Hone se n hone tak - 26 in Hindi Moral Stories by Sumati Saxena Lal books and stories PDF | होने से न होने तक - 26

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होने से न होने तक - 26

होने से न होने तक

26.

मन में उलझन बनी रही थी। दूसरे दिन कालेज जाने पर मैं बहुत देर तक नीता से उस विषय में बात करती रही थी। तभी मीनाक्षी और केतकी भी वहॉ आ गये थे।

‘‘यश क्या चाहते हैं यह बाद में सोचना। पहले यह तो समझ लो कि तुम क्या चाहती हो,’’ नीता ने कहा था।

‘‘दिल के पास कोई ज़ुबान होती है जो वह बोल कर बताएगा कि वह क्या चाहता है। यश वहॉ सिंगापुर का अपना बिज़नैस संभाल रहे हैं। आते हैं तो सीधे तुम्हारे पास दौड़े आते हैं और तुम उनके नाम का दीप जलाए बैठी हो। मोहब्बत क्या किसी और चीज़ को कहते हैं?’’ बड़े अधिकार से मीनाक्षी ने अपनी टिप्पणी दी थी।

केतकी ने मुझे डपटा था,‘‘सब कुछ तो कह रहे हैं तुमसे यश, अब तुम सुनने और समझने के लिए तैयार ही नहीं हो तो क्या करें वे बेचारे?’’ उसने तेज़ निगाहों से मेरी तरफ देखा था,‘‘तुम क्या चाहती हो यश से कि वे तुम्हे नदी किनारे ले जाकर हाथां में तुम्हारा हाथ लेकर कहें कि आई लव यू,’’ बहुत ही नाटकीय अंदाज़ में कही थी उसने यह बात फिर कुछ क्षण के लिए सोचती हुयी सी चुप हो गयी थी,‘‘हालांकि सो भी कह ही सकते थे वह।’’ फिर बड़ी ज़ोर से झुंझलाई थी वह,‘‘तुम दोनो ही बेवकूफ हो। एकदम मूर्ख।’’

केतकी और मीनाक्षी के चले जाने के बाद नीता ने समझाने वाली मुद्रा में बात शुरू की थी,‘‘सच बात यह है अम्बिका कि रिश्तों में मीनाक्षी बिना सोचे समझे ज़्यादा बोलती रही और तुम? तुम्हें जो बोलना चाहिए था तुम वह भी नहीं बोलतीं। अभी तक एकदम चुप रहीं। अभी भी चुप बैठी हो।’’

‘‘मैं क्या बोलती नीता ?’’मैंने पूछा था।

‘‘जो तुम चाहती हो वही बोलती न।’’

मैं ने बहुत ही निरीह निगाहों से नीता की तरफ देखा था,‘‘मुझे सच में नही पता नीता कि मैं क्या चाहती हूं।’

उस दोपहर बातों के बीच केतकी मेरे प्लैटानिक लव के ज़िक्र भर पर जैसे हॅस हॅस कर लोट पोट हो गयी थी। उसके लिए रिश्ते ठोस और स्पष्ट ही नहीं मॉसल भी होते हैं। मुझे पता है वे लोग नहीं समझ सकते मुझे। मैं भी तो नही समझ पाती अपने मन को। यश को भी नहीं।

‘‘यश से मुझे मिलवाओ तो अम्बिका।ं’’ नीता ने कहा था।

मैं नीता का बहुत आदर करती हूं और उस की सूझ बूझ पर बहुत निर्भर करती हूं। नीता के व्यत्तित्व में अद्भुत संतुलन है। मैने उसे कभी द्विविधा में नहीं देखा। वह हर निर्णय बहुत सोच कर लेतीं और फिर उस निर्णय को लेकर उनके मन में कोई उहापोह नहीं रहती। नीता मुझसे लगभग चार साल बड़ी है। उन्नीस साल की उमर में शादी हुयी और दो साल बाद पति ने किसी दूसरी लड़की के लिए त्याग दिया था उन्हें। एक साल बाद बहन की तीन साल की बेटी को गोद ले लिया था। तब वही ज़िदगी का सबसे अच्छा विकल्प लगा था। पर इन दस सालों में दुनिया बदल गयी, अपनी सोच भी। हम सब ने समझाया था कि रीसैटिल क्यों नहीं हो जातीं। सामने प्रलोभन भी थे। केतकी के पड़ोसी डाक्टर टंडन नीता पर दिलो जान से फिदा थे। उन्होने केतकी से कहा था यह रिश्ता तय कराने के लिए। नीता को भी वे अच्छे लगते इतना हम लोग समझ पाते थे। नीता ने बेटी का मन टटोला था। उस ने बात हल्के फुल्के ढंग से ही शुरू की थी,‘‘गुड़िया मौसी लोग कहती हैं फिर से शादी कर लो।’’ उसने मज़ाक भरे तरीके से बेटी से कहा था। पर बेटी उतने पर ही बिफर गयी थी,‘‘अगर आपकी दोस्तों की बकवास करने और सोचने की आदत है तो प्लीज़ मम्मा आप वह सब मुझे आ कर मत बताया करिए।’’

बात वहीं ख़तम हो गयी थी। नीता ने उस विषय में फिर कभी नहीं सोचा। कभी केतकी कारण अकारण नीता को अपने घर बुलाती भी तो नीता हॅस कर टाल जाती। मुझसे कहतीं कि जिस ठॉव जाना ही न हो उस रास्ते पर चल कर क्या करेंगे। रिश्तों को ले कर नीता किसी प्रकार की द्विविधा नहीं चाहती थीं। न डाक्टर टंडन को ही किसी भ्रम में रखना चाहती थीं। फिर अपना भी तो मन ही है। न जाने कब भटक जाए। वह रिश्ता शुरू होने से पहले ही समाप्त हो गया था। डाक्टर टंडन की शादी कि ख़बर सुन कर भी ऐसा लगा था जैसे नीता को कुछ भी न लगा हो...अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं। कम से कम नीता ने हमे कोई ऐसा एहसास नही होने दिया था।

अगली बार यश आए थे तो मैंने नीता को बुलाया था। केतकी और मीनाक्षी को भी बुलाना चाहती थी मैं, पर हिम्मत नहीं पड़ी थी। दोनों एकदम खुले सोच की हैं। न जाने क्या बोल जाऐं, क्या पूछ बैठें और क्या सुझाव देने लगें। नीता आयी थीं। यश और नीता की ख़ूब बातें होती रही थीं। दुनिया भर की बातें। मुझे अच्छा लगा था।

अगले दिन नीता कालेज में मिली थीं। मैं ने सीधा सवाल पूछा था,‘‘कैसे लगे यश?’’

‘‘अच्छे लगे। बहुत अच्छे लगे। हर तरह से अच्छे लगे।’’उसके बाद नीता चुप हो गयी थीं।

केतकी चहकने लगी थीं,‘‘अम्बिका यश से सीधे सीधे बात करो। अब तो नीता ने भी एप्रूव कर दिया उन्हें।’’

नीता ने घबड़ा कर मेरी तरफ देखा था,‘‘नहीं अम्बिका तुम नहीं। अगर चाहेंगे तो यश को कहने दो।’’

मीनाक्षी और केतकी के जाने के बाद हम दोनो अकेले रह गए थे। नीता ने मेरी तरफ देखा था जैसे कोई सफाई सी दे रही हों,‘‘अम्बिका यश मुझे अच्छे लगे। तुम्हे मानते भी हैं। शायद प्यार भी करते हों। मगर।’’नीता चुप हो गयी थीं।

मुझे नीता के मौन से उलझन होने लगी थी। तभी नीता ने अपनी बात आगे बढ़ाई थी,‘‘मगर तुम्हे लेकर मुझे उनमें उस तरह का कोई कमिटमैंट नहीं लगा।’’ नीता ने अपनी राय का संशोधन करते हुए जैसे उलझन में अपने सिर को हिलाया था,‘‘मैं समझा नहीं पा रही अम्बिका। मैं अपनी फीलिंग को शब्दों में नहीं बॉध पा रही।’’ कुछ क्षण को अटकते हुए नीता ने अपनी बात पूरी की थी,‘‘लगा जैसे दो बेहद आत्मीय लोग हो तुम। पर तुम्हारे बीच कोई बाहरी रिश्ता हो वह। वह दो प्रेमियों का रिश्ता नही लगा मुझे। आई विश मैं ग़लत हूं।’’ वह थोड़ी देर जैसे कुछ सोचती रही थीं। फिर उन्होंने मेरी तरफ बहुत कोमलता से देखा था,‘‘ऐसे रिश्तों को थोड़ा समय दिया जा सकता है अम्बिका। पर पूरी उम्र तो नहीं दी जा सकती न ?’’ नीता काफी देर चुप रही थी। बोलीं तो लगा था उनके स्वर में दुख है,‘‘तुम काफी साल इस रिश्ते को दे चुकी हो। ज़िदगी बहुत कीमती चीज़ है अम्बिका। उसे किसी मूर्खता में बर्बाद मत करो।’’

हमेशा की तरह नीता की बात एक निर्णायक बिन्दू पर आकर रुक गयी थी। मुझे अजीब लगा था। नीता ने अपने बारे में ही कहॉ सोचा था। कुछ ऐसा ही नीता से कहा था तो वह फीका सा हॅसी थीं,‘‘अम्बिकां गुड़िया मेरी बेटी है। मैंने उसे पैदा नही किया था तो क्या रिश्ता तो वही है न। मैं उसके इमोशन्स के साथ तो नहीं खेल सकती न? तुम लोगों के लिए यह कहना और सोचना बहुत आसान है कि उसे उसकी मॉ को वापिस कर देना। पर मेरे लिए वह कोई खिलौना तो नहीं न कि ‘ले लेना’ और ‘दे देना’ के टर्म्स में बात कर सकूं या उस तरह से सोच भी लूं।’’ नीता ने सीधे मेरी आखों में देखा था,‘‘मेरा तुम्हारा केस बिल्कुल फरक है अम्बिका। मैं किसी साए के पीछे नहीं भाग रही। रिश्तों की ज़िम्मेवारी से बंधी हूं।’’

‘‘साए के पीछे ?’’यह शब्द बाद तक चुभते रहे थे। मैं नीता को भी नहीं समझा सकती यह बात कि मेरे लिए यश एक साया भर नहीं हैं। वह मेरी ज़िदगी का सबसे बड़ा सच हैं। उससे अधिक किसी अन्य से आत्मीयता की तो मैं कल्पना तक नही कर सकती। मुझे लगा था मेरी ऑखे पसीजने लगीं हों। पर क्यों? मेरा अवचेतन कौन सी उम्मीद पाले हुए है भला इस रिश्ते से? कोई नहीं। सच बात तो यह है कि स्वयं मेरे लिए यश का प्यार मुट्ठी में बंधा वह सुख है जिसके बीत जाने की आशंका से मुझे डर लगता है। पर जो है उससे ज़्यादा की कामना शायद मैं कभी नहीं कर पाती...उससे अधिक कभी सच ही नही लग पाता। इसीलिए उसके आगे कुछ सोच भी नहीं पाती। साथ समय बिताने की एक पागल सी इच्छा में बॅध ज़िद्द की तरह जब भी मैंने यश को ले कर कुछ सोचना चाहा भी है तब हमेशा ही लगा है जैसे किसी शून्य पर आ कर रुक गयी हूं । एक ठहरा हुआ एहसास जैसे आगे कोई रास्ता न दिखता हो।

अगले दिन यश फिर आए थे। मेरे मन में ढेर सारी बातें आती रही थीं। बहुत सारे सवाल। बहुत सारे जवाब भी। एक गहरी उहापोह। मन में बार बार आता रहा था कि शायद आज यश साथ चलने की बात फिर करें। दो दिनों से कितना सोचा है उस विषय में। कितने सपने बुने हैं....कितनी योजनाए...पर उनको लेकर अपनी तरफ से मुखर हो पाना संभव नहीं था मेरे लिए। यश मन के कितने ही निकट क्यों न हों पर उनसे भी एक संकोच का रिश्ता तो है ही। तभी यश ने चौंक कर मेरी तरफ देखा था,जैसे कुछ याद आ गया हो,‘‘मम्मा कह रही थीं उन्होंने तुम्हारे लिए कोई मैच सजैस्ट किया था। इतना अच्छा लड़का, इतने पैसे वाले लोग। तुम तैयार क्यों नहीं होतीं अम्बिका।’’ यश ने मुझे झुंझला कर घूरा था।

मुझे लगा था यश की ऑखें बहुत बड़ी हैं। एकदम भावों से भरपूर। मैं हॅसी थी‘‘तुम्हारी निगाहें बड़ी गहरी हैं यश,एकदम पीयर्सिंग। क्या कहते हैं उसे? अतऽल भेऽऽदी दृष्टिऽऽऽ’’ मैं हॅसती रही थी।

‘‘तुमने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया अम्बिका’’ उसके स्वर में गुस्सा था।

मैं चुप रही थी। वैसे भी क्या कहती मैं।

‘‘तुम्हारा बचपना कब जाएगा।’’ यश के चेहरे पर एक मजबूर सी थकान है। कुछ क्षणों के लिए उसने अपनी मौन मुखर आखें मेरे चेहरे पर टिका दी थीं। यश का तरल हो आया स्वर,‘‘सच में मैं तुमसे अधिक अच्छी तरह तुम्हारे मन को पढ़ पाता हूं अम्बिका।’’

मेरा मन किया था कि मैं सीधे उसकी आंखों में देख कर पूछू कि पढ़ पाते हो तो कोई रास्ता क्यों नहीं निकालते?’’ पर मैं चुप रही थी और मैंने अपनी निगाहें खिड़की के बाहर सामने पार्क में खेलते हुए बच्चों पर गढ़ा दी थीं। इधर से उधर भागते हुए बच्चे। मेरी निगाहें अकारण उनका पीछा करती रही थीं।

यश सिंगापुर लौट गए थे।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com