जय श्रीकृष्ण बंधुजन!
भगवान श्रीकृष्ण की अपार कृपा से मैं आप सभी बंधुजनों के लिए श्रीमद्भगतगीता जी के चौथे अध्याय को लेकर उपस्थित हूँ। आप सभी बंधु जन इस अध्याय को भी अपने प्रेम से सिंचित करके मेरा मनोबल बढ़ाये और आप सभी बंधु जन भी श्रीगीताजी के इस माहात्म्य का फल प्राप्त कर अपने आप को और अपनों को अनुग्रहित करे! श्री गीताजी और ईश्वर से यही कामना करता हूँ की ईश्वर आप सभी को ओ सारी खुशियां प्रदान करे जिनकी आपको अभिलाषे है।
जय श्रीकृष्ण!
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🙏श्री मद्भावतगीता अध्याय -४🙏
श्रीकृष्ण भगवान बोले- इस अविनाशी कर्म योग को मैंने सूर्य से कहा, सूर्य ने मनु से कहा और मनु से राजा इक्ष्वांकु से कहा। है अर्जुन! इस परम्परा से प्राप्त यह योग सब राजर्षियों ने जाना परन्तु अधिक काल व्यतीत होने से यख लुप्त हो गया। यह प्राचीन योग आज तुमको मैंने बताया है क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो, यह योग रहस्य अति उत्तम है अर्जुन कहने लगे- आपका जन्म तो अभी हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत दिन पहले हुआ था, में किस प्रकार मानूं कि आपने सूर्य को यह बताया था? श्रीकृष्ण भगवान बोले- है अर्जुन ! मेरे और तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं, मुझे वह याद है, तुम भूल गए हो। में जन्म से रहित, अविनाशी, सम्पूर्ण प्राणियों का स्वामी, अपनी प्रकृति में स्थिति हूं तथापि अपनी माया से जन्मता हूं। है भारत! जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का प्राबल्य हो जाता है, तब-तब ही मैं जन्म लेता हूं। मैं साधुओं की रक्षा , पापियो का विनाश और धर्म की स्थापना करने के लिए प्रत्येक युग में जन्मता हूँ। जो मेरे इस अलौकिक जन्म और कर्म का तत्व जानता है, वह मृत्यु होने पर फिर जन्म नहीं लेता और मुझमें लीन हो जाता है। इस भाँति मोह , भय और क्रोध को त्याग कर मुझमें भक्ति करके और मेरी शरणागत हो बहुत से मनुष्य ज्ञान-रूपी तप से पवित्र होकर मुझमें मिल गए हैं। जो जिस भाव से मेरा पूजन करता है उसको मैं उसी प्रकार फल देता हूँ। है पार्थ! मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं अर्थात वह चाहे जिसकी सेवा करें वह मेरी ही सेवा है। मनुष्य लोक में कर्म सिद्धि की इच्छा करने वाले लोग देवताओ को पूजन करते हैं। क्योंकि इस लोक में कर्म सिद्धि शीघ्र होती है मैंने चारो वर्णों की सृष्टि अपने-अपने गुण और कर्म से की है, सृष्टि का कर्ता में ही हूँ तथापि मुझे अकर्ता अविनाशी जानो कर्म मुझको बद्ध नहीं कर सकते तथापि कर्म फल में मेरी कामना नहीं है। इस प्रकार जो मुझको पहचानता है वह कर्मों के बन्धन में नही पड़ता। इस प्रकार समझकर प्राचीन मुमुक्षुओं ने भी कर्म किये हैं, अतः एव पूर्व पुरुषों के पहले ही किए हुए को तू भी कर। हे अर्जुन! कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इसके विचार में विद्वान की बुद्धि भी चकरा जाती है। उसी कर्म का वर्णन मैं तुमसे करूँगा जिसके जानने से संसार के बंधन छूटकर मोक्ष के भागी होंगे । कर्म, विकर्म और अकर्म तीनो को जानना आवश्यक है क्योंकि कर्म की गति गम्भीर है। जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वही पुरुष बुद्धिमान है, वही योगी और समस्त कार्यों का करने वाला हैं।हे अर्जुन! जिसे कर्म करने की कोई कामना नहीं रहती, और जिसके समस्त कर्म ज्ञान रूपी अग्नि से भस्म (निर्मल) हो गये हैं उसी को पंडित कहते हैं। जो कर्म, फल की आशा छोड़कर करता है और उनमें आसक्ति भी नहीं रखता और निराश्रय में ही सदा संतुष्ट रहता है, ऐसा मनुष्य कर्मों में घिरा रहने पर भी मानो कुछ नहीं करता है। जो सब कामनाओं को त्याग मन और आत्मा को वश में कर संसारी झगड़ों से छूटकर केवल शरीर से कर्म बन्धनों से संतापित नहीं होता, दैवयोग से जो कुछ मिल जाय उसी पर जो संतुष्ट रहता है जो हर्ष शोक आदि द्वन्दों से मुक्त है तथा किसी से ईर्ष्या नहीं करता, कर्म की सिद्धि या असिद्धि में भेद नहीं समझता वह कर्म करता हुआ भी उस में नही बंधता। जो फल की इच्छा नहीं रखता, वासना से दूर हो गया है ज्ञान में जिसका मन अचल है और जो यज्ञ के कर्म करता है, वे सब कर्म लुप्त हो जाते हैं। हवन करने का पदार्थ भी ब्रम्हा है आहुति देने वाला भी ब्रम्हा है। इस प्रकार जिस बुद्धि में सब काम ज्ञानमय है उसको ब्रम्हा प्राप्त होता है। कोई-२ कर्मयोगी देवताओं की पूजा करते हैं और कोई ज्ञानयोगी ब्रम्हारूप अग्नि में यज्ञ रूप से हवन कर परमात्मा का भजन करते हैं।कोई ऐसे हैं कि जो अपनी इन्द्रियों को तथा सब कर्मों को संयम रूप से अग्नि में होम देते हैं और कितने ही इन्द्रिय रूप अग्नि में इन्द्रियों के रूप शब्दादि विषयों को होम देते हैं। कितने ही लोग इन्द्रियों के सब कर्मों को और प्राणों के कर्मों को आत्म-ज्ञान से प्रज्वलित संयम रूप अग्नि में होम देते हैं। कोई तो द्रव्य यज्ञ करते हैं, कोई तप यज्ञ, कोई योग यज्ञ कोई स्वाध्याय और कोई ज्ञानरूप यज्ञ करते हैं और कोई प्राणायाम में तत्पर रहने वाले योग, प्राण और अपानवायु में प्राण को रोकते हैं और प्राणवायु से आपन वायु को लय करते हैं। कोई आहार को निरन्तर काम करके प्राण को होमते हैं, वे सब यज्ञवेत्ता हैं और यज्ञ ही से इनके सब पाप नाश हो जाते हैं। यज्ञ में बचे हुए अमृत रूप अन्त को खाते हैं वे सनातन ब्रम्हा को प्राप्त होते हैं। है अर्जुन! इस प्रकार के बहुत से यज्ञ नहीं करते है उनको यह लोक परलोक दोनों ही हैं। इस प्रकार के बहुत से यज्ञ वेद में विस्तार सहित वर्णित हैं।इन सबको कर्म से उत्पन्न हुए जानो, इनको जानने से तुम मोक्ष को प्राप्त होंगे। परन्तप! द्रव्य-मय यज्ञ से ज्ञान उत्तम है। हे पार्थ! फल सब कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं सो उस ज्ञान का त्वदर्शी और ज्ञानी लोग तुमको उपदेश करेंगे। इसलिये तुम उनकी सेवा करना और उनसे विनम्र पूर्वक प्रश्न करके ज्ञान-यज्ञ जानना। इस ज्ञान को लाभ करके तुमको ऐसा मोह फिर नहीं होगा, ज्ञान से समस्त प्राणियों को तुम अपने में और मुझमें भी देखोगे। यदि सब पापियों से भी अधिक पाप। करने वाले हो तो भी ज्ञानरूपी नौका से ही सब पाप रूपी समुद्र पार कर जाओगे । है अर्जुन! जिस प्रकार प्रज्वलित अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म कर डालती है इस लोक में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ भी नहीं है, यह ब्रम्हा बहुत काल पर्यन्त कर्मयोग से सिद्ध हुए पुरुषों को अपने ही प्राप्त होता है। जो श्रद्धावान पुरुष इन्द्रियों को जीतकर ब्रम्हा में लगा रहता है। वह ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को पाकर अल्प समय में शान्ति को पा जाता है। अज्ञानी, श्रद्धा रहित और जिनके मैन में संदेह है ऐसे जो पुरुष हैं, वह नष्ट हो जाते हैं। जिनके मैन में सदा संदेह रहता है उनको यह लोक परलोक और सुख कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। जिसने परमेश्वर आराधना और निष्काम कर्मयोग के आश्रय से कर्म बंधन त्याग दिए हैं, और ज्ञान से जिसके संदेह डोर हो गए हैं, है अर्जुन! अज्ञान से उत्पन्न हुवे चित्त के इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार के काटकर मेरे बताये हुये कर्म योग को करने के लिये प्रस्तुत हो जाओ।
श्रीमद्भगवद्गीता चौथा अध्याय समाप्तम्
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🙏अथ चौथे अध्याय का महातत्म्य🙏
भगवान बोले- है लक्ष्मी! जो पुरुष श्री गीताजी का पाठ करते हैं उनके स्पर्श-मात्र से अधम देह से छूटकर मुक्ति को प्राप्त होता है। लक्ष्मी जी ने पूछा- है महाराज! श्रीगीताजी के पथ करने के साथ छूकर कोई जीव भी मुक्त हुआ है? तब श्री भगवानजी ने कहा - है लक्ष्मी! तुमको मुक्त हुए की एक पुरातन कथा सुनाता हूँ। भागीरथी गंगाजी के तट पर श्रीकाशी नगर है। वहा एक वैष्णव रहता था वह गंगा जी में स्नान कर श्रीगीताजी के चौथे चौथे अध्याय का पाठ किया करता था एक दिन वह साधु वन गया, वहां बेरिया के दो वृक्ष थे उनकी बड़ी छाया थी वह साधु वहां बैठ गया और बैठते ही उसको निंद्रा आगई एकबेरी से उसके पांव लगे और दूसरी के साथ उसका सिर लग गया । वह दोनों बेरिंया आपास में काँपकर पृथ्वी पर गिर पड़ी उनके पत्ते सुख गये। वह दोनों बेरियाँ ब्राम्हण के घर जा पुत्रियां हुईं, है लक्ष्मी! बड़े उग्र पुण्यों कर मनुष्य देह मिलती है फिर ब्राम्हण के घर जन्म लेकर उन दोनों लड़कियों बे तपस्या करनी आरम्भ की जब वह दोनों बड़ी हुई तब उनके माता पिता ने कहा- हे पुत्रियों! हम तुम्हारा विवाह करतें हैं। तब उन दोनों ने माता पिता से कहा हैम विवाह नहीं करतीं । उनको अपने पिछले जन्म की खबर थी। वह जातीं में सूंदर जन्मी थीं। उन्होंने ने कहा एक हमारे मन मे कामना है परमेश्वर वह पूर्ण करे तब बहुत भली बात है।उनके मन मे यही था कि वह साधु जिसके स्पर्श करने से अधम देह छूटकर यह देह मिली है वह मिलें तब बहुत भली है। इतना विचार कर उनदोनों लड़कियों ने माता पिता से तीर्थ यात्रा करने की अनुमति मांगी तब माता पिता ने तीर्थ यात्रा की आज्ञा दी। कहा तुमको ओरमेश्वर जी की आज्ञा है। तब उनदोनों कन्याओं ने माता-पिता की चरण-वंदना करके गमन किया। तीर्थ यात्रा करती बनारस पहुँची वहां जाक4 देखा वह तपस्वी बैठा है जिसकी कृपा से वे बेरी की देह से छूती हैं। तब दोनों कन्याओ ने चरण वंदना करके विनय करी- है सन्तजी! धन्य हो आपने कृतार्थ किया है तब उस तपस्वी ने कहा तुम कौन हो? में तुमको नही पहचानता। कन्याओ ने कहा - हैम आपको पहचानती हैं हम पिछले जन्म में बेरियों की योनि में थीं, तुम एक दिन वन में आएं तुमको बहुत धूप लगी थी तब बेरियूओ की बैठे। लंबासन होने से एक बेरी को आपके चरण लगे दूसरे को सिर लगा। उसी समय हमारी बेरी की देह से मुक्ति हुईं। आब ब्राम्हण के घर मे जन्म लिया है ब्रम्हाणी हैं, बड़ी सुखी हैं। तुम्हारी क्रिया से हमारी गति हुई। तब तापसवीं ने कहा मुझे उस बात की खबर नहीं थी अब तुम आज्ञा करो तुम्हारी क्या सेवा करूं तुम ब्राम्हण उत्तम-जन्म श्रीनारायणजी का मुख हो। तब उन कन्याओ ने कहा- हमको श्रीगीताजी के चौथे अध्याय का फल दान करो जिसका फल पाकर हम देव देहि पाकर सुखी हों। तब उस तापसवीं ने चौथे अध्याय के पाठ का फल दिया। देते ही उसको कहा कि तुम आवागामन से छूट जाओ। ई5ना कहते ही आकाश से विमान आये और उन दोनों ने देवदेही पाकर बैकुंठ को गमन किया फिर तापसवीं ने कहा मैं नहीं जानता था कि श्रीगीता जी चौथे अध्याय का ऐसा माहात्म्य है तब वह मन, वचन, कर्म कर नित्य पररि पाठ करने लगा तब श्रीनारायणजी ने कहा- है लक्ष्मी! यह चौथे अध्याय का महात्म्य है जो तुमको सुनाया है।
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💝~Durgesh Tiwari~