सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या क्यूँ की...?
सुशांत सिंह राजपूत ने ख़ुदकुशी कर ली. मात्र चौंतिस साल की उम्र में एक सफल एक्टर, प्रसिद्ध व्यक्तित्व और शरीर से स्वस्थ इंसान जिसके पास कहने को सब कुछ है फिर भी उसने खुद को फाँसी लगा ली। क्या आत्महत्या आसान हो गई है ज़िन्दगी से? क्या इसके अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है?लोग आत्महत्या करते ही क्यूँ हैं?
इन सब सवालों के जवाब आज हर कोई खोज रहा है।
पुलिस अपने तरीके से छानबीन करके निष्कर्ष निकाल रही डॉक्टर अपने तरीके से साइकोलॉजिस्ट अपने तरीके से मीडिया अपने तरीके से और आम आदमी अपने तरीके से। कोई कह रहा आर्थिक तंगी थी कोई कह रहा काम नहीं था किसी ने रिलेशनशिप को वजह बताया। वजह कुछ और ही है। वजह है इंसानों की इंसानों से दूरी। हँसते चेहरे नज़र आते हैं लेकिन पीछे का दर्द किसी को नहीं दिखता। और ग्लैमर की दुनिया में हँसते चेहरे दिखते हैं जहाँ चेहरे पर थकान दर्द तकलीफ दिखी कैरियर चैपट इसलिए हजार दर्द होने के बावजूद मुस्कुराते रहना पड़ता है। दूसरे ये भी है कि यहाँ चमचागिरी और व्यापार खूब चलता है डाइरेक्टर प्रोड्यूसर को खुश रखने के लिए आत्मसम्मान को दाव पर रख कर रहना होता है क्योंकि यहाँ हर कोई मौके की तलाश में किसी दूसरे को रिप्लेश करने के लिए। ऐसे में मानसिक दबाव बना रहता है और यही मानसिक दबाव मानसिक बिमारी बन जाती है।
पूरी दुनिया में चालीस प्रतिशत से ज्यादा व्यक्ति मानसिक बिमार हैं। भारत में हर सात में से एक व्यक्ति मानसिक रोगी है लेकिन विडम्बना तो यह है कि अपने यहाँ मानसिक बिमार से तात्पर्य पागल व्यक्ति को समझा जाता है। अर्थात जब मानसिक बिमारी पागलपन का रूप ले ले खुद का संतुलन बिगड़ जाय तब मानसिक बिमार माना जाता है।
सुशांत सिंह तो एक सिलेब्रिटी थे उनके बारे में सर्च रिसर्च हो रहे है लेकिन आम आदमियों की संख्या ज्यादा है आत्महत्या करने वालों में उनके लिए न डॉक्टर होते हैं न पुलिस और ना ही साइकोलॉजिस्ट।
मानसिक बिमारी होती क्यों है??
रिसर्च करने वाले कइयों वजहें बता रहे हैं जैसे कैरियर में सफलता या असफलता, पारिवारिक कलह, आर्थिक तंगी, प्रेम सम्बन्ध। लेकिन मेरे अनुसार कोई भी वजह इंसान से बड़ी नहीं होती ज़िन्दगी से बड़ी नहीं होती। लेकिन शायद कोई इस बात को मानने को तैयार नहीं होता कि अमुक व्यक्ति को यह समस्या हो सकती है। यही समय रहते कोई इस बात पर ध्यान ही नही देता कि इसके बारे में बात की जाय चाहे वो पारिवारिक मामला हो या प्रेम सम्बन्ध।
2019 के लास्ट में एक आई ए एस अफसर ने आत्महत्या कर ली थी पत्नी और माँ के बीच में हो रही अनबन से तंग आकर। एक 24 वर्षीय लड़के ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उसकी पत्नी चरित्रहीन निकल गई। ज़िया खान ने सूरज पंचोली के लिए आत्महत्या कर ली प्रत्यूषा बनर्जी ने शादी से तीन दिन पहले आत्महत्या कर ली।
इन सब आत्महत्याओं के पीछे इंसान है चाहे वो माँ बीवी हो पत्नी हो सूरज पंचोली लड़का हो या बनर्जी का होने वाला पति। एक रिसर्च से पता चला है की चालीस प्रतिशत आत्महत्याओं के पीछे किसी स्त्री या पुरुष का हाथ होता है यानि अधूरे रिश्ते आत्म हत्या की सबसे बड़ी वजह बताई गई है।
ऐसे मामलों से निपटने के लिए परिवार की अहम भूमिका होती है अगर परिवार साथ दे तो ज्यादा मुश्किल नहीं होता इससे बाहर निकलना। ऐसे में कयामत से कयामत तक का एक सीन याद आता है जब जूही चावला की सगाई हो रही होती है और आमिर खान घर के बाहर से देख रहे होते हैं जूही के पापा भाई को पता चलता है और वो आमिर के पापा को फोन करके बता देते हैं। सीन ये है कि जब आमिर दुखी होकर आते हैं तो उनके पापा गुस्से से उनका इंतजार कर रहे होते हैं लेकिन बेटे को देखकर गले से लगा लेते है तब आमिर फूट फूट कर रोते हैं। अगर उस दुखी अवस्था में पापा ने डांट लगाई होती तो सम्भव था कि वह भी कुछ ऐसा ही कदम उठाते। यही परिवार की भूमिका है जब परिस्थिति दयनीय हो तो उस समय अगर पीड़ित चाँद के लिए रो रहा हो तो दिलासा देनी चाहिए ठीक है हम अवश्य प्रयास करेंगे। फिर समय परिस्थिति बदल जाते हैं जो वस्तु आज इम्पोर्टेंट है वो कल नहीं रहेगी यही प्रकृति का नियम है और प्रकृति परिवर्तनशील है।
क्या ज़िन्दगी से आसान है मृत्यु??
जब ज़िन्दगी बोझ लगने लगे
हर क्षण जब घुट घुट के जीना पड़े
जब मौत आसान लगे यूँ जीने से
सच कहते हैं मर जाना अच्छा है...
पर वो जीत जाएंगे
जो वजह देंगे यूँ मरने की
तुम हार जाओगे
जो वजह बने उनके जीतने की
तुम जीतो जो कमियाँ
मिले उसे ढाल बनाकर
जो ये पल गुजार लिए
तो कामयाबी चूमेगी कदम
सिर ताज़ पहनाकर....।।।
क्या ज़िन्दगी से आसान है मृत्यू तो हाँ आसान है क्यूँ फिर सब चीजों से सभी बातों से छुटकारा मिल जाएगा एक ही बार जो तकलीफ होगी फिर आजादी लेकिन इस आजादी का कोई महत्व रहेगा फिर। जन्म और मृत्यु दो अटल सत्य हैं हर जीव के लिए हर वस्तु के लिए हर प्राणी के लिए चाहे सजीव हो या निर्जीव। तो फिर मृत्यु की कामना करना व्यर्थ है। आप करो या ना करो मृत्यु सबकी आनी है तो फिर आत्म हत्या क्यूँ?
सबसे बड़ी बात तो ये है कि सबकुछ पूर्व निर्धारित होता है जन्म लेने का समय और मृत्यु की वजह सृष्टि के प्रारम्भ में ही निर्धारित हो चुकी है। फिर भी हम उस पर तर्क करते हैं बात करते हैं बहस करते हैं। लेकिन इस बात को जब मान ली जाय तो सारे तर्क बातें ज्ञान धरे के धरे रह जाते हैं। लेकिन इतना आसान नहीं होता इस बात को स्वीकार करना। जाने वाला जब साथ रहता है दुखी रहता है तब ज्ञान नहीं झाड़ने आता किसी को तब ईगो में अहंकार में नफरत में ये ध्यान ही नहीं आता की हमारे इस व्यवहार पर किसी की ज़िन्दगी खराब हो सकती है और जब होनी हो जाती है तो हजार तरह की बातें आती हैं पछतावें होते हैं।
सुशांत के साथ अब बातें खुल रही हैं कि हमें पता था वो छः महीने से डिप्रेशन में थे, अब पता चल रहा किसी प्रोड्यूर से उनकी अनबन हो गई थी उसकी वजह से हाथ आई छः फिल्में वापस हो गईं थीं। हमारे यहाँ विडम्बना ये है की जब तक ओवर डोज से फट ना जाए तब तक दिखता ही नहीं कि अब हो गया। फिर फटने के बाद नजर आता है कि ओह ओवरडोज हो गया।
जब कोई बड़ा आदमी ऐसे कदम उठाता है तो मुद्दा उठता है तरह तरह की बातें होती हैं फिर सब शांत फिर वही व्यवहार वही ओवरडोज वही ज़िन्दगी वही दर्द। आम आदमी की क्या गिनती वो तो कीडे़ मकोडे़ हैं चाहे सैकडों किलोमीटर पैदल चल कर रास्तें में मरें भगदड़ में मरे आतंकी हमले में मरें या आत्महत्या करें क्या फर्क।
चकाचौंध के पीछे का क्या है सच ?
बाहरी दिखावे और चमकधमक को यहाँ एक नकाब की तरह पहन लिया गया है. अंदर से लाख दर्द हो लेकिन बाहर नहीं आना चाहिए नहीं तो मीडिया नाम का भूत है जो बर्बाद कर देगा. और सच भी तो है जितना नाम होता है बदनामी भी उतनी होती है. और यही परम्परा बन चली आ रही है. अगर छवि बिगड़ी तो काम भी नही मिलेगा. अब इसे को कायम रखने के चक्कर में बीमारियाँ घर कर ले रही हैं.लेकिन क्या यही वजह है आत्महत्या के पीछे? सुशांत के आत्महत्या के पीछे दो वजह बताई जा रही पहली तो रिलेशनशिप से सम्बन्धित है दूसरी कैरिअर से सम्बन्धित. उनके पास 7 फ़िल्में थी किसी प्रोडूसर से अनबन हुयी सारी फ़िल्में हाथ से चली गयी. जिसके वजह से वो डिप्रेशन के शिकार हो गए. बीमार होने के 6 महीने का समय मिला था लेकिन किसी ने कुछ नही किया और अब बयानबाजी कर रहा की मुझे पता था.
फिल्म इंडस्ट्री में इतनी घटनाएं होने के बाद कोई शख्त नियम कानून बनता कि एक बार किसी को फिल्म के लिए साइन कर लिया तो आप उसे निकाल नहीं ले सकते। कास्टिंग काउच जैसी घटनाएं खुलेआम हो रही हैं लड़कियों के साथ और अगर कोई इसके लिए सहमत ना हो तो फिर टैलेंट आपकी मेहनत कुछ काम की नहीं क्यों कि रिप्लेश करने के लिए हजारों खड़े हैं। कभी कभी ऐसा है कि एग्री होने के बाद भी प्रोजेक्ट वापस ले लिए जाते हैं ऐसे में डिप्रेशन नहीं होगा तो और क्या होगा। क्या इसके लिए कोई शख्त नियम कानून की आवश्यकता नहीं है। और क्या मनुष्य जो समस्त प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं उनका फर्ज नहीं कि इंसान के साथ इंसानियत से पेश आएं।
सोचने वाली बात है कि किसी इंसान की वजह से किसी ने अपनी ज़िन्दगी खत्म कर ली फिर भी वो इंसान हँसता है खेलता है खाता है और खुश रहता है। बड़ी आसानी से भूल भी जाता है तो क्या ऐसे लोगों के लिए जान देना उचित है। आज हारेंगे तो कल अवश्य जीतेंगे इस विश्वास को कभी नहीं छोड़ना चाहिए चाहे मन कितना भी भटके। किसी को अगर आपके होने या ना होने से फर्क नहीं पड़ता तो आपको भी फर्क नहीं पड़ना चाहिए। अकेलेपन से लड़ने का सबसे बड़ा उपाय खुद से दोस्ती करो किताबों से दोस्ती करो किसी की कमी खले तो कहानियाँ बुनो कैरेक्टर तैयार कर उनसे बातें करो कविताएं लिखो नीद ना आए तो सोना जरूरी नहीं व्यस्त रहना जरूरी है। फिर वो समय निकल जाएगा फिर बीता हुआ वक्त वापस नहीं आता। इसके अलावा सिर्फ किस्मत को मानो ईश्वर को मानो सब्र अपने आप आ जाएगा।
दुनियादारी की भाषा में जितने दिन का बीज़ा मिला है बस उतने ही दिन ही यहाँ रहना है फिर अपने पूर्व निश्चित माध्यम से विदा ले लेना है। ईश्वर की विशेष कृपा रही जो अपना नाम अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। मात्र चौतीस साल की उम्र में पूरे भारत को रुलाए, हर किसी ने जाना सुशांत सिंह राजपूत को।जब तक आपकी फिल्में रहेंगी तब तक आपका नाम रहेगा आप जिन्दा रहोगे, बस ईश्वर आपके परिवार को सब्र दे....।
अंत में बस इतना ही कि कोई भी समस्या ज़िन्दगी से बड़ी नहीं होती लेकिन ये भी सत्य है कि प्राणी उतने ही दिन का यहाँ मेहमान है जितने दिन का निमंत्रण मिला है।