gulabo sitabo in Hindi Film Reviews by Amit Singh books and stories PDF | गुलाबो सिताबो की समीक्षा

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गुलाबो सिताबो की समीक्षा

"कला और कहानी की कसौटी पर गुलाबो-सिताबो"

साहित्य एवं कला विमर्श के क्षेत्र में एक प्रचलित वाद है- कलावाद | जोकि यूरोप से चला और फ्रेंच भाषा में इसका नारा बना- “ल’ आर पूर ल’ आर” यानी “कला कला के लिए” | सामान्य शब्दों में कहें तो एक ऐसी विचारधारा जो कला का एकमात्र उद्देश्य कला या सौन्दर्य को ही मानती है, इससे परे उसकी किसी भी तरह की उपयोगिता को वह बिलकुल नकारती है |

अभिनय कला के सबसे ग्लैमरस मंच सिनेमा के क्षेत्र में बहुत कम ही ऐसी फ़िल्में बनी हैं जो अपने सभी अवयवों को दरकिनार कर केवल और केवल अभिनय केन्द्रित रही हैं | ऐसा करना अनेक कारणों से हमेशा से मुश्किल काम रहा है | कभी व्यावसायिकता के दबाव में इससे समझौता किया गया है तो कभी किसी आंदोलन के विचारधारा की चपेट में अभिनेयता दब गई है | सिनेमा का शताब्दी वर्ष मना लेने के आधे दशक बाद जब गंभीर कला-निर्देशकों ने यह देखा है कि सार्थक सिनेमा से समाज को प्रभावित करने का एक सीमित ही आकाश है, जबकि चलताऊ सिनेमा अपने गुण-दोषों के साथ समाज को अधिक प्रभावित कर रहा है तो उन्होंने अपनी बात कहने का अंदाज बदला है | उन्होंने अपनी कहानी को स्थूल की जगह सूक्ष्मतम गढ़ाई के साथ पेश करना ही उपयुक्त समझा है | क्योंकि अधिक स्थूलता, उपदेशपरकता, इतिवृतात्मकता ने सिनेमा को घिसकर एक बने-बनाये रेसिपी की उबाऊ स्वाद वाला व्यंजन बना दिया है, जो पेट को तो भर सकता है लेकिन मन को नहीं |

निर्देशक सुजीत सरकार ने अपनी नई फिल्म “गुलाबो-सिताबो” को केवल कला के नाम पर समर्पित कर दिया है | अभिनय कला के सौन्दर्य को दर्शाना ही इस फिल्म की आदि और इति है | इसके लिए उन्होंने अभिनय के नए और पुराने दो शिखरों को अपनी अदा में डूबकर निखरने का पूरा मौका दिया है | एक तरफ अभिनय के माइल-स्टोन अमिताभ बच्चन हैं तो दूसरी तरफ आजकल की फिल्मों में वैराइटी वाली अभिनेयता के पर्याय बन चुके आयुष्मान खुराना | अभिनय कला की दो अलग-अलग पीढ़ियाँ एक-दूसरे से ऐसी उलझती और जूझती हैं जैसे दर्शकों को इसका फैसला करना है कि कौन-सी पीढ़ी ने अभिनय का कितना उच्च शिखर छुआ है |

संयोग से कहानी में भी द्वंद्व ही है | और वास्तव में एक द्वंद्व वाली कहानी के आधार पर ही अभिनेयता के द्वंद्व का सही परीक्षण भी हो सकता था | दोनों पात्र टॉम एंड जेरी की तरह एक-दूसरे का आगा-पीछा करते हैं | एक बिलकुल धीमी गति की फिल्म में अगर कुछ देखने लायक है तो वह केवल और केवल इन दोनों पात्रों की अभिनेयता है | कहानी में इन दोनों की तू-तू-मैं-मैं और लोक में रचे-बसे पात्रों गुलाबो-सिताबो की तकरार के प्रतिक में शुरु से अंत तक बस अनवरत एवं अंतहीन प्रतियोगिता जारी है | तराजू के दो पलड़ों पर पड़े ये पात्र कभी खुद को वजनदार तो कभी सामनेवाले को हल्का करने की रेस में लगे हुए हैं | इसके अलावा फिल्म में अगर कुछ है तो वह बस पासंग ही है | फिल्म की कहानी से लेकर विजय राज, ब्रिजेन्द्र काला, फरूख जफ़र, श्रृष्टि श्रीवास्तव का किरदार और अदाकारी सब कुछ को इसी श्रेणी में गिना जा सकता है |

आजकल फिल्म समीक्षा की विधा में एक चलन बड़ा जोरों पर है कि समीक्षा करते हुए यह जरुर बताया जाए कि दर्शक अमुक फिल्म को क्यों देखें और क्यों न देखें | इस चालू फार्मूले पर चलते हुए अगर पहले यह बताया जाए कि यह फिल्म क्यों देखें तो इसका एकमात्र उत्तर है- दिग्गज अभिनेताओं की अभिनेयता कला | यानी अगर आप यह देखना चाहते है कि अभिनय किसे कहते हैं, तो यह फिल्म जरुर देखें | तनिक भी कृत्रिम हुए बिना, कम से कम संवाद अदायगी और बहुत कुछ चेहरे के भावों और अदाकारी से कह देने की कला देखनी हो इसे देखने से बिलकुल न चूकें | अमिताभ बच्चन के किरदार मिर्ज़ा-जैसे बहुतेरे लोग हमारे आस-पास मौजूद हैं और आयुष्मान-जैसे ज़िंदगी की जद्दोजहद से जूझ रहे युवाओं की संख्या तो असंख्य है | बस इसी सामान्य को विशिष्ठ बना देने वाली जिंदादिली देखने के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है | जबकि अगर आप केवल कहानी को पसंदगी का आधार मानते हैं तो इस फिल्म में आप कुछ खास नहीं पा सकेंगे | क्योंकि इसकी कहानी भी मिर्ज़ा के हवेली की ही तरह जर्जर है |

इस समीक्षा की शुरुआत साहित्य के एक सिद्धांत से करने के समानांतर इसका उपसंहार अगर एक राजनीतिक सिद्धांत के आधार पर न किया जाए तो इस फिल्म के साथ बड़ा अन्याय होगा | दरअसल राजनीति शास्त्र के अनेक सिद्धांतों में से एक का मानना है कि दुनिया की हर चीज में कोई न कोई राजनीति है | इसीतरह इस फिल्म में हर कदम पर आप राजनीति की सूक्ष्म बुनावट को महसूस कर सकते हैं | आज जिसतरह से अनेकानेक गलतियों के लिए पं. नेहरू को दोष देने का चलन है, उसी तर्ज पर बेगम के किरदार द्वारा बार-बार नेहरू को याद करना एक बड़ा करारा व्यंग्य है | इसीतरह “बनके मदारी का बंदर डुगडुगी पे नाचे सिकंदर” जैसे गीत, अनेक संवाद और कहानी के रेशे-रेशे में आप राजनीति के विविध रंगों को आसानी से तलाश सकते हैं |

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मौलिकता की घोषणा

मैं अमित कुमार सिंह यह घोषित/ प्रमाणित करता हूँ कि यह मेरी मौलिक फिल्म समीक्षा रचना है |

मेरा परिचय

नाम- अमित कुमार सिंह

सम्प्रति- पीजीटी (हिंदी) केन्द्रीय विद्यालय (क्रमांक-1) वायुसेना स्थल गोरखपुर

संपर्क- 8249895551

email- samit4506@gmail.com