Mahamaya - 10 in Hindi Moral Stories by Sunil Chaturvedi books and stories PDF | महामाया - 10

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महामाया - 10

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – दस

सुबह का वक्त था। बाबाजी संत निवास के बाहर वाले चबूतरे पर बैठे थे। वह दूर कहीं शून्य में देखते हुए अंगुलियों से अपनी दाढ़ी के बालों को सुलझा रहे थे। वानखेड़े जी बाबाजी के दांयी ओर खड़े माला फिराने में व्यस्त थे। भक्त जैसे ही प्रणाम करने के लिये बाबाजी के पैरों की तरफ बढ़ते, संतु महाराज यह कहते हुए उन्हें पीछे धकेल देते कोई बाबाजी को छुए नहीं, दूर से प्रणाम करें। भक्त ठिठक जाते और दूर से ही बाबाजी को प्रणाम कर नीचे बिछे फर्श पर बैठ जाते। बाबाजी भक्तों की उपस्थिति से बेखबर अपने में ही लीन थे। उनकी आँखे मूंद चुकी थी।

कुछ देर बाद बाबाजी ने धीरे से अपनी आँखे खोली और मुस्कुराते हुए नीचे बैठे भक्तों पर नजर घुमायी। भीड़ में एक चेहरे पर नजर जमाते हुए बाबाजी ने पूछा ‘‘कैसे हैं आप।’’ यह एक प्रौढ़ व्यक्ति था। अप्रत्याशित रूप से बाबाजी की नजर अपने चेहरे पर जमते देख वो अचकचा गया। लगभग हकलाते हुए उसके मुंह से इतना ही निकला-

‘‘आपकी कृपा हैऽऽऽ’’

‘‘तुम्हारी परेशानी का हल जल्दी ही निकल जायेगा’’ कहते हुए बाबाजी ने पास में रखी फूलों की कलियों में से एक कली को उठाया। कुछ बुदबुदाते हुए हल्के से अपने दोनों होंठो से छुआ। कली खिल उठी। इस बीच प्रौढ़ अपने स्थान से उठकर दोनों हाथ फैलाये घुटनों के बल बाबाजी के सामने बैठ गया। बाबाजी ने खिला हुआ फूल प्रौढ़ के अंजुरी के रूप में जुड़े दोनों हाथों में रखा और फिर से आँखे मूंद ली।

इसके बाद तो सिलसिला शुरू हो गया। बाबाजी आँखे खोलते किसी एक पर नजर ठहरती वो लपककर बाबाजी के सामने हाथ फैलाकर बैठ जाता। बाबाजी कली उठाते... कुछ बुदबुदाते हुए अपने होंठो से छूते.... कली फूल बन जाती और नीचे बैठा भक्त धन्य-धन्य हो जाता।

लोग चमत्कृत थे। फूल के रूप में बाबाजी की कृपा भक्तों तक पहुँच रही थी। थके चेहरे पर प्रसन्नता लौट रही थी।

इस बार भक्तों में बैठी एक युवती पर नजर ठहराते हुए बाबाजी ने कहा-

‘‘कुछ पूछना चाहती हो बेटे’’

‘‘नहींऽऽ जी बाबाजी’’ नवयुवती ने सकपकाते हुए दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जोड़ दिये।

‘‘तुम्हारे मन में कुछ चल रहा है’’

‘‘जी बाबाजी,’’ मैं जानना चाहती थी कि क्या सही में ईश्वर होता हैं?’’

बाबाजी ने युवती को ऊपर से नीचे तक देखा फिर आँखें बंद कर ली। कुछ देर बाद बाबाजी ने आँखें खोलते हुए ईशारे से युवती को अपने करीब बुलाया। लड़की बाबाजी के सामने घुटनों के बल बैठ गई। बाबाजी ने लड़की के सिर पर हाथ फिराते हुए कहा ‘‘आज मेरी खोज पूर्ण हुई।’’ सब लोग हतप्रत थे। युवती अचंभित थी। बाबाजी थोड़ा रूककर गंभीर आवाज में बोलने लगे।

‘‘बेटे यह तुम नहीं तुम्हारा प्रारब्ध बोल रहा है। तुम्हारे पिछले र्कइं जन्मों की खोज बोल रही है।’’

युवती पहले तो संशय में थी लेकिन अब बाबाजी की बातों ने उसे रहस्य में ढकेल दिया था।

बाबाजी ने अपने दोनों हाथों से उसकी ठोड़ी को छुते हुए कहा-‘‘यह एक जन्म का मामला नहीं है बेटे ये कई जन्मों की कहानी है।’’ कहते हुए बाबाजी ने अपना सिर कुर्सी पर टिका लिया। फिर आँखें बंद कर ऐसे बोलने लगे जैसे कहीं दूर देखकर बोल रहे हो। ‘‘तीन जन्म पूर्व तुम पाली थी। एक नृत्यांगना लेकिन तुम्हारे अंदर सच्चे भक्त के संचित संस्कार थे। इसलिये तुमने अपने जीवन के मध्यकाल से अंत तक सिर्फ भगवान के दरबार में ही नृत्य किया।

तुम्हारा दूसरा जन्म एक राज परिवार में हुआ। तुमने अपने इस जीवन में कई मंदिर बनवाये, खूब दान पुण्य किया, महारानी होते हुए भी तुमने अपना जीवन एक जोगन की तरह बिताया।

‘‘तीसरे जन्म में तुम एक योगिनी थी। हिमालय की कन्दराओं में गहन तपस्या में लीन एक योगिनी। लेकिन तुमसे एक त्रुटि हुई। तुमने गुरू के समक्ष पूर्ण समर्पण नहीं किया। जीवन भर गुरू के प्रति मन में संशय रखा। उसी के परिणाम स्वरूप तुम्हंे इस जन्म में अपने पिछले जन्मों का कोई भान नहीं है। गुरू के श्राप से ही तुम अपना सारा तप भुला बैठी हो। गुरू के आशीर्वाद से ही तुम्हे फिर से अपना तप याद आ सकता है।’’ कहते हुए बाबाजी ने चेहरे पर एक स्थिर मुस्कान के साथ आँखें खोली। दोनों हाथों से युवती का चेहरा ऊपर उठाया और उसके माथे को चूम लिया।

वहाँ उपस्थित सारे लोगों की आँखों में गहरा आश्चर्य और चेहरे पर कौतुहल था। बेमटे जी ने माला घुमाते-घुमाते ही अपने दोनों हाथ माथे तक ले जाकर जोड़ दिये। फिर ऊँचे स्वर में बुदबुदाये-

‘‘जय हो लीलाधारी की...’’

सामने बैठे भक्तों के हाथ यंत्रवत् जुड़े और सिर प्रणाम की मुद्रा में नीचे झुक गये। युवती सन्नाटे में थी।

अखिल और अनुराधा भी पीछे बैठ थे। अखिल ध्यान से बाबाजी की बातें सुन रहा था। बाबाजी के चुप होते ही उसने बाबाजी से प्रश्न किया-

‘‘बाबाजी मेरे मन में धर्म और संतो को लेकर बार-बार संशय उठता है, ऐसा क्यों ?’’

‘‘बेटे विचार, मन और बुद्धि का व्यापार है, विचार ही संशय है बेटा।

असल में जो हम नहीं देख पाते वो ही हमारे अंदर संशय पैदा करता है। इसका मतलब यह नहीं है कि जो हम नहीं देख पा रहे हैं वो है ही नहीं। जिसका मतलब हमारी दृष्टि नहीं समझ पा रही वो सब मिथ्या है। इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। ध्यान से दृष्टि के सामने पड़ा आवरण समाप्त होता है। जब एक बार आवरण हट जाता है तो फिर संशय समाप्त हो जाता है। यह एक प्रक्रिया है। इसमें घबराने जैसी कोई बात नहीं है।

मेरे मन में भी तुम्हारी तरह... इस लड़की की तरह... संशय थे। लेकिन जब ज्ञान का उदय हो जाता है तो संशय की सत्ता शेष नहीं रहती।

इसी बीच जग्गा एयरपोर्ट से एक साध्वी को लेकर मंदिर पहुँचा। साध्वी सीधे गाड़ी से उतरकर बाबाजी के पास पहुँची। बाबाजी ने खड़े होकर साध्वी को गले लगाया। विदेशी रंग और बंगाली नाक-नक्श वाली यह साध्वी पैंतीस-चालीस के आसपास थी। इनका नाम श्रीमाता था। बाबाजी श्रीमाता को लेकर अंदर कमरे में चले गये। बाबाजी के अंदर जाते ही लोग भी एक-एक कर उठने लगे। संतु महाराज भी दस बजे हवन प्रारंभ होने की सूचना देकर यज्ञशाला की ओर चले गये। कुछ लोग चबूतरे पर खड़े चर्चारत थे।

अखिल तीन जन्मों की कहानी के बारे में सोचता हुआ भोजनशाला की ओर चल दिया। अनुराधा भी उसके साथ थी।

भीड़-भाड़, हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा, गाना-बजाना, खाना-पीना, किस्से-कहानियाँ, ढोल-मंजीरे, ध्यान-योग...यज्ञ और समाधि का उत्सवी रंग जमने लगा था।

अंधेरा गहरा चुका था। बाहर ठंडक थी। ज़्यादातर लोग प्रवचन हॉल में वानखेड़े जी को घेरकर बैठे थे। कुछ लोग बाबाजी से अपनी समस्या का निदान नहीं पूछ पाये थे, वे वानखेड़े जी से पूछ रहे थे। वानखेड़े जी ने भक्तों की समस्याओं से किनारा करते हुए अपनी ही तान छेड़ दी।

‘‘भैया आज तो गजब हो गया’’

‘‘क्या हुआ महाराज’’ एक महिला ने जिज्ञासा प्रकट की।

‘‘हम और तुम्हारी चाची, मुख्य हवन कुण्ड मे आहुति दे रहे थे। तुम्हारी चाची ने हमारे कान में कही ‘‘आज अग्नि नेक ठंडी-ठंडी सी है। झार नहीं पड़ रही। बाबाजी ठहरे अंर्तयामी... तुम्हारी चाची के मन की बात ताड़ गये। ‘‘बस भैया फिर तो वो चमत्कार हुआ कि... अब क्या कहें तुमसे...’’ कहते -कहते वानखेड़े जी ने अपनी आँखें मूंद ली।

प्र्रवचन हॉल में सन्नाटा था। सब आँखें फाड़े वानखेड़े जी को सुन रहे थे। वानखेड़े जी ने पलभर में ही आँखें खोली और फिर से कहने लगे...

बाबाजी ने एक मुट्ठी हवन सामग्री हाथ में ली। कुछ मंत्र पढ़े। मुंह से फूंक मारी। फिर जैसे ही उन्होंने हवन सामग्री हवन कुण्ड में डाली कि चमत्कार हो गया। फट्ट देनी से अग्नि प्रज्वलित हुई और 20 फुट ऊपर उठकर शांत हो गई। कोई कुछ नहीं समझ पाया। पर तुम्हारी चाची उसी बखत बाबाजी के पैरों में लुढ़क गई। हम कुछ समझ नहीं पाये। बाबाजी ने कुछ मंत्र पढ़े। तुम्हारी चाची के चेहरे पर पानी के छिंटे मारे। तब उन्हें होश आया। हमने जब तुम्हारी चाची से पूछी कि ‘‘क्या हुआ’’ तो उनने हमसे इतना ही कहा कि ‘‘हमारा जनम तो सफल हो गया गुड्डू के पापा अग्नि देवता के साक्षात् दर्शन हो गये। फिर अचीती हो गई। तब से अचीती ही है’’ वानखेड़े जी ने अपनी बात समेटते हुए फिर से दोनों हाथ जोड़ लिये। आँखें बंद की और बुदबुदाने लगे ‘‘जय गुरूदेव...’’

सभी भक्तों के चेहरों पर श्रद्धा के भाव तैर गये। जो उस समय यज्ञ में मौजूद थे उनके चेहरों पर गर्व का भाव आ गया। जो वहाँ मौजूद नहीं थे उनके मन में गहरी टीस उठी।

भक्तों के बीच शुरू हुई फुसफुसाहट बातचीत में तब्दील हो गई। कुछ लोग जो यज्ञ में मौजूद थे उन्होंने अग्नि देवता के दर्शन की पुष्टि की।

‘‘हमने उस लौ में एक देवता को देखा था। सुंदर किनारीदार पीली धोती, गले में लाल रंग का उत्तरीय, कंधे तक झुलते घुंघराले बाल, माथे पर रत्नजड़ित मुकुट, गले में मोतियों की माला, अंगुलियों में रत्नजड़ित अंगुठियां, हाथ आशिर्वाद की मुद्रा में। बस एक झलक ही देख पाये भैया। फिर सब अलोप’’

‘‘देवताओं के चेहरे पर इतना तेज रहता है कि उनकी ओर देख पाना सब के बस की बात नहीं है। तुमने एक झलक देख ली ये क्या कम है।’’ दूसरे ने सराहते हुए कहा।

‘‘सही कह रहे हो मदन भाई। वो देखो वानखेड़े चाची को बिचारी बेहोंश हो गई। तीसरे ने दूसरे की बात की पुष्टि की।

‘‘सही है...सही है बहुत तप चाहिये देवता के दर्शन के लिये या फिर बाबाजी जैसे संत का आशिर्वाद। वानखेड़े जी अपनी राय जड़ते हुए उठे और माला फिराते-फिराते यह कहकर अपने कमरे की ओर चल दिये ‘‘देखें तुम्हारी चाची को होंश आया कि नहीं’’

वानखेड़े जी के साथ ही बाकि लोग भी उठकर इधर-उधर चले गये।

अग्नि देवता के दर्शन वाली बात जंगल की आग की तरह शहर में फैल गई। लोग सुबह मंदिर प्रांगण में जमा होने लगे। बाबाजी लगभग साढ़े सात बजे के आसपास संत निवास से बाहर आये। महायोगी महामण्डलेश्वर की जय के उद्घोष से प्रांगण गूँज उठा। लोग प्रणाम करने के लिये बाबाजी के करीब आने लगे। कुछ अपनी समस्याओं के समाधान के लिये फूल पाना चाहते थे। लेकिन संतु महाराज की उद्घोषण ने सभी को निराश कर दिया। ‘‘आज बाबाजी किसी से बात नहीं करेंगे। आप सिर्फ दर्शन कर लें।’’

लोग बाबाजी को प्रणाम कर आगे बढ़ जाते। बीच में कुछ लोगों ने अपनी समस्याएँ कहने का प्रयास किया तो संतु महाराज ने उन्हे झिड़क दिया। प्रणाम करने के लिये भीड़ बढ़ती जा रही थी। चार-पाँच साधुओं ने चबूतरे के नीचे ही भीड़ को रोक दिया।

लेकिन एक बुढ़िया ना जाने कैसे बाबाजी के पास पहुँच गयी और उनके पैर पकड़कर प्रलाप करने लगी। ‘‘गुरू महाराज हम पापी हैं....... हमें तार दो........। हमें भी देवता के दर्शन करा दो महाराज’’

‘‘तुम्हारा प्रारब्ध तो जागे, तुम्हे भी देवता के दर्शन हो जायेंगे।’’ बाबाजी मोघे और पठारे को समाधि की तैयारियों के लिये निर्देश देने लगे।

बुढ़िया को बाबाजी की बात समझ में नहीं आई थी। वह फिर से प्रलाप करने लगी। वानखेड़े जी ने उसे टोंका-

‘‘सुना नहीं अम्मा बाबाजी ने क्या कहा, जब प्रारब्ध जागेंगे तो दर्शन हो जाएँगे’’

‘‘पर महाराज प्रारब्ध कैसे जागेंगे?’’ बुढ़िया ने बाबाजी के पैर छोड़ वानखेड़े जी के सामने कोहनी तक अपने हाथ जोड़ते हुए अनुनय भरे स्वर में पूछा।

‘‘बाहर से बाबाजी का एक फोटो ले लो, रोज सुबह दर्शन करना। तुम्हारे सारे पाप मिट जायेंगे, और फिर देवता खुद प्रसन्न होकर तुम्हें दर्शन देंगे।’’

‘‘सच्ची महाराज’’ बुढ़िया ने उत्साहित होते हुए पूछा।

‘‘हाँ सच्ची...’’ अब जाओ जाकर जग्गा भैया से बाबाजी का फोटो ले लो’’

‘‘हओ महाराज अभी लिये लेते हैं’’ कहते हुए बुढ़िया किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह जग्गा को ढूंढने चल दी। बाहर बढ़ती भीड़ को देख बाबाजी संत निवास में चले गये। वानखेड़े जी, मोघे, पठारे, अखिल, अनुराधा भी उनके पीछे अंदर चले गये।

क्रमश..