Aouraten roti nahi - 9 in Hindi Women Focused by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | औरतें रोती नहीं - 9

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औरतें रोती नहीं - 9

औरतें रोती नहीं

जयंती रंगनाथन

Chapter 9

नदी कब रुकी है

उस रात मोधुमिता को लगा था कि अब वह बहती नदी को नहीं रोक पाएगी। पद्मजा को अपने पास रखना एक छलावा ही था। बेटी को पिता की संपत्ति आकर्षित कर रही है। मां के पास है ही क्या़ फिर ऐसी जिद्दी और अनियंत्रित बच्ची को लेकर वह करेगी भी क्या? बांग्ला समाज में बदनामी तो बहुत पहले हो चुकी। अब रही-सही इज्जत बेटी हाथों में भर-भर उछाल रही है। मोधुमिता की मां का कहना था बेटी को हाथ से जाने मत दो। बेटी के बहाने बालमोहन तुमको पैसे देता रहेगा। आगे भी उसकी पढ़ाई और शादी के नाम पर तुम पैसे मांगों और अपना भविष्य सुरक्षित करो।

‘‘कोई मतलब नहीं है इसका।’’ मोधुमिता बुदबुदाई। ‘‘मेरे हाथ में अब कुछ नहीं रहा।’’

इसके कुछ महीने बाद ही बालमोहन केस जीत गए। पद्मजा उसके साथ हैदराबाद चली गई। शुरू-शुरू में महीने में एक-दो बार मां को फोन कर लेती, फिर वो भी छूट गया।

पिता के यहां पैसा था, लेकिन मां के घर की तरह खुली छूट नहीं थी। बालमोहन की मां (आंध्र में दादी को अव्वा कहते हैं) साथ रहती थीं। पहले ही दिन बालमोहन ने कुछ सख्त होकर कहा, ‘‘मुझे तुम नाना बुलाओ, मुझे ये डैड-वैड नहीं पसंद।’’

एकदम से बदला परिवेश। इस दक्षिण भारतीय माहौल से नितांत अपरिचित थी पद्मजा। शाम होते ही अव्वा पूजा कर हर कमरे में अगरबत्ती जला देतीं। शाम सात बजे ही रसोईघर से कभी सांबार की महक आने लगती, तो कभी वंकाय पुलुसू की। दादी ज्यादातर खुद ही खाना बनाया करतीं। ऊपर के कामों में मदद के लिए शांति थी, सब्जी काटना, नारियल कीसना, इडली के लिए चावल और उड़द दाल को अलग से भिगो कर पीसना जैसे काम शांति ही करती थी।

बालमोहन सात बजे तक काम से लौट आते।

दादी डायनिंग टेबल पर सबके आगे बड़ी सी स्टील की प्लेटें रखतीं। खास अवसरों पर तो रसोई में ही नीचे बिठा केले के पत्ते पर भोजन परोसतीं। खाना सब एक साथ खाते। थाली में पहले कोई सूखी सब्जी, फिर अचार और गर्म-गर्म चावल और थक्के भर घर में बना घी। चावल को अचार के साथ या सब्जी के साथ खाने के बाद बारी आती सांबार की। इसके बाद रसम। साथ में तले हुए पापड़ और चावल-साबूदाने की बड़ियां, गाजर की कौशंबीर। अंत में दही।

इसको खिलाने के बाद दादी खुद खातीं।

पद्मजा को आते ही लग गया कि वह इस जीवनशैली के साथ समझौता नहीं कर पाएगी। मां के घर में रात को खाना ग्यारह बजे बनना शुरू होता था। बारह बजे, तो कभी एक बजे जिसका जब मूड आए, खाना खुद परोसकर खाते। पद्मा ने कभी नानी या मां को खाना बनाते नहीं देखा। बल्कि घर का कोई भी काम करते नहीं देखा था, बावजूद इसके कि नानी हमेशा तंगी का रोना रोतीं, खाना बनाने के लिए एक नहीं, दो नौकर थे। खुकू और संथालिन जॉमिनी। खाना हमेशा जरूरत से ज्यादा बनता। मछली रोज और हफ्ते में तीन दिन मुर्गा। नानी मुर्गे की टांग सबसे पहले मामा के घर भिजवातीं, बल्कि चावल, माछेर झोल, चिंचड़ी और कोई मिष्टान्न रोज ही खुकू मामा के घर ले जाता था, दिन में दो बार।

जॉमिनी सुबह से शाम तक रसोई में ही लगी रहती। पद्मजा को याद नहीं कि कभी वह रसोई में गई हो। कोलकाता में जब तक रही, जॉमिनी खाना परोस उसे कमरे में दे जाती। बाद के सालों में तो उसने घर पर खाना ही छोड़ दिया था।

शाम को स्कूल से निकल सेनगुप्ता और मिनोली के साथ पहुंच जाती पार्क स्ट्रीट। कभी फ्लूरिया में बैठकर चॉकलेट सूफले खाती तो कभी सड़क किनारे बेंच पर बैठकर चटखारे लेकर दो-दो चिकन रोल उड़ा लेती।

हैदराबाद की बात अलग थी। एक अनुशासन में ढला माहौल। बालमोहन ने अपना बिजनेस खूब फैला लिया था। बेटी के आने के बाद कोशिश करते कि शाम को वक्त पर घर लौट आएं। पद्मजा को यहां रहने में बुनियादी दिक्कत आ रही है, वे समझ रहे थे। उनकी मां और उनकी बेटी। दो अलग-अलग धु्रव। एक उत्तर तो दूसर दक्षिण। ऐसा नहीं था कि दादी को पोती से लगाव नहीं था। बालमोहन उनकी इकलौती संतान थे और उसकी इकलौती संतान पद्मजा। उन्होंने ही कभी बेहद चाव से अपनी पोती का नाम पद्मजा लक्ष्मी रखा था। कालांतर में बहू ने नाम में से लक्ष्मी हटा दिया। बालमोहन अपनी शादी को असफल कहें न कहें, उनकी मां की नजर में यह निहायत डिजास्टर शादी थी। शुरू में उन्हें जरूर लगा कि बहू सुंदर और पढ़ी-लिखी है तो गृहस्थी ठीक-ठाक संभाल लेगी। लेकिन शादी के महीने भर बाद ही उन्हें पता चल गया कि यह बहू उनसे नहीं संभलने वाली। वे बहुत आश्चर्य से कहतीं, ‘‘मधु घर का कोई काम करना नहीं जानती। वो दस बजे सोकर उठती है। नहाने से पहले चाय पीती है। नौकर से बदन दबवाती है। और तो और उन दिनों में भी कोई परहेज नहीं करती। बिस्तर पर सोती है और सबसे पहले खाती है...।’’

बालमोहन की ब्राह्मण माता के लिए वाकई यह बड़ी बात थी। वे थीं बाल विधवा। जीवनभर अपने आपको संयम के कड़े घेरे में रखा। न कभी अच्छा पहना, न खाया। हर दक्षिण भारतीय गुणी स्त्री की तरह भोरे उठकर नहा धोकर पूजा करने के बाद ही कॉफी पीतीं। स्वभाव की बुरी नहीं थीं वे। कभी इधर-उधर की बात नहीं की। किसी पंचायत में नहीं पड़ीं। बेटे को इंजीनियर बनते देखना उनके लिए किसी सपने के सच होने से बड़ा था। बस एक आस थी कि बेटे के लिए ठोक-पीटकर सादी सी बहू लाएंगी, मन ही मन उन्होंने अपने भाई की बड़ी बेटी वसंता को पसंद भी कर लिया था। लेकिन बेटे ने तो पढ़ाई खत्म होने से पहले ऐलान कर दिया कि वह शादी कर रहा है।

वे कुछ नहीं कर पाईं। लेकिन अब पोती को इस रूप में देखना उन्हें ज्यादा बुरा लग रहा है। सत्रह साल की लड़की कच्छी पहने घूमती है। बाल ऐसे हो रहे हैं जैसे साधु के सिर की जटा। न उठने का समय है न सोने का। कुछ कहो तो घंटों मुंह फुलाकर बैठ जाती है। बालमोहन को कहो तो वह कहता है, ‘‘अम्मा,अभी तो आई है। कुछ वक्त दो उसे। संभल जाएगी। ज्यादा कुछ कहोगी तो यहां से भी चली जाएगी। बच्ची है अभी...।’’

अव्वा और पद्मजा की लड़ाई एक दिन बढ़ गई। पद्मजा इधर कई दिनों से नाना से कह रही थी कि उसे विदेश भेज दें। वह यहां रहकर नहीं पढ़ना चाहती। बालमोहन चाहते थे कि वह कॉलेज के बाद विदेश जाए मैनेजमेंट करने। लेकिन जिद के मारे पद्मजा ने किसी कॉलेज में दाखिला नहीं लिया। मूड बहुत उखड़ा रहता था उसका, ऊपर से अव्वा दिन में तीन-चार बार उसे कुछ ऐसा कह देतीं कि मन होता अभी यहां से भाग निकले।

ऐसा ही कुछ हुआ। बड़ी बात नहीं। सुबह-सुबह पद्मजा रात के कपड़ों में अपने कमरे से बाहर आ गई। बिना बाहों की टीशर्ट और खाकी शॉट्र्स में। अपने गुच्च-मुच्च हुए बालों को ऊपर बांध रखा था। गले में क्रॉस की माला, एक पैर में मोती की पायल, आंखों में उबासी लिए जैसे ही वह बाहर निकली, अव्वा ने टोक दिया। उनके साथ उनका भाई था, रात को ही आया था। पद्मजा से उन्होंने तेलुगु में कहा, ‘‘जाओ और जाकर मुंह धोकर ढंग से कपड़े पहनकर आओ।’’

पद्मजा बिफर गई, दूसरे व्यक्ति के सामने अव्वा ने ऐसा कैसे कह दिया? उसने पांव पटककर कहा, ‘‘गो टु हैल।’’

और कोई वक्त होता तो अव्वा को इतना बुरा न लगता पर भाई के सामने बित्ते भर की पोती का यह कहना उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ। वे जोर से चिल्लाई, ‘‘ये तुम्हारी मां का घर नहीं, जहां तुम्हारी मन मर्जी चलेगी। यहां रहना है, तो कायदे से रहो। बदतमीज, गधी कहीं की। ज्यादा बकबक करेगी तो जुबान काट डालूंगी।’’

पद्मजा के लिए यह सुनना बहुत भारी था। जिंदगी में किसी ने उससे इस लहजे में बात नहीं की थी। एक झटके में उसने डाइनिंग टेबल पर रखा फलों से भरा कांच का मर्तबान ऊपर उछाला और गुस्से से बोली, ‘‘ये मेरे नानागारू का घर है। मुझे जैसे रहना है, रहूंगी, जो कहना है करूंगी। तुम होती कौन हो मुझे डांटने वाली? अपने काम से कम रखो, वर्ना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।’’

अव्वा बैठी थीं, अचानक वे रोने लगीं। वे इस तरह कभी रोती नहीं थीं। गरिमामय महिला थीं। लेकिन वे यह बर्दाश्त नहीं कर पाईं कि उनकी पोती उन्हें इस तरह अपमानजनक लहजे में डांटे।

इस घटना को आठ साल हो गए, पद्मजा बुदबुदाई। वह तो उसके जीवन में आने वाले चक्रवात की शुरुआत भर थी। ऐसा नहीं था कि उस रात उसे नाना ने घर से निकाल दिया था, उन्होंने तो उसे कुछ कहा भी नहीं। पर सालों से अलग रह रहे अपने पिता का वो चेहरा देखा, जो अक्स में कहीं धुंधला गया था। पता नहीं दादी ने उनसे क्या कहा, क्या नहीं, पर बालमोहन ने पद्मजा से कुछ कहा नहीं। उस रात बड़ी सी स्टील की प्लेट में चावल, सांबार, अचार, पापड़, करेले-तिल का गोज्जू डाल उसी के कमरे में आ गए। पद्मजा ने उन्हें देखते ही शिकायत की, ‘‘नाना, मैं यहां नहीं रह सकती। इट इज टू डिफिकल्ट फॉर मी टु एडजस्ट।’’

‘‘ठीक है।’’ पिताजी की आवाज शांत थी, ‘‘आज तुम खाना खा लो। कल सुबह सोचेंगे कि तुम्हारा क्या करना है।’’

‘‘नाना, आपको सीरियसली लेना होगा। या तो इस घर में मैं रहूंगी या अव्वा। मैं उनके साथ नहीं रह सकती। फाइनल...’’

‘‘ओके।’’ बालमोहन की आवाज में एक किस्म की आद्र्रता थी। चावल में सांबार और गोज्जू मिलाकर लड्डू सा बनाकर उन्होंने पद्मजा के मुंह में दिया। न जाने क्यों पद्मजा की आंखों में आंसू भर आए। नाना ने इससे पहले तो उसे कभी अपने हाथों से नहीं खिलाया। बहुत बचपन में शायद खिलाया हो। वो यह भी नहीं कह पाई पिताजी से कि मुझे ऐसे प्यार की आदत नहीं। पिताजी मां नहीं थे। उनकी आंखों में जो संजीदगी थी, देखकर डर गई पद्मजा।

बालमोहन ने धीरे-धीरे बेटी को खिलाया। पानी पिलाया और बिस्तर की सलवटें दूर करते हुए धीरे से बोले, ‘‘कल सुबह मैं और तुम गोआ जा रहे हैं। तुम बच्ची थीं, जब हम वहां गए थे। तुम्हें बीच पर दौड़ना और पानी में खेलना बहुत अच्छा लगा था। तुम अपने कुछ कपड़े पैक कर लेना। बाकी सब मैं देख लूंगा। अब सो जाओ। ग्यारह बज रहे हैं। मुझे भी भूख लग आई है, खाना खा लूं।’’

लेकिन वो सुबह आई ही नहीं। रात अव्वा की तबीयत इतनी खराब हो गई कि उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा।

पद्मजा को न जाने क्यों बहुत अच्छी तरह आगे के घटनाक्रम याद नहीं। बस इतना ही याद रहा कि पापा ने उसे वापस कोलकाता भेज दिया। मां को ज्यादा पैसे भेजने लगे। अगले साल उन्होंने पद्मजा को अमेरिका भेज दिया। उसकी इच्छानुसार आगे पढ़ने के लिए। वहीं उसकी मुलाकात मैक से हुई। मैक उम्र में उससे चौदह साल बड़ा था। पद्मजा यूं लट्टू हुई उस पर कि उससे शादी कर उसे अपने साथ वतन ले आई। उसके इस रिश्ते पर किसी ने आपत्ति नहीं की, बल्कि यूं लगा जैसे मां ने लंबी सांस ली हो कि जान छूटी इसकी परवरिश से। नाना लगातार मैक को समझाते कि वह कोई काम कर ले। वह पेशे से फैशन फोटोग्राफर था। पद्मजा को समझ तो आ ही गया था मैक कभी उसका होकर रह नहीं पाएगा। दिन-रात जिन अप्सराओं से घिरा रहता है, वे उसकी कमजोरी हैं। पद्मजा से तो इसलिए जुड़ा हुआ है कि वह एक पैसे वाले बाप की बैटी है।

मैक से शादी के बाद पद्मजा अंदर से मजबूत हुई। एक दिन नाना से कह दिया, ‘‘मुझे आपके पैसे की जरूरत नहीं। आई विल टेक केयर ऑफ माईसेल्फ।’’

बस यूं ही जिद में, भावुकता में लिया गया मूर्खतापूर्ण फैसला। नाना भी उसके इस निर्णय से खुश ही हुए। अगले ही दिन से पैसा भेजना बंद कर दिया। वे कुछ साल पद्मजा की जिंदगी के बहुत बुरे थे। मैक और उसकी रोज लड़ाई होती। पद्मजा की कोशिश होती कि वह एक आम मध्यवर्ग की औरत की तरह अपनी गृहस्थी संभाले। उसे एक किस्म का रोमांसिज्म लगता घर के माम करने, खाना बनाने, सब्जी लाने और फिर कायदे से बंगाली साड़ी पहन, माथे पर सिंदूर लगाकर मेट्रो में बैठ कर ऑफिस जाने में। मैक उसे घर खर्च के लिए एक धेला नहीं देता था, बल्कि आए दिन उसका उपहास उड़ाता कि उसका दिमाग खराब है जो वह आदर्शवादिता की बातें करती रहती है।

मैंने अपनी जिंदगी में कुछ निर्णय गलत लिए हैं। पद्मजा ने अपनी डायरी में आगे लिखा। मैं उनके लिए शर्मिंदा नहीं हूं। बस अपने से नाराज हूं। मैंने ऐसा कैसे किया? नाना की न सुनना, पढ़ाई अधूरी छोड़ना, मैक से शादी करना....

क्या मैं वाकई गलत हूं?

मैं अपनी जिंदगी अपनी तरह जीने के लिए स्वतंत्र हूं, पर कोशिश करूंगी कि सोच-समझकर चलूं।

पद्मजा ने डायरी बंदकर आंखें मूंद लीं। आंखें मूंदते ही अहसास हुआ कि वह असहनीय पीड़ा से गुजर रही है। सिर में रह-रहकर दर्द उठ रहा है। अपनीलंबी कोमल उंगलियों से वह सिर दबाने लगी। ये दर्द अब जिंदगी का हिस्सा बन गया है। और भी बहुत कुछ मेरी जिंदगी से नहीं जाने वाला। दर्द की अंतिम लहर ने उसे चेताया। क्या बन गई हूं मैं? एक हिस्टेरिक, एब्नॉर्मल महिला, जिसे नींद की गोलियों, जिन की पूरी बोतल और सेक्स के बिना नींद नहीं आती।

पद्मजा निढाल सी गिर पड़ी, गद्दे पर। हाथ उठाकर तकिए के नीचे से खिलौना निकाला। वही खिलौना जो मैक के उसकी जिंदगी से जाने के बाद खुद को संतुष्ट करने के लिए उसने इस्तेमाल करना शुरू किया था।

दर्द और संतुष्टि की सीत्कार को वह दबा न पाई। ...मैं इस जिंदगी का क्या करूं नानागारू?

क्रमश..