Ek bund ishq - 2 in Hindi Love Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | एक बूँद इश्क - 2

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एक बूँद इश्क - 2

एक बूँद इश्क

(2)

रिजार्ट का वेटर बड़े ही सलीके से कॉफी रख गया है और साथ में नाश्ते का आर्डर भी ले गया है। चूंकि रिजार्ट बहुत अलग-थलग और पुराना है इसलिये इसमें कस्टमर ज्यादा नही होते अलवत्ता खाने, नाश्ते का आर्डर लेकर ही तैयार किया जाता है।

अभी रीमा ने कॉफी की चन्द चुस्कियाँ ही लीं थीं कि उन्हीं तस्वीरों ने फिर से धमाचौकड़ी मचानी शुरु कर दी है। वह बंद तो पहले भी नही हुई थी हाँ रीमा ने जरुर खुद को फुसलाने के लिये उधर से ध्यान हटाया था।

अचानक कंपन इतना तेज हुआ कि हाथ से कॉफी का मग छूट कर गिर गया और वह टुकड़े-टुकड़े हो गया। कॉफी और कप के टूटे हुये अवशेष फर्श पर बिखर गये। रीमा बहुत घबरा गयी।

उसके आँखों में अभी-अभी एक आकृति उभरी है जो दिखने में बिल्कुल उसी की तरह है, शायद उसकी हमशक्ल? वह बुरी तरह डर गयी और काँपने लगी.....ये कौन है?? मैं...मैं....मैं....कैसे हो सकती हूँ..अगर मैं नही तो कौन है ये? ......क्या मेरी जुडवा बहन है कोई??? ....नही मम्मा ने तो ऐसा कभी कुछ नही बताया....ये सिर्फ बहम है मेरा....और कुछ नही..परेश ठीक ही कहा करता है 'ज्यादा इमोशनल होना ठीक नही है, थोड़ा प्रैक्टिकल बनो रीमा' पर मैं कहाँ समझने वाली...मुझे तो उसकी कही बात से जरा भी सहमति नही, उसके जीवन जीने का तरीका पसंद ही नही....फिर मुझे कैसे लगता कि परेश ठीक हैं? आज मुझे लगने लगा है कि कहीं-न-कहीं तुम सही हो। 'परेश तुम मेरे सपनों के राजकुमार बेशक न हुये मगर आज तुम सही लग रहे हो और मैं गलत ...काश! तुम साथ होते, मुझे तुम्हारी जरुरत है परेश....।।।'

रीमा ने अपने पर्स में से सफेद रंग का लग्जरी मोबाइल निकाला जिसके डिस्प्ले पर उसके और परेश की एक तस्वीर लगी है। उसने ऊँगलियों से स्क्रीन को छुआ है अप्रत्यक्ष रूप से परेश को अपने करीब होने का अहसास किया होगा, फिर जल्दी से एक नम्बर डायल किया है। एक बार...दो बार......तीन बार......लगातार घण्टीं जा रही है, पर फोन नही उठ रहा....अभी तो नौ ही बजा है परेश या तो गाड़ी में होगा या ऑफिस पहुँचा ही होगा, फिर फोन क्यों नही उठा रहा?

'कहाँ हो परेश? फोन उठाओ न प्लीज, हमेशा तुम मुझे जरुरत के वक्त नही मिलते?' रीमा उलझी हुई सी खुद को संभालती हुई बुदबुदाईं।

वेटर ब्रेकफास्ट लेकर आ गया उसने दरवाजा नॉक किया है, इस समय उसका आना किसी फरिश्ते से कम नही है-

"कम इन, गेट खुला है" रीमा ने उसे औपचारिक अनुमति दी। वह हाथ में नाश्तें की ट्रे लेकर अन्दर आया। फर्श पर काफी का टूटा हुआ कप और बिखरी हुई कॉफी को देख कर सकपका गया है- "मेमशाव, यह कैसे टूट गया?"

"कुछ नही, बस हाथ से फिसल गया..आप जरा सफाई करवा दीजिये"

"जी अभी भेजता हूँ किसी को"

वेटर वहीं का स्थाई निवासी है जो नाटा, गोरा और उम्रदराज है। रीमा ने उसके चेहरे की तरफ देखा, उसके माथे पर महीन लकीरों का जाल गुथा है, जो उसके तजुर्बे और उम्र की गवाही दे रहा है। वह टेबुल पर नाश्ता सजाने लगा कि रीमा ने अनायास ही पूछ डाला--

"दादा, आप यहीं के रहने वाले हैं?"

दादा? ऐसा सम्बोधन उसने पहले कभी नही सुना। कस्टमर या तो वेटर कह कर बुलाते हैं या फिर कुछ एक नाम पूछ कर भी बुलाने लगते हैं। सो वह अन्दर से एकदम भाव-विभोर हो उठा है-

" हाँ मेमसाब, हम यहीं पैदा हुये और यहाँ ही पूरी उम्र गुजर गयी।"

" कुछ पूछना था आपसे? क्या बतायेगें मुझे?"

"पूछो शाब, पूछो क्या पूछना है, हम शब बतायेगा आपको!"

"दादा मेरी शक्ल को ध्यान से देखो और बताओ..क्या मेरे जैसे शक्ल की कोई लड़की रहती है यहां पर?"

"आप जैसी? नही मेमशाब...आप जैसी भला यहाँ कहाँ से आयेगी? पर हुआ क्या है आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?"

" कुछ नही, बस यूँ ही...न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि कोई मेरे जैसा है यहाँ पर..... "

"ऐसा कैशे हो सकता है? पर हाँ कहते हैं कि इस दुनिया में एक शक्ल के दो लोग होते हैं।" वह रोमान्चित हो बोला।

"तो कहीं वह यहीं तो नही?" रीमा ने अपने शक पर यकीन का ढप्पा लगाना चाहा।

"नही..नही..मेमशाव, यह तो छोटा सा गाँव है, सभी एक-दूसरे से परिचित हैं, हमने कभी नही देखा यहाँ पर कोई आपके जैसा हो?" गणेश ने उसके यकीन को ध्वस्त करते हुये कहा।

"अच्छा जाने दीजिये.." कह कर रीमा असहज हो गयी।

रीमा को देख कर गणेश के माथे की लकीरों का जाल और गहरा गया है। उसने रीमा के चेहरे पर आने वाली परेशानी को भाँप लिया। मगर एक कस्टमर के साथ उसके व्यवहार की अपनी सीमायें होती हैं सो वह दरवाजे से बाहर निकल गया।

अचानक पलट कर वापस आया - "मेमशाब, कभी भी हमारी जरूरत पड़े तो बेहिचक बताना।"

"हाँ जरुर बताऊँगी दादा"

उसके मुड़ते ही रीमा ने आवाज़ देकर रोक लिया है- "आपका नाम क्या है?"

"गणेश, गणेश नाम है मेमशाब हमारा"

"यहाँ पर घूमने के लिये कौन-कौन सी जगह हैं?"

"जगह तो बहुत हैं, पाश ही एक मन्दिर भी है देवी माँ का बहुत मान्यता है उश मन्दिर की"

"और?"

"एक गिरजाघर है एकदम शान्त, बहुत लोग आते हैं वहाँ पर और घण्टों बैठते हैं, कहते हैं यीशू मशीह उनकी हर प्रार्थना शुनता है।"

"गणेश, क्या सच में ईश्वर होता है?

" हाँ मेमशाम क्यों नही होता? अगर ईश्वर न होता तो हम आप कहाँ शे होते?"

सुन कर हँस दी रीमा, सच ही तो कह रहा है ये-

"और क्या खास हैं यहाँ?" उसने सोफे के हत्थे पर कोहनी टिकाते हुये कहा।

"मेमशाव आपको पता है यहाँ पर गाँधीजी का एक आश्रम भी है और वह अक्शर यहाँ आकर रहा करते थे। उशका नाम है 'अनाशक्त आश्रम', हम तो यही कहेगें कि आपको जरुर जाना चाहिये वहाँ पर।"

"वाओ..ग्रेट, मैं जाऊँगी वहाँ पर...वैसे भी मैं हमेशा उनके विचारों से उनकी नीतियों से और उनकी जीवनशैली से प्रभावित रही हूँ। वह मेरे जीवन के आदर्श पुरुष हैं। मैं अपने राष्ट्र पिता से जुड़ी उस जगह को वंदन करती हूँ। जहाँ बापू की चरण रज हो वह जगह किसी तीर्थ से कम नही।"

"शही कहा मेमशाव, मेरी दादी ने तो उस आश्रम में बरशों काम किया है। बहुत तजुर्बे कार औरत थी वह। बहुत शारी कहानियाँ याद हैं उन्हें..."

"अच्छा बताओ तो जरा कुछ"

"बतायेगा मेमशाव, आपको शब बतायेगा हम...अभी तो आप कुछ दिन ठहरोगे ही न?"

"हाँ गणेश दादा, मैं अभी जल्दी जाने वाली नही यहाँ से" रीमा ने अपने पैरों की पालथी मारते हुये कहा।

"फिर ठीक है मालिक से कह कर, दो दिन की छुटटी ले लेगा हम, पूरे कोशानी का चप्पा-चप्पा न घुमाया तो कहना।" गणेश ने बड़े ही विश्वास और अपनत्व के साथ कहा तो रीमा ने भी सहर्ष स्वीकर कर लिया।

"ठीक है दादा, पक्का रहा, मैं घूमूँगी तो आपके साथ.. अच्छा और बताओ! कोई ऐसी जगह जहाँ सुकून से बैठा जा सके भीड़भाड़ से एकदम दूर।"

उसकी माथे की लकीरों ने अपना आकार फैला लिया फिर वह उन्हें सिकोड़ता हुआ बोला-

"मेमशाब एक जगह है बहुत ही अदभुत जगह है, जहाँ आप जाकर खुद को भी भूल जाओगे"

"अच्छा, ऐसा क्या है वहाँ?

"इस बहते हुये झरने की आवाज़ को शुनो"

"हममम सुन रही हूँ.." रीमा ने सहमति दर्शायी।

"इसको पाताल में भेजती नदी है नीचे, जिसमें जाकर यह मिल जाता है"

"आप इतना नीचे गये हो?" उसने प्रश्न दागा।

हाँ कई बार, मगर अब तो बहुत शमय हो गया गये हुये।"

"अच्छा" रीमा ने औपचारिक होकर कहा।

"बड़े-बड़े पत्थरों से टकराता झरने का पानी इश तरह शोर देता है जैसे वहाँ उसी का एकछत्र शाम्राज्य हो। कई बार जब बादल गरजते हैं तो वह भी उससे शुर-में-शुर मिलाने लगता है और उशकी गर्जना से अच्छे-अच्छों का दिल भय से काँप जाता है।"

"अच्छा, अगर ऐसा है तो लोग क्यों जाते हैं वहाँ पर?" रीमा के इस अबोध किन्तु स्वभाविक प्रश्न किया जिससे गणेश कुछ गंभीर हो गया। फिर उसने अपनी भाव भंगिमाओं को रहस्यमयी बनाते हुये उस बात-चीत का वर्चस्व अपने हाथ में ले लिया-

"मेमशाव, जगह कितनी भी शुनसान और उपेक्षित क्यों न हो लेकिन उशकी कहानी बड़ी ही मार्मिक और रोमांच से भरी है। दादी बताया करती थी...." कहते-कहते रूक गया है वह- "खैर वो शब छोड़िये, आज कौन मानने लगा उन पुरानी अधपकी बातों को, आप को लगाव है प्रकृति से इशीलिये शलाह दी हमनें"

" हाँ, क्या बताती थी आपकी दादी? बताइये हमें" रीमा ने उसकी बात काटते हुये कहा।

"अच्छा तो शुनिये मेमशाव" कहते हुये गणेश वहीं फर्श पर बैठने लगा।

"नही..नही दादा, यहाँ बैठिये इस कुर्सी पर...."रीमा ने गणेश को फर्श पर बैठने से रोक दिया।

रीमा के इस सौम्य व्यवहार से उसके चेहरे पर अनुग्रहित भाव उभर आये। वह झिझकता हुआ कुर्सी पर बैठ गया । जेब से खैनी जैसा कुछ निकाला और उसे हाथ से मसलने लगा । छपाक से मुँह में डाल कर उसने कहना शुरु किया है -

"दादी कहती थी ...वो दोनों बहुत प्रेम करते थे, इतना प्रेम जितना राधा ने कृष्णा को किया। रोज एक दूशरे से इशी नदी के किनारें पर मिलते थे। खूब बातें करते, हँशते-खिलखिलाते और घण्टों यूँ ही बैठे रहते...."

"अहा....बहुत बढ़िया....फिर, आगे..?"

"जब वह प्रेम करते तो चिड़ियों का समूह चहक-चहक कर संगीत उत्पन्न कर देता, मछलियाँ किनारों पर आकर यूँ मुँह उठाती जैशे कुछ कहना चाह रही हों..बगुले पँख फैला कर आश-पाश मंडराने लगते और हिरणों के झुण्ड अपनी टाँगों पर खड़े ही न रह पाते..बार-बार गर्दन झटकते हुये झूमने लगते.......और वो दोनों अपने प्रेम में खोये दुनिया जहान को भुलाये अपनी ही दुनिया में डूबे रहते......"

"हममम...." रीमा जैसे उस कहानी में खोती जा रही है।

"सब कुछ अच्छा चल रहा था। कि एक दिन सब तहस-नहस हो गया....उनके प्रेम को किसी की नजर लग गयी....और एक दिन........" कहते-कहते रूक गया गणेश। उसके चेहरे पर उदासी छा चुकी है और गला भर आया है।

जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ रही है रीमा की बेचैनी बढ़ती जा रही है। अब वह अहसजता में उठ खड़ी हुई है और चहल-कदमी करने लगी-

"दादा क्या नाम था उस लड़के का? और...और उस लड़की का भी?" रीमा की आवाज़ में उन दोनों का दर्द उतर चुका है। वह बेहद परेशान हो गयी है।"

"लड़के का नाम याद नही है मेमशाव, मगर उस लड़की का नाम चन्दा था..अपने नाम जैसी ही सुन्दर, पूरे गाँव के लोग उसे बहुत चाहते थे....." गणेश बोले जा रहा है..।।

"चन्दा.......?????? चन्दा....यही नाम था उस लड़की का...और उस लड़के का नाम बैजू.... बैजू था..." रीमा ने दिमाग पर गहरा जोर लगाया और बोल पड़ी। उसकी टाँगे काँप रही हैं। वह जोर-जोर से साँस ले रही है कि गणेश घबरा गया है। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और पूछ रहा है- "मेमशाव! क्या हुआ? आप ठीक तो हैं न?"

रीमा के मुँह से एक शब्द भी नही निकला उसकी आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा और वह धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ी है।

गणेश उसे यूँ ही छोड़ कर बाहर की तरफ दौड़ पड़ा है।

पूरे रिजार्ट में अफरा-तफरी मच गयी.... आनन-फानन में डॉक्टर को बुलाया गया।

उसी गाँव के एक बुजुर्ग बैध नाड़ी देख कर चले गये बोले- "नाड़ी तो ठीक है, लगता है कोई शदमा लगा है या किसी बात की चिन्ता की है इन्होनें।"

डाक्टर को आने में थोड़ा समय लगेगा, कस्बें में सिर्फ ये बैध ही हैं जो गाँव की हर छोटी-मोटी बीमारी में काम आते हैं।

रीमा ने जब आँख खोली तो एक नर्स उसके सामने वाली कुर्सी पर बैठी हुई थी, जो उसकी देखभाल के लिये रिजार्ट की तरफ से रखी गयी है।

"क्या हुआ है मुझे?" रीमा ने नर्स को अपने कमरे में देख कर आश्चर्य से पूछा।

"कुछ नही, बस आप चक्कर खाकर गिर गयीं थीं, वैसे आप फिक्र न करें, आपके घर पर इनफार्मेशन दे दी गयी है। आपके पति आपको लेने आ रहे हैं। वह तो अच्छा हुआ कि आपने काउंटर पर अलटरनेट नम्बर में अपने पति का नम्बर लिखवा दिया था जिससे हम उन्हें फोन कर पाये।" नर्स ने सांतवना के सुर साधे।

"ओहह नो, मुझे घर नही जाना अभी...मुझसे बगैर पूछे क्यों किया आपने ये सब? किसने कहा था मेरे घर खबर करने को?" रीमा गुस्से से उबल पड़ी।

उसके तेवर देख कर नर्स डर गयी है। उसने रीमा को थोड़ा पानी पीने को दिया और बिस्तर से उठने को मना किया।

"जाइये बुलाइये यहाँ के मैनेजर को...." रीमा ने नर्स को आदेश देते हुये कहा।

वह चुपचाप बाहर निकल गयी।

मैनेजर के आते ही रीमा बरस पड़ी- " क्यों किया आपने मेरे घर फोन? बताइये, ऐसा क्या हो गया?"

"मैडम आप अचानक बेहोश हो गयीं थी। हमारी ड्यूटी है ये, ईश्वर न करे कोई उन्नीस-बीस बात हो जाती तो कौन जिम्मेंदार होता आप ही बताइये?"

मैनेजर की बात सुन कर रीमा कुछ ठंडी पड़ गयी है। उसने अपने व्यवहार की माफी माँगते हुये पूछा-

"क्या बताया डाक्टर ने?"

"शब ठीक है मैडम, कोई खास डरने वाली बात तो नही है मगर आपका यूँ बेहोश हो जाना हमारे लिये तो चिन्ताजनक है ही।" मैनेजर नरम स्वर में बोला।

"थैंक्यू आप सभी का, लेकिन मुझे कुछ दिन यहाँ रहना है अभी"

"बहुत अच्छी बात है मैम, आप यहाँ रहेगीं तो हमें अच्छा ही लगेगा।" उसने सहमति देते हुये आभार प्रकट किया।

फिर कुछ सोचते हुये उसने कहा- "एक काम कीजिये, फिर से मेरे घर पर फोन लगाइये और बताइये कि मैं ठीक हूँ।"

"जी, मैडम ..जरुर...." कह कर वह कमरे से बाहर निकल गया। चलते-चलते पूछ गया कि' खाने में क्या भिजवा दूँ?

"कुछ हल्का ही खाने का मन है और कुछ अलग इसलिये यहाँ का पारम्परिक खाना जो भी हल्का हो भिजवा दें"

रीमा ने कहेनुसार आज छंछेड़ू (एक प्रकार की खिचड़ी, जिसमें अनेक प्रकार की पहाड़ी दालें और भात डाल कर वहीं के मसालों में पकाया जाता है) वही लंच में लाया गया था। जिसे रीमा ने बड़े ही चाव से खाया और दिल खोल कर उसकी तारीफ भी की। सरसों के तेल मे लहसुन और प्याज का छौंकन छंछेड़ू की खास पहचान है। छंछेड़ू के साथ झंगोरा भी था जो एक तरह की मिठाई है खीर की तरह। प्रायः इसे पहाड़ के लोग उपवास में भी खाते हैं। वैसे भी कुछ नया ट्राई करना उसे बहुत भाता है। अलग-अलग प्रान्तों के रीति- रिवाज़ उनका खान-पान, रहन-सहन को जानने की इच्छा उसे हमेशा से रही है।

गणेश की ड्योटी दोपहर से पहले ही खत्म हो जाती है। उसकी जगह कोई दूसरा वेटर आया है। पूरे रिजार्ट में कुल दो वेटर, एक मैनेजर, दो सफाई कर्मी ही रहते है जिनकी ड्यूटी बदलती रहती है। इससे ज्यादा कीकोई जरूरत नही। दो-चार कमरों के अलावा सब खाली ही रहते हैं। गर्मियाँ आने पर सीजन शुरू होता है तब जरुर कमरों की मारा-मारी रहती है वो भी तब, जब वाकि होटलों में जगह न हो। रसोई में भी दो तीन लोग ही होगें उनमें से एक वहाँ की सबसे पुरानी रसोइया जो औरत हैं वहाँ बरसों से हैं। वहाँ का पारम्परिक खाना बनाने में उनका जवाब नही।

मोबाइल पर परेश का नम्बर फ्लैश हो रहा है, हरे बटन को स्वैप करते ही परेश का परेशान सा स्वर गूँजा-"तुम ठीक तो हो न?"

"हाँ परेश, मैं बिल्कुल ठीक हूँ। तुम फिक्र मत करो।"

"मैंने तुम्हे लेने ड्राइवर को भेज दिया है, तुम फौरन वापस आ जाओ।"

"नही परेश, बस हल्का सा चक्कर आया था। बाई गॉड! मैं बिल्कुल ठीक हूँ और अभी कल ही तो आई हूँ। इतनी जल्दी वापस नही लौट सकती। तुम ड्राइवर से फोन करके मना कर दो, वह वापस लौट जाये।"

"तुम अकेली हो ऊपर से जिद्दी भी...खैर अगर तुम रुकना चाहती हो तो मैं मना कर देता हूँ उसे..मगर अपना ख्याल रखना, जरा भी दिक्कत हो तो वापस आ जाना...वैसे मैंने रिजार्ट मालिक को बोल दिया है वह तुम्हारा ख्याल रखेगा।"

परेश के कम्पयूटर की, की- साउन्ड आ रही है। यकीनन वह अपने लैपटॉप पर बैठा है और काम करते-करते ही फोन किया है। रीमा ने सुना और फिर से कुछ टूट सा गया। 'परेश, अगर मेरी परवाह है तो तुम दौड़े चले न आते? ड्राइवर को भेजने की क्या जरुरत थी मैं जैसे आई हूँ वैसे ही वापस भी लौट जाऊँगी। तुम अपना विजनेस संभालो। मैं भी धीरे-धीरे जीना सीख जाऊँगी। रीमा ने अपनी गीली आँखों को पोछ लिया।

खुद को सवालों के घेरे में खड़ा कर खुद ही वकालत कर रही है- "क्या मैं अपेक्षा रखती हूँ जो मुझे नही रखनी चाहिये? क्या मैं जरुरत से ज्यादा भावुक हूँ या मूर्ख हूँ? मैं उस तरह क्यों नही जीती जैसे वाकि सब जीते हैं? मैं इतना प्यार क्यों चाहती हूँ? मेरे अन्दर इतना टूटता क्या है? मैं सम्पूर्ण औरत नही हूँ शायद? "

रीमा का दिल घबरा उठा है और वह फिर से बालकनी की तरफ चली गयी है।

वही झरने का शोर जिसकी आवाज़ सुनते ही वह विचलित सी हो गयी- "उफफफ..ये क्या हो रहा है मुझे? क्यों इतनी घबराहट है? क्या है यहाँ पर? कहीं कोई भूत बगैहरा तो नही? नही..नही...भूत जैसी कोई चीज नही होती वह तो सिर्फ मन का बहम होता है या फिर कोई दिमागी परेशानी, फिर मैं यहाँ पर आकर नार्मल फील क्यों नही कर रही? कोई चीज खीच रही है मुझे...न तो यहाँ से जाने का मन कर रहा है और सब कुछ नार्मल भी नही...आखिर ये क्या हो गया है?"

अपने ही सवालों से उलझी रीमा बिखर रही है, न तो परेश का साथ सन्तुष्टी दे रहा है और न उसके बगैर रहना।

अचानक उसके कानों से एक मधुर सी आवाज़ टकराई जिसने उसे झिझोड़ कर रख दिया। वह ध्यान से सुन रही है कोई बाँसुरी बजा रहा है..बहुत सुन्दर...बेहद मीठी.."अहा! ...कौन है ये? यहाँ इतनी सुरीली धुन में कौन बजा रहा है? ये सब तो पुरानी फिल्मों में देखा है कि पहाड़ों पर बाँसुरी की धुन और रोमांस करते नायक नायिका और फिर कोई रोमांटिक सा गीत फिल्माया जाता है। दिल्ली में तो कभी नही सुना, वहाँ किसी को इतनी फुरसत ही कहाँ है, हाँ एक बार एक शास्त्रिय संगीत के लाइव शो में जरुर सुनी थी जिसे वह अपने कालेज टाइम में देखने गयी थी।

बाँसुरी की तान और मधुरता और तेज हो गयी है..वह उसमें बहने लगी है, पाँव अपनी जगह से उखड़ रहे हैं.... रीमा बाहर आ गयी और नीचे जाने के लिये रिजार्ट की सीढीयाँ उतरने लगी।

वह उस दिशा में स्वत:ही बढती जा रही है जिधर से आवाज़ आ रही है। चलते-चलते वह बहुत आगे निकल आई है मगर कोई दिखाई नही दे रहा है। वह चारों तरफ उसे ढूँढ़ रही है मगर वहाँ कोई नही है। उसने सामने से आती दो लड़कियों से पूछा- "आप यहीं रहती हो?"

"जी, हम यहीं रहते हैं, बताइये आप परेशान क्यों हैं? क्या कुछ मद्द चाहिये आपको?" उनका मीठा स्वर सुन कर रीमा जैसे फफक पड़ी-

"अभी-अभी कोई बाँसुरी बजा रहा था बहुत मीठी, मगर वह दिखाई नही दे रहा कौन है ? क्या आप जानते हो उसे?" एक साँस में वह बोलती चली गयी। रीमा जैसे अभी रो देगी।

उसकी ऐसी हालत देख कर वह आश्चर्य से एक-दूसरे को देख रही हैं। फिर रीमा को ध्यान से देख कर बोली- "कौन सी बाँसुरी? कौन सी आवाज़? हमने तो कोई आवाज़ नही सुनी" दूसरी लड़की ने भी उस का समर्थन किया है।

"अभी-अभी तो कोई बजा रहा था, मैंने अपने कानो से सुना है आप यकीन कीजिये, मैं सच बोल रही हूँ।" रीमा अपनी बात को मनवाने के लिये मचल पड़ी।

"आपको जरुर कोई बहम हुआ है या हो सकता हो टी.वी. पर कोई कार्यक्रम आ रहा हो...जरुर आपने वही सुना होगा?" वह दोनों ही अपनी बात को बार-बार समझाने में लगी हैं।

"टी. वी. पर नही..नही..वह आवाज़ टी वी की नही है...बिल्कुल नज़दीक ही है वह जो भी है, मगर मुझे दिखाई नही पड़ रहा।"

अपनी ठूंडी पर हाथ रखे वह दोनों बहुत देर तक उसे देखती रहीं। उन्हें समझ नही आ रहा था कि क्या बताये क्या बोले?

"बताइये न? आप लोग बोलती क्यों नही? मेरा दिल तो बैठा जा रहा है..आपकी ये खामोशी हमसे बर्दाश्त नही हो रही है।" रीमा उनके कन्धें पकड़ कर हिलाने लगी है।

वह दोनों ही अब तक रीमा से डर चुकी हैं और फिर उन दोनों ने एक दूसरे की तरफ इशारा किया और दौड़ लगा दी।

रीमा अभी भी उन दोनों को आवाज़ दे रही है। उसकी आवाज़ इको होकर वापस लौट रही है। वह दोनों भागती चली जा रही हैं। वहाँ पर इक्का-दुक्का ही झोपड़ीनुमा घर बने हैं जिनमें कोई नज़र नही आ रहा, पूछे भी तो किससे? और फिर वो लड़कियाँ यूँ बगैर जवाब दिये क्यों भाग गयीं? इस सवाल ने उसे और असमंजस में डाल दिया।

भारी कदमों से वह वापस रिजार्ट की तरफ लौटने लगी। अभी भी उसके कानों में वह मधुर संगीत लहरी गूँज रही है। कदम एकदम बोझिल और बेजान हो गये हैं। मन बुझा-बुझा सा है।

उस रात वह बगैर डिनर किये ही सो गयी। हलाकिं कई बार वेटर ने दरवाजे को नॉक किया मगर वह अधसोई, अलसाई सी पड़ी रही।

क्रमश...