थी लालसा तब, देख कंचन-भव्यता
होगा नहीं कुछ भी कहीं, धारण किए यह दिव्यता
उन्माद के अंधड़ कई हिय मध्य थे चलने लगे
फिर स्वप्न कितने गर्व औ' श्रृंगार के पलने लगे
मृग चर्म ऐसा तो हमारे पास होना चाहिए
दुर्लभ नहीं कुछ श्रेष्ठतम जग के धनुर्धर के लिए
नित प्रात-संध्या बैठ इस पर प्रभु कहेंगे श्रुति-कथा
होंगे सुशोभित, किरण रथ पर उदित होते रवि यथा
चर्चा करेंगे नित्य ही सर्वत्र वनवासी सभी
होंगे चमत्कृत देखकर सब सुर, असुर, गन्धर्व भी
सब मात हर्षित देख होंगी चर्म मृग का सुनहरा
होगा नहीं उपहार कोई श्रेष्ठ इससे दूसरा
पा स्वर्ण-मृग अद्भुत बनेगी चित्रशाला राम की
सर्वत्र ही होगी प्रशंसा अवध में इस काम की
मैं रामवश थी किंतु मेरे राम थे अधिकार में
जीवांश तो हैं एक ही, हम भिन्न बस आकार में
हूँ राम की पत्नी, मगर सीता वही जो राम हैं
हम प्राण एकल, सृष्टि के बस भिन्न दो आयाम हैं
अनुचित उचित कब देख पाती है विकल हठधर्मिता
मति फेर देती ज्ञानियों की भी प्रबल भवितव्यता
निष्फल हुए सतज्ञान के, सब जतन जो हरि ने किए
फिर विवश होकर चल दिए हठ पूर्ण करने के लिए
अवधेश के जाते चतुर्दिक अपशकुन होने लगा
अज्ञात डर के भँवर में, अति-खिन्न मन खोने लगा
सुन आर्त्त -वाणी राम की खोने लगी मैं चेतना
स्वर करुण-अति, पड़ मृत्यु मुख में चीखती ज्यों वेदना
सौमित्र को रक्षार्थ मैंने शीघ्र जाने को कहा
हे लखन! भ्राता राम पर है आ पड़ा संकट महा
फिर भी लखन निश्चल खड़े, किंचित न उनको त्रास था
"श्रीराम तो दुर्जेय हैं" मन में अटल विश्वास था
मारुत, वरुण, यम, चंद्र, सूरज राह अपनी छोड़ दें
काँपे अखिल ब्रह्माण्ड, हरि जो भृकुटि अपनी मोड़ दें
रघुकुल-तिलक की हो करुण चीत्कार यह, संभव नहीं
आलोक मन में सत्य का, किंचित नहीं संशय कहीं
अविचल उन्हें मैं देख भावावेश में बहने लगी
फिर लक्ष्य कर उनका हृदय, अति-कटु वचन कहने लगी
छलका रुधिर बन अश्रु, मेरे तीक्ष्ण शब्दाघात से
विचलित हुए तब लखन अनुचित प्राण-घाती बात से
श्रीराम के वहि-प्राण पर आरोप जो मैंने धरे
गंभीर अति अपराध मेरा वह क्षमा से है परे
करते रहे मुझको तिरष्कृत पाप वे मेरे बड़े
हैं आज वे आरोप सारे व्याल से घेरे खड़े
दुर्दिन हुए आरम्भ जो सौमित्र के प्रस्थान से
जलती रही मैं उम्र सारी अनवरत अपमान से
तापस बना, बहुरूपिया लंकेश, मुझको छल गया
कैकेयी की इर्ष्याग्नि में रघुवंश सारा जल गया
हर जीव बँधता-छूटता, कारण सदा निज कर्म के
संताप औ' सुख भोगता अनुरूप धर्माधर्म के
क्रन्दन कभी भवितव्यता को टाल पाता है नहीं
अधिकार में बस कर्म अपने, भाग्य होता है नहीं
दुर्बुद्धि मुझको ले गई दुःख-दग्ध पारावार में
बस यातना ही शेष थी मेरे लिए संसार में
संताप की वेदी चढ़ी, विरहाग्नि में जलती रही
गुरु-वेदना के नवशिखर मैं नित्य ही चढ़ती रही
निष्प्राण सी जीती रही, उस दुसह कारावास में
निज प्राण को रोके हुए, हरि से मिलन की आस में
पशु-पक्षियों से राह के मेरा पता प्रभु पूछते
आ जायँगे पर्वत शिखा, वन, सिन्धु सारे लाँघते
तब भस्म होगी स्वर्ण लंका राम की क्रोधाग्नि में
हो जायँगे स्वाहा सभी राक्षस महा-समराग्नि में
श्रृंगाल के भोजन बनेगे अंग सब दसशीश के
बस श्वान रोएँगे चतुर्दिक राज्य लंकाधीश के
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