हर्ष, हर्ष - मिलना चाहता है मुझसे। कायनात थम सी गई एक क्षण के लिए। अभी सुनी बात पर कानों को जैसे विश्वास नहीं हो पा रहा था।
"क्या कहा तुमने?" मैंने अपनी ही आवाज सुनी। लगा, शायद गिर ही जाऊंगी मैं। इस क्षण की प्रतीक्षा सालों से की थी मैंने। प्रतीक्षा की तो जैसे आदत सी हो गई थी और अचानक उसका खत्म हो जाना।
जैसे चिर निद्रा में विलीन किसी तपस्वी को कोई जोर से जगा दे। निद्रा में ही तो थी मैं - कई कई सालों से। और एक झटके से वो निद्रा तोड़ दी गई।
हमेशा कल्पनाओं में इस क्षण को जिया था, कितनी कितनी कल्पनाएं, दृश्य साकार हो उठे मन में और आज अचानक सूचना मिली कि तुम मिलना चाहते हो।
सौरभ खड़ा था "तो क्या कहूं मैं? कहां मिलना चाहती हो तुम उससे? "
पापा की आवाज आयी -" कौन आया है, बेटा।"
हड़बड़ा सी गई मैं। लगा जैसे चोरी करती पकड़ी गई होऊ । मेरी आवाज़ ने कहा - "शाम 4 बजे मुहल्ले के मिठाई की दुकान पर।"
आज खुद पर हंसी आती है - प्रेमी से पहली मुलाकात मिठाई की दुकान पर मुहल्ले के बीचों बीच?
सौरभ ने कहा -"ठीक है।"
मेरा दिल ठिकाने पर नहीं था। करीब १० बज रहे थे सुबह के। आज पापा मम्मी की शादी की सालगिरह थी। छुटकी और मैंने सरप्राइज पार्टी का प्लान किया था। छुटकी ने खूब सारी खाने का तैयारी की थी। हमारे फ्लैट के साथ वाले पड़ोसियों को हमने आमंत्रित कर दिया था शाम के लिए। सिर्फ केक काटने वाला कमरा सजना बाकी था। छुटकी ने कहा वो फूल लेकर आती है।
मैं किसी तरह तैयार हुई। मुझे जाना था बोरिंग रोड - अपनी पड़ोस की लड़की के नामांकन के लिए साथ जाने को हां कर चुकी थी मैं। उसके घर में कोई और ऐसा था नहीं कि साथ जाता।
फिर अगले तीन चार घंटे मैं बस यंत्रवत करती गई सब। पता नहीं चला कब बोरिंग रोड पहुंचे, नाम लिखवाया, घर आए। जल्दी में थी मैं।
घर पहुंचते पहुंचते ३बज गए थे। अगला एक घंटा बाकी था। छुटकी ने अंदर वाला कमरा खोला - खुशबू का एक सुंदर झोंका आया।कमरा सुंदर से सजा था। पर मेरा मन अभी सब चीजों से ऊपर था। बार -बार मैं उन सभी गीतों को सोच रही थी - जिसे सोच कर मैंने ये ५साल गुजारे थे। हरेक वो पंक्तियां दिमाग में आ रही थी मेरी प्रिय सारी पुस्तकों की - जिसमे मैंने खुद को नायिका की जगह रख कर सोचा था - चाहे वो 'एक अनजान औरत का खत' हो Stefan Zweig रचित या इवान तुर्गनेव रचित 'प्रथम प्रेम '।
मेरे सारे ड्रेस सामने थे - सोच नहीं पा रही थी क्या पहनूं। छुटकी को अब मैंने बोला - हर्ष मिलने आ रहा। खुशी से चीख पड़ी वो। मेरे एक - एक क्षण की गवाह मेरे मित्रों के अलावा वो ही तो रही थी। मेरे दिल के हाल जानने-समझने वाली मेरी प्रिय बहन , जो कि दोस्त और राजदार रही है मेरी सारी बातों की आज तक।
अचानक उसने कहा - " दीदी, तुम बहुत खुश नहीं दिख रही।"
ये कैसे समझ गई मेरे मन की हलचल को। एक अजीब सी हलचल चल रही थी दिल में। खुशी से ज्यादा कोई और चीज थी वो। पर क्या - खुद मैं समझ नहीं पा रही थी।
मैंने बैंगनी रंग के स्कर्ट और उजले टॉप को चुना जो नानी ने दिया था इस बार। पहन कर खुद को देखा आइने में। अच्छी लग रही थी मैं इस स्कर्ट टॉप और बॉब कट खुले बाल में। ३:४५ हो चुके थे। अब १५ मिनट बाकी थे। एक एक क्षण का हिसाब लगा रहा था मन। तभी घंटी की आवाज़ आई।
कौन आया अभी? पापा - मम्मी तो ५ बजे से पहले आते नहीं।
दरवाजे पर मेरी प्रिय मित्र संयोगिता खड़ी थी घर वाले कपड़ों में ही। लग रहा था भागती चली आ रही थी जैसे अपने साईकिल से।
अचानक से बोली संयोगिता - " हर्ष से मिलने जा रही हो? अभी १० मिनट बाकी हैं।
मैं अवाक। इसे कैसे पता चला। सुबह से ये बात मैंने सिर्फ छुटकी को बताया , वो भी अभी थोड़ी देर पहले।
संयोगिता मुझे अन्दर ले जाते हुए बोली , मैं भी साथ चलूंगी, कोई ड्रेस निकाल दो मेरे लिए।
मैंने उसके आदेश का पालन किया। अभी भी हक्की बक्की थी मैं।
संयोगिता ने अचानक तैयार होते हुए कहा -" कुछ कहना है तुम्हें। सौरभ आया था घर। वो तुमसे बोलने की हिम्मत नहीं कर पाया।"
मेरे मुंह से निकला अचानक - "हर्ष नहीं पहचानता क्या मुझे?"
संयोगिता मुझे देखती रही कुछ क्षण और बोली - " हां। वो तुम्हें पहचानता भी नहीं। "
मेरे सारे मित्र दिन भर परेशान रहे थे। उनको पता था मेरी दीवानगी के बारे में। हिम्मत नहीं हो रही थी किसी की , मुझे कहने की। सबने संयोगिता को भेजा था कि मुझे संभल सके।
५साल पुराना दृश्य साकार हो उठा मेरे समक्ष जब हर्ष ने कहा था "हां , आप मेरे साथ कक्षा छह में पढ़ी हैं।"
संयोगिता बोली " चलो, मिलकर आते हैं। "