विजय.. विजय.. दरवाजा खोलो..
विजय..
अरे अरु तुम.. इतनी रात को मेरे कमरे में आई हो सब ठीक है ना? (विजय ने दरवाजा खोलते ही पूछा)
विजय मैं कैसी लग रही हूँ.. (अरुंधति ने पूछा)
सच में अरु हद करती हो.. तुम ये पूछने इस वक़्त ऐसे चोरी-छिपे आई हो.. पागल लड़की (विजय ने झुंझलाते हुए कहा)
(अरुंधति अपना लहंगा संभालते हुए विजय के पास आकर बैठ गई)
हाँ विजय.. जब भी तैयार होती हूँ तो यही चाहती हूँ पहली नज़र मुझ पर तुम्हारी ही हो.. मुझे सबसे पहले देखने का हक़ तुम्हारा ही है..(अरुंधति ने बड़े ही स्नेह से कहा)
अरु.. बस इतना कह विजय ने अरुंधति के गाल खींच दिये..
और ये श्रंगार क्यों? (विजय ने जिज्ञासा से पूछा)
बस यूँ ही अरुंधति विजय चौधरी बनने की कोशिश कर रही हूँ.. (अरुंधति ने विजय के कान में कहा)
हे राम..
अब जाओ भी.. तुम्हें किसी ने इस वक़्त देख लिया तो दो बातें कहेगा तुमसे..
और उसकी टीस तुम्हारे दिल से नहीं जाएगी..
(विजय की बात तो काटते हुए अरुंधति ने कहा और धीरे-धीरे कदमों से चली गई)
पागल लड़की.. (विजय ने मुस्कुराते हुए कहा और दरवाजा बंद कर सो गया)
(विजय और अरुंधति बचपन के साथी और पड़ोसी हैं। विजय एक रईस परिवार से है मगर अरुंधति मध्यम वर्गीय परिवार से है और साथ ही छोटे कुल की लड़की। दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा प्यार करते हैं। मगर इसकी ख़बर केवल अरुंधति की माँ को थी और किसी को भी नहीं)
अगले दिन..
विजय बेटा उठ.. दरवाजा खोल.. सुबह हो गई है..
हाँ माँ.. विजय ने बड़ी ही उबासी भरी आवाज़ में अपनी माँ से कहा..
ये लड़का पता नहीं कब बड़ा होगा.. बड़बड़ाते हुए कल्याणी देवी वहाँ से चली गई।
मुनीम जी.. अरे ओ मुनीम जी.. (कल्याणी देवी ने आवाज़ लगाई)
जी मालकिन.. (मुनीम)
व्यापार में कहीं कोई समस्या तो नहीं..
नहीं मालकिन सब ठीक से चल रहा है। और फिर विजय बाबू तो हैं ही सब देखरेख करने।
ठीक है.. कहकर पान चबाती हुई कल्याणी देवी वहाँ से चली गईं।
(कल्याणी देवी बहुत रईस हैं। उनके पति का कपड़ों का एक बहुत बड़ा व्यापार है। पति की मृत्यु के बाद वही इसे संभालती हैं। इसमें इनकी मदद इनका इकलौता बेटा विजय करता है। कल्याणी देवी बाहरी तौर पर बहुत सख़्त हैं। मगर अंदरूनी रूप से बहुत नर्म। वो अपने बेटे से बहुत प्यार करती हैं।
कल्याणी देवी के अक्सर ही कर्मचारियों के साथ रूखे और कड़े व्यवहार को देख अरुंधति उनसे बहुत डरती है। आमना-सामना होने पर वो नज़र उठा कर बात भी नहीं कर पाती है।)
एक दिन..
कल्याणी देवी के घर उनकी बड़ी बहन जानकी देवी आईं। वो विजय के लिए अपनी नन्द की बेटी सपना का रिश्ता लाई थीं।
कल्याणी देवी- नहीं दीदी मुझे ये रिश्ता मंजूर नहीं है।
लेकिन क्यों? बड़े घर की बेटी है सपना। बहुत गुणी और पढ़ी लिखी भी है। हर तरह से इस घर की बहु बनने लायक है। फिर ये रिश्ता मंजूर क्यों नहीं। क्या कोई लड़की पसंद आ गई है अपने विजय के लिए। (जानकी देवी ने आँखें मटकाते हुए पूछा)
हाँ दीदी एक लड़की है मेरी नज़र में। बड़ी ही प्यारी लड़की है। मैंने हमेशा से ही उसको अपनी बहु के रूप में देखा है। मेरे घर की बहु बस वही लड़की बनेगी। (कल्याणी देवी ने मुस्कुराते हुए कहा)
मगर इस जवाब को सुन जानकी देवी चिढ़ गईं।
और अगर विजय ने अपनी मर्ज़ी से कहीं और शादी करनी चाही तो। एक ऐसी लड़की से जो तुम्हें पसन्द ना हो? (जानकी देवी ने बड़ी ही तल्ख़ी से कहा)
जानकी देवी के सवाल के पीछे छुपे तंज को समझ और उनकी कड़वी बात को सुन गुस्से में कल्याणी देवी ने कहा.. तो मैं भूल जाऊंगी वो मेरा बेटा है और उससे सारे सम्बन्ध ख़त्म कर लुंगी, वचन देती हूँ आपको।
(कल्याणी देवी ऐसा कहकर गुस्से में वहाँ से चली गईं)
इन बातों को अरुंधति छुपकर सुन रही थी। वो बहुत डर गई और भागकर अपने घर आ गई। खुद को कमरे में बंद कर बहुत रोई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करे। उसे आज पहली बार विजय को खोने का ख़ौफ़ सता रहा था।
अरु..क्या हुआ..?
दरवाजा खोल..
माँ की आवाज़ सुन अरुंधति ने दरवाजा खोल दिया और माँ से लिपट कर जोर-जोर से रोने लगी। फिर रोते-रोते सारी बात बताई।
मैं बात करूँ कल्याणी देवी से? (माँ ममता जी ने पूछा)
नहीं माँ.. अब इस सब का कोई मतलब नहीं है। आपको नहीं पता कल्याणी काकी ने कितने गुस्से में ये सब बातें कहीं। सिवाए अपमान के आपको कुछ हासिल नहीं होगा।
(अरुंधति रोते हुए बोली)
मगर बेटा विजय तुझसे प्यार करता है। वो तेरे लिए सब से लड़ लेगा। वो तेरे लिए......
नहीं माँ.. विजय को आप ये सब नहीं बताएंगी आपको मेरी कसम..
मगर बेटा..
नहीं माँ.. नहीं। (अरुंधति ने सिसकियां लेते हुए कहा)
कुछ देर और रोते रहने के बाद अरुंधति ने खुद को संभाला और माँ की गोद में अपना चेहरा छुपा लिया।
फिर बोली..
माँ.. मैं विजय से प्यार करती हूँ ये बात बस आप जानती हैं और विजय। आपको मेरे सर की कसम कभी ये बात आपकी ज़ुबान पर नहीं आएगी।
मैं नहीं चाहती विजय और उसकी माँ का रिश्ता टूट जाए। या मेरी वज़ह से विजय अपनी माँ से दूर हो जाएं।
इससे तो अच्छा मैं ही खुद को उनसे दूर कर दूँ। मैं छोटे कुल की मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की।
वो तो चाँद है माँ जिसका पूरा आसमान है। हमारा मिलन असम्भव है। काकी कभी इस रिश्ते के लिए नहीं मानेंगी।
ऐसा कह अरुंधति रोने लगी..
लेकिन बेटा विजय से क्या बोलेगी तू.. (माँ ने रोते हुए पूछा)
मैं विजय से कह दूँगी माँ की हमारा मिलन असम्भव है। कह दूँगी की ज़रूरी नहीं प्रेम में सफलता ही मिले।
समझा दूँगी की विवाह तो बराबरी में होता है। सब समझा दूँगी..
और वो फिर भी नहीं समझे तो कह दूँगी की मैं उनसे प्यार नहीं करती....
उसकी बातें सुन ममता जी फूट-फूट कर रोने लगीं।
अगली सुबह..
इतनी सुबह-सुबह मुझे क्यों बुलाया अरु..
आपसे बात करनी थी..
ये पागल लड़की आँखें कब से चुराने लगी। (विजय ने उसके चेहरे की और झाँकते हुए पूछा)
क्या हुआ..? आँखें लाल हैं, सूज रही हैं? क्या हुआ है?
(विजय ने गंभीरता से कहा)
अरुंधति के कुछ नहीं कहने पर विजय ने उसे पकड़ के झकझोर दिया.. अरु बोलो क्या हुआ..? किसी ने कुछ कहा? काकी माँ ने कुछ कहा..?
बोलो अरु तुम्हारी खामोशी मुझे मार रही है.. बोलो (विजय ने झुंझलाते हुए कहा)
नहीं विजय बस थोड़ी तबियत ख़राब थी..
थोड़ी? थोड़ी से क्या मतलब है। तुम्हारी हालत देख रही हो लग रहा है जैसे रात भर रोई हो?
सच कहो अरु? क्या हुआ है? क्या मेरी माँ ने कुछ....
नहीं विजय कुछ नहीं कहा किसी ने। मैं ठीक हूँ। तबियत ख़राब थी। तो रात भर सोई नहीं हूँ..
हे राम अरु.. तुमने तो मुझे डरा ही दिया था (कहकर विजय ने अरुंधति को एक झटके से गले लगा लिया)
अरुंधति विजय से दूर हट गई..
क्या हुआ..? (विजय ने आश्चर्य से पूछा)
जो रोज गले से लगने ज़िद करती थी वो आज मुझसे दूर जा रही है.. (विजय ने कहा)
अरुंधति के आंसू आ गए..
विजय मुझसे कितना प्यार करते हो..?
ये तुम जानती हो अरु.. फिर ये सवाल क्यों..?
तुम्हारे लिए मर सकता हूँ अरु। तुम्हारे बिना जी नहीं सकता..
कुछ मांगू अगर तो दे सकोगे..
ये भी पूछने की बात है क्या? (अरुंधति के हाथ पकड़कर विजय ने कहा)
मैं तुमसे जुदाई चाहती हूँ..
जुदाई..?? होश में तो हो.. (विजय ने चीखते हुए कहा)
अरूंधती पलट कर दूर चली गई..
विजय मैं तुमसे प्यार नहीं करती। ये मिलन हो ही नहीं सकता। मैं नहीं चाहती हमारी वज़ह से परिवारों में मतभेद हो। मुझ पर कृपा करो विजय मुझसे दूर हो जाओ। कहीं और किसी अच्छी लड़की से विवाह कर लो।
(कहकर अरुंधति बिलखते हुए रोने लगी)
विजय अरुंधति के पास गया और उसके आँसू पोंछते हुए बोला। रो मत अरु.. जैसा तुम चाहोगी वही करूंगा। मुझे नहीं पता तुम ऐसा क्यों कर रही हो। मगर शायद कोई बड़ी वज़ह होगी। तुम पर दवाब नहीं डालूँगा।
तुम्हारी हर बात मान लूंगा अरु मगर तुम मुझसे प्यार नहीं करती ये नहीं मानता।
तुम्हारा प्यार तो तुम्हारी आँखों ने मुझे कुछ देर पहले ही बता दिया था.. मैं सही था तुम रात भर रोई हो।
चलता हूँ..
(कहकर विजय अपने आँसुओं को आँखों में ही कैद किए हुए चला गया और अरुंधति वहीं बैठ रोने लगी)
अगले दिन विजय की माँ कल्याणी देवी अरुंधति के घर आई। उन्होंने आते ही अरुंधति से पूछा..
अरुंधति तुम्हारे और विजय के बीच कोई बात हुई है क्या?
अरुंधति डर गई.... उसने डरते-डरते ना में सिर हिला दिया।
अच्छा! बहुत उदास है वो, तो मुझे लगा तुम दोनों की लड़ाई हुई है।
खैर..
मुझे अरुंधति से अकेले में बात करनी है.. (कल्याणी देवी ने कहा)
सभी चले गए
अरुंधति मुझे घुमा-फिरा के बात करना नहीं आता.. इसलिए बिना किसी डर के साफ-साफ जवाब देना।
अरुंधति ने हामी भरी..
क्या तुम विजय से प्यार करती हो..?
अरुंधती बहुत डर गई और तुरंत बोली नहीं काकी बिल्कुल भी नहीं।
सच बोलो अरुंधति.. क्या विजय तुम्हें पसन्द है? (कल्याणी देवी ने स्नेह के साथ पूछा)
अरुंधति को लगा कि शायद इनको शक हो गया है। इसलिए इस तरह बार-बार पूछ रही हैं। रिश्ते ख़राब होने के डर से उसने इंकार कर दिया।
कल्याणी देवी को यकीन नहीं हुआ मगर वो क्या करतीं इसलिए वहाँ से चली गईं। उनको हमेशा ही यही लगा था कि अरुंधति और विजय प्यार करते हैं। और उसका व्यवहार भी शालीन होने की वज़ह से वो इनकी शादी कराना चाहती थीं। शायद डर से अरुंधति ने मना कर दिया हो ऐसा सोच वो विजय के पास गई..
विजय बहुत उदास बैठा था..
जब कल्याणी देवी ने उदासी का कारण जानना चाहा तो विजय ने व्यापार से सम्बंधित कारण बता टाल दिया।
कल्याणी देवी ने विजय से पूछा.. की क्या वो अरुंधति से प्यार करता है। मगर विजय हाँ कैसे बोलता। जब अरुंधति ने ही मना किया है। उसने भी प्यार होने से इंकार कर दिया। और साथ ही यह भी कहा कि वो जहाँ चाहें उसकी शादी करा दें।
कल्याणी देवी को लगा कि शायद उन्होंने इन दोनों की दोस्ती को प्यार समझने की भूल कर दी है। ये दोनों केवल दोस्त हैं इनमें प्यार नहीं है। ऐसा सोच वो अपनी बड़ी बहन के लाए रिश्ते के लिए तैयार हो गईं।
कुछ दिन बाद जानकी जी वहाँ से चली गईं और शुभ मुहूर्त देख सपना और विजय की शादी तय हो गई।
अरुंधती ने विजय से छुप-छुपकर मिलना छोड़ दिया था। मगर किसी को शक ना हो इसलिए विजय के घर में आना-जाना रखा।
विजय शादी करने के लिए तैयार तो था मगर कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था। इसका कारण कल्याणी देवी को समझ ही नहीं आ रहा था। उनको लगा शायद व्यापार को लेकर चिंतित होगा..
उधर शादी की तारीख़ करीब आ रही थी..
शादी में बस दो ही दिन बाकी थे। एक रात अरुंधति चोरी-छिपे विजय से मिलने आई..
अरु तुम.. इस वक़्त यहाँ..
किसी ने देख लिया तो.. तुम्हें डर नहीं लगता..
नहीं विजय अब खोने को क्या है जो डरूँगी..? (अरूंधती ने फ़ीकी मुस्कान के साथ कहा)
विजय ने कोई जवाब नहीं दिया..
कुछ देर की ख़ामोशी के बाद अरुंधती ने कहा..
अपने हाथों से तैयार करूंगी तुम्हारा सेहरा.. तुम पहनोगे ना मेरे हाथों से.. (अरुंधति ने बड़ी विनम्रता से कहा)
पहनूंगा ना ज़रूर पहनूंगा.. तुम पहना सकोगी.. (विजय ने नज़र नीचे किए हुए ही पूछा)
हाँ क्यों नहीं पहना सकूंगी.. (अरुंधति आँसुओं को रोकते हुए बोली)
फ़ीकी मुस्कान के साथ विजय ने अरुंधति से पूछा..
मुझे सेहरा पहनाकर हमेशा के लिए विदा करने की हिम्मत है तुम में..
वो हिम्मत तुम दोगे मुझे.. (अरुंधति ने कहा)
मैंने तो अपना सबकुछ तुम्हें दे दिया अरु। अब क्या दे सकूंगा तुम्हें.. (विजय रुंआसा होकर बोला)
वचन.. वचन दो मुझे.. की मुझे भूल जाओगे..
वचन दो विजय.. (अरुंधति ने हाथ बढ़ा कर कहा)
वचन देता हूँ अरु.. भूल जाऊंगा (विजय नम आंखों से बोला)
अब पहना सकूंगी सेहरा.. (कहकर अरुंधति चली गई)
(समाप्त)
प्रिय पाठकों
नमस्कार🙏
कहानी पूर्णतः काल्पनिक है। आप सभी को यह कहानी कैसी लगी कृप्या समीक्षा के द्वारा ज़रूर बताएं। आपके बहुमूल्य विचारों का इंतज़ार रहेगा।
धन्यवाद🙏😊
आपकी
रूपांजली सिंह परमार