Aadhi duniya ka pura sach - 2 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आधी दुनिया का पूरा सच - 2

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आधी दुनिया का पूरा सच - 2

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

2.

अंकल की गाड़ी स्टार्ट हो चुकी थी । ज्यों-ज्यों गाड़ी आगे बढ़ रही थी, रानी के हृदय में यह विश्वास प्रबल होता जा रहा था कि "माँ मुझे लेने के लिए अवश्य आएगी और मुझे स्कूल के गेट पर खड़ा न पाकर माँ मुझे ढूंढने के लिए स्कूल के अंदर जाएगी। वहाँ भी मुझे न पाकर माँ बहुत परेशान हो जाएगी !"

माँ को गंभीर चोटें लगी हैं ! या बेटी को स्कूल में न पाकर कर परेशान होगी ! दोनों ही स्थितियों का विचार करके रानी के चेहरे पर चिंता और घबराहट के भाव तथा पलकों पर आँसू के मोती झिलमिला रहे थे ! उसी समय अंकल ने उसको खाने का एक छोटा-सा पैकेट उसकी ओर बढ़ाया । रानी को लगा शायद उसकी मन:स्थिति को भाँपकर अंकल ने वह पैकेट उसको दिया है । अतः उसने खाने का पैकेट लेने से इंकार कर दिया और सामान्य होने का प्रयास करने लगी। लेकिन अंकल ने जब उसको पुनः प्रेम से समझाया, तो वह उनका प्रस्ताव अस्वीकार नहीं कर सकी और उनका दिया हुआ भोजन का पैकेट खोलकर खाने लगी ।

अंकल का दिया हुआ भोजन स्वादिष्ट था, भोजन का पहला टुकड़ा मुँह में जाते ही रानी को यह तो अनुभव हो गया था, किंतु उसके पश्चात् क्या हुआ ? उसको कुछ ज्ञात नहीं हो सका, क्योंकि भोजन का एक टुकड़ा खाने क्षण-भर पश्चात ही वह अचेत हो गयी थी ।

रानी की चेतना लौटी, तो उसने अपने आप को एक अंधेरी कोठरी में बंद और नितांत असहाय अवस्था में पाया । उस समय वह अपने शरीर में विचित्र-से खिंचाव के साथ पीड़ा का भी अनुभव कर रही थी। थोड़ी देर तक वह अपनी बाल-स्मृति के सहयोग से उस घटनाक्रम को याद करने का प्रयास करती रही, जिसकी वह शिकार हो चुकी थी। सब कुछ याद आने के कुछ ही समय पश्चात् उसकी आँखों ने उस अंधकार में देख सकने की सामर्थ्य जुटा ली थी और सामर्थ्य-भर परिश्रम करके उस अंधेरी कोठरी में अपने परिचित पड़ोसी अंकल तथा उनकी साथी अपरिचित आंटी को तलाशने लगी थी। लेकिन, वह अपने अतिरिक्त वहाँ किसी अन्य की उपस्थिति का कोई भी चिह्न नहीं पा सकी । उसने टेलीविजन पर अपहरण की घटनाओं की अनेक फिल्में देखी थी । उन्हीं फिल्मों को आधार बनाकर उसकी बाल-बुद्धि ने अनुमान लगाया कि अंकल के साथ उसका अपहरण हुआ है ! अपने अनुमान के अनुरूप उसके मस्तिष्क में एक नए प्रश्न ने जन्म लिया और अनायास ही उसके होंठ बुदबुदाये -

"अंकल इस कोठरी में नहीं हैं ! उन्हें कहाँ बंद किया होगा ?"

कुछ क्षणों तक वह अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढते हुए अपने अपरिपक्व ज्ञान और बाल-अनुभव से अनेक प्रकार के अनुमान लगाती रही । लेकिन उसके साहस, धैर्य और बुद्धि ने शीघ्र ही हथियार डाल दिए, जिनका अवलंब लेकर वह अपनी चेतना लौटने के पश्चात् अब तक उस विषम परिस्थिति में अपना मानसिक संतुलन बनाए हुए थी। अब वह भयभीत होने लगी थी और उसकी घबराहट भी बढ़ने लगी थी । भय और आशंका से ग्रसित वह शीघ्रता से उठी और दौड़कर दरवाजे पर आकर की-हॉल से बाहर झाँकने का प्रयास करने लगी। बहुत प्रयास करने पर भी उसे कोई दिखाई नहीं पड़ा, तब उसने अपने कोमल हाथों से दरवाजे को पीटते हुए रोना-चिल्लाना आरंभ कर दिया-

"दरवाजा खोलो ! दरवाजा खोलो कोई ! मुझे मेरी माँ के पास जाना है ! बाहर निकालो मुझे यहाँ से ! मुझे यहाँ क्यों बंद किया है ? निकालो मुझे बाहर ! मेरी माँ मेरी बाट जोह रही होगी !"

वह अपनी सामर्थ्य-भर ऊँचे स्वर में तब तक रोती-चीखती रही और बाहर निकालने की गुहार लगाती रही, जब तक उसके गले से आवाज निकलनी बंद न हो गयी । कब उसकी रोते-चीखते भूख-प्यास जनित थकान ने नींद का रूप ग्रहण कर लिया, उसको पता ही नहीं चला । उसकी नींद तब टूटी, जब बाहर से किसी ने दरवाजा खोलने के लिए किवाड़ में जोर से धक्का मारा और दरवाजे पर लगे धक्के के बल से उसका शरीर उसके अनचाहे अनजाने एक जगह से दूसरी जगह पर सरक रहा था।

नींद टूटते ही वह उठकर एक कोने में खड़ी हो गयी । उसके उठते ही दरवाजा पूरी तरह खुल गया । उसने देखा, दरवाजे से डरावनी शक्ल-सूरत के एक अधेड़ व्यक्ति ने उस अंधेरी कोठरी में प्रवेश किया, जिसके हाथ में भोजन की एक थाली थी। रानी को तेज भूख लगी थी, लेकिन भूख से भी अधिक उस अंधेरी कोठरी से बाहर निकलने के लिए बेचैनी थी। अतः हाथ में भोजन की थाली लिए हुए अधेड़ आदमी के अंदर घुसते ही रानी ने दयनीय मुद्रा में कहा -

"मुझे मेरी माँ के पास जाना है !" कहते कहते उसने कोठरी से बाहर निकलने के प्रयास में अपने कदम आगे बढ़ा दिये । डरावनी शक्ल के अधेड़ ने रानी के प्रयास को विफल करने के लिए हुए उसी क्षण रानी के कोमल गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया । थप्पड़ लगते ही रानी चक्कर खाकर धरती पर गिर गयी । लगभग दो मिनट बाद उसके कानों में गरम पिघले शीशे जैसा एक कठोर स्वर पड़ा-

"बाहर निकलना तो छोड़, ऐसा सोचा भी, तो अगली बार थप्पड़ नहीं मारूँगा, तेरी टांगे तोड़ दूंगा ! फिर सारी जिंदगी कभी अपनी टांगों पर खड़ी ना हो सकेगी !" एक क्षण रुककर वह पुन: बोला- "खाना रखा है, भूख लगे, तो खा लेना !" अपने अंतिम शब्द उसने बहुत ही लापरवाही से कहे थे। उसके बाद एक झटके से दरवाजा बंद हो गया और रानी उस अंधेरी कोठरी में अकेली रह गयी । अब उसमें रोने-चीखने की सामर्थ्य नहीं रह गयी थी। इसलिए आँखों से भोजन की थाली को घूरती हुई चेतन होते हुए भी धरती पर अचेत की भाँति निष्क्रिय पड़ी थी। उसके पेट से भूख का एहसास हो रहा था और शरीर ऊर्जा की मांग कर रहा था, किंतु उसके मन से भोजन ग्रहण करने के लिए किसी प्रकार का सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहा था।

रानी को यूँ ही पड़े-पड़े कई घंटे बीत गये । इतने समय तक न कोठरी के बाहर किसी प्रकार की कोई हलचल सुनाई दी और न ही रानी के तन-मन में । कुछ समय बाद रानी भाव-शून्य अवस्था में धीरे-धीरे खड़ी हुई और मंद-मंद गति से अनमनी-सी चार कदम की दूरी पर रखे भोजन की ओर बढ़ चली । मन में भोजन खाने की इच्छा न होते हुए भी किसी पराशक्ति से संचालित उसके हाथ भोजन की ओर बढ़ते गये और कुछ ही मिनटों में उसने थाली का पूरा भोजन समाप्त कर दिया । पेट भरने के बाद उसमें पुन: कुछ जागृति हुई और अपने साथ घटित घटना को लेकर उसके मनोमस्तिष्क में कुछ से कुछ विचार आने जाने लगे-

"अस्पताल में भर्ती माँ की हालत अब कैसी होगी? अब मेरी चिंता करके माँ का बुरा हाल हो रहा होगा ! मेरे थोड़ी देर घर से बाहर रहने पर ही माँ कितनी चिंता करने लगती है ! अंकल को भी इसी इमारत की किसी कोठरी में बंद करके रखा गया होगा ? वह तो बड़ी उम्र के समझदार-बहादुर आदमी हैं, वह अवश्य ही यहाँ से निकल सकते हैं ! वह मेरे पापा के दोस्त हैं, इसलिए पुलिस की सहायता से मुझे भी यहाँ से निकाल लेंगे !"

फर्श पर पड़े-पड़े सोचते-सोचते कुछ नकारात्मक तथा कुछ सकारात्मक कल्पनाएँ करते-करते रानी को नींद आ गयी। रात में थोड़ी-थोड़ी देर में वह भयभीत होकर चौंक उठती और पुन: इस आशा के साथ आँखें बंद कर लेती कि अंकल उसे शीघ्र ही अंधेरी कोठरी से निकालकर अस्पताल में भर्ती उसकी माँ के पास पहुँचा देंगे । रानी ने इस क्षीण-सी आशा के प्रकाश से कोठरी के अंधकार को दूर करने के लिए का प्रयास किया । आशा के सहारे ही तो बड़े-बड़े प्रबुद्ध मनुष्य अपनी लंबी जीवन-यात्रा में आने वाले संघर्ष के बड़े-बड़े दर्रों को पार करते हैं, रानी तो बेचारी मात्र दस वर्ष की नन्ही कली थी।

अगले दिन उस अंधेरी कोठरी में जब सूरज की धूप ने छत की ऊँचाई पर दीवार में बने एक छोटे से झरोखे से प्रवेश किया, तब रानी के हृदय में भी अनजानी अस्पष्ट-सी आशा की किरण का संचार हुआ था। उसके अंत: से एक और मूक संदेश आया - "रात में उस अंधेरी कोठरी से अंकल भी तो नहीं निकल सकते थे, जिसमें उन्हें बंद किया गया होगा ? अब दिन शुरू हुआ है। आज अंकल यहाँ से निकलने का कोई रास्ता अवश्य खोज लेंगे और फिर मुझे भी निकाल लेंगे !"

रानी का निश्छल बाल-हृदय उस अंधेरी कोठरी से बाहर निकलने के लिए पड़ोसी अंकल से मिलने वाली सहायता के प्रति आशान्वित होते हुए भी उसका अचेतन मन बहुत आशंकित था । उसके मुँह से बार-बार अनायास यही शब्द निकल रहे थे -

"भगवान ! मेरे मम्मी-पापा को पता करा दो कि मैं यहाँ इस कोठरी में बंद हूँ ! वे सभी बदमाशों को पुलिस से पकड़वाकर मुझे और अंकल को यहाँ से बाहर निकाल कर ले जाएंगे !"

लेकिन दोपहर होते-होते रानी की पहली आशा पर तब पानी फिर गया और उसके अचेतन मन की अबूझ आशंका सत्य सिद्ध हो गयी, जब दरवाजे के की-होल से झाँकने पर उसको एक अनपेक्षित दृश्य दिखायी दिया। रानी ने देखा, उसके पिता का वह दोस्त, जिसे उसका परिवार अपना शुभचिंतक समझता है और माँ की चोट के बारे में जिसकी सूचना को सत्य समझकर वह स्वयं जिसके प्रस्ताव को स्वीकार करके उसकी गाड़ी में बैठी थी ; चिंतित होने पर जिसके सांत्वना देने और समझाने पर उसने गाड़ी में बैठकर स्वादिष्ट भोजन का एक टुकड़ा खाया था ; जिससे उसे यह आशा थी कि वह उसे अपहरण कर्ताओं के चुंगल से और इस अंधेरी कोठरी से निकाल कर उसके मम्मी-पापा तक पहुँचाएगा, उन्हीं अंकल ने डरावनी शक्ल के उस अधेड़ आदमी के हाथ से हजार-हजार के नोट लेकर गिनती करके अपनी जेब में रख लिये हैं, जिसने इस अंधेरी कोठरी में रानी को थप्पड़ मार कर अगली बार बाहर निकलने का विचार मन में लाने पर टांगें तोड़ डालने की चेतावनी दी थी।

इस दृश्य को देखकर दस वर्षीय रानी के हृदय में माँ की सीख को न मानकर अंकल की बात मान लेने का पछतावा भी था और आने वाले तूफान का भय भी था। उसका रंग पीला पड़ गया। क्षणभर को बुत बन गई और एक क्षण उपरांत भावी आपत्ति की आशंका और भय से वहीं खड़ी-खड़ी काँपने लगी। अब तक उसको आशा थी कि उसके पिता के दोस्त और पड़ोसी अंकल उसे उस आपत्ति से बाहर निकाल लेंगे, लेकिन अब ... ? सोचते ही सोचते रानी मूर्छित होकर गिर पड़ी। कुछ समय बाद डरावनी शक्ल के उसी अधेड़ व्यक्ति का स्वर सुनकर रानी की मूर्छा टूटी, जो पिछली रात आया था। वह कह रहा था-

"उठकर खाना खा लेना !" यह कहकर भोजन की थाली उसने रानी की ओर बढ़ा दी और एक झटके के साथ बाहर निकलकर दरवाजा बंद कर दिया।

रानी को तेज भूख लगी थी । खाना खाने के अतिरिक्त रानी को कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था। अतः वह उठी और चुपचाप बैठकर खाना खा लिया। अगले दो दिन तक यही क्रम चला। इन दो दिनों में उसने वहाँ से निकलने की अनेक प्रकार की युक्तियाँ सोची, किंतु रानी के बाल-मस्तिष्क से अभी तक उसके थप्पड़ का भय समाप्त नहीं हुआ था, इसलिए पिटाई के डर से उन युक्तियों को कार्यरूप में परिणित नहीं कर सकी थी।

क्रमश..