दो साल हो गए थे गौरव को मुंबई में। नया शहर, नया कॉलेज और नए लोग, इस नए से माहौल में अच्छे से घुल-मिल गया था वो। अपनी इस नई जिंदगी में वो काफी खुश था, कमी थी, तो बस अंकिता की। ऐसा नहीं था कि उसे कोई मिला नहीं इन सालों में, पर शायद अंकिता के आगे कोई जचा ही नहीं उसे। कोचिंग के वो दो साल आज भी उसकी आँखों के सामने ऐसे आते, मानो सब कल ही बीता हो। अंकिता दिल्ली के ही एक कॉलेज में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी, दूसरा साल शुरु हुआ ही था उसका। गौरव को इस सब की खबर थी, निवि के खबरी सूत्रों का भरपूर प्रयोग किया था उसने। लेकिन बात करने का कोई साधन तो था नहीं उसके पास। नया-नया सोशल मीडिया उन दिनों उफान पर था। लोग घंटों स्मार्ट्फोन या लैपटॉप पकड़कर मटरगश्ती करते थे। गौरव और उसके स्कूल के चारों दोस्तों ने भी एक ग्रुप बनाया, जिसमें वे सब अपनी बेमतलब की बेहिसाब बातें करने लगे। समय की कीमत कम होने लगी थी। खैर छोड़िये ये सब, ये कहानी सोशल मिडिया की नहीं है। पर सोशल मिडिया के बिना, ये कहानी भी न होती।
एक दिन यूँ ही गौरव अपना लैपटॉप लेकर एक सोशल साइट पर चक्कर काट रहा था। तभी उसे एक जाना-पहचाना चेहरा दिखा, अंकिता का, नया अकाउंट बनाया था शायद। उसकी आँखों में वही चमक लौट आई। बिना किसी देरी किये, उसने रिक्वेस्ट भेज दी और बिस्तर पर ओंधे मुँह इंतज़ार करने लगा। इसी बीच उसकी आँख लग गई। एक मैसेज टोन से उसकी नींद खुली, अंकिता का मैसेज था, "हाई !", रिक्वेस्ट को मंजूरी मिल गई थी। गौरव ने तुरंत उत्तर दिया, "आखिर मैने तुम्हें ढूंढ ही लिया"। बातों का सिलसिला ऐसा चला मानो समय थम सा गया हो, वो घंटों की बातें भी कुछ पल जैसी महसूस हुई गौरव को। वो फिर से देर रात तक अपनी खयाली दुनिया में था और अगले दिन कॉलेज में उसे सजा भुगतनी पड़ी, इस बार लेट होने पर। लेकिन गौरव को इस सब की कोई परवाह नहीं थी। उसे वो कोचिंग की पहली मुलाकात याद आ गई, पुराने दिन जैसे लौट आए थे गौरव के।
हर रोज दोनों की बातें होती, कभी घंटों, कभी बस चार मैसेज, पर रोज होती। अब वो पहले से ज्यादा अच्छे दोस्त बन गए थे, एक दूसरे को और ज्यादा अच्छे से जानने और समझने लगे थे, एक दूसरे पर भरोसा करने लगे थे। आखिर एक दूसरे की इज़्ज़त करना और दूसरे पर भरोसा करना ही किसी भी रिश्ते की पहली नींव होता है। अंकिता अब हर छोटी बात गौरव को बता देती, गौरव भी उसे सुनता रहता, जब तक वो रुक ना जाए। सिलसिला चलता रहा, महीने बीत गए। गौरव इस सबमें बहुत ज्यादा खुश था और अब उसे अंकिता से मिलना ही था, उस आखिरी मुलाकात की बात पूरी करने के लिए। तो उसने बात छेड़ी और यह तय हुआ कि इस बार की दिवाली की छुट्टियों में दोनों गृहनगर में मिलेंगे। गौरव के दिन गिन-गिन कर बीतने लगे। उसनें बहुत कुछ सोच लिए था होने वाली मुलाकात के लिए, कि वो कैसे मिलेगा, क्या बोलेगा, सब कुछ। आखिर दिवाली भी आ ही गई और दोनों घर को चल दिये।
घर पहुँचते ही गौरव ने अंकिता को मैसेज किया और मिलने की जगह और समय का पूछा। सुबह से रात, और रात से अगली सुबह हो गई, पर अंकिता का कोई जवाब नहीं आया। अब गौरव परेशान होने लगा, उसने अभी तक अंकिता से उसका मोबाइल नंबर भी नहीं माँगा था, कितना बेवकूफ था वो। उसे अंकिता की फिक्र होने लगी, दोनों के बीच घर के लिए निकलने के बाद कोई बात नहीं हुई थी। ऊलजलूल खलाय उसे घेरने लगे। पर इस बार बिना कुछ सोचे उसने अंकिता के घर के लैंडलाइन पर फोन कर दिया। लम्बी घंटी जाने के बाद फोन उठा। इत्तेफाक से अंकिता ही थी फोन पर। उसका "हेल्लो" सुनते ही गौरव की जान में जान आई। "मैं गौरव, सब ठीक है ना अंकिता"। गौरव के इतना पूछते ही फोन के उस ओर अजीब सी खामोशी छा गई और फिर अंकिता की सिसकियाँ गौरव के कानों में पड़ी। लगभग एक मिनट तक वो कुछ नहीं बोला, उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, क्या बोले। उसका दिल बैठा जा रहा था। खुद को संभालते हुए उसने धीमे से पूछा "क्या हुआ?" "चार बजे, 'जनता पार्क' में", इतना कहकर अंकिता ने फोन रख दिया।
गौरव के मन में थोड़ी राहत और खूब सारे सवाल थे। रास्ते में चलते-चलते, अंकिता की परेशानी के सैकड़ों कारण सोच लिए थे उसने और आधा घंटा पहले ही, वो तय जगह पर पहुँच गया। कुछ देर में अंकिता भी आ गई। उसका चेहरा ऐसा था मानो तेज़ धूप में कोई खूबसूरत फूल मुरझा गया हो। दोनों की नजरें मिली, गौरव ने हल्की सी मुस्कान दी, पर अंकिता भावशून्य थी। बेंच पर बैठे ही थे कि अंकिता ने बिना कोई और बात किये, अपनी आप-बीती शुरु कर दी। "पता नहीं तुम्हें ये सब कैसा लगे, पर मैं किसे बताऊँ, कुछ समझ नहीं आ रहा। "हाँ बोलो ना" गौरव ने कहा। "मैं एक लड़के से प्यार करती हूँ", इतना सुनते ही गौरव के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। पर बिना कोई प्रतिक्रिया दिये वो सुनता रहा। "हम करीब दो साल से साथ हैं। पहले सब बहुत अच्छा था, जैसा फिल्मी दुनिया में नज़र आता है, पर अब सब खत्म होने लगा है। मुझपर शक़ करना, मनमानी करना, ये तो शुरु से ही था, मैं सोचती थी प्यार में इतना हक़ तो होता ही है। इज़्ज़त करना तो उसने कभी का छोड़ दिया था, पिछ्ले दो हफ्तों से बात करना भी बिलकुल बंद कर दिया, मैसेज का भी कई दिनों तक कोई जवाब नहीं देता था। कुछ कहूँ तो उल्टा मुझ पर ही गुस्सा दिखाता, अपशब्द बोलता। पर अब उसने सारी हदें पार कर दी हैं। मैं जब परसों घर पहुँची ही थी, उसका मैसेज आया- मैं जिंदगी में आगे बड़ रहा हूँ, अपने नए पार्टनर के साथ। और एक लड़की के साथ अपनी तस्वीर भी भेजी।" इतना कहकर अंकिता फूट-फूटकर रोने लगी। उसकी आँखों के आंसू गौरव को कमजोर कर रहे थे, मानो वो भी अभी रो पड़ेगा। उसने अंकिता के दाहिने हाथ को अपने दोनों हाथों में लिया और बोला," मैं जानता हूँ कि मैं अभी कुछ भी कहूँ, सब बेकार है। पर ये समय खुद को मजबूत करने का है। मानता हूँ बहुत मुश्किल होगा तुम्हारे लिए अभी, और शायद थोड़ा समय भी लगे, पर तुम्हें भी उस रिश्ते को यहीं छोड़कर आगे बड़ना चाहिए। सच कहूँ तो जितना मैं उस लड़के को जाना हूँ, वो तुम्हारे लायक नहीं था।" अंकिता तो जैसे अपने में ही खोई थी, उसने जाने कुछ सुना भी या नहीं। अपनें आंसूओं को पोछते हुए बोली, "मेरे साथ ही क्यूँ?", और फिर से अश्कों की धारा उसकी आँखों से बहने लगी। इस बार तो गौरव की आँखें भी पूरी नम थी, वो कुछ नहीं बोल पाया। अंकिता ने खुद को मुश्किल से रोका और बात बदलने लगी, "कैसे हैं घर पर सब ?" इसपर गौरव बस सिर हिलाकर जवाब दिया। फिर थोड़ी दिवाली की बातें, उनके छोटे से शहर में आए बदलावों की चर्चा, इन्हीं सब में छह बज गया। अंकिता ने घर जाने की बात कही, दोनों ने एक दूसरे को अलविदा कहा और अंकिता अपनी स्कूटी लेकर चली गई।
रास्ते में पैदल चलते हुए गौरव ने क्या कुछ नहीं सोचा। वो क्या सोचकर घर से निकला था और अब वो अलग ही असमंजस में था। उसे खुदपर गुस्सा आ रहा था कि क्यूँ उसने दो साल पहले अंकिता से बात नहीं की, क्यूँ उसे ऐसे ही जाने दिया। अगर तब वो कुछ बोल पाया होता, तो आज ऐसे हालात न होते। एक ओर तो वो खुद को तसल्ली दे रहा था कि अंकिता अब किसी के साथ नहीं, दूसरी तरफ उसे अपनी इस खुदगर्ज़ सोच पर घिन भी आ रही थी। राह में एक मन्दिर के दर्शन करते हुए उसने बस यही प्रार्थना की, कि अंकिता की सारी मुश्किलें हल हो जाएँ और उसकी चिर-प्रचलित मुस्कान हमेशा बनी रहे।
छुट्टियाँ खत्म हो गई थी और अब दोनों 'अपने-अपने' शहरों में थे। कुछ दिन तक दोनों में कोई बात नहीं हुई। गौरव तो बात करना चाहता था, पर उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या बोले। एक दिन बड़ी हिम्मत करके उसने मैसेज किया, "कैसी हो ?" कुछ एक-दो घंटों में जवाब आया "कॉल करो", साथ में अंकिता ने अपना नंबर भी लिखा था। गौरव ने तुरंत नंबर सेव किया और कॉल कर दिया। बेजान सी आवाज़ में, अंकिता गौरव के सवालों का जवाब एक या दो शब्दों में दे रही थी। "अच्छा एक बात बताओ मुझे, क्या लड़कों के लिए रिश्तों में आगे बड़ जाना इतना आसान होता है", अंकिता ने पूछा। इसपर गौरव अपने लिए सोचने लगा कि वो तो अभी भी दो साल पीछे ही रुका हुआ है, जहाँ वो दोनों बिछड़ गए थे। अपने खयालों से वापस आकर उसने जवाब दिया, " नहीं, ऐसा नहीं है"। "तो फिर क्या कमी रही मेरे प्यार में, सबसे ऊपर उसे माना, उसकी हर बात मानी, यहाँ तक की दूसरों से लड़ी भी उसके लिए। पर इस सबकी तो कोई कीमत ही नहीं है ना" अंकिता बोली। गौरव तो बस सुने जा रहा था। थोड़ी देर के लिए अंकिता रुकी तब वो बोला, "प्लीज़, खुद को संभालो"। इसपर अंकिता गुस्से में बोली, " कैसे संभालूं, एक ही क्लास में हम पढ़ते हैं, हर रोज मुझे वो दिखता है अपने नए 'पार्टनर' के साथ, ऐसे में कैसे संभालूँ। कहना बहुत आसान है गौरव, जब किसी से प्यार करोगे ना तब पता चलेगा।" गौरव के एक तरफ़ कुआं था तो दूसरी तरफ़ खाई, इसलिये वो चुपचाप सुनता रहा। "बाद में बात करती हूँ, बाय" कहकर अंकिता ने फोन रख दिया, गौरव का तो 'बाय' भी पूरा नहीं सुना उसने। खैर गौरव को इस सब का बिलकुल भी बुरा नहीं लगा। अगली शाम अंकिता का मैसेज आया, "सॉरी" और गौरव ने लिखा, "कोई बात नहीं, ध्यान रखो अपना"।
गौरव समझता था वो किस दौर से गुजर रही है, तो उसने ठान लिया कि अंकिता को इस सबसे बाहर निकालकर ही रहेगा। अब वो हर कोशिश करने लगा जिससे अंकिता का ध्यान बीते हुए कल पर न जाए। अंकिता भी, कभी उसके बिन सिर-पैर के चुटकुलों पर हँसती, तो कभी उसके इन प्रयासों का मजाक उड़ाती। कारण कुछ भी हो, गौरव के संतोष की सीमा नहीं रहती, अंकिता को यूँ खुश देखकर। उसके लिए फिलहाल इतना ही काफी था।
समय बीतता गया, अंकिता थर्ड ईयर में और गौरव अन्तिम वर्ष में प्रवेश कर चुके था। अब दोनों को एक-दूसरे की 'आदत' सी हो गई थी। गौरव तो पहले से ऐसा था, अब अंकिता भी दोस्तों और पढ़ाई से समय निकालकर गौरव से बातें करती। उसे बहुत सुकून मिलता, गौरव के साथ यूँ समय बिता कर। उसका वो गौरव की फिक्र करना, हर छोटी-बड़ी बातों में राय देना और झूठ-मूठ का रूठना, सब बहुत खूबसूरत था। पर बात आगे बढ़ाने से वो डरती थी, आखिर दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है। इस सब में कितनी बार ऐसा भी हुआ जब अंकिता अपने अतीत की यादों में गुम हो जाती, और बिखरने लगती, यादों को रोक पाना कहाँ किसी के बस में है। उसकी स्थिति ऐसी थी, मानो कोई परिंदा तूफान में उड़ने की भरपूर कोशिश कर रहा हो, पर तूफान के वेग के आगे वो लड़खड़ाने लगता है, अपनी मंजिल से भटकने लगता है। गौरव अपनी पिछ्ली गलतियों से काफी कुछ सीखा था। वो बस अपने प्यार पर विश्वास करके, हर कोशिश करता अंकिता से जुड़े रहने की, उसका साथ कभी न छोड़ने की, वो भी अंकिता के साथ लहरों में बहता रहता। कभी प्रयास करते-करते खुद टूट भी जाता, पर अंकिता को उसने कभी कुछ नहीं कहा। गौरव ने अंकिता से अपने मन की बात भी नहीं कही। उसे डर था अंकिता के वापस बीते कल में पहुँच जाने का और डर था जो कुछ भी उसने कमाया है, सब गवां देने का।
रिश्तों की डोर बहुत नाज़ुक होती है, थोड़ा सा ज़ोर लगाया नहीं कि टूट सकती है। और दोस्ती को प्यार का नाम देने पर, दोस्ती फिर पहले जैसी कभी नहीं रहती। तो गौरव ने अभी चुप रहने का ही फैसला किया।
एक दो दिनों से अंकिता कुछ बदली हुई सी लग रही थी। उसकी आवाज की चहक, उसकी बातों की मुस्कुराहट सब गायब थी। ऐसा होने के बाद भी अंकिता उससे कुछ ना बोले, ये गौरव को खटक रहा था। उसे अंदेशा था अंकिता के कल का आज में प्रवेश करने का। तो उसने पूछ ही लिया," कोई आया है क्या अंकिता?" दोनों एक दूसरे की बातें आसानी से समझ जाते थे। अंकिता ने जवाब दिया "हाँ"। "वो दो दिन पहले मुझसे मिलने आया था, मैंने बात नहीं करी। फिर कल से मैसेज कर रहा कि माफ कर दो और वापस आ जाओ मेरे पास। बहुत परेशान लग रहा वो, क्या करूँ समझ नहीं आ रहा।" अंकिता की इन बातों से गौरव का मन बैठा जा रहा था। दिल पर पत्थर रखकर, बड़ी मुश्किल से उसने बोला, "अगर तुम्हें लगता है तुम उसके साथ खुश रहोगी तो चले जाओ उसके पास"। इसपर अंकिता भड़क गई, "मैं तो सोच रही हूँ कि उससे बात करूँ भी या नहीं और तुम मुझे उसके पास जाने को कह रहे हो। तुम मेरे आज तक के 'सबसे अच्छे दोस्त' बने हो इसलिये तुम्हें बताया। पर तुमसे तो बात करना ही बेकार है"। इतना कहकर अंकिता ने फोन रख दिया। यह सुनकर गौरव को खुद पर गुस्सा आया। पर वो खुश भी था, शायद बहुत खुश था, एक नया मुकाम हासिल किया था उसने। अंकिता को कैसे मनाना है, ये तो वो अच्छे से जानता था।
पढ़ाई के अंतिम वर्ष में गौरव व्यस्त रहने लगा। शुरुआत में तो अंकिता ने भी गौरव का पूरा साथ दिया। वो बात करता तो उसे टोक देती कि 'ज्यादा बातें नहीं, अभी पढ़ाई पर ध्यान दो'। दोनों ने बात करने का समय, घंटे सब निर्धारित कर लिए। पर समय हार ही जाता, जब भी उनकी बातें शुरु होती थी। लेकिन अब, कभी घंटों तक चलने वाली 'ग्रुप स्टडी' की वजह से वो ठीक से बात नहीं कर पाता, तो कभी लाइब्रेरी में होने के कारण उसका फोन बंद मिलता। पहले परीक्षाएँ और फिर प्लेसमेंट की चिंता, गौरव इस सब में फँसने लगा। अंकिता उसका समय पाने के लिए तरस गई थी। कभी तो दोनों की दिनों तक बात नहीं होती थी। अब अंकिता की 'आदत' पर असर पढ़ने लगा। वो बाहर से कितना ही दिखाए की सब ठीक है, अन्दर उसे वो खालीपन खलता था, जब गौरव उसके साथ नहीं था। दोनों के बीच अब लड़ाइयाँ होने लगी। अंकिता सोचती थी कि गौरव को उसके इस बदले हुए व्यवहार का कारण समझ आ जाना चाहिए, पर गौरव तो अपनी ही दुनिया में व्यस्त था, पढ़ाई के अलावा कुछ और उसे सूझता ही नहीं था उन दिनों। कई बार तो गौरव ने अंकिता को मना भी लिया, पर फिर से परिस्थितियां ऐसी बन जाती कि वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता। कभी-कभी मैसेज कर देता पर अंकिता को ये 'एहसान' जैसा लगने लगा। उसने अब गौरव से बात न करने का फैसला किया और खुद में व्यस्त रहने लगी। गौरव के लिए उसके मन में अब गुस्से के सिवा और कुछ नहीं था। अपने मैसेज और कॉल का कोई जवाब न मिलने पर गौरव ने भी प्रयास करने बंद कर दिये। वो तो यही सोच रहा था कि अब सीधा प्लसेमेंट की खुशखबरी सुनाएगा।
वो दिन भी आ गया, एक जानी-मानी कंपनी में गौरव को नौकरी मिल गई थी, पर शहर का चयन उसे ही करना था। उसने अंकिता को कॉल पर बताया, पर अंकिता ने "बधाई आपको" कहकर फोन रख दिया। गौरव को अटपटा सा लगा। उसने फिर कॉल किया, कोई जवाब नहीं आया। मैसेज में अंकिता ने उससे कहा, "अब सारे काम हो गए तो याद आ गई। पर माफ़ करना, आप लेट हो। अब आप अपनी जिंदगी जियो और मुझे मेरी जिंदगी मेरे हिसाब से जीने दो। फिर से, बहुत-बहुत बधाईयाँ।" गौरव को सब बहुत अजीब लग रहा था। शुरु में तो उसे को लगा कि वो अंकिता को मना लेगा, हर बार की तरह। पर जब कुछ दिन बीत गए और जब अंकिता से बात होने की कोई गुंजाईश ही नहीं बची, तब वो हार मान गया। दूसरे शहर में, इतनी दूर बैठा वो कर भी क्या सकता था।
खैर एक बार फिर गौरव इस खेल में मात खा गया था। और इस बार गलती भी उसी की थी। ज्यादा नहीं, थोड़ा समय तो दे ही सकता था वो अंकिता को। उसे बस शायद अपने प्यार पर विश्वास था, पर अंकिता के रोष के आगे, वो भी हार गया। ऐसा एक पल नहीं था जब अंकिता उसके जहन में नहीं आती थी। पर प्रेम में जताना, बताना सब पड़ता है, हमेशा नहीं पर समय-समय पर। उस रिश्ते की तुम्हारे लिए क्या अहमियत है दूसरे को भी समझाना पड़ता है, समय देना पड़ता है। अंकिता के लिए गौरव बहुत मायने रखता था, वो उसके हर दिन का हिस्सा था, गौरव से वो जुड़ गई थी। कोई कितना भी मजबूत दिखाए बाहर से खुद को, अंदर से सभी थोड़ी सी ठेस लगने पर बिखर ही जाते हैं। अंकिता शायद गौरव की कमी का सामना नहीं कर पाई। ये सब ऐसा था, मानो किसी से पानी छीन लिया हो, अब चाय से तो पानी की प्यास नहीं बुझाती ना। या शायद कुछ ऐसा हुआ, कि जब अंकिता को गौरव की सबसे ज्यादा जरूरत थी, गौरव उसके साथ नहीं था।
अब कयास लगाने से क्या फायदा, जो होना था, हो चुका था। दोनों ही एक दूसरे से अपनी मन की बातें समय रहते नहीं कह पाए और असर उनके रिश्ते पर पड़ा। न तो गौरव अंकिता को अपनी स्थिति समझा पाया, और न ही अंकिता अपनी परेशानियां गौरव को जता पाई। पर इंसान भले ही हार मान जाए, अंदर छिपा हुआ सच्चा प्यार नहीं मानता। गौरव को बेंगलूरू में नौकरी करने का प्रस्ताव मिला, तन्ख्वाह दिल्ली से डेढ़ गुना ज्यादा थी। पर रिश्तों की कमी पैसे पूरी नहीं कर सकते। अंकिता का साथ कभी न छोड़ने का वादा गौरव ने खुद से किया था। तो एक बहुत छोटी सी आस के साथ गौरव ने अंकिता के शहर में ही नौकरी करने का फैसला किया।