कुबेर
डॉ. हंसा दीप
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देश को छोड़ने वाले प्रवासियों की आत्मा भारत के अपने गाँव-शहर में अपनी बिछुड़ी यादों को खोजती रहती है और शरीर यहाँ अपने लिए नयी ज़मीन तलाश कर रहा होता है। ऐसा कटु सत्य था यह जो विदेश में बसे हर नागरिक को अपनी कटी जड़ों के लिए संघर्षरत ही पाता था।
भाईजी जॉन और डीपी सुन रहे थे। कभी राजा और कभी रंक, कभी गुलाब और कभी काँटों के वे पल भाईजी और डीपी से ज़्यादा अच्छी तरह कोई नहीं समझ सकता था। तभी सोमेश आ गया। सत्यवती जी ने उसे फ़ोन पर जॉन और डीपी के डिनर पर आने की सूचना दे दी थी। खाने की मेज़ पर सोमेश के साथ बहुत सारी बातें हुईं। पता चला कि सोमेश नौकरी नहीं कर रहा था। वह उस कसिनो के मालिकों में से एक था जहाँ जॉन व डीपी सत्यवती जी से मिले थे। यह सुनते ही भाईजी ने डीपी को और डीपी ने भाईजी को अर्थपूर्ण निगाहों से देखा था मानो कह रहे हों – “कमज़ोर लिंक ढूँढते हुए मजबूत लिंक मिल गयी है शायद।”
लेकिन वे दोनों अपने मन की बात को मन में ही नियंत्रित करते हुए सोमेश को सुनते रहे, सत्यवती जी को सुनते रहे। देशी मसालों और खाने की महक से सराबोर थी खाने की मेज़। भारतीयता से भरपूर बेहद स्वादिष्ट खाना था। उनके घर पर खाना खाते हुए भाईजी और डीपी ने अपने देश भारत की मिट्टी की ख़ुशबू को महसूस किया।
सोमेश उन्हें बताता रहा किस तरह वह नौकरी करते हुए व्यापार से जुड़ा। अब वह चाहता भी है तो भी लोगों पर अधिक भरोसा नहीं कर पाता है। उसने भारत में अपनी छोटी उम्र में जो सीखा था, समझा था, वह बहुत भयानक-सा था। पिता मुख्यमंत्री थे, बहुत लाव-लश्कर थे। गाड़ियाँ आतीं-जातीं, बहुत धूमधाम रहती। पिता के एक हस्ताक्षर से राज्य में उठा-पटक हो जाती थी। पिता का इतना सम्मान देखा था, पूरे परिवार का इतना सम्मान देखा। स्वयं अपना भी सम्मान देखा था जब स्कूल में उसे लेने वर्दीधारी लोग बड़ी-सी गाड़ी में आते थे तो उसका बालमन गर्वित हो उठता था।
एक दिन कुर्सी गयी। पिता की पार्टी सत्ता से गयी। विरोधी पार्टी के लोगों ने पिता के चरित्र की धज्जियाँ उड़ायीं, एकदम ग़लत और बेबुनियाद आरोप लगाए। सोमेश का किशोर-मन सब कुछ सुनता था पर कुछ भी समझता नहीं था। आज तक तो उसके पिता इतने अच्छे, सम्माननीय व्यक्ति थे, एकाएक सत्ता का समीकरण बदलते ही इतने बुरे कैसे हो गए। वह जानता था कि पिता जी ऐसे नहीं हैं। पिता प्रतिवाद कर रहे थे, अपना पक्ष रख रहे थे किन्तु सच जानने में किसी की रुचि नहीं थी। भेड़ों की भीड़ में एक ही चाल शेष थी अब जो पिता के ख़िलाफ थी।
अधिकांश लोग नई सरकार की भाषा बोल रहे थे और क़रीबी लोगों को अपना मौन रहना सुखद लग रहा था। पिताजी यह सब सुन नहीं पाए, सहन नहीं कर पाए। कई दिनों तक घर में एकाकी समय गुज़ारा लेकिन इस सदमे से बाहर नहीं आ पाए और एक रात जो सोए तो उठे ही नहीं। उन्हें हार्ट अटैक हो गया। तभी से माँ ने तय किया था कि सोमेश इन सबसे दूर रहेगा। पिता के कुर्सी छोड़ते ही सालों का कमाया नाम धूल में मिल गया था। अब बेटा राजनीति में जाएगा तो फिर से वही सब कुछ दोहराया जाएगा। इसलिए सोमेश पर पार्टी में शामिल होने के दबाव के बावजूद वह चुपचाप बाहर ही रहा। उसे लगा राजनीति उन लोगों के लिए ठीक है जो हर क्षण अपने आपको बदल पाने में समर्थ हैं।
एक बड़ा सबक था युवाकाल में प्रवेश करते सोमेश के लिए, वह यह कि केवल कुर्सी का महत्व है, इंसान का नहीं। यह मन का वह निश्चय था जो राजनीति से बिल्कुल दूर रहने को आमादा कर रहा था, किसी की बातों से प्रभावित होने वाला नहीं था। माँ सत्यवती देवी और सोमेश दोनों ने अपना बचा-खुचा जीवन राजनीति से दूर बिताने के लिए अमेरिका की उड़ान भरी तो वापस लौट कर कभी नहीं गए।
आज वेगस में उनका अपना एक घर है और शांति है। ऐसी शांति जिसमें पिछले जीवन की भागमभाग से दूर सारा समय सिर्फ़ अपना था। उस भीड़मभाड़ से एकदम दूर जब सुबह उठते ही कार्यकर्ताओं की लाइन लगी रहती थी घर के अहाते में। एक समय ऐसा था जब उन्हें अपनी साँस लेने के अलावा कुछ नहीं करना पड़ता था। आने-जाने के लिए, उठने बैठने के लिए “मैम-मैम” करते कई नौकर आगे पीछे रहते। वह जीवन भी एक ऐसा सबक था जो सिखा गया था आत्मनिर्भरता का पाठ। सोमेश के मासूम मन को भी बहुत कुछ सिखा गया था। पिता की सम्मानजनक स्थितियों में पला-बढ़ा बच्चा अचानक सबकी नफ़रत पाकर इस कद़र विचलित हुआ था कि सच और झूठ के अंतर को उसके लिए समझ पाना कठिन था।
स्कूल में वही बातें सुनता, घर में भी वही बातें सुनता, रिश्तेदारों में, मिलने-जुलने वालों में भी वही बातें सुनता तो विचलित होता मन पता नहीं क्या ढूँढता। बिना ओर-छोर की बातें माँ-बेटे दोनों को बेहद अपमानित करती थीं। चरित्र पर इल्ज़ाम, रिश्वत लेने के इल्ज़ाम, भ्रष्टाचारी होने के इल्ज़ाम और भी ज़्यादा से ज़्यादा जितने इल्ज़ाम लगाए जा सकते थे, लगाए गए थे। जो फूलों की भारी से भारी माला ख़रीद कर पिताजी को पहनाते थे वे ही भारी से भारी इल्ज़ाम भी लगा रहे थे।
दो टके की राजनीति, दो टके का आदमी, दो टके की कुर्सी, दो टकों के लिए।
और यह सब उन लोगों के द्वारा जो पिता के पैर धोकर पानी पीते थे। ख़ूब तलवे चाटते थे। यह तो पता था कि जिस तरह मौसम बदलते हैं, मौसम के साथ आदमी का नज़रिया भी बदलता है पर यह राजनीति का कीचड़ से भरा ऐसा ठौर-ठिकाना था जहाँ मौसम बदलते ही पूरा का पूरा आदमी ही बदल जाता था, यह पता नहीं था।
इन्हीं परिस्थितियों में कुछ साल फिर भी निकाले और जब सोमेश की पढ़ाई पूरी हुई तो पहली नौकरी लास वेगस की एक कंपनी में मिली। माँ अभी भी डिप्रेशन में थीं, तनाव में थीं। उन्हें छोड़कर जा नहीं सकता था सोमेश। उनकी चचेरी बहन भी वेगस में रहती थीं। इस बहाने से माँ भी साथ आने को तैयार हो गयीं।
कुछ महीने तो सोमेश की नौकरी से अच्छे निकले लेकिन भाग्य ने वहाँ भी साथ नहीं दिया। सोमेश जिस नौकरी के लिए वेगस आया था, साल भर में उस कंपनी का दीवाला निकल गया। कंपनियाँ दीवाला निकाल कर अपने मालिकों को तो इधर-उधर करके ख़ूब भरपाई कर देती हैं, पर कर्मचारियों को बेरोज़गारी भत्ता मिला तो मिला, न मिला तो कुछ नहीं मिला। बिना नौकरी के सोमेश छ: महीने इधर-उधर भटकता रहा। सत्यवती देवी ने छोटा-मोटा काम किया। जिनके आगे-पीछे नौकरों की भीड़ लगी रहती थी, उन्हें लोगों के घरों में बच्चों को संभालने का काम करना पड़ा।
जब आवश्यकता होती है तो रास्ते खोजने ज़रूरी हो जाते हैं। परदेश में आदमी के जज़्बे की सही पहचान होती है, जहाँ उसकी सहायता करने के लिए ख़ुद के अलावा कोई और नहीं होता। स्वयं कोशिश करने वालों को रास्ते मिल ही जाते हैं। एक दिन जब सोमेश को अच्छी नौकरी मिल गयी तो फिर यहाँ से जाने के बारे में सोचा भी नहीं। न माँ ने सोचा ना ही स्वयं सोमेश ने सोचा।
सोमेश के एम्प्लायर ने यहाँ का निवासी बनने की प्रक्रिया शुरू करवाई, ग्रीन कार्ड मिलते-मिलते दस साल निकल गए। बहुत तेज़ प्रक्रिया चले तो इतना समय, अन्यथा अधिकांश लोग ग्रीन कार्ड पाते-पाते अधेड़ हो जाते हैं। कुछ वर्षों की नौकरी के बाद कंपनी के शेयर मिलने शुरू हुए, उसने ख़ुद भी उसमें पैसा लगाना शुरू किया, जो व्यापार केवल तीन प्रतिशत हिस्से से शुरू किया था आज ग्यारह प्रतिशत हिस्सा है उस विशालकाय इमारत में। इतनी विशालकाय इमारतों में तीन प्रतिशत हिस्से के लिए भी एक बड़ी राशि की आवश्यकता थी। भारत में पापा की सारी जायदाद बेचने के बाद सोमेश के पास पर्याप्त पैसा था निवेश के लिए।
जिस कंपनी में वह काम करता था उसी कंपनी के कई लोगों ने साथ मिलकर इसके विस्तार की शुरुआत की थी। धीरे-धीरे ही सही मगर अब सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं। इस विशालकाय इमारत के तीस मालिक हैं जिनके अलग-अलग प्रतिशत के शेयर हैं। सभी के अपने-अपने रोल हैं, काम भी बाँटे गए हैं। व्यवसाय की पारदर्शिता बनाए रखने के लिए वकील हैं, एकाउंटेंट हैं, सीए हैं। कागज़ी काम पेशेवर लोग सम्हालते हैं। प्रबंधन के लिए कई विभागों के हेड बनाए गए हैं जो अपने-अपने विभाग के सुगठित चालन के बारे में संपूर्ण सावधानी बरतने के ज़िम्मेदार हैं। अब सब कुछ अच्छा चल रहा है।
डीपी और भाईजी के प्रश्न-प्रतिप्रश्न से कई आवश्यक जानकारियाँ सामने आयीं। सोमेश बताता रहा एक के बाद एक। एक सफल व्यवसायी को अपनी सफलता के बारे में बताने का मौका मिले तो वह दिल खोल कर रख देता है। सोमेश भी अपनी सफलताओं का मुक्त भाव से जिक्र करता रहा।
कसिनो के कामकाज की प्रक्रिया के दायरे काफ़ी विस्तृत थे। सफाई, सिक्योरिटी, मशीनों की देखरेख, ग्राहक सुविधा, सरकारी नियमों का अनुपालन, सामुदायिक सद्भाव, कार्मिक संबंध, ऐसे कई विभाग हैं। ऐसा करने का सबसे बड़ा फ़ायदा है कि इमारत के परिसर में रहने से हर उस परेशानी के बारे में मालूमात होती है जिससे कभी भी, कोई भी मुश्किल को टाला जा सकता है। हर सप्ताह एक संयुक्त मीटिंग होती है जिसमें आपातकालीन स्थितियों के बारे में बातचीत होती है। इमारत में काम करने वाले हर व्यक्ति के पास फ़ोन नंबरों की सूची होती है। कभी भी ज़रूरत पड़ने पर तत्काल संपर्क करना आसान हो जाता है।
यहाँ के एक भारतीय परिवार में सोमेश की शादी हुई है। दो बच्चे हैं। भरा-पूरा परिवार है। इन सबसे अधिक महत्वपूर्ण तो यह है कि परिवार में कोई भी व्यापार में दखलंदाज़ी करने वाला नहीं है। अपनी जन्मभूमि से दूर होना किसे अच्छा लगता है पर जब स्थितियाँ आक्रामक रूप ले लें तो विकल्प तो खोजने ही पड़ते हैं। सोमेश ख़ुश है, माँ भी ख़ुश हैं। यादें हैं, बहुत अच्छी भी हैं, बहुत ख़राब भी हैं, इसीलिए यहाँ रहने का फैसला संतुलन बनाए रखता है।
सब कुछ जानकर, समझकर वेगस का रंग चढ़ रहा था भाईजी जॉन और डीपी के ऊपर। सोमेश को विश्वास में लेने के लिए ज़रूरी था कि वे न्यूयॉर्क के फैले अपने पूरे कारोबार की विस्तृत जानकारी उसे दें। क्या पता शायद यही वह लिंक हो जिसकी तलाश उन्हें थी। सत्यवती जी से इतना पुराना परिचय निकल आया जिसमें दादा भी जुड़े हुए थे। उनके बेटे सोमेश का इसी व्यवसाय में होना जॉन और डीपी के लिए महत्त्वपूर्ण था, एक शुभ संकेत था। सोमेश डीपी का हमउम्र ही लग रहा था, एकाध साल के अंतर से छोटा या फिर बड़ा हो सकता है।
यह एक मजबूत कड़ी थी। भारत के संबंधों का, जीवन-ज्योत के आदर्शों में पले-बढ़े दो लोगों का, इस तरह सोमेश से मिलने में कुछ था जो उन सबको आपस में जोड़ने को बेताब था। उस चिन्दी से कपड़े का पूरा थान बनाना आसान नहीं था। इस डोर से मुलाकाती रिश्ते बन सकते थे, कारोबारी रिश्ते नहीं।
भाईजी और डीपी ने भी बातों-बातों में अपने न्यूयॉर्क के कारोबार के बारे में बताया। ज़मीनों के बारे में, रियल इस्टेट के बारे में, शेयर मार्केट के बारे में। सीधे-सीधे शब्दों में अपने वेगस में काम शुरू करने का भी जिक्र कर दिया। कॉर्पोरेशन के दायरे विस्तृत हो सकें इसलिए वेगस में पैर जमाने की चाह थी।
कैनवास बड़ा हो तो रंगों का निखार साफ़ दिखाई देने लगता है। रंगों का उचित प्रयोग करने के लिए भी पर्याप्त जगह का मिलना ज़रूरी था।
सोमेश की हिचकिचाहट साफ़ दिखाई दे रही थी जिसके अपने कारण थे। उसे कुछ पता नहीं था डीपी और जॉन के बारे में लेकिन माँ के जाने-पहचाने लोग थे। भारत के एक एनजीओ जीवन-ज्योत से जुड़े थे। न्यूयॉर्क की एक कॉर्पोरेट टीम के साथ जुड़कर सोमेश की टीम काफ़ी कुछ कर सकती थी यह समझना सोमेश के लिए भी अधिक मुश्किल नहीं था। भाईजी ने सोमेश को सपरिवार न्यूयॉर्क यात्रा के लिए आमंत्रित किया तो मित्रता और संपर्क में रहने के इरादे भी ज़ाहिर हो गए।
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