धरती का दर्द
आवारा बादल ख़ुशी से गुनगुनाता हुआ नीचे जा रही नदी को देख कर दीवाना हो रहा था। साफ़ हवाएँ उनके इश्क़ को देखकर तेज़ी से बहने लगी। मौसमों में मोहब्बतें घुल घुल जा रही थी। पत्ते हिल हिल कर अपने होने की बात बता रहे थे। पशु पक्षी सब अपनी अपनी धुन में बिना किसी डर के खेल कूद रहे थे। नदी ने बादल से पूछा तू इतना दीवाना क्यों हो रहा है। आज ये पागलपन क्यों। बादल ने हँसते हुए कहा-तू भी तो मुझे सौ साल के बाद हँसती खिलखिलाती सुन्दर अल्हड़ नवयौवना सी लग रही है। नदी ने कहा वो इस लिये कि तू कल बरसा ! बहुत बरसा! पर सौ साल पहले की तरह साफ़ ,सच्चा और चमकता हुआ। पेड़ पौधों ने कहा हम सब भी तुम्हारे प्यार के साक्षी हैं। धुले धुले , कोमल ,स्वच्छ दुनिया के वासी। पशु पक्षियों ने उनकी बात सुनी तो हँसने लगे -आज ये बेख़ौफ़ है। इनको इनका संसार मिल गया है।
धरती उन सबकी बात मगन होकर सुन रही थी। कई सालों से उसके भीतर कई ज़ख़्म थे। उसकी देने की इच्छा और आदत का सबने दोहन किया था। भीतर कुछ रह रह कर रिस रहा था। बादल नदी हवा सब मिलकर भी उसका दर्द दूर नहीं कर पा रहे थे।
धरती हर रोज़ सोचती थी कि काश कुछ ऐसा कर सकूँ कि सब उलटा हो जाये। सब कुछ तो अपवित्र हो गया है। कोई भी इस बात को नहीं समझ पा रहा कि जब मॉं दुखी होती है तो पूरे परिवार पर कष्ट आता है। और उस दिन से धरती ने सब को प्यार करने से ख़ुद को रोक लिया। ईश्वर से हर रोज़ उलटफेर की बात करने लगी। ईश्वर ने कहा- अपनी शक्ति को पहचानो। तुम में वो ताक़त है कि तुम स्वयं ही अपने दर्द को दूर कर सकती हो। धरती ने रात,सुबह,आकाश,कालरात्रि सब से बात की। निशाचरों ने कहा कि हम सब बदल देंगे। इन इन्सानों को पता चलेगा कि हमें इन्होंने कितना कष्ट दिया है। हम संन्तुलन बनाना जानते है। रात को घूमने वाले चमगादड़ों ने अपनी ताक़त दिखा दी। अपने दर्द को बताने का रास्ता ढूँढ लिया। इन्सान की बनाई क़ैद से बाहर निकल कर उन्होंने इन्सान को उसके ही बनाये जाल में फँसाने की तैयारी की। धरती का दर्द अब उन सबका दर्द था। रिसते हुए खून के कतरे टपक कर धरती पर फैलते हुए इन्सान के रक्त में , उसकी रंगों में फैलने लगे
और फिर धरती पर कोरोना आ गया। प्रकृति ने ख़ुद का इलाज ख़ुद ही कर लिया था। अब बाहर सब साफ़ और स्वच्छ था। अब सब दर्द देने वाले घरों के भीतर थे। इन्सान अपना इलाज ढूँढ रहा था । अपने घरों में क़ैद बाहर की दुनिया को देख रहा था । धरती का दर्द सब को समझ आ रहा था। भीतर की दुनिया पर बाहर की दुनिया का डर हावी हो रहा था। सब प्रकृति को चहकते और मुस्कुराते हुए देख रहे थे । समीकरण बदल चुके थे। धरती महकती हुई खिलखिला रही थी।