नाम में क्या रखा है !
--“मैं छोड़ूंगा नहीं उस बदमाश को, जेल भिजवाऊंगा, रोको मत मुझे।“ गुप्ताजी भारी गुस्से में थे।
--“छोड़िये न बाबूजी, गुस्सा न करें, फिर बीपी बढ़ जायेगा आपका।“ बेटे प्रदीप ने बाप को रोकते हुये कहा।
--“ऐसा जाली काम आज तक किसी ने नहीं किया खानदान में। बात खुल जायेगी तो मैं किसे मुंह दिखाउंगा।“
--“चलिये घर के अंदर चलकर बात करते हैं, बाहर सब सुन रहे हैं, बात फैल जायेगी।“ प्रदीप किसी प्रकार गुप्ताजी को घर के अंदर ले आया। गुप्ताजी रह-रहकर हाथ झटकने लगते और गुस्से में हौल-फौल बकने लगते पर अंदर से वे भी इस बात के हामी थे कि बात फैलनी नहीं चाहिये। थोड़ी देर बाद बाप-बेटे में आगे की योजना में ठोस चर्चा हुई। और गुप्ताजी ने, जैसा कि प्रायः मध्यमवर्गीय भारतीय पिताओं की आदत होती है, यह कहकर बातचीत के औपचारिक समापन की घोषणा की कि, --“मैं छोड़ूंगा नहीं उस बदमाश को।“ उसके बाद परिवार में शांति छा गयी।
शिव प्रसाद गुप्ता शिशु विद्या मंदिर, देवास, जिसकी शाखायें पूरे प्रदेश में फैली हुई थीं, में गणित के टीचर थे। नियम के पक्के, जुबान के पक्के और संकल्प के पक्के। पढ़ाने में नंबर एक तो जिद में भी नंबर एक। एक बार जिद में अड़े तो नगरसेठ के लफंगे लड़के को स्कूल से निकलवाकर दम लिया और एक बार अपने ही बेटे को पीटने पर आये तो दूसरे टीचरों को बीच-बचाव करना पड़ा था। थे तो यू.पी. के पर एक बार देवीजी के नगर देवास में बसे तो बस ही गये। इनके दो जुड़वां बेटे थे, दिलीप और प्रदीप, जन्म में पांच मिनट का अंतर था। जन्म के समय गुप्ताजी की मां ने कहा कि बच्चों के नाम दिलीप-प्रदीप रख दो, हालांकि मां ने यह नहीं बताया कि किस बच्चे का कौन सा नाम रखा जाये। गुप्ताजी ने बड़े का दिलीप और छोटे का प्रदीप रख दिया। जुड़वां होने के कारण चेहरे-मोहरे से दोनों बच्चे लगभग एक समान दिखते थे, अंतर था तो प्रदीप के गाल में मात्र एक काले तिल का पर विचारों और बुद्धि में तो बिल्कुल ही समानता नहीं थी। बाप की भयंकर पिटाई से बेअसर दिलीप का ध्यान पढ़ाई छोड़कर दुनिया की हर चीज में था, खासकर कसरत में, वहीं प्रदीप पढ़ने में तेज था। दिलीप बिना ग्रेस नंबर के कभी कोई कक्षा पास नहीं कर सका वह भी थर्ड डिवीजन में। जब बी.ए. में भी दिलीप फेल होने लगा तब गुप्ताजी ने सारी आशायें छोड़ हीं। इधर प्रदीप की इंजीनियरिंग पूरी होने को आयी, दिलीप को कहीं नौकरी का आसरा न हुआ। हुआ यह कि एक रात दिलीप पिता के नाम एक भावुक चिट्ठी कि, ’अब लौटूंगा तो कुछ बनकर ही लौटूंगा’ छोड़कर घर से चला गया, हालांकि एक हफ्ते बाद वापस लौट आया। बच्चा बड़ा हो गया था, गुप्ताजी उसके लौट आने को ही गनीमत मान किसी प्रकार शांत रहे। वापस आने के बाद उसने घर से निकलना बंद कर रखा था पर डाकिये की राह वह खाना छोड़कर ताकता रहता। लगभग बीस-पच्चीस दिन बाद वह फिर घर से बिना बताये चला गया, जाते समय वह कोई कुर्बानी देकर नहीं गया था बल्कि पिता की जेब से तनख्वाह के छः सौ रुपये और प्रदीप की इंटर तक की सारी मूल मार्कशीटें साथ ले गया था। वो तो उसके जाने के बाद बी.एस.एफ. से आयी एक चिट्ठी से राज खुला कि जब वह पहली बार गया था तो बी.एस.एफ. में एस.आई. की भर्ती में शामिल होने ग्वालियर गया था और सेलेक्शन हो जाने के बाद अपॉइंटमेंट लेटर प्राप्त करने के उद्देश्य से घर वापस आया था, कोई परिवार के मोह से नहीं लौटा था। सबसे हृदयविदारक बात यह थी कि दिलीप ने यह नौकरी खुद के शारीरिक दमखम और प्रदीप की मार्कशीटों की बदौलत प्रदीप के नाम से हासिल की थी। जानकर गुप्ताजी के शरीर में कंपन होने लगा, वे सोचने लगे कि अब तक जो पुलिस-कोर्ट-कचहरी कभी नहीं हुआ था वह इस नालायक बेटे के कारण अब होकर रहेगा। सन् सत्तर-बहत्तर का जमाना उन्नत संचार का नहीं था, सारी सरकारी खतोकिताबत चिट्ठी-पत्री के माध्यम से होती थी। गुप्ताजी के सामने धर्मसंकट यह पैदा हो गया कि अब उनके दोनों बेटों के नाम प्रदीप हो गये थे। वो तो गुप्ताजी प्रदीप के समझाने पर मान गये वरना उसूलों के पक्के वे तो थाने जाने को तैयार थे। नाराज तो प्रदीप भी बहुत था पर उसने बुद्धि व धैर्य से काम लेने की सलाह पिता को देते हुये अपनी योजना बताई तो पिताजी यह कहकर तैयार हो गये कि, --“भले वो मेरा बेटा है पर उसे सबक जरुर सिखाऊंगा, मैं छोड़ूंगा नहीं उस बदमाश को।“
योजना पर काम शुरु करते हुये प्रदीप ने देवास में रहते हुये तीन काम किये, पहला कि आगे पढ़ने के लिये उसने बैंक से अपने नाम से एजूकेशन लोन ले लिया, दूसरा पिताजी के प्लॉट पर घर बनाने के लिये खुद गारंटर बनकर पिताजी को हाउस लोन दिलवा दिया और तीसरा कि अपने नाम से एक छोटी अवधि की बड़ी बीमा पॉलिसी ले ली। प्रदीप ने अपनी मार्कशीटों के गुम हो जाने का हलफनामा देकर डुप्लीकेट मार्कशीटें हासिल कर लीं। एक और बड़ा काम जो किया गया वह था गुप्ताजी का देवास से सतना के शिशु विद्या मंदिर में तबादला लेना। उद्देश्य था कि सतना में उन लोगों का कोई परिचित नहीं है, लिहाजा बात छिपी रहेगी, और हुआ भी यही। होम लोन और बीमा की किश्तें गुप्ताजी ने अपनी तनख्वाह से चुकाना शुरु कर दिया था। एक दिन देवास का अपना घर किराये पर चढ़ा गुप्ताजी सतना आ पहुंचे जहां प्रदीप को अच्छे वेतन पर बिड़ला सीमेंट फैक्ट्री में नौकरी मिल गयी। नौकरी मिलने के बाद प्रदीप ने पिता की सहमति से अपनी स्वर्गीय दादी की अंतिम इच्छा का मान रखते हुये लंबी पर जरुरी औपचारिकतायें पूरी कर अपना नाम प्रदीप की जगह दिलीप रख लिया, गुप्ताजी के कलेजे को ठंडक पहुंची। इस उथल-पुथल के बाद सब कुछ सामान्य चलने लगा।
अब उधर ’प्रदीप’ यानी असली दिलीप का हाल सुनिये। ट्रेनिंग के बाद केवल असली दिलीप की पोस्टिंग सब-हेडक्वार्टर देहरादून में हो सकी, उसके बैच के साथियों को ईर्ष्या हुई। देहरादून पोस्टिंग के पीछे के कारण का राज तब खुला जब एक दिन उसके डिप्टी एस.पी. साहब ने उसे बुलाकर पूछा कि इंटर तक तुम्हारा कैरियर इतना अच्छा था तो तुमने बी.एस.एफ. में एस.आई. की नौकरी क्यों ज्वाइन कर ली? तंगी और घर के हालात को कारण बता किसी प्रकार उसने जान छुड़ाने की कोशिश की पर होनी को वह टाल न सका। डिप्टी साहब का कहना था कि उनके बच्चों को यहां अच्छे ट्यूटर नहीं मिल पा रहे हैं इसलिये वह उन्हें पढ़ा दिया करे, --“इंटर में इंग्लिश, साइंस और मैथ्स में तुम्हारे कमाल के नंबर हैं प्रदीप!” हाल ये था कि असली दिलीप की अधिकतम सीमा इंग्लिश और साइंस की स्पेलिंग तथा मैथ्स में गिनती-पहाड़े पर जाकर खत्म हो जाती थी। एक दिन वह पढ़ाने तो आया पर किसी प्रकार टाइम पास कर चलता बना। बड़े अफसर ने उसके रोज नागा करने और बिलावजह बहानेबाजी करने को हुक्मउदूली माना जो बी.एस.एफ. में नाकाबिलेबर्दास्त था, नतीजतन असली दिलीप को देहरादून से हटाकर उसकी पोस्टिंग ऐसी जगह कर दी गयी जहां उसे दिन में तारे नजर आते। एक दिन उसे सब-हेडक्वार्टर के मार्फत पिताजी की एक चिट्ठी मिली जिसमें उन्होंने उसे प्रदीप संबोधित किया था, अर्थात् घर में सबको सब कुछ मालूम चल चुका है!
कुछ अरसा बीता कि असली दिलीप के सिर पर और ओले पड़े। सब-हेडक्वार्टर से उस माह कम तनख्वाह मिलने की वजह पूछने पर उसे बताया गया कि आपके द्वारा देवास से जो अपने नाम से बीमा पॉलिसी ली गयी थी वह आपके आवेदन पर अब सैलरी सेविंग पॉलिसी में बदल दी गयी है इसलिये अब आगे उसका प्रीमियम आपके वेतन से नियमित काटकर बीमा कंपनी को भेज दिया जायेगा। हुआ यह था कि असली प्रदीप ने बीमा कंपनी, देवास को यह लिख दिया था कि चूंकि उसकी नौकरी बी.एस.एफ. में लग गयी है लिहाजा प्रीमियम वेतन से सीधे प्राप्त कर लेने की व्यवस्था की जाये। ‘प्रदीप’ के पास इंकार की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि प्रदीप तनय शिवप्रसाद गुप्ता, निवासी देवास बी.एस.एफ. में वास्तव में नौकरी कर रहा था। चूंकि बात खुल जाने का डर था इसलिये असली दिलीप यानी ‘प्रदीप’ खामोश रहा आया। वह जानता था कि वह जिस विभाग में नौकरी कर रहा है वहां फ्रॉड पकड़े जाने पर नौकरी तो जायेगी ही, जेल भी जाना पड़ेगा। इधर काम योजना के अनुसार चल रहा था। कुछ और माह बीते, असली प्रदीप ने बैंक को सूचित कर दिया कि चूंकि उसकी नौकरी बी.एस.एफ. में लग गयी है लिहाजा एजूकेशन लोन की कटौती चालू कर दी जाये। बात सही भी थी, एजूकेशन लोन तो प्रदीप ने लिया था और नौकरी भी ’प्रदीप’ की लग चुकी थी लिहाजा ’प्रदीप’ यानी असली दिलीप के वेतन से किश्त काटने में विभाग को कोई दिक्कत नहीं थी। तनख्वाह और कम हो गयी। अभी एक और मुसीबत मुंह बाये खड़ी थी। गुप्ताजी ने अपने बैंक को लिखा कि चूंकि वे अपनी नौकरी से रिटायरमेंट ले रहे हैं इसलिये होम लोन की आगे की किश्तें वे उनके गारंटर बेटे प्रदीप से वसूलें, साथ में ’प्रदीप’ की नौकरी का पूरा विवरण देते हुये उसका सहमतिपत्र भी संलग्न था। ‘प्रदीप’ यानी असली दिलीप पूरी तरह निराश हो चुका था, नौकरी वो कर रहा था, उसके वेतन से मजे दूसरे कर रहे थे, उसकी सारी तनख्वाह कट जाती, हाथ में लगभग कुछ न मिलता। ‘प्रदीप’ क्रोध और लाचारी के बीच दोलन कर रहा था, मन कुछ करने की सोचता भी पर जेल के नाम से उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा जाता। पर इस लाचारी ने असली दिलीप के मन में पछतावे की जगह नफरत ने जन्म ले लिया, वह अपने बाप-भाई से घृणा करने लगा।
देवास के एक अत्यंत धनी वैश्य सज्जन शिशु विद्या मंदिर श्रंखला के व्यवस्थापक थे, अत्यंत सीधे-सादे और जमीनी आदमी। उनकी इकलौती व सुंदर बिटिया विमला गुप्ताजी के पुत्रों दिलीप प्रदीप से एक कक्षा पीछे उसी स्कूल में पढ़ा करती थी। अपने एक मात्र गुण शरीर सौष्ठव को लेकर दिलीप विमला को रिझाने की कोशिश किया करता था पर विमला पढ़ाई को तरजीह देते हुये प्रदीप की ओर आकर्षित थी। एक बार टालने के लिहाज से विमला के यह कह देने पर कि प्रदीप ज्यादा अच्छा नाम है, दिलीप ने कहा कि प्रदीप हो या दिलीप, नाम में क्या रखा है, कोई कुछ भी नाम रख ले। उसके बाद विमला दिलीप को ’नाम में क्या रखा है’ ही कहकर चिढ़ाया करती। पर वह जमाना दूसरा था, प्रेम का सीधे इजहार किया जाना असंभव नहीं तो कम से कम सरल तो नहीं ही होता था। आंखों के इशारे से बात न बनने पर सुरक्षा का पूरा ध्यान रखकर सहेलियों-मित्रों से ’खून से लिक्खा है सनम, इसे सियाही न समझना’ वाली भाषा का प्रयोग कर लिखवाया गया गड्डमड्ड कागज ही दूसरा आसरा होता था। मां-बाप द्वारा कुल-खानदान देखकर तय की गयी शादियों में इस प्रकार का प्रेम भाप बनकर उड़ जाया करता था और प्रेमी अक्सर डोली या दोना-पत्तल उठाते नजर आते। पर यहां मामला दो संस्कारी परिवारों का था। व्यवस्थापक महोदय गुप्ताजी के बच्चों से एक-आध ही बार मिले थे पर वे गुप्ताजी के संस्कारों से अत्यंत प्रभावित थे इसलिये विमला की शादी उनके परिवार में करना चाहते थे, फिर गुप्ताजी के बच्चे नौकरी तो कर ही रहे थे। व्यवस्थापक महोदय के लिये नौकरी का स्तर मायने नहीं रखता था, संस्कार ज्यादा मायने रखते थे लिहाजा उन्होंने कुंडली मिलाने के विचार से स्कूल के रिकार्ड से बच्चों की जन्मतिथि आदि का विवरण निकलवाकर अभियान की शुरुआत कर दी। जुड़वां होने के कारण दोनों कुंडलियां एक समान थीं पर नाम से मिलवाने पर विमला की कुंडली दिलीप के नाम से मिल गयी। विमला सुनकर शोक में डूब गयी। वह आज भी असली दिलीप को ’नाम में क्या रखा है’ के नाम से मजाक में याद किया करती थी, अफसोस कि वह आज उसी घनचक्कर की पत्नी बनने जा रही थी। गुप्ताजी आमंत्रण मिलते ही ’दिलीप’ यानी असली प्रदीप के साथ देवास पहुंच गये। विमला ’दिलीप’ को देखकर चौंकी तो बहुत पर मन ही मन भारी प्रसन्न हुई। बारात देवास ले जाने में गुप्ताजी को खतरा हो सकता था अतः तय हुआ कि शादी के कार्यक्रम सतना से ही किये जायें। ‘प्रदीप’ के न आ पाने का कारण छुट्टी न मिलना बताकर गुप्ताजी ने शादी संपन्न करायी। ‘प्रदीप’ के सिर वज्र न टूटता यदि गुप्ताजी जानबूझकर चिट्ठी लिखकर उसे इस समाचार से अवगत न कराते। असली दिलीप सोचता कि क्या उसके एक गलत काम की इतनी अधिक सजा जायज है? उसकी हालत ठीक उस मेंढक जैसी हो गयी थी जिसे बच्चे टांग में धागा बांधकर उछाला करते हैं। बस यही सोचकर वह समय काट रहा था कि कभी तो उसका भी समय आयेगा जब वो बाप-भाई से बदला ले सकेगा। पर दुर्भाग्य से ’प्रदीप’ को अभी और भोगना बदा था।
शिशु विद्या मंदिर, देवास में गुप्ताजी के साथ एक और मास्टर साहब, जो स्वभाव से मुंहफट थे, की बेटी सरला गुप्ता उसी स्कूल में दिलीप-प्रदीप से एक कक्षा पीछे विमला के साथ पढ़ा करती थी। सरला बुद्धि से मोटी होने के साथ-साथ भयंकर रुप से स्थूलकाय भी थी पर वह अपने को मोटा न मानकर खाते-पीते घर का होना बताया करती थी। स्कूल के जमाने में विमला के साथ-साथ सरला गुप्ता भी प्रदीप से इकतरफा मौन प्रेम करती थी। मौन इसलिये कि उस जमाने के पिताओं और शिक्षकों को बच्चों को कूटने-जुतियाने के लिये किसी परदे या सुदिन-मुहूरत की आवश्यकता नहीं पड़ती थी, आवश्यकता पड़ती थी तो केवल एक जूते की और खाने वाले एक अदद जीवित शरीर की। बहरहाल, ’दिलीप’ का विवाह हो जाने की खबर मिलते ही सरला की मां के कहने पर मास्टर साहब ने गुप्ताजी को सतना एक चिट्ठी लिखी कि अपनी बच्ची का विवाह वे प्रदीप के साथ चाहते हैं। गुप्ताजी को मास्टर साहब की कन्या के ”सुडौल” शरीर का ध्यान आ गया, उन्हें तो जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी। उन्होंने पूरा विवरण भेजते हुये लिख दिया कि आप एक बार ’प्रदीप’ से जाकर मिल लें, मुझे कोई एतराज नहीं है। मास्टर साहब ने फौरन तीर्थयात्रा का कार्यक्रम बना देहरादून होकर लौटना तय किया। गुप्ताजी ने ’प्रदीप’ को भी लिख दिया कि मास्टर साहब सरला के साथ आ रहे हैं, पसंद आ जाये तो मैं तुम्हारी भी ’जिम्मेदारी’ से मुक्ति पाऊं। सरला को याद करके ’प्रदीप’ के रोंगटे खड़े हो गये। पिताजी न जाने किस जन्म की दुश्मनी निकाल रहे हैं, भाई की शादी इतनी सुंदर विमला के साथ और मेरी उस मोटल्ली के साथ! ’प्रदीप’ को हालांकि अब तक यह समझ आ गया था कि पिता-भाई मुझे भरपूर तंग तो करना चाहते हैं, पर मेरी नौकरी हरना नहीं चाहते। मास्टर साहब को रोका नहीं जा सकता था इसलिये ’प्रदीप’ ने आवश्यक तैयारियां शुरु कर दीं। सबसे पहले घर से बोतलों, सिगरेट के खोखों, गंदे कैलेंडरों को हटाकर हवन-धूप-चंदन तथा भगवान के कैलेंडरों से पाट दिया गया, मास्टर साहब घर भी आ सकते थे। इलाके के सारे मंदिरों का रास्ता पता कर लिया गया। अपने स्टाफ से बचते-मुंह छिपाते गाल पर स्टांप पैड की सहायता से एक काला तिल और माथे पर चंदन लगाकर ’प्रदीप’ ने मास्टर साहब के परिवार का स्वागत किया। सरला ने इस बीच और भी ज्यादा शारीरिक प्रगति कर ली थी पर ’प्रदीप’ ने ऐसा व्यवहार किया जैसे उसे सब पसंद आ रहा हो। दो दिन तक इस मंदिर, उस मंदिर का क्रम चला, इन दो दिनों में गाल के तिल को अमिट बनाये रखना और साथियों-स्टाफ से मुंह चुराये रखना कितना कठिन काम था, यह सिर्फ ’प्रदीप’ जानता था। बाल-बाल वह तब बचा जब खानसामा ने लड़की वालों की उपस्थिति का ख्याल कर साहब के कान में धीरे से कहा, --“सर, आपके गाल में कुछ काला-काला लगा है, मिटा लीजिये।“ ’प्रदीप’ ने उसे किनारे ले जाकर समझाया कि फुंसी के ऊपर दवा लगा रखी है। मुंहफट मास्टर साहब बड़े प्रसन्न थे, उन्हें काम बनता नजर आया, --“ इस लड़के को देखो, संस्कार ये होते हैं! एक इसका नालायक बड़ा भाई है दिलीप, एकदम बेकार, स्कूल में भी लफंगई करता फिरता था और मुझसे पिटता था। पता नहीं कैसे, शादी उसकी जरुर अच्छी जगह हो गयी।“ वापसी का समय नजदीक आने पर ’प्रदीप’ ने कहा कि मेरी तरफ से सब ठीक है पर पिताजी की इच्छा है कि कुंडली यहीं मिला ली जाये तो वरीक्षा का कार्यक्रम भी यहीं हो जाये। ‘प्रदीप’ अकेले मास्टर साहब को लेकर ज्योतिषाचार्य के पास पहुंच गया। ज्योतिषाचार्य ने ’गहन अध्ययन’ करके घोषणा की कि इस विवाह के संपन्न होने से कालसर्प योग से ग्रसित इस कन्या के माता-पिता को मृत्युयोग, कन्या को वैधव्य योग एवं दंपति को निःसंतान योग है। मास्टर साहब की ट्रेन शाम चार बजे थी, वे ग्यारह बजे ही स्टेशन पहुंच गये। ‘प्रदीप’ ने उनके जाने के बाद जो पहला काम किया वह था धन्यवाद देते हुए ज्योतिषाचार्य महोदय का बाकी भुगतान करना, उसके धन में तो वैसे भी ग्रहण लग चुका था।
एक दिन शिशु विद्या मंदिर, देवास के प्राचार्य को एक पत्र मिला जिसमें लेख था कि मैं आपके स्कूल का विद्यार्थी था और इस समय मैं बी.एस.एफ. में अधिकारी के पद पर देहरादून के आसपास तैनात हूं। मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि मेरे पुराने स्कूल के बच्चे टूर प्रोग्राम बनाकर मेरे इलाके में आयें, टूर का पूरा खर्च मैं स्वयं वहन करुंगा। प्राचार्य बड़े प्रसन्न हुये, उन्होंने फौरन गुप्ताजी से बात करके ऐसी औलाद होने की बधाई दी। ‘प्रदीप’ को प्राचार्य का ’जवाबी’ पत्र मिला जिसमें धन्यवाद देते हुये टूर के पूरे प्रोग्राम का वर्णन किया गया था, उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गयी। वह समझ गया कि बाप-भाई की यह नयी शरारत है, उन्हें कोसने के सिवाय वह कर भी क्या सकता था। मरता क्या न करता, सात दिन की छुट्टी तो गयी ही, लगभग छः-सात हजार रुपये की चोट रह-रहकर ’प्रदीप’ को सालती, उसके होश ठिकाने लग चुके थे। उस दिन उसने अपने बाप-भाई के सामने हथियार डाल माफी मांगने का निर्णय अंतिम रुप से ले लिया जिस दिन उसे गुप्ताजी का वह पत्र मिला जिसमें उसकी मां की दुर्घटना में हुई मृत्यु का और जीवन बीमा का क्लेम उनके नॉमिनी ’दिलीप’ को मिल जाने का जिक्र था। ‘प्रदीप’ हक़दार होते हुए भी बड़ी रकम से हाथ धो बैठा था। उसने पिता और भाई दोनों को अत्यंत भावुक पत्र लिखकर अपनी गल्तियों के लिये माफी मांगी। आखिर अपना खून था, माफी मांगने पर दोनों ने ’प्रदीप’ को माफ कर दिया। माफी के पीछे गुप्ताजी की यह सोच भी थी कि ’प्रदीप’ को पर्याप्त दंड भी मिल चुका है और इस बीच उसने भयंकर आर्थिक नुकसान भी झेला है।
गुप्ताजी बुलंदशहर आये हुये थे, उनके बड़े साढ़ूभाई की मृत्यु हो गयी थी। तेरहवीं के पहले एक दिन उनकी निःसंतान विधवा साली ने अपने पति की अंतिम इच्छा बताकर अपनी सारी संपत्ति गुप्ताजी के बड़े लड़के दिलीप के नाम वसीयत करने की बात की। थोड़े चिंतन के बाद स्वभाव के सरल गुप्ताजी ने अपनी साली को आदि से अंत तक सब कुछ सही-सही बता दिया कि दिलीप अब ’प्रदीप’ बन चुका है और उन्होंने व ’दिलीप’ ने उसे माफ भी कर दिया है। गुप्ताजी ने यह भी बताया कि देवास वाले घर की लगभग पूरी किश्तें ’प्रदीप’ ने ही भरी हैं, एजूकेशन लोन भी पूरा उसी ने पटाया है। बीमा की किश्तें भी ’प्रदीप’ ने ही भरी हैं पर उसमें दिक्कत इसलिये नहीं है क्योंकि पॉलिसी प्रदीप गुप्ता के नाम होने से मैच्योरिटी एमाउंट ’प्रदीप’ को ही मिल जायेगा। यह सब बताकर गुप्ताजी ने साली साहिबा पर फैसला छोड़ते हुये कहा, --“अब जैसा आपको ठीक लगे, करें।“ साली साहिबा से प्रेरित होकर गुप्ताजी ने भी अपनी सारी संपत्ति की वसीयत करने का फैसला कर डाला। साली साहिबा और गुप्ताजी, दोनों ने एक दिन बुलंदशहर के ही एक वकील के पास जाकर अपनी-अपनी सारी संपत्तियों की वसीयत कर दी एवं कागजात गुप्ताजी के सतना के बैंक के लॉकर में सुरक्षित रखवा दिये गये। यह सही है कि मौसी और पिता द्वारा की गयी वसीयत की जानकारी दोनों भाइयों को नहीं थी।
छः महीने बाद संयोग कुछ ऐसा हुआ कि उधर गुप्ताजी की साली साहिबा स्वर्ग सिधारीं, इधर गुप्ताजी को हार्ट अटैक पड़ गया। जब तक ’प्रदीप’ सतना आ पाता, तीसरे दिन गुप्ताजी की भी मृत्यु हो गयी। ‘प्रदीप’ छोटे भाई ’दिलीप’ के गले लगकर बहुत रोया। उसने स्वीकार किया कि उसने जो भी कष्ट भोगे, अपनी गलत प्रवृत्ति के कारण भोगे पर उसे सबसे अधिक दुःख इस बात का था कि उसने पिता द्वारा दिये गये नाम को बदल डाला था। ‘प्रदीप’ ने तय कर लिया था कि पिता की मृत आत्मा की शांति के लिये वह अपना मूल नाम फिर से रखेगा, बहुत समझाने और पिता-दादी का वास्ता देने पर ’दिलीप’ भी पूर्ववत् नाम रखने के लिये तैयार हो गया। लंबी औपचारिकतायें पूरी करने के बाद अंततः ’प्रदीप’ फिर से दिलीप बन गया और ’दिलीप’ फिर से प्रदीप। रिकार्ड में नया नाम चढ़वाते-बदलवाते तीन-चार माह का समय और बीत गया।
बैंक से लॉकर के किराये की नोटिस आयी तो प्रदीप ने लॉकर खोला। वसीयत देखकर वह चौंक गया क्योंकि पिता व मौसी दोनों ने अपनी-अपनी सारी संपत्तियां प्रदीप तनय शिव प्रसाद गुप्ता के नाम कर दी थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि हंसे या रोये। संयोग से उसी दिन प्रदीप को प्रदीप के नाम की बीमा पॉलिसी के मैच्योर होने की सूचना प्राप्त हुई जिसका जीवन भर प्रीमियम उसके बड़े भाई ’प्रदीप’ ने भरा था। उसकी बड़े भाई को यह सब बताने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि आप सही कहा करते थे कि नाम में क्या रखा है, भाग्य बड़ी चीज है!
Copyright : Sudhir Kamal/XIX1212/MP