Aur wo chala gaya in Hindi Human Science by Pallavi Saxena books and stories PDF | और वो चला गया

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और वो चला गया

एक और सितारा खो गया। अभी उम्र ही क्या थी उसकी अभी जीवन चलना शुरू ही हुआ था। अभी इतनी जल्दी कैसे हार मान सकता था वो...? इतना भी आसान नही होता जीवन को छोड़कर मृत्यु का चुनाव करना। नाम, पैसा दौलत शोहरत सभी कुछ तो था उसके पास, दिलों पर राज था उसका। फिर ऐसी क्या बात हुई होगी कि उसने यह कदम उठाया।

यदि खबरों की माने तो वजह थी अवसाद अकेलापन और जब कोई व्यक्ति अकेला होता है या खुद को बहुत ही अकेला महसूस करता है। जब उसे अपने आस पास ऐसा कोई नही मिलता जिससे वह अपने मन की बात कह सके, जो उसे सुन सके, चुप चाप, जो उसे समझ सके तब ऐसे हालात में उस अवसाद के शिकार व्यक्ति को सारी झंझटों का हल केवल मृत्यु ही समझ में आती है।

तब यह दौलत शोहरत, नाम, पैसा कुछ मायने नही रखता सब कुछ बेमाना सा हो जाता है। उसमें जब अपने किसी खास के द्वारा छले जाने का तड़का लग जाए तब तो इंसान अंदर से टूट जाता है और तब उससे आवश्यकता होती एक ऐसे कंधे की जो कोई सवाल न पूछे बस उसके आँसुओं को पीता जाए चुपचाप उससे सुनता जाए। वो जब भी पुकारे वह कंधा उनके आस पास ही हो।

मृत्यु एक शास्वत सत्य है यह हम सभी जानते है। परन्तु जब हमारा कोई अपना इसका शिकार होता है या इसे गले लगता है तो हम यह सारा ज्ञान भूल कर केवल उस व्यक्ति के चले जाने का शोक मनाते है। और यदि किसी दूसरे के घर से कोई चला जाए तो उसे गीता का उपदेश याद दिलाने लगते है।

खैर यह पोस्ट मैंने इसलिए लिखी क्योंकि में चंद लोगों से यह जानना चाहती हूँ कि "जो आया है वो जाएगा ही" रोज़ ही कोई न कोई जाता ही है फिर किसी एक के चले जाने पर हंगामा क्यों है बरपा, सिर्फ इसलिए कि उस व्यक्ति को हम सिने जगत के जरिये देखते आरहे है बस...? वह व्यक्ति अपनी निजी ज़िन्दगी में कैसा है, किन हालातों और किन परेशानियों से गुज़र रहा है, उसकी आदतें क्या है उसकी जीवन चर्या क्या है, हम कुछ भी नहीं जानते फिर भी आज पूरा देश उस एक व्यक्ति की मृत्यु की वजह से शोक में डूबा हुआ है।

तो फिर हम जिन्हें नहीं जानते पर उनके विषय में लगभग रोज़ ही कहीं न कहीं चाहे समाचार पत्र हो या सोशल मीडिया आत्महत्या की खबर देखते, सुनते, और पढ़ते हैं। पर तब तो जैसे किसी को कोई फर्क ही नही पड़ता। किसी का बच्चा चला जाता है, तो कोई अपने पूरे परिवार के साथ आत्महत्या कर लेता है। तब देश में शोक की लहर फैलना तो दूर की बात है कई बार कोई खबर ही नही बनती और जब बन जाती है तो भी लोग ऐसे शोक नही मानते जैसे इन दिनों सिने जगत के लोगों के चले जाने के बाद मना रहे हैं। क्यों ...?

हजारों में एक चला गया तो क्या हुआ। रोज़ जो जाते हैं उनकी जान भी तो उतना ही मायने रखती है, जितना इन लीगों की इस करोना काल में सारी दुनिया अवसाद का शिकार हो चली है, पर इसका मतलब यह तो नही की हर कोई हालातों से हार कर मौत को गले लगा ले। दिल्ली के हालात भी इन दिनों किसी से छिपे नही है। जरा उन लोगों के परिजनों के विषय में सोचिये जिन्हें अपने प्रिय जन के शव को देखने तक नही मिला छुना और अंतिम संस्कार तो बहुत दूर की बात है और जो पिछले दिनों शवों का हाल किया गया कभी उस विषय में भी तो सोचिये। वो ज्यादा दिल देहलादेंने वाला था या यह ज्यादा दिल देहलादेंने वाला है।

केवल हम उन लोगों को नही जानते, नही पहचानते इसलिए उनके प्रति संवेदना न व्यक्त करना भी तो एक तरह की अवमानवीय सोच को दर्शता है। हाँ मैं मानती हूँ सिने जगत के लोगों से अक्सर हमें प्यार हो जाता है। सुशांत सिंह राजपूत से भी हो गया था। मुझे तो अब तक सभी जाने वालों से था क्या इफरान खान और क्या ऋषि जी और अब यह सुशांत सिंह राजपूत और उसके यूँ अकस्मात हम सब को छोड़कर चले जाने का ग़म मुझे भी है।

लेकिन इसका यह मतलब कतई नही है कि हम बाकी इंसानों के प्रति असंवेदन शील हो जाएं। इस दुनिया में आज शायद हर दूसरा व्यक्ति अवसाद से गुज़र रहा है। फिर क्या बच्चे और क्या बड़े। अभी जिस दौर से गुज़र रहे हैं हम तब सबसे ज्यादा जरूरी और महत्यवपूर्ण है इंसान बनाना, एक दूसरे के प्रति सकारात्मकता बनाये रखना और जैसे ही किसी के अकेलवपन के विषय में पता चले उनके साथ खड़े होना। उसे गले लगाकर यह कहना कि हमें तुम से प्यार है। तुम अकेले नही हो जीवन की इस जगदोजहद में हम सब तुम्हारे साथ है।

अवसाद से गुज़र रहे प्राणी को केवल एक श्रोता की जरूरत होती है दोस्तों यदि हम किसी एक के लिए भी वो श्रोता बन जाएं तो यकीन माननिये हम ज्यादा नही तो कम से कम एक जीवन तो बचा ही सकते हैं। हो सकता है हमारेके सुशांत को भी ऐसे ही किसी श्रोता की जरूरत रही हो पर उसे सही समय पर वो ना मिले और वो चला गया...