Karm path par - 39 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | कर्म पथ पर - 39

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कर्म पथ पर - 39




कर्म पथ पर
Chapter 39


खुले तौर पर नहीं किंतु मन ही मन विष्णु क्रांतिकारियों का समर्थन करते थे। ये बात मदन को पता थी। इसलिए वह जय को लेकर उनके पास गया था।
उस दिन जब विष्णु ने अपने घर पर देखा तो उन्हें अंग्रेज़ी अखबार में छपी उसकी तस्वीर की याद आ गई थी। उसमें छपे जय के परिचय के कारण वह पहचान गए थे कि वह मशहूर वकील श्यामलाल टंडन का बेटा है। बस वह यह नहीं समझ पाए थे कि अमीर बाप की इकलौती औलाद जय मदन के साथ उनके पास क्यों आया है।
जब मदन ने उन्हें पूरी बात बताई तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि जय इतना कैसे बदल सकता है। जय ने दृढ़ता के साथ अपने निश्चय के बारे में बता दिया था। फिर भी वह उसकी मदद करने से पहले उसे परखना चाहते थे।
विष्णु ने जानबूझकर समय मांगा। उन्हें लगा कि अगर जय किसी जोश के चलते अपना घर छोड़कर आया होगा तो दो तीन दिनों में ही भाग खड़ा होगा।
तीन दिन बाद मदन जब उनके पास आया और बताया कि जय रंजन के साथ उसके छोटे से कमरे में रह रहा है तो उन्हें लगा कि वह सचमुच अपने फैसले पर अडिग है।
किंतु वह उसे कुछ और परखना चाहते थे। अतः उन्होंने मदन से कहा कि वह चार दिनों के लिए बरेली जा रहे हैं। लौटकर अपना फैसला बताएंगे।
बरेली से लौटने के बाद उन्हें पता चला कि जय अभी भी रंजन के साथ है। वह अपने लिए किसी काम की तलाश में है ताकि रंजन पर बोझ ना बने।
इस बात ने विष्णु को बहुत प्रभावित किया। उन्हें यकीन हो गया कि जय भागने वालों में नहीं है। उन्होंने मदन को संदेश भेज कर बुलवाया।
जय के साथ मदन उनके घर पहुँचा। मदन ने पूँछा कि विष्णु ने क्या फैसला किया है।
अपना फैसला सुनाते हुए विष्णु ने कहा,
"मैं जय की मदद करने को तैयार हूँ। घर की छत पर एक छोटा सा कमरा है। जय वहाँ रह सकता है। पर इसे अपने खाने का खर्च देना होगा।"
उनकी बात सुनकर जय ने कहा,
"मैं स्वयं भी अपना बोझ किसी पर नहीं डालना चाहता हूँ। मैं खोज रहा था कि मुझे कहीं कोई काम मिल जाए। पर अभी तक निराशा ही हाथ लगी।"
विष्णु ने जवाब दिया,
"मैं इस मामले में भी तुम्हारी मदद कर देता हूँ। जैसा कि तुम्हें पता है कि अमीनाबाद में मेरी कई दुकानें किराए पर उठी हुई हैं। मैंने पुस्तकों की अपनी एक दुकान खोल रखी है। पर मैं अपनी संपत्ति की सही देखभाल नहीं कर पा रहा हूँ। दो दुकानदार ऐसे हैं जिन्होंने कई महीनों से किराया नहीं दिया है। बाकी भी समय पर किराया नहीं देते हैं। फिर भी मेरा काम आसानी से चल रहा है।"
विष्णु ने दीवार पर टंगे अपने पिता और दादा के चित्रों की तरफ देखकर कहा,
"लेकिन लगता है कि अगर पुरखे विरासत में कुछ दे गए हैं तो उसकी हिफाजत करना भी मेरा दायित्व है। पर मुझसे हो नहीं पा रहा। इससे पहले कि दूसरे स्थिति का लाभ उठा कर मेरी दुकानें हथिया लें मैं चाहता हूँ कि किसी को इस काम के लिए रख लूँ। मैं किसी को भी रख सकता हूँ। किंतु तुम पर यकीन कर तुम्हें ये ज़िम्मेदारी सौंपता हूँ।"
विष्णु का प्रस्ताव सुनकर जय बोला,
"आपका बहुत धन्यवाद। मैं भी आपके विश्वास पर पूरी तरह खरा उतरने की कोशिश करूँगा।"
"पर मैं अभी अधिक वेतन नहीं दे सकता हूँ। हाँ इतना अवश्य दूँगा कि मुझे अपने खाने का खर्च देने के बाद भी तुम जेबखर्च के लिए कुछ बचा सको‌‌।"
"मेरे लिए उतना बहुत है।"
विष्णु ने हंसकर कहा,
"कर पाओगे गुज़ारा ?"
जय उनके कहने का तात्पर्य समझ रहा था। उसने कहा,
"कर लूँगा। अब तक मैंने जैसी ज़िंदगी जी है उसके हिसाब से तो यह कठिन लगता है। पर इससे पहले दिल ने कुछ करने की ठानी भी नहीं थी। पहली बार दिल कुछ नया करने को आमादा है। इसलिए यकीन है कि कर लूँगा। आप यह बताइए कि कब से काम शुरू करूँ ?"
"कल आ जाओ। तब तक मैं काका से कह दूँगा कि छत वाला कमरा रहने लायक कर दें।"

हैमिल्टन गुस्से में जल रहा था। उसे हिंद प्रभात की वह प्रति मिली थी जिसमें उसके द्वारा माधुरी पर किए गए अत्याचार की रिपोर्ट छपी थी।
अपने आदमियों के निकम्मेपन पर हैमिल्टन को बहुत क्रोध आ रहा था। उसने एक आदमी के मुंह पर हिंद प्रभात की प्रति फेंकते हुए कहा,
"तुम सब नालायक हो। इतने दिनों में उस वृंदा का पता नहीं लगा पाए। जबकी उसने मेरे बारे में इतना कुछ पता कर यह रिपोर्ट छाप दी।"
उसके आदमी मुंह लटकाए खड़े थे। उसने डांटते हुए कहा,
"अब सर पर मत खड़े रहो। काम पर लगो। जितनी जल्दी हो सके मुझे इस वृंदा का पता लगा कर बताओ।"
उसके आदमी चले गए। हैमिल्टन वृंदा के बारे में सोंंचने लगा।
उसे लगा था जो कुछ उसने वृंदा के साथ किया है उसके बाद वह कुछ करने की हिम्मत नहीं कर पाएगी। शर्मिंदगी से मुंह छिपाकर रहेगी। इसलिए वह भी उसके प्रति लापरवाह हो गया था।
लेकिन वृंदा उसकी सोंच के विपरीत निकली। बजाए डर और शर्म से मुंह छिपाने के उसने अपने अखबार के जरिए एक बार फिर उसके मुंह पर तमाचा जड़ दिया।
इस बार जो तमाचा वृंदा ने उसे मारा था उसकी चोट बहुत गहराई तक लगी थी।
हैमिल्टन ने तय कर लिया था कि इस बार वृंदा को ऐसा सबक सिखाएगा कि वह इस बात पर पछताई थी कि पिछली बार उसने अपना कत्ल क्यों नहीं हो जाने दिया।
रिपोर्ट हिंदी में थी। उसने अपने आदमी से कई बार रिपोर्ट पढ़वाई थी। उसमें कहीं भी इस बात का ज़िक्र नहीं था कि माधुरी अब कहाँ है ?

वृंदा से पहले स्टीफन की बगावत ने भी उसके अहम को घायल किया था। स्टीफन की तरफ से उसके वकील ललित नारायण मिश्र ने उससे मुलाकात कर उसे क़र्ज़ का हिसाब समझाया था। उन्होंने यह भी कहा कि स्टीफन ने अपने पिता का मकान अपनी माँ के इलाज के लिए उसे दिया था। जिसकी कीमत बहुत अधिक थी।
इधर कुछ दिनों से हैमिल्टन के दिन सही नहीं बीत रहे थे। स्टीफन बगावत करके चला गया था। उसके बाद वृंदा उसकी बाईं आँख फोड़ कर भाग गई थी।
उसकी अपनी कौम में ऐसे कई प्रतिद्वंद्वी पैदा हो गए थे जो उसे नीचे गिराना चाहते थे।
इन सबके चलते वह ढीला पड़ गया था।
लेकिन वृंदा के इस तमाचे ने एक बार फिर उसके भीतर के जानवर को जगा दिया था।
हैमिल्टन के आसपास कोई नहीं था। वह उठकर खड़ा हो गया। अपनी पूरी ताकत से वह इस तरह चीखा जैसे कोई घायल शेर दहाड़ रहा हो। उसकी आँखों में रक्त उतर आया था। दांत पीसते हुए चिल्लाया,
"वृंदा... इस बार तुमने फिर मुझे चोट पहुँचाई है। पिछली बार तुम मेरे चंगुल से भाग गई थी। इस बार ऐसा जाल बुनूँगा कि उसमें उलझ कर रह जाओगी।"
वह कमरे में इधर से उधर टहल रहा था। टहलते हुए माधुरी का चेहरा उसकी आँखों में नाचने लगा। वह और अधिक क्रोधित हो गया। माधुरी उसके लिए उस हिरनी की तरह थी जो उसके पंजे में फंसने के बाद निकल भागी थी।
माधुरी का जाना भी उसके अहम के ऊपर चोट थी।
दो औरतों से मात खाकर वह बुरी तरह छटपटा रहा था।
हैमिल्टन जाकर कुर्सी पर बैठ गया। वह जानता था कि इस तरह क्रोध में आपा खोकर वह कुछ नहीं कर पाएगा। अपने दुश्मनों से निपटने के लिए उसे शांत दिमाग से काम करना होगा।
उसने नौकर को आवाज़ लगाई। नौकर उसके सामने सर झुका कर खड़ा हो गया।
"बाहर लॉन में मेरे पीने का इंतज़ाम करो।"
नौकर फौरन उसके आदेश का पालन करने के लिए चला गया।
हैमिल्टन उठकर कमरे में लगे आदमकद शीशे के सामने जाकर खड़ा हो गया। अपनी नकली बाईं आँख को देखकर उसके रक्त में फिर उबाल आया।
लेकिन इस बार वह अपने गुस्से को सीने में पालकर लावा बनाना चाहता था।