anubhuti in Hindi Fiction Stories by Vanita Barde books and stories PDF | अनुभूति

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अनुभूति

अनुभूति को क्या प्रमाण की आवश्यकता होती है?

एक रहस्यमयी दुनिया बिखरी है , हम सबके चारों ओर। विचार करने की बस जरूरत है। विचारों की अपनी ही सत्ता होती है। विचारों में आने वाले भाव मनुष्य को इस लोक में रहते हुए ही दूसरे लोक का सच्चा अनुभव करवा ही देते हैं। बात सच है कि नहीं, पता नहीं | होश में रहने वालो की दुनिया में ऐसी बातों को प्रमाणों की जरूरत पड़ ही जाती है और तथ्यों के न मिल पाने पर उन्हें नक्कारना किसी के लिए भी बहुत ही आसान हो जाता है। परन्तु तथ्यों का न मिलने पर , अनुभूति के सामने जो घटित हुआ ,उसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। इसका उत्तर हमारे पास नहीं है | जैसे ईश्वर है भी या नहीं, अनुभूति के स्तर पर तो स्वीकारा जा सकता है ,उसी प्रकार की घटना का वर्णन मैं यहाँ करने जा रही हूँ। स्वीकारना या न स्वीकारना ये आप पर ही निर्भर करता है | परन्तु ये नीति के जीवन में घटा सत्य है। यह सत्य अनुभूति के स्तर पर है, जिसका प्रमाण नहीं है मेरे पास।

कभी कभी हमें यह लगता है कि ये बुरा विचार जो हमारे मस्तिष्क को घेरे हुए है | मुख से नहीं निकलना चाहिए क्यों कि डर के साथ आप उसे अनुभूत करते हैं कि यदि यह विचार सत्य हो गया तो। नहीं ! नहीं! हे ईश्वर बुरे विचारों को समाप्त करो। मेरे मन को शांत करो। मुझे ऐसे प्रतीत होता है कि विचारों का अस्तित्व बहुत ही प्रभावशाली होता है। जैसा हम विचार धारण करते हैं वैसा हो भी जाता है। हाँ यह सत्य है विचारों में बहुत शक्ति होती है। जब इस शक्ति को कोई आत्मसात कर लेता है , तो प्रत्यक्ष घटित भी होता है। और इस प्रकार से घटित होकर हमें आश्चर्य से भर देता है। तभी सकारात्मक विचारों के महत्तव को प्रतिपादित किया जाता रहा है। ताकि विचारों के फलीभूत होने पर हमें सुखद अनुभूति हो।

पर विचार कितने भी सकारात्मक रखने का प्रयास करो , आने वाली विषम परिस्थितियाँ न चाहते हुए भी व्यक्ति को नकारात्मकता से भर ही देती हैं। फिर भी प्रयास करना चाहिए कि अपने आप को बचाओ।

यह बात सौ फीसदी सच है कि आप जैसा चाहेंगे वैसा हमेशा नहीं मिलेगा। चाहत का क्या है ? वह तो सभी कुछ पा ही लेना चाहती है। हमारे भारतीय समाज में हमेशा एक औरत से ही अपेक्षा की जाती है , कि वह सबकी उम्मीदों पर खरी उतरे। पर बात यदि नीति की मैं करूँ , तो उसके धीरज की सीमा बहुत ही कम है और उस समय नीति को ऐसा प्रतीत हो एक औरत और मर्द में फर्क करके, बिना विचार किए ,जब फैसला एक ही के पक्ष में सुनाने का प्रयास किया जाता है , तो विरोध जैसे उसका रोम रोम कर बैठता है। मैं यह नहीं दर्षाना चाहती कि वह सही है या गलत। बस जब उसे लगे कि कुछ विचार किए बिना ही निर्णय लिया जा रहा है, तो उसका आक्रोष कुछ अलग ही अंदाज में सामने आता है। यही कारण है कि जीवन में आज तक किसी की खास प्रशंसा का पात्र वह नहीं बन पाई है। खैर मुझे उसका विरोध कभी भी गलत नही लगा। उसकी पुराण यही समाप्त कर मुद्दे पर आती हूँ।

स्वाभाविक सी बात है कि जहाँ दो बरतन होते हैं वह खटकते तो जरूर ही हैं। पर कहते हैं न कि मुख से निकले शब्दों का वार सौ हथियारों के वार से भी अधिक प्रभावषाली होते हैं। कुछ ऐसा ही नीति के साथ भी हुआ। उसके पति की सदैव से चाहत उससे रही है कि वह एक अच्छी बहू के रूप में सिद्ध हो| पर उसका पति रमेश हमेषा यह क्यों भूल जाता है कि क्रोध भी मनुष्य का एक स्वभाविक गुण है | वह पुरूष हो या स्त्री दोनों में समान मात्रा में ही विद्यमान है।

बात राई का पहाड़ किस प्रकार बन जाती है इन दोनों को देखकर आसानी से जाना जा सकता है। कुछ अधिक ही संवेदनषील नीति अपने पर लगे आरोपों को देख अधिक ही विचलित हो जाया करती है। संवेदनषीलता यह उसकी खूबी भी है और सबसे बड़ी कमी कहा नहीं जा सकता। क्योंकि उसकी अति संवेदनषीलता उसे इस तरह की अवस्था में पहुँचा जाती है कि वह दूसरों को कम अपने आप को नुकसान अधिक पहुँचाती है। जीवन साथी के रूप में उसे रमेश मिल तो गया है ,पर पति होने के नाते उसने कभी भी नीति को यह विष्वास नहीं दिलाया कि वह उसे कभी भी वह उसके साथ है | हर पल उसे यही महसूस होता था कि जरूरत पड़ने पर वह अपने आप को अकेला ही पाएगी । इस बात से आहत नीति खुष रहने का अभिनय कर जीवन यापन कर रही थी। कहने को तो प्रेम विवाह हुआ था उनका। नीति के पिता जो उसे बखूबी जानते थे यही कहा करते थे उससे कि रमेष जिम्मेदारियों में घिरा लड़का है। उसकी परवरिष में उसके माता पिता ने अलग तरीके से की है। जब तुझे महसूस होगा कि वह तेरे बारे में विचार करे , तो उसे तुझ से पहले अपना परिवार नजर आएगा। पर कहते है न कि प्यार अंधा होता है ,पिता की सारी बातों को नजरंदाज कर नीति से रमेष से विवाह कर लिया। अब जब वह विवाह के बाद अकेला ही पाती तो उसका मन बहुत ही दुखता था। अपने भोले पन में कह लीजिए या पता नहीं आप इसे किस प्रकार से देखेंगें। नीति ने कभी भी उसकी जिम्मेदारियों को निभाने में पीठ नहीं दिखाई। कहा भी गया कि अत्यधिक भोलापन भी संसार के लिए उपयुक्त नहीं होता कुछ ऐसा ही नीति को लगता था।

रविवार का दिन था। सुबह के सात बज चुके थे। रमेश ने आरोप लगाते हुए नीति से कहा कि तुम से बड़ा डफर मैने आज तक किसी को नहीं देखा। कोई भी तुम्हें मूर्ख बनाकर अपना फायदा उठा सकता है । देखो तुम्हारी बहन कितनी तेज है, वही तुम्हें मूर्ख बनाकर अपना स्वार्थ साध रही है। नीति को लगा जैसे रमेश ने एक तीर से दो निशाने किए हैं उसे डफर बताते हुए , वह उसकी छोटी बहनों को भी स्वार्थी सिद्ध करना चाहता है। जोर से चीखते हुए उसने रमेश की बातों का खंडन किया। बात आज कुछ ज्यादा ही बड़ गई थी। कहते हैं न कि अत्यधिक क्रोध की सीमा बढ़ जाने पर विवेकशीलता पहले समाप्त हो जाती है। घर का वातावरण कॉफी खराब हो गया था। जीवन साथी पर किया जाने वाला विश्वास ऐसी स्थिति में टूट ही जाता है। कुछ छटपटाते हुए वह घर से बाहर निकाल जाना चाहती थी पर बच्चों का मुँह देख शांत हो जाने की कोशिश करने लगी | उसे लगने लगा कि बस अब और वह नहीं सह सकती , पापा को याद करने लगी | सोचा इस शादी से ऐसा कौन सा सुख मिल गया कि एक समय अपने पापा को रमेश के लिए छोड़ दिया था | उसे दुख हो रहा था कि हर पल साथ निभाने का वायदा कर रमेश आज उसे इस तरह से नीचा दिखा कर यह एहसास करवा रहा है कि जो कुछ किया तुमने किया| प्यार में अंधा हो जाना किसे कहते है, उसे समझ आ गया था घर की दहलीज लाँघ लेना आसान था पर अब वह अकेली नहीं थी उसके साथ दो जाने और जुड़ चुकी थी | रिश्ते निभाना ही सही है, सोच चुप हो जाना ही सही समझ कर घर कर दूसरे कामों में खुद को गुम कर देना चाहती थी | जैसे तैसे पूरा दिन बीत गया | ना रमेश को इस बात का एहसास था कि आज एक बार फिर उसने नीति का दिल दुखाया है | कारण कुछ खास नहीं था बस अहंकार की परत यदि दीमाग़ में चढ़ जाए ,तो उसे उतरना मुश्किल हो जाता है| पूरा दिन गया | अगले दिन सुबह भी रमेश नीति की भावनाओं को नजरंदाज कर घर से चला गया |बिलख बिलख कर नीति का दिन बीता | रात काम से आकर एक बार फिर रमेश ने उसे कुछ ऐसा कहा कि नीति अपने आप को रोक नहीं पाई | रमेश भी उसे समझने को तैयार नहीं था | समान उठा कर रात को ही अपने माता पिता के पास निकल गया | रात अपने को और अपने छोटे बच्चे को गले लगा कर खूब रोई | सोचा कितना आसान है रमेश के लिए उसे छोड़ कर चले जाना | आज उसका बेटा बहुत ही सहम गया था , उसे लगा कि जैसे सब कुछ खत्म हो जाएगा | जब जीवन में निराशा बढ़ जाती है तो व्यक्ति ,उसे समाप्त कर लेने का विचार ही करने लगता है | पर क्या मृत्यु को गले लगाना इतना आसान था , जितना नीति विचार करने लगी थी | नीति को लगा कि इस तरह से आहत होकर जीने से अच्छा है एक सुखद मौत | कभी कभी शब्दों का इतना गहरा असर होता है इस बात का आभास उस रात नीति को हुआ | घर में रमेश तो था नहीं | छोटा-सा बच्चा वो भी काफी सहम गया था| पूरा दिन निकल गृह क्लेश में निकल गया था | दुखी मन से नीति रोते रोते सो गई | नींद गहरी थी , नीति थक भी गई थी, खास कर मानसिक तौर पर | ठीक रात तीन बजे उसकी नींद खुली | दिन भर की बातें याद आने लगी | आज हवा का एक खास एहसास हो रहा था | घर की बैल्कनी में जाकर उसने उस गहराते अंधेरे को पहली बार कुछ इस कदर महसूस किया कि कांपने लगी | डर की साये में उसने बैल्कनी का शीशा बंद किया और पलंग पर आकर लेट गई| डर मिश्रित जीवन समाप्ति का विचार गहराने लगा | विचार आया कि मृत्यु की बात करना और उसे अनुभूत करना दोनों बहुत ही अलग अलग बातें हैं | नीति को लगने लगा कि जैसे कोई उसके प्राण हरने उसके पास गया है | जागी आँखों से ये विचार वो मस्तिष्क में घटते हुए देख रही थी | पापा की मृत्यु उसने अभी कुछ महीने पहले ही देखी थी | लगा कि जैसे इस पल वो उसके पास है और किसी से उसके लिए लड़ रहे हैं , जैसे कोई अनजानी ताकत वह थी, जिसे वह महसूस कर सकती थी | उसके मृतक पिता भी जैसे वही थे और उस अनजान ताकत को समझा रहे थे कि बच्ची है, नादानी में ये विचार लाई है,छोटा बच्चा है, कुछ भी क्रोध में आकर सोचती है, अनायास अपने मुख से अपने लिए गलत निकलती है,इस कोई कष्ट नहीं दें | माफ कर दें और यहाँ से जाएँ | लगा कि गलत विचार से मस्तिष्क को खराब करना उचित नहीं | पल भर में डर का साया फिर गहराने लगा | बैल्कनी में छाए अंधेरे से नीति नजर हटा लेना चाहती थी | रसोई की तरफ निकली पानी पी लेने के लिए | जाकर क्या देखा कि जैसे काली मक्खियाँ पूरे घर में मंडरा रहीं है |

रसोई की खिड़की धड़ाके से खोल दी कि वे बाहर चली जाएं | उनके मंडराने का स्वर बहुत तीव्र था | लगा जैसे किसी बात पर वे आपस में लड़ रहीं हैं और एक दूसरे पर प्रहार कर रहीं हैं | नीति बैल्कनी की खिड़की पहले ही बंद कर चुकी थी | कुछ देर बाद जब दुबारा वो रसोई में गई तो देखा कि बहुत सी माक्खियाँ वहाँ मरी हुई थीं | बैल्कनी के शीशे पर हाथ की उंगुलियों के निशान थे | नीति जब रसोई में काम करती है , तो उसका ध्यान उन खड़कियों की ओर चला जाता है | सोच में है नीति कि आखिर ये अँगुलियों के निशान किसके हैं ? कौन थे वो जो रात आकर उसका पक्ष ले रहे थे ? क्या पापा ही थे? उत्तर जैसे नहीं मिल रहा था कि अनायास उसे लगा कि उस अनहोनी घटना से बचने उसके पापा ही आए थे |वे उन्हीं के हाथ थे, जो हमेशा से नीति को बचा ने की कोशिश में रहते थे |वह आभास कर पा रही थी कि मरी माखियाँ निश्चित ही उसके पिता के आग्रह से अपनी देह त्याग केर चली गईं थीं |नीति के पास इस बात का कोई प्रमाण नहीं| ये हो सकता है उसकी अनुभूति हो ,पर काल्पनिक होकर भी उसका सच है |

नीति के माता पिता दोनों ही नहीं हैं | नीति ने भले ही अपने पिता का मन दुखा कर रमेश से शादी कर ले हो पर कहते है ना बच्चे कितनी भी गलतियाँ कर लें , वे कभी अपने बच्चों का साथ नहीं छोड़ते | आज भले ही उसके साथ पिता देह रूप में नहीं हो ,पर इन पांचों तत्वों में वह उन्हें महसूस कर ही लेती है | नीति आज भी रमेश के साथ ही जीवन जी रही है| सुखी है क्योंकि सुख बाहर नहीं भीतर खोज लिया है | अपेक्षाएं उसने काम कर दी हैं| इस बात को समझ जाना कि क्रोध ही परिवार के टुकड़े कर देता है , समझना जरूरी है | आज भरे पूरे परिवार में जीवन जी रही है समय व्यक्ति को बहुत कुछ समझ देता है | यह बात दोनों को पूरी तरह से समझ आ गई या नहीं कहा नहीं जा सकता पर दोनों ने एक दूसरे को समझना जरूर शुरू कर दिया है | फिर यह बात भी तो काही जाती है कि यही जीवन में मसाला नया हो तो जीवन का रस चल जाता है | ईश्वर का ही आशीर्वाद है कि लड़ने के बावजूद एक दूसरे के बिना वो नहीं जे सकते | उन्हें साथ देखकर बहुत ही अच्छा महसूस करती हूँ और भी बहुत से किससे उन दोनों के जीवन कि आप लोगों के साथ बॅाटती | क्योंकि वह दोनों तो कहीं नया कहीं हम सभी में ही हैं नीति और रमेश न होकर अन्य कई नामों से |