सुबह अलसाई हुई आई थी। लेकिन पंछियों ने उसका ऐसा स्वागत किया था कि उसमें एक नया जोश पैदा हो गया और वो घर की छत में जो दरारें थीं, बिल्कुल वहाँ रहने वाले बाशिंदे की क़िस्मत की तरह, में से झाँकने लगी थी। सूरज की सुनहरी किरणों ने उसे तो जगा दिया था, जैसा कि वो भी जानता था, लेकिन उसकी सोयी क़िस्मत को जगाने वाली किरणों का आविष्कार अब तक नहीं हुआ था। फ़िर भी उसे उम्मीद थी कि एक दिन ऐसी ही सुनहरी किरणें उसकी क़िस्मत में पड़ी दरारों में से भी झाँकेंगी जैसी कि अभी इस छत की दरारों में से झाँककर सीधे उसके मुँह और तकिये पर पड़ रहीं थीं।
रोज़ की तरह, वो उठा और पब्लिक टायलेट जैसे अपने बाथरूम में घुस गया। पहले अपने दाँतों को चमकाया, फ़िर साबुन रगड़-रगड़कर अपने शरीर को। नहा-धोकर वो तैयार होने लगा, दीवार पर ठुकी एक कील के सहारे लटक रही अपनी चंद अच्छी क़मीज़ों में से एक क़मीज़ पहनने के लिए निकाली और आईने के सामने ख़ुद को निहारने लगा। यकायक उसने ध्यान दिया कि इस सफ़ेद रँग की क़मीज़ को अगर उसने आज पहना तो इसका सत्यानाश हो जाना पक्का है, इसलिए उसने कील पर उस क़मीज़ को दोबारा टाँग दिया और नेवी ब्लू कलर की क़मीज़ निकालकर पहन ली। अपने बाल बनाते-बनाते वो एक गीत गुनगुनाने लगा,
"ज़िंदगी एक सफ़र है सुहाना, यहाँ कल क्या हो....ल…ल…ल…ल..."
उसने अपने छोटे-से टेबल(जो कभी उसके लिए स्टडि टेबल का काम करता है तो कभी डाइनिंग टेबल का) पर रखी घड़ी उठाई और कलाई पर बाँध ली।
“साढ़े नौ !”- उसने घड़ी में वक्त देखा और फुर्ती के साथ अपने उस झोलेनुमा बैग को उठाया, उसके अंदर कुछ किताबें, एक नोटपेड, एक एक्स्ट्रा पेन और पानी की एक बोतल रख ली। फ़िर अपनी क़मीज़ की जेब में भी एक पेन अटकाया और पैंट की जेब में रखे बटुए को टटोला,
“पाँच सौ।“ बटुए में रखे पैसों को गिनकर उसने वापस बटुआ जेब में रख लिया और अपना बैग उठाकर चल पड़ा।
अपने कॉलेज की तरफ बढ़ते हुए उसके कदम आज ना जाने क्यों उसे एक नए सफ़र का अहसास दे रहे थे।
यहाँ बताना ज़रूरी है कि आख़िर ये बीस-इक्कीस साल का नौजवान कौन है? जैसे दुनिया में सबका कुछ ना कुछ नाम होता है वैसे ही इसका भी एक नाम है 'नयन'। ये स्वयं को एक ख़ोजकर्ता मानता है जो दुनिया की अजीबोगरीब कहानियाँ खोजता है और उन्हें अपनी कलम से कागज़ पर उतारता है। अपना स्वयं का जीवन भी इसके लिए एक कहानी ही है।
इस शख्स को ठीक-ठीक लेखक तो कहा नहीं जा सकता क्योंकि इसकी लिखी कहानियाँ आज तक कहीं भी, किसी भी पत्रिका या समाचार पत्रों में प्रकाशित नहीं हुई है और चूंकि कोई कहानी प्रकाशित ही नहीं हुई है इसलिए किसी ने इसका लिखा कुछ पढ़ा भी नहीं है। ज़ाहिर-सी बात है, सिर्फ़ लिखने भर से तो कोई लेखक नहीं बन जाता ना, लिखने के बाद छपवाना भी पड़ता है ताकि कोई पढ़े, और कोई पढ़े तो पढ़कर प्रशंसा भी करे। तब कहीं जाकर आदमी लेखक बनता है!
लेकिन इस सिरफिरे को कहानी लिखना भर आता है, उसे प्रकाशित करवाने का जुगाड़ तो ये कर ही नहीं सकता।
अब आगे की बात, इस सिरफिरे को लिखना इतना पसंद है कि उसके अलावा ये कोई दूसरा काम करना ही नहीं चाहता और मुसीबत की बात तो ये है कि इसे लेखन से भी कमाना-वमाना नहीं है(जैसा कि मैंने पहले ही आपको बताया), फ़िर ये अपना गुज़ारा कैसे करता है? ये बड़ा ही पेचीदा सवाल है।
इसके पैदा होते ही इसकी माँ इसे छोड़कर चली गई थी, शायद उसे भी पता होगा कि बड़े होने के बाद उसका ये पूत ‘कमाऊ’ नहीं बनेगा और जब पूत कमाऊ नहीं तो फ़िर काहे का पूत? बाप नाम की चीज़ भी इसने कभी नहीं देखी। बस एक छोटी-सी लड़की और एक महिला याद है।
जब ये कुछ महीने का रहा होगा तब वो लड़की जिसका नाम रागिनी था, इसे कचरे के ढ़ेर से उठाकर अपने घर में ले आयी थी। अपनी बेटी के हाथ में इस शिशु को देखकर उसकी अम्मा ने पूछा था,
“कहाँ से उठा ले आई इसे ?”
“कचरे की पेटी में पड़ा था अम्मा।“ रागिनी ने मासूमियत से कहा।
“ज़रा दे तो सही।“अम्मा ने बच्चे को गोद में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। रागिनी ने अम्मा की गोद में उसे दे दिया।
तब ये नौजवान, जो कि एक शिशु था, किसी हरे रंग के कपड़े में लिपटा हुआ था। अम्मा ने कपड़ा हटाकर देखा तो उसे बड़ा अचरज हुआ। उसने दोबारा गौर से देखा, उसके नन्हें पैरों को थोड़ा अलग करके देखा, फ़िर भी उसे बड़ा अचरज हुआ। फ़िर उसने शिशु को दोबारा कपड़े से ढक दिया और गोद में लेकर बैठी रही। कुछ सोचते हुए उसने अपने सिर पर हाथ रखा।
रागिनी अपनी माँ को इतनी गहराई से कुछ सोचते हुए पहली बार देख रही थी, क्योंकि इससे पहले तो अपनी अम्मा की हरकतों से उसे लगता था कि इनको भगवान ने हाथ-पैर, शरीर वगैरह तो सबकुछ दिया है लेकिन सोचने के लिए दिमाग ही नहीं दिया। रागिनी छोटी ज़रूर थी, लेकिन वो जो सोचती थी, सही था। उसकी अम्मा कई बार पगलाई-पगलाई सी हरकतें कर जाया करती थी, जिससे कि ख़ुद उसकी अम्मा को बाद में बड़ी हैरानी और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता था। मसलन, एक बार उसकी अम्मा ने अपनी पड़ोसन के माँग में लिक्विड वाला सिंदूर लगा हुआ देखा तो उसे बड़ी हँसी आयी। उसने सोचा कि बिट्टू की अम्मा पगला गई है, माथे पर भी कोई लिपस्टिक लगाता है भला!
यही बात जाकर उसने बिट्टू की अम्मा से बोल दी, सोचा था कि उसका अच्छा मज़ाक़ उड़ाएगी और मज़ाक़ उड़ा भी, लेकिन ख़ुद उसकी अम्मा का।
पड़ोसनें कहने लगी,
“माना कि तुम इतनी पढ़ी-लिखी नहीं हो लेकिन इसका ये मतलब थोड़े ही है कि गँवारों जैसी हरकतें भी शुरू कर दो। तुमको क्या लिपस्टिक और लिक्विड वाले सिंदूर में अंतर नहीं पता?”
बेचारी उसकी अम्मा अपना-सा मुँह लेकर रह गई। उसे तो ये ही नहीं पता था कि लिक्विड वाला सिंदूर भी आता है, फ़िर लिपस्टिक और सिंदूर में अंतर करती तो कैसे करती?
लेकिन बाद में बेटी की खुशी के लिए उसने भी अपनी पड़ोसनों की तरह बन-ठन कर रहना शुरू कर दिया और अब उसके आगे तो उसकी पड़ोसनें भी फ़ीकी-सी लगती हैं।
और ये देखकर उसकी नन्ही सी बिटिया खुशी से फूली नहीं समाती है।
लेकिन रागिनी के लिए मुद्दा अब भी वही था, "अम्मा के पास इतना दिमाग है कि वो गहराई से सोच सकें?"
“अम्मा, क्या सोच रही हो?” आख़िरकार रागिनी ने पूछ ही लिया।
अम्मा ने अपनी बिटिया की तरफ़ देखा, फ़िर शिशु को थपथपाते हुए बोली,
“हम सोच रहे थे कि ये तो लड़का है।“
रागिनी को लगा कि उसे अपना माथा पीटना चाहिए, जैसा कि वो हमेशा करती है।
“ये तो हमको भी पता है अम्मा, कि ये लड़का है। इसमें इतना क्या सोचना?”
“हट पगली !”अम्मा ने उसके सर पर एक हल्की-सी चपत लगायी। “हमारा मतलब ये है कि ये तो लड़का है, फ़िर इसे काहे कोई कचरे की पेटी में फ़ेंक देगा?”
“क्यों नहीं फ़ेंक सकता? रोज़-रोज़ तो अख़बार में ख़बर आती है, बच्चे को कचरे की पेटी में फ़ेंक दिया, स्टेशन पर छोड़ दिया, मंदिर की सीढ़ियों पर रखकर चले गए, फ़िर इसे कोई क्यों नहीं फ़ेंक सकता?”
रागिनी के सवाल पर अम्मा को फ़िर बड़ा अचरज हुआ, “बिटिया सचमुच बड़ी हो गई।“ उसने सोचा।
फ़िर मुस्कुराते हुए बोली, “वो क्या है ना, तुम जो कह रही हो, कि रोज़-रोज़ अख़बार में आता है बच्चे को लावारिस छोड़ जाने के बारे, वो सब तो लड़की के बारे में आता है। वो सारे बच्चे लड़की होते हैं ना।“
रागिनी को बात अटपटी लगी, फ़िर उसने ख़ूब सोचा और बोली,
“तो लड़की को ही क्यों फ़ेंक दिया जाता है? वो कोई कचरा थोड़े ही है।“
"सही बात है", अम्मा ने एक लंबी साँस छोड़कर कहा, “लड़की कचरा नहीं होती, लेकिन जो उसको फ़ेंककर या छोड़कर चला जाता है ना, उसकी सोच बहुत कचरा होती है।“
अम्मा की बात सुनकर रागिनी की आँखें भर आयी।
उसने अम्मा के गले लगकर कहा,
“हाँ अम्मा, लेकिन तुम्हारी सोच बड़ी ही अच्छी है, तुम ज़रा भी बुद्धू नहीं हो।“
रागिनी की बात सुनकर अम्मा शायद एक अरसे के बाद मुस्कुरायी।
अभी माँ-बेटी सोच ही रही थी की इस शिशु का जो अचानक ही उनकी शांत ज़िंदगी में आकर हलचल मचा गया था, उसका क्या करें, की शिशु भूख से रोने लगा।
उसे रागिनी की गोद में देकर अम्मा तुरंत रसोई की तरफ भागी और थोड़ा सा दूध लाकर चम्मच से किसी तरह शिशु को पिलाया।
पेट भरते ही वो अम्मा की गोदी से चिपटकर यूँ सो गया मानों कह रहा हो अब तो यही मेरा घर है।
उधर शिशु के रुदन की आवाज़ पड़ोसियों के कानों में पड़ चुकी थी।
बिट्टू की अम्मा कुछ और औरतों के साथ उनके घर पहुँची।
"अरी रागिनी की अम्मा, ये नया मेहमान कौन है?"
अम्मा ने उन्हें सारा किस्सा कह सुनाया।
ये सुनकर उन महिलाओं ने कहा "देख हमारी बात मान, इसे वापस वहीं छोड़कर आ जा। पहले ही बड़ी मुसीबत से तू अकेली रागिनी को पाल रही है। चल ये तो तेरे पति की औलाद होने के नाते तेरी जिम्मेदारी बनती है, पर अब एक और नई मुसीबत मत मोल ले।"
उन सबकी बातें सुनकर अम्मा ने गोद में निश्चिन्त सोते हुए शिशु को देखा जिसके होंठो पर अब प्यारी सी मुस्कान खेलने लगी थी।
फिर उसने रागिनी की तरफ़ देखा। माँ और बेटी ने आँखों ही आँखों में मूक वार्तालाप करते हुए अपना फैसला ले लिया।
"अब जब भगवान ने इसे भी मेरी झोली में डाल ही दिया है, तो मैं इसकी जिम्मेदारी से कैसे इंकार कर सकती हूँ।" अम्मा ने पड़ोसनों को जवाब दिया।
"ठीक है, जैसी तेरी मर्ज़ी।" कहकर सभी महिलाएं उठ खड़ी हुई।
बाहर जाती हुई महिलाओं के स्वर अम्मा और रागिनी के कानों में आ रहे थे।
"लड़का है ना, शायद इसीलिए मोह हो गया है इसे। पति के छोड़कर जाने के बाद अब खुद की औलाद तो हो नहीं सकती बेचारी को।"
अम्मा ने अपने चेहरे पर कोई भाव आने नहीं दिया, बस आँखें मूंदकर बीते हुए दिनों की यात्रा पर चल पड़ी।
कोई दस बरस पहले की बात थी जब वो ब्याहकर इस घर में आयी थी। प्रसव-पीड़ा के दौरान उसके पति संतोष की पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी, लेकिन उसकी बिटिया बच गयी थी।
घर की देहरी पर पाँव रखते ही जब उसकी सास ने उस नन्ही सी जान को उसकी गोद में देते हुए कहा "ले आज से इसकी सारी जिम्मेदारी तेरी।"
तब उस नवयौवना ने अचानक ही महसूस किया की वो सहज ही अठारह बरस की अल्हड़ युवती से परिपक्व माँ बन चुकी है।
कुछेक रस्मों के बाद संतोष अपने दोस्तों के साथ बाहर निकल गया और देर रात शराब के नशे में धुत्त होकर लौटा।
कमरे में पहुँचकर जब उसने अपनी नई-नवेली पत्नी की गोद में बच्ची को देखा तो गुस्से से आगबबूला होकर चीखा "हटाओ इस मनहूस को यहाँ से। फेंक आओ इसे कचरे के ढ़ेर में।"
ये सुनकर वो हतप्रभ सी उसे देखने लगी और किसी तरह साहस जुटाकर बोली "ये आप कैसी बातें कर रहें हैं? हमारी बेटी है ये।"
"कोई नहीं है ये मेरी, सुना तुमने।" कहकर संतोष गोद से बच्ची को झपटकर हटाने की कोशिश करने लगा।
अचानक पहुँची चोट से बच्ची नींद से जागकर रोने लगी।
उसकी सास रुदन की आवाज़ सुनकर कमरे में पहुँची और बच्ची को अपने साथ ले गयी।
किसी तरह रात कटी। लेकिन अब ये आये दिन की बात होने लगी।
संतोष उसे किसी भी तरह घर से निकाल फेंकना चाहता था और उसकी नई माँ उसे अपने हृदय से लगाये रहती थी।
एक दिन अचानक जब वो स्नान करने गयी हुई थी और उसकी सास की बैठे-बैठे आँख लग गयी थी, संतोष सोयी हुई बच्ची के गले को दबाने की कोशिश करने लगा।
लेकिन तभी वो कमरे में पहुँच गयी और तेज धक्का देकर उसे बच्ची से दूर किया और फुर्ती से बच्ची को गोद में उठा लिया।
संतोष ने बिना शर्मिंदा हुए कहा "देख आज मेरी बात तू कान खोलकर सुन ले। ये जो तू इस पराई-जनी की माँ बनी जा रही है, बंद कर इस नाटक को, वर्ना इसके साथ-साथ मैं तुझे भी इस घर से निकाल फेंकूँगा।"
"आप भी आज मेरी बात सुन ही लीजिये। मुझे अबला, बेबस समझने की भूल बिल्कुल मत कीजियेगा। मुझे भी कानून की थोड़ी-बहुत जानकारी है। इस घर पर जितना आपका हक़ है उतना ही मेरा और रागिनी का भी है। इसलिए हम दोनों यहाँ से कहीं नहीं जायेंगे। और आज जो आपने मेरी बेटी के साथ करने की कोशिश की है उसके लिए भी मैं आपको सज़ा दिलवा सकती हूँ।" उसने बिना अपनी आवाज़ की तल्खी छुपाये हुए कहा।
संतोष ने तंज कसते हुए कहा "ओहहो, तो नामकरण भी कर दिया इस मनहूस का। अब जब तूने कानून की धमकी दे दी है तो ठीक है, तू ही रह इस घर में मैं जाता हूँ। मैं भी देखूँगा तू इसे कैसे पालती है।"
"जैसी आपकी मर्ज़ी।" कहते हुए वो बच्ची को लेकर घर के अंदर चली गयी।
संतोष ने बाहर जाते हुए अपनी माँ की तरफ देखा कि शायद वो उसे रोक ले, लेकिन अपनी पहली मृत बहू की अपने बेटे के हाथों हुई दुर्दशा को याद करते हुए वो इस बार अपनी बहू और पोती के साथ खड़ी नज़र आयी।
संतोष को गए हुए लगभग महीना बीत चुका था। अब घर का राशन भी खत्म होने आया था और धीरे-धीरे उसके लौटने की उम्मीद भी धूमिल हो रही थी।
सास-बहू दोनों चिंता में बैठी थी कि आगे क्या किया जाये।
"देख बिटिया, अब मुझे नहीं लगता कि वो लौटकर आयेगा। मेरा क्या है चार दिनों की मेहमान हूँ। लेकिन तू कैसे इस नन्ही सी जान के साथ जीवन गुजारेगी?" उसकी सास ने कहा।
"अम्मा, जिस ईश्वर ने जीवन दिया है वो जीने की राह भी दिखायेगा।" कहते हुए वो बच्ची के लिए दूध लाने चल पड़ी।
बहुत सोच-विचारकर उसने अपनी सास से कहा "अम्मा हम तीनों के लिए तो ये एक कोठरी बहुत है। क्यों ना हम पीछे के दोनों कमरे किराये पर उठा दें।"
"ठीक है बिटिया, जैसा तुझे ठीक लगे। लेकिन किसी भले परिवार को ही रखेंगे हम।" सास बोली।
"हाँ अम्मा, हम ऐसा ही करेंगे।"
और वो किरायेदार की खोज के लिए पड़ोसियों से मदद मांगने चल पड़ी।
पड़ोसियों की मदद से पति-पत्नी और दो बच्चों का एक परिवार उन्हें किराएदार के रूप में मिल गया।
लेकिन वो जानती थी कि महज किराये की रकम से वो अपनी रागिनी की भलीभांति परवरिश और पढ़ाई-लिखाई नहीं करवा सकेगी।
अपनी माँ से सीखे हुए सिलाई-कढ़ाई के हुनर को अब उसने आजीविका के रूप में अपनाने का निश्चय कर लिया।
साथ ही घर के आगे दालान में छोटी सी जगह पर थोड़ी-बहुत सब्जियां भी उगाने लगी।
घर की जरूरत के बाद जो सब्जियां बच जाती, उन्हें वो पास की मंडी में बेच देती।
धीरे-धीरे जीवन पटरी पर आ रहा था। लेकिन बेटे के ग़म में उसकी सास अब दिन-प्रतिदिन घुलती जा रही थी। चाहे जैसा भी था पर था तो उनका बेटा वो भी एकलौता।
आखिरकार इस ग़म ने जल्दी ही उनके प्राण ले लिये। अब घर में रह गयी थी बस रागिनी और वो।
अब वो संतोष की बहू नहीं वरन रागिनी की अम्मा के नाम से पहचानी जाने लगी थी।
नन्ही रागिनी अब विद्यालय जाने लगी थी।
उसकी बाल-सुलभ जिज्ञासाएं कभी-कभी उसकी अम्मा को परेशान कर देती थी।
कभी वो अपने पिता के बारे में पूछती, तो कभी अपनी अम्मा के पड़ोस की चाचियों-ताइयों की तरह श्रृंगार ना करने पर सवाल करती।
लेकिन जब देखती की अम्मा उसकी बातों से दुखी हो रही है तो झट से उसे गले लगा लेती और कहती "तुम तो बुद्धु हो अम्मा। तुम्हें कहाँ से कुछ पता होगा।रहने दो।"
और वो बिटिया की नज़र में बुद्धु बनकर ही खुश रहने लगी।
रागिनी की आवाज़ से वो अतीत से वापस वर्तमान में लौट आयी।
"अम्मा, अम्मा, मैंने आंगनबाड़ी वाली मैडम से सब पता कर लिया है।"
"क्या पता कर लिया है री?" अम्मा कौतूहल से बोली।
"यही की हम इस मुन्ने को अपने पास कैसे रख सकते हैं। हमें इसे गोद लेना होगा जिसमें मैडम जी हमारी मदद करेंगी।" रागिनी बोली।
उसकी बात सुनकर अम्मा नन्हे शिशु और रागिनी को साथ लेकर उसी वक्त मैडम से मिलने चल पड़ी।
मैडम की मदद से अब वो बच्चा कानूनी रूप से उनका हो चुका था। उन्होंने उसका नाम रखा 'नयन'।
नयन और रागिनी की परवरिश में अम्मा ने कोई कमी नहीं छोड़ी।
जहाँ रागिनी शिक्षक बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए बी.एड कर रही थी, वहीं नयन भी अब मैट्रिक में आ चुका था।
एक दिन अचानक एक बड़ी सी गाड़ी उनके दरवाज़े पर रुकी। अम्मा, नयन और रागिनी हैरानी से उसमें से उतरने वाली महिला को देख ही रहे थे कि उसने आगे बढ़कर नयन को मेरे बेटे, मेरे बेटे कहकर गले लगा लिया और उसे बेतहाशा चूमने लगी।
कुछ देर तक नयन को कुछ समझ में नहीं आया। फिर उसने एक झटके से स्वयं को उस महिला से अलग किया और अम्मा के पास जाकर खड़ा हो गया।
"आप हैं कौन?" अम्मा ने पूछा।
"मैं इसकी माँ हूँ।" उस महिला ने कहा।
"ऐसे कैसे आप मेरे बेटे को अपना बेटा बता रही हैं? सोच-समझकर बोलिये।" अम्मा गुस्से से बोली।
"देखिये मैंने सब पता कर लिया है कि बरसों पहले मेरे द्वारा भूलवश कचरे में फेंके गए बच्चे को आप ही अपने घर लेकर आयी थी।" महिला ने कहा।
अब तक चुप खड़ा नयन अचानक बोल उठा "ये क्या बोल रही है अम्मा? तुम मुझे कचरे के ढ़ेर से लायी थी? मैं तुम्हारा बेटा नहीं हूँ?"
"तू सिर्फ मेरा बेटा है नयन। जा दीदी के साथ अंदर जा।" अम्मा ने आदेश देते हुए कहा।
नयन और रागिनी के अंदर जाते ही उस महिला ने कहा "देखिये, आप घबराइए मत। मैं उसे आपसे छिनने नहीं आयी हूँ।
दरअसल जवानी और पैसे के जोश में मुझसे भूल हो गयी थी और मैं गर्भवती हो गयी। लेकिन इस बच्चे को अपनाना मेरे लिए संभव नहीं था। इसलिए एक और भूल करते हुए मैंने सबसे छुपकर इसे कचरे के ढ़ेर में फेंक दिया। लेकिन अब मुझे मेरी भूल का अहसास हो रहा है। इसलिए उसे थोड़ा सुधारने की कोशिश करते हुए मैंने बड़ी मुश्किल से उसका और आपका पता लगाया। मैं कुछ पैसे उसके नाम करना चाहती हूँ ताकि आपको उसकी अच्छी परवरिश करने में ज्यादा तकलीफ ना हो। बस इसलिए मैं यहाँ आयी हूँ।"
अपनी ऐयाशियों के बाद छोटे से दुधमुँहे बच्चे के जीने-मरने की परवाह किये बिना उसे कचरे के ढ़ेर में फेंककर उस अक्षम्य अपराध को मात्र एक भूल का नाम देकर आज अचानक अपना फर्ज निभाने आयी ये महिला अम्मा के लिए एक अजूबा ही थी।
उनका जी चाहा जननी शब्द को बदनाम करने वाली इस अपराधिनी को दो-चार थप्पड़ जड़ दें।
अगर उसने बच्चे को कचरे के ढ़ेर की जगह किसी अनाथालय में भी छोड़ दिया होता तो शायद अम्मा स्त्री होने के नाते उसकी मजबूरी समझकर उसका अपराध थोड़ा कम भी आँकती।
ख़ैर, अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए उन्होंने बस इतना ही कहा "ऐसा है मैडम जी हमने आज तक अपने बच्चे की परवरिश बेहतर ही कि है और आगे भी करते रहेंगे। उसे किसी चीज की कमी ना कभी हुई ना होगी। और इसके लिए उसकी अम्मा को आपके दिये हुए खैरात की जरूरत नहीं है। वो आपके लिए भूल होगा, लेकिन मेरे लिए मेरे दिल का टुकड़ा है। बेहतर है आप जैसे आयी हैं वैसे ही लौट जाइये और आगे से कभी भी हमारे जीवन में दखल देने की कोशिश मत कीजियेगा।"
"ठीक है, मैं जा रही हूँ। लेकिन आप मेरा पता रख लीजिये। अगर कभी जरूरत महसूस हो तो बेहिचक मेरे पास आ जाइयेगा। बस इस बच्चे के बारे में मेरे घर में किसी को कुछ मत कहियेगा। बहुत मजबूर हूँ मैं।" उस महिला ने जबरदस्ती अपना कार्ड अम्मा के हाथों में दिया।
अम्मा कार्ड वहीं पर फाड़ते हुए बोली "मैंने कहा ना आपको मेरे बेटे की फिक्र करने की जरूरत नहीं है। आप अपनी मजबूरी के साथ यहाँ से विदा ले सकती हैं।"
अब उस महिला ने कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा और वहाँ से चली गयी।
उसके जाने के बाद जब अम्मा अंदर गयी तब नयन के चेहरे के भावों से उन्हें समझते देर नहीं लगी कि उसने सब कुछ सुन लिया था।
उन्होंने बिना कुछ कहे उसे सीने से लगा लिया। अम्मा के आँचल में सिमटा हुआ नयन सहसा फूट-फूटकर रो पड़ा और बोला "अम्मा, मैं सचमुच कचरे के ढ़ेर में मिला था? क्या मैं कचरा हूँ?"
"नहीं मेरे बच्चे, ख़बरदार जो फिर कभी ऐसी बात अपने मुँह पर भी लाया तू। तू तो मेरा हीरा बेटा है।" अम्मा ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा।
"और मैं अम्मा?" सहसा रागिनी बोली।
अम्मा ने उसे भी गले से लगाते हुए कहा "तू भी मेरी हीरा बेटी।"
"अम्मा जब मैं नौकरी पर लग जाऊँगा ना तब तुम्हें इस मैडम से भी बड़ी गाड़ी ले दूँगा और फिर हम उसमें बैठकर उसके घर चलेंगे और उसे कहेंगे तुम बुरी लड़की हो और मेरी अम्मा अच्छी लड़कीं है। है ना अम्मा?" नयन ने भोलेपन से कहा।
अम्मा ने उसका मन बहलाने के लिए हामी भर दी।
उस रात सबके सबके सोने के बाद पहली बार नयन ने अपनी कॉपी उठायी और टूटे-फूटे शब्दों में अपनी पहली कहानी लिखने की कोशिश की जिसका शीर्षक था "अच्छी लड़की और बुरी लड़की।"
धीरे-धीरे लिखना नयन का शौक नहीं अपितु जीने का साधन बन गया।
गुज़रते वक्त के साथ सभी उस महिला को भूल चुके थे। लेकिन नयन अभी भी कभी-कभी उसकी कही हुई बातों को याद करके दुखी हो जाता था। और तब अपनी भावनाओं को शब्दों का रूप देकर अपनी कॉपी में उकेरने की कोशिश करता था।
रागिनी का बी.एड पूरा हो चुका था और उसे इसी शहर में नौकरी भी मिल चुकी थी।
नयन भी इंटर पास कर चुका था। आगे की पढ़ाई के लिए उसने दिल्ली जाने की इच्छा जतायी। जिसे अम्मा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
औऱ इस तरह वो दिल्ली आकर पहले हॉस्टल और फिर इस कमरे का निवासी हो गया।
उसने साहित्य के साथ अपनी आगे की पढ़ाई जारी की।
स्नातक के बाद अब वो स्नातकोत्तर कर रहा था।
अभी तक उसके जीवन में सब ठीक ही चल रहा था, लेकिन फिर धीरे-धीरे अतीत की यादें उसके अकेलेपन में आकर सेंध लगाने लगी जिसका नतीजा ये हुआ कि वो अवसाद में जाने लगा।
कभी उसे लगता कि वो कितना खुशनसीब है जो उसे अम्मा और रागिनी जैसी दीदी मिली जो यहाँ दिल्ली में भी अपनी सामर्थ्य अनुसार उसे किसी चीज की कमी नहीं होने दे रही थी। और कभी उसे लगता कि वो कितना बदनसीब है जो उसकी सगी माँ ने उसे ठुकरा दिया। अगर वो उनके साथ होता तो शायद उसकी ज़िन्दगी और बेहतर होती।
ये विचार आते ही वो ये सोचकर स्वयं को कोसने लगता की ऐसा सोचकर वो उस अम्मा का अपमान कर रहा है जो उसकी जीवनदायिनी है।
इन विचारों ने उसके जीवन में ऐसी उथल-पुथल मचा रखी थी कि उसने कॉलेज जाना भी छोड़ दिया।
अब वो दिन-रात बस इधर-उधर भटकता रहता और अपने ही जैसे लोगों की कहानियां खोजकर उन्हें कागज के पन्नों पर उतारता रहता।
आज लगभग दो-तीन महीनों के बाद जब उसके एक सहपाठी ने उसे कॉलेज में अटेंडेंस दुरुस्त रखने की याद दिलायी जिसके बिना उसे परीक्षा में बैठने की इजाजत नहीं मिलती तब आज वो अरसे के बाद अपना बैग टांगे कॉलेज पहुँचा था।
कॉलेज में पहुँचते ही उसका सामना प्रोफ़ेसर श्याम से हो गया। उन्होंने उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा "क्यों जवान, कहाँ रह रहे हो आजकल? आज बहुत दिनों के बाद नज़र आये।"
स्नातक के दिनों से ही वो प्रोफ़ेसर श्याम का प्रिय विद्यार्थी रहा था।
"कुछ नहीं सर, बस ऐसे ही..." नयन ने नज़रें चुराते हुए कहा।
प्रोफ़ेसर समझ गए कि कुछ तो गड़बड़ है। उन्होंने उसे कॉलेज के बाद मिलने के लिए बुला लिया।
कॉलेज के बाद नयन जब उनसे मिला तब वो उसे लेकर पास के कैफेटेरिया में चले गए।
वहाँ एक कोने की टेबल पर दोनों बैठे।
प्रोफ़ेसर ने बात शुरू करते हुए कहा "मैं जानता हूँ यहाँ तुम अकेले रहते हो। इसलिए तुम्हारा शिक्षक होने के नाते तुम मेरी जिम्मेदारी हो। तुम्हारा चेहरा बता रहा है कि कुछ तो है जिसने तुम्हारी नींद उड़ा रखी है। बताओ मुझे क्या बात है? क्यों मेरा होनहार विद्यार्थी अचानक से अपनी पढ़ाई से दूर भागने लगा है?"
प्रोफ़ेसर से मिले अपनेपन को पाकर नयन के दिल में छुपा हुआ दर्द उसकी जुबान पर आ गया।
जब नयन ने अपनी बात खत्म कर दी तब उन्होंने उसे समझाते हुए कहा "सबसे पहले तो तुम स्वयं को अतीत की फिजूल बातों से अलग करो और वर्तमान में जीना सीखो। सोचो तुम्हारी अम्मा ने तुम्हें दिल्ली भेजते हुए कितने सपने देखे होंगे की एक दिन उनका बेटा उनका नाम रोशन करेगा। उनकी परवरिश का मान रखेगा। और तुम्हारे अंदर ईश्वर ने जो टैलेंट दिया है उसे छुपाओ मत। उसे दुनिया के सामने आने दो। हो सकता है तुम्हारी कहानियां किसी के नाउम्मीद हो चुके जीवन में उम्मीद की किरण बनकर आये। हो सकता है तुम्हारा यही टैलेंट तुम्हें सफलता की ऊँचाइयों तक ले जाये।"
'हाँ' में सर हिलाकर वो अपने कमरे के लिए निकल गया।
प्रोफ़ेसर के कहने पर पहली बार नयन अपनी कहानियों के प्रकाशन के बारे में सोच रहा था।
कमरे में इस वक्त वो अपनी सारी डायरियां फैलाकर बैठा हुआ था। इन डायरियों के बीच में उसकी नज़र उस कॉपी पर पड़ी जिसमें उसने अपनी पहली कहानी लिखी थी।
उस कहानी को पढ़ते हुए कभी वो हँस रहा था तो कभी उसकी आँखें भर जा रही थी।
अब चूंकि उसे लेखन का अच्छा अनुभव हो चुका था इसलिए वो बचपन में लिखी हुई अपनी इस कहानी को नए सिरे से लिखने बैठ गया। लिखते-लिखते कब रात गुज़र गयी उसे अहसास भी नहीं हुआ।
सुबह की किरणों ने जब उसकी खिड़की पर दस्तक दी तब उसने चौंककर घड़ी देखी और मुस्कुरा उठा।
उसके चेहरे पर थकान का नामोनिशान भी नहीं था।
कहानी खत्म करके वो बाथरूम में घुस गया और गुनगुनाते हुए तैयार होने लगा।
कॉलेज पहुँचकर आज वो सीधा कॉलेज की तरफ से छपने वाली साहित्यिक पत्रिका के कक्ष की तरफ बढ़ चला।
वहाँ पहुँचकर उसने अगले माह के अंक के लिए अपनी कहानी जमा कर दी।
इसके बाद मजबूत कदमों से अपनी कक्षा की तरफ बढ़ते उसने मन ही मन कहा "अम्मा, तुम्हारा बेटा तुम्हें निराश नहीं करेगा।"
धीरे-धीरे उसका जीवन फिर से पटरी पर आ रहा था।
अपने प्रिय विद्यार्थी को फिर पहले जैसा देखकर प्रोफ़ेसर श्याम बहुत प्रसन्न थे।
उधर कॉलेज मैगजीन का अगला अंक प्रकाशित हो चुका था। उसके कुछ सहपाठियों ने उसकी कहानी के प्रकाशन के लिए उसे बधाई दी थी। लेकिन नयन ने ये सोचकर उन्हें गंभीरता से नहीं लिया की सहपाठी होने के नाते वो सब औपचारिकता निभा रहे हैं।
अपनी कहानी की लोकप्रियता से बेख़बर नयन ने प्रथम वर्ष की परीक्षा के लिए दिन-रात स्वयं को पढ़ाई में झोंक दिया था।
एक दिन अचानक ही कॉलेज में प्रोफ़ेसर विनीत ने उसे अपने पास बुलाया और मैगज़ीन में छपी कहानी को देखकर उससे पूछा "ये तुमने लिखी है ना?"
नयन के हामी भरते ही उन्होंने कहा "तुम तो जानते हो परीक्षा की छुट्टियों के बाद कॉलेज का वार्षिकोत्सव होने वाला है। और इस वर्ष वार्षिकोत्सव में होने वाले नाटक के लिए हमने तुम्हारी कहानी को चुना है। इस कहानी की प्रशंसा में पाठकों की अनगिनत चिट्ठियां आ चुकी हैं।"
प्रोफ़ेसर विनीत की बातों पर नयन को भरोसा नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था मानों वो कोई सपना देख रहा है।
प्रोफ़ेसर श्याम की बातें उसे याद आ रही थी "अपने टैलेंट को बाहर आने दो।"
वहाँ से निकलकर वो सीधा प्रोफ़ेसर श्याम के पास पहुँचा और उनके चरण छू लिए।
प्रोफ़ेसर श्याम ने कहा "ये तो शुरुआत है मेरे बच्चे, अभी तुम्हें बहुत आगे जाना है।"
कक्षाओं के खत्म होने के बाद नयन सीधा रेलवे स्टेशन पहुँचा और परीक्षाओं के बाद घर जाने के लिए टिकट ले ली।
होली की छुट्टियों में भी वो घर नहीं गया था, जबकि वो जानता था कि अम्मा और रागिनी को दुख होगा।
टिकट हाथ में लिए हुए वो सोच रहा था कि इस बार वो उनकी सारी शिकायतें मिटा देगा।
आखिरकार परीक्षा खत्म हुई और कॉलेज की छुट्टियां शुरु।
नयन जब घर के दरवाजे पर पहुँचा तब अंदर से रागिनी और अम्मा की बातचीत के स्वर आ रहे थे।
"अम्मा, नयन को ना जाने क्या हो गया है? पिछली चिट्ठियों का भी जवाब नहीं दिया उसने। पता नहीं इस छुट्टी में भी वो घर आयेगा या नहीं?"
"कहीं मेरे बच्चे की तबियत तो नहीं खराब हो गयी? हाय मेरा बेटा किस हाल में होगा। सुन ऐसा कर हम दोनों ही चले चलते हैं दिल्ली। जब तक उसे देख नहीं लूँगी तसल्ली नहीं होगी।" अम्मा का चिंता भरा स्वर गूँजा।
तभी कमरे में प्रवेश करते हुए नयन बोला "लो अम्मा, जी भरकर देख लो अपने नालायक को।"
नयन को यूँ अचानक सामने पाकर अम्मा तो जैसे खुशी के मारे बौरा ही गयी और उसे भींचकर हृदय से लगा लिया।
रागिनी ने उसे चिढ़ाते हुए कहा "लो अम्मा, तुम्हारे बेटे ने हमारे दिल्ली जाने का कार्यक्रम रद्द करवा दिया।"
"बिल्कुल नहीं दीदी। इस बार आप दोनों को मुझसे मिलने नहीं बल्कि मेरे साथ ही दिल्ली चलना है। एक सरप्राइज वहाँ आप दोनों का इंतज़ार कर रहा है।" नयन ने मुस्कुराते हुए कहा।
"अरे वाह जल्दी बता क्या सरप्राइज है?" रागिनी उत्सकुता से बोली।
नयन ने उसकी चोटी खींचते हुए कहा "देख लो अम्मा, कुछ ही महीनों में आपकी बिटिया विदा होने वाली है और इतना भी शऊर नहीं है कि यात्रा से थके आये भाई को कुछ खिला-पिला ही दे। बस बकबक करवा लो इनसे। ससुराल में तो नाक कटवा देगी हमारी।"
"अरे तू इसे क्यों परेशान कर रहा है? बता क्या खायेगा मैं अभी बनाकर लाती हूँ।" अम्मा ने लाड़ से कहा।
अपनी चोटी संभालते हुए रागिनी बोली "हाँ-हाँ अम्मा, तुम ही उठाओ लाट-साहब के नखरे।"
सहसा नयन ने अपने बैग से साथ लाया गुलाल निकालकर रागिनी के गालों पर लगाते हुए कहा "नखरे तो तुम्हें भी मेरे उठाने पड़ेंगे दीदी। छोटा भाई जो हूँ और वहाँ से भाग खड़ा हुआ।"
"ठहर तो।" कहती हुई रागिनी भी उसके पीछे भागी।
लंबे वक्त के बाद दोनों भाई-बहन की हँसी से घर गुलज़ार हो उठा था। अम्मा उन्हें देखते हुए मन ही मन उनकी बलैया लिए जा रही थी।
हँसती-खिलखिलाती रागिनी सहसा गंभीर हो उठी। उसके गालों पर आँसुओं की बूंदे छलकी देखकर नयन के साथ-साथ अम्मा भी घबरा उठी।
"तू होली पर घर क्यों नहीं आया? बोल। चिट्ठियों का भी जवाब नहीं दिया। पता है मैं कितना घबरा गयी थी कि कहीं तू..."।
रागिनी की बात पूरी करता हुआ नयन बोला "कहीं मैं तुम सबको छोड़कर दूर ना चला जाऊँ उस अमीर औरत के पास अपने हिस्से की दौलत लेने।"
"मेरा परिवार, मेरी दौलत तुम दोनों हो जिन्होंने मुझे जीवन दिया, मेरा जीवन संवारा। तुम्हारे सिवा मेरा ना कोई था ना है।" नयन ने आगे कहा।
"सच कहता है नयन, अम्मा ना होती तो जाने हम दोनों का क्या होता? हमें जन्म देने वालों के लिए तो हम कचरा ही थे।" रागिनी बोली।
अम्मा जो अब तक खामोशी से उनकी बातें सुन रही थी, बोल पड़ी "ये तुम दोनों क्या लेकर बैठ गये हो? और ख़बरदार जो फिर कभी किसी ने मेरे बच्चों को कचरा कहा तो। चलो हाथ-मुँह धोकर आओ दोनों। मैं फ़टाफ़ट कचौरियां तलती हूँ।"
"अरे वाह अम्मा, कचौड़ी। मैं यूँ गया और यूँ आया।" कहता हुआ नयन फ्रेश होने के लिए अंदर चला गया।
रागिनी भी हाथ-पैर धोकर रसोई में पहुँच गयी।
अम्मा उन दोनों को अपने हाथों से खिला रही थी और वो दोनों भी बारी-बारी से अम्मा को खिला रहे थे।
देखते-देखते नयन की छुट्टियां समाप्त हो गयी।
रागिनी ने भी दिल्ली जाने के लिए अब तक कि जमा अपनी सारी छुट्टियां मंजूर करवा ली थी।
वो कमरा जो नयन को कभी सराय से ज्यादा नहीं लगता था, अम्मा और रागिनी के आ जाने से अब घर लगने लगा था।
अम्मा ने तो देखते ही देखते साफ-सफाई करके कमरे की काया ही पलट दी थी।
रात को जब सब खाने के लिए बैठे तो सहसा रागिनी बोली "अरे, तूने हमें बताया नहीं कि यहाँ सरप्राइज है क्या?"
"इसके लिए आप दोनों को पंद्रह दिनों का इंतज़ार करना होगा।" नयन ने जवाब दिया।
अगले दिन जब नयन कॉलेज पहुँचा तब वार्षिकोत्सव की तैयारियां शुरू हो चुकी थी। कुछ वक्त वहाँ बिताने के बाद वो वापस घर आ गया।
शाम में जब नयन अम्मा और रागिनी को लेकर घुमाने निकला।
अब उनका रोज का यही रूटीन बन गया था। दिन में नयन कॉलेज चला जाता और लौटकर कुछ देर पढ़ाई करने के बाद सबको लेकर घूमने निकल जाता।
अब तक छोटे से शहर में सिमटी हुई अम्मा और रागिनी के लिए दिल्ली जैसा विराट नगर किसी अजूबे से कम नहीं था।
और उनके साथ कि वजह से अब तक पराई लगने वाली दिल्ली अब नयन को अपनी लगने लगी थी।
देखते ही देखते वार्षिकोत्सव का दिन भी आ गया। नयन अम्मा और रागिनी को लेकर कॉलेज पहुँचा।
स्वागत-गान और कुछ कार्यक्रमों के बाद जब मंच-संयोजक ने कहा "अब हम आपके सामने पेश करने जा रहे हैं एक नाटक, जो एम.ए साहित्य के विद्यार्थी नयन की लिखी हुई कहानी अच्छी लड़की और बुरी लड़की पर आधारित है।"
नयन का नाम सुनकर अम्मा और रागिनी हतप्रभ सी उसे देख रही थी।
"अरे वाह अम्मा, अब पता चला यही था तुम्हारे बेटे का सरप्राइज।" रागिनी चहकती हुई बोली।
अम्मा ने उसे चुप रहने का इशारा करते हुए नाटक देखने के लिए कहा।
जब नाटक की शुरुआत छोटी बच्ची की गोद में रखे शिशु के दृश्य से शुरू हुई तो अम्मा और रागिनी समझ गयी कि ये किसकी कहानी थी।
नाटक के अंत में जब हीरो ने अपनी अम्मा और दीदी को गले लगाया तब दर्शक-दीर्घा में बैठी हुई अम्मा और रागिनी की आँखें नम हो चली थी।
कार्यक्रम समापन के लिए जब कॉलेज के प्रधानाचार्य मंच पर पहुँचे तब उन्होंने नाटक में अभिनय करने वाले कलाकारों के साथ-साथ नयन के कलम की तारीफ़ और उन्हें सम्मानित करने के साथ-साथ सभी को उज्ज्वल भविष्य के लिए शुभकामनाएं भी दी।
अम्मा और रागिनी पूरे जोश में नयन के लिए तालियाँ बजा रही थी।
मंच से उतरकर जब नयन उनके पास आया तब अम्मा ने उसका माथा चूमते हुए कहा "बेटा, आज तूने अपनी अम्मा का सर गर्व से ऊँचा कर दिया। ईश्वर ने मेरे दोनों बच्चों को लायक बनाकर मेरी तपस्या का फल मुझे दे दिया।"
"बस-बस अम्मा, अब क्या सारी बातें यहीं कर लोगी? चलो कहीं जश्न मनाने चलते हैं। आज की दावत मेरी तरफ से।" रागिनी ने सहसा कहा।
"हाँ-हाँ अम्मा, जल्दी चलो वरना कहीं इस कंजूस का इरादा ना बदल जाये।" नयन भी हँसते हुए बोला।
घूम-फिरकर रात में घर लौटने पर अम्मा ने नयन से कहा "बेटे, मुझे बचपन की तेरी बात याद आ गयी जब तूने कहा था अम्मा जब मैं नौकरी पर लग जाऊँगा ना तब तुम्हें बड़ी सी गाड़ी ले दूँगा और सबको बताऊँगा की मेरी अम्मा अच्छी लड़की है और वो बुरी लड़की।"
"हाँ अम्मा, याद है मुझे। मैं अपनी बात को जरूर सच करूँगा लेकिन उसके लिए तुम्हारे बेटे को तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए ताकि मैं जीवन-संघर्ष में घबराऊँ ना और अपनी मंजिल की तरफ दृढ़ कदमों से बढ़ता रहूँ।" नयन बोला।
अम्मा ने उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा "बेटा, मेरा आर्शीवाद तो हमेशा तेरे साथ है और तेरी लगन पर भरोसा भी। मैं बस इतना कहना चाहती हूँ कि कामयाब होने के बाद चाहे तू अपनी अम्मा के लिए बड़ी गाड़ी ले या ना ले, लेकिन कोशिश करना कि जितना तुझसे हो सके जरूरतमंद और मजबूर लोगों की मदद करना, उनके सपनों के लिए सीढ़ी बनना। समाज और देश के प्रति एक इंसान का जो कर्तव्य है अपनी कामयाबी में उसे कभी मत भुलाना।
जब पूरी दुनिया मेरे बेटे की अच्छाइयों की तारीफ करेगी ना तब दुनिया में मुझसे ज्यादा खुशनसीब कोई माँ नहीं होगी।"
अम्मा की बातें सुनकर अपनी आँखों की नमी पोंछते हुए नयन बोला "अम्मा, दीदी सच कहती है, तुम बिल्कुल बुद्धु नहीं हो।"
रागिनी भी अम्मा के गले लगते हुए बोली "हाँ, हमारी अम्मा बिल्कुल बुद्धु नहीं है।"
अपनी सोयी किस्मत को जगाने वाली उम्मीद की जिस किरण का नयन अब तक इंतज़ार कर रहा था, वो उसे अम्मा की नज़रों में नज़र आने लगी थी।