Kuber - 40 in Hindi Moral Stories by Hansa Deep books and stories PDF | कुबेर - 40

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कुबेर - 40

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

40

भाईजी जॉन ने एक सुझाव दिया डीपी को, छोटा-सा अवकाश लेने का। विचार बुरा नहीं था क्योंकि पिछला बीता हुआ समय ऐसा था जो दिमाग़ की नसों को ख़ूब खींच कर, दम निकाल कर बीता था। बीते दिन बहुत तनावों से भरे दिन थे। वे दिन बीत तो गए थे पर अपनी छाप हमेशा के लिए छोड़ गए थे। भाईजी का कहना था – “थोड़ा-सा बदलाव मानसपटल के लिए बेहतर होगा।” एक आराम के लिए एक विराम लेने का विचार अच्छा था।

अब, जब सब कुछ वापस सामान्य हो गया था तो डीपी को थोड़ा आराम देने के लिए भाईजी ने लास वेगस शहर जाकर छोटा-सा अवकाश लेने की योजना बनायी। जॉन और डीपी बस दो लोग ही जाएँ व घूम-फिर कर वापस आ जाएँ। इसके लिए भाभी और ताई की इजाज़त आसानी से मिल गयी। अब तो ताई को वहाँ की जीवन शैली की हर बात मालूम थी। कुछ दिन धीरम के साथ अकेले रहने में उन्हें किसी तरह की कोई परेशानी नहीं थी।

भाईजी ने लास वेगस शहर इसलिए भी चुना था कि डीपी के लिए वह सब देखना एकदम नया होगा। कसिनो के शहर में जाने से नयी दुनिया को देखने के साथ मनोरंजन के नये पहलुओं को पहचानने में मदद मिलेगी। अपनी बीती हुई कठिनाइयों को भुला देने के लिए उस शहर के जीवन की धड़कनों से रूबरू होगा। वे जानते थे कि इस संकट से उबर तो गए थे, आगे तो बढ़ गए थे पर बीते कल की असफलता अभी भी दिमाग़ पर हावी थी। इसके लिए मन बदलना था, जगह भी बदलनी थी और एक छोटा-सा विराम लेना था जो शायद नयी ताज़गी लाने के लिए ज़रूरी था।

डीपी के लिए यह एक नया अनुभव होने वाला था। अब तक वह जहाँ भी गया था काम से ही गया था। बचपन में भी और बड़े होने के बाद भी। कभी आज की युवा पीढ़ी की तरह क्लब नहीं गया, न कभी नैन के अलावा किसी लड़की को आँख उठा कर भी देखा। पहली बार काम से अलग अपने लिए समय देने का मौका था। कुछ रोमांच था, कुछ चिन्ता भी थी। उसकी अनुपस्थिति में काम का नुकसान भी था परन्तु वही स्थिति भाईजी जॉन की भी तो थी। अगर भाईजी उतना सब कुछ अपनी टीम के भरोसे छोड़ सकते हैं तो डीपी क्यों नहीं छोड़ सकता, कोई अगर-मगर नहीं हुआ। किसी आकस्मिक घटना की स्थिति में कारोबार सामान्य रूप से चलता रहे, ऐसी तैयारी हर टॉप प्रबंधन को रखनी ही चाहिए। देखा जाए तो यह अवकाश ऐसी ही पूर्व तैयारी की परीक्षा भी था।

दोनों अपने-अपने एक छोटे से बैग के साथ रवाना हुए। तय किया गया था कि काम की कोई बात नहीं होगी, भरपूर मस्ती होगी। हम घूमेंगे-फिरेंगे और वापस लौट कर ही सारा काम सम्हालेंगे। न्यूयॉर्क से फ्लाइट रवाना हुई तो वेगस की धरती पर क़दम पड़ते ही क्या-क्या करना है उसके बारे में सोचने की ज़रूरत ही नहीं थी। कोई योजना नहीं थी। जब मन होगा घूमेंगे वरना आराम करेंगे। काम ही काम करते रहने वाले व्यक्ति को अगर एकाएक कहा जाए कि – “कुछ दिनों तक कोई काम नहीं करना है, सिर्फ़ आराम करना है” तो शायद ऐसा भी लग सकता है कि उसे यह एक सज़ा दी जा रही हो। लेकिन नहीं फिलहाल तो भाईजी के साथ एक नयी दुनिया में क़दम रखने की उत्सुकता थी। बस घूमना-फिरना और अपने आप को हर तनाव से दूर रखना, यही था इस यात्रा का उद्देश्य, इसके अलावा कुछ नहीं।

लास वेगस में लैंड हुए तो एयरपोर्ट से ही यह अहसास शुरू हो गया था कि जैसे इस धरती में हर कहीं पैसों की खनक है। अपने बैग लेकर एयरपोर्ट का लंबा गलियारा पार करते हुए देखा कि दोनों ओर की छोटी-बड़ी दुकानों पर भी गेम मशीनें लगी हैं। कुछ मशीनों पर लोग बैठे किस्मत आज़मा रहे थे और किसी ने जो कुछ जीता था वह सारा पैसा खनकता हुआ बाहर आ रहा था। उस खनखनाहट का जो आनंद कानों में प्रतिध्वनित हो रहा था, उसके मुकाबले में दुनिया का हर संगीत फीका था।

जैसे-जैसे टैक्सी आगे बढ़ती गयी, नज़ारा ही कुछ और था। ऐसा लग रहा था जैसे कि यह शहर किसी आलीशान उत्सव की तैयारी में सजा है। भाईजी ने बताया – “यहाँ हर दिन और हर रात रौशनी और रंगों की ऐसी ही मिली-जुली सजावट रहती है। ‘रौनक’ शब्द का सही अर्थ यहाँ की रौनक देख कर समझ में आता है। हर दिन को एक उत्सव की तरह जीना कोई इस शहर से सीखे।”

“वाह क्या बात है भाईजी, इसे कहते हैं हर पल को जी भर कर जीओ।”

भाईजी अपनी मंद मुस्कुराहट के साथ देखते भी जा रहे थे और डीपी के कौतुहल को शब्द भी दे रहे थे। वहाँ से कुछ मार्गदर्शक पुस्तिकाएँ उठायीं जिनमें अपने होटल के अलावा कई ख़ास कसिनो के फोटो विस्तृत जानकारी के साथ दिए हुए थे। कसिनो डिस्ट्रक्ट के ‘सीज़र्स’ कसिनो, ‘दि प्लाज़ो’ आदि नामों का जिक्र तो भाईजी पहले ही कर चुके थे। रुकने के लिए भी उन्होंने शानदार ‘बलाजियो होटल एंड कसिनो’ का चुनाव किया था। अपने होटल में जाने के लिए डीपी और भाईजी जब नीचे विशालकाय आगम द्वार पर पहुँचे तो डीपी को ऐसा महसूस हुआ जैसे कि किसी भव्य आधुनिक महल के दरवाज़े पर खड़े हों व वहाँ के महाराजा अभी स्वागत के लिए आने ही वाले हों। स्वाभाविक ही ऐसा कुछ नहीं हुआ। अपना-अपना सामान लेकर वे चेक-इन के लिए लाइन में खड़े थे।

लोगों की गहमाहगमी में न कोई राजा था, न महाराजा, न ही उनकी प्रजा। आदमी से आदमी की पहचान कराता ऐसा स्वर्ग जो अपनी क़ाबिलियत के अनुसार स्वर्गिक सुख देता, पैसा दो और अपने मनपसंद के सुख खरीदो।

अपने बैग के साथ लाइन में आगे बढ़ते रहे। चेक-इन की औपचारिकता पूरी करने के लिए भी लंबी लाइन थी। यह लॉबी थी जहाँ से चाभी लेकर ऊपर अपने कमरे में जाना था। बड़े-बड़े शाही सोफे, विशाल फानूस और कई तरह के सजावटी स्तंभ से लेकर तस्वीरें और झाँकीनुमा अवलोकनीय वस्तुओं का बेहद खूबसूरत संयोजन था। वहाँ से अपने कमरे तक जाते हुए अपने इस शाही अस्थायी आवास का मुआयना कर रही थीं आँखें। कमरा भी बेहतरीन सजावट लिए था। इस समय कमरे में रुकने का मिल्कुल मन नहीं था। बस सामान रखा और वापस नीचे आ गए।

बड़े-बड़े हॉलनुमा बरामदे और उतने ही बड़े अंदर के हॉल जहाँ कसिनो की सीमारेखा शुरू होती थी। सिक्यूरिटी थी वहाँ जो पहचान पत्र पर जन्म तारीख देखकर ही अंदर जाने देती थी। अठारह वर्ष से छोटे होने पर क़ानून इज़ाजत नहीं देता कसिनो में प्रवेश के लिए।

मन का रोमांच सामने के दृश्यों को देखकर निरंतर बढ़ रहा था जहाँ पर रौशनी और ध्वनि एक-दूसरे से प्रतियोगिता कर रही थी कि “कौन किससे बेहतर है।” विशालकाय फानूसों के अलग-अलग अंदाज़ थे रौशनी की डिलीवरी के, रौशनी की प्रस्तुति के। एक ओर रंग-बिरंगी, चमकती, झकाझक करने वाली रौशनी आँखों को चौंधियाती थी वहीं दुनिया की सर्वश्रेष्ठ ध्वनि पैसों की खनन-खनन करती आवाज़ कानों में रस उंडेलती एक असीम उत्साह दे रही थी।

मशीनों से बरसते सिक्के और सिक्कों के इंतज़ार में बैठे लोगों की यह दुनिया अपने काल्पनिक स्वर्ग की अनुभूति से बहुत ऊपर थी। सुना था कि स्वर्ग में सुंदरियाँ हर तरह की सेवा में लगी रहती हैं, ठीक वैसे ही कसिनो की चकाचौँध में अध-पहने कहें या अध-नंगे कहें, कुछ वैसे ही कपड़ों के साथ बल खाती एक टेबल से दूसरी टेबल तक और एक मशीन से दूसरी मशीन तक पहुँच रही थीं। ये युवतियाँ अपने ग्राहकों की सेवा में व्यस्त थीं लेकिन बहुत विनम्र और आदर भरी मुस्कान लिए। आधे ढँके शरीर के बावजूद उनके व्यवहार में किसी तरह की कोई फूहड़ता नहीं दिखी। जो भी माँगो हाज़िर, जो भी पूछो जवाब हाज़िर, शायद स्वर्ग इसी को कहते हैं।

एक चक्कर वहाँ का लगाकर दोनों बाहर निकल गए, नये शहर की रंगीनियों का जायका लेने। पलाज़ो, सीज़र्स पैलेस इन सारे मशहूर नामों की सच्चाई को महसूस करने जो सुनते ही एक फुरफुरी पैदा करते थे। मोटे कालीनों में छुपी ज़मीन पैरों को जो कोमलता देती, वह पथरीली ज़मीन से आये पैर बहुत अच्छी तरह महसूस कर सकते थे। शाम के आगोश में शहर का दृश्य अलग ही था। जगमग दुनिया, झिलमिलाती दुनिया, जहाँ तक नज़र जाए आँखों को चौंधियाती ऐसी दुनिया जहाँ एक-एक क़दम उठाते जब पैर आगे बढ़ें तो पैरों को भी गर्व हो कि वे जिस धरती पर चल रहे हैं वह अभी तक का उनका श्रेष्ठ और यादगार सफ़र है।

लास वेगस के बड़े-बड़े टॉवर में रहने के होटल भी थे, महँगे मॉल भी थे और साथ ही थे जगमगाते बड़े-बड़े कसिनो जो जुआ खेलने के लायसेंस लिए हुए थे।

ये किसी महाभारत को रचते या किसी द्रौपदी को दाँव पर लगाते नहीं थे बल्कि ये मन की पैसों की भूख मिटाने के लिए थे। ये शकुनि कभी नहीं कहलाते पर इतिहास को बदलने का माद्दा रखते। इनकी हर हाल में जीत ही होती। इनमें कोई शकुनि किसी को फँसाता नहीं, ना ही कोई धर्मराज़ युधिष्ठिर इसमें फँसते चले जाते।

यहाँ हर कोई अपनी मर्जी से आता था जीतने के लिए, हारने के लिए और अपने समय को यादगार बनाने के लिए। यादें अच्छी हों या बुरी, यादों में तो हर किसी का समान हिस्सा ही होता। यह वह दुनिया थी जो जुए के खेल पर टिकी थी। रातों-रात धनवान होने के सपने भी होते थे और रातों-रात कंगाल करते बुरे सपने भी कभी-कभी हक़ीकत में बदल कर लोगों के सामने होते।

किन्तु इन खेलों के रचयिता ज़रूर आबाद होते रहते। इतिहास साक्षी होता इस बात का कि कौन कसिनो का मालिक कितना अमीर हुआ। इस टॉवर से उस टॉवर, हर इमारत की बारीकी को परखती आँखें यह अनुभव कर रही थीं कि सालों की मेहनत है यह। इनकी मशीनें कभी नहीं हारतीं, सदा कमा कर ही देतीं। प्रलोभन में फँसने वाला और फँसाने वाला तो आदमी ही था। मशीन तो आदमी के इशारों पर ही चलती थी। मशीन की होशियारी, आदमी के दिमाग़ की होशियारी के रिमोट से चलती थी।

कार्ड गेम्स की बड़ी-बड़ी मेजों पर दिखाया जाता कौन कितना जीता। जीतने पर हल्ला होता। सबके प्रलोभन बढ़ते। मनोवैज्ञानिक रूप से अगले खेलने वालों को तैयार करते। लेकिन जो हार रहे होते, वे चुपचाप वहाँ से निकल जाते। उनके प्लास्टिक के कार्ड जब काम करना बंद कर देते तब।

सालों लगे होंगे, मालिक भी बदले होंगे, कंपनियाँ भी बदली होंगी, काम करने वाली टीमें भी बदली होंगी। कई सीढ़ियाँ पार की होंगी इस रूप को पाने में। हीरा अपनी तराश के कई मोर्चों को पार कर लेता है तभी तो चमकता है बिंदास। फिर तो उसकी ऐसी चमक हो जाती है जो किसी भी अंधेरे के प्रकोप से नहीं डरती। हर हाल में अपनी चमक कभी नहीं खोती।

असली अमीरी थी यह असली दिमाग़ की, इंसान का दिमाग़ किसी मशीन का गुलाम नहीं। मशीनों के दिमाग़ बनाने वाले इंसानी दिमाग़ों की पहुँच अंतरिक्ष में दूर तक है तो नीचे ज़मीन और पानी के उस छोर तक भी है जहाँ आदि और अनंत की कल्पना होती है।

कुछ ऐसा ही दिमाग़ डीपी के साथ था। स्वयं अपना और साथ में भाईजी का जो उसकी हर सोच में अपना तड़का लगा कर तश्तरी में सजाने के लायक बना देता, एक संपूर्णता प्रदान करता। जुआ खेलने में न तो भाईजी जॉन को रुचि थी, न ही डीपी को। छोटे-मोटे सिक्कों को मशीनों में डाल कर देख रहे थे वे दोनों।

डीपी ने एक पच्चीस सेंट का सिक्का जॉन को दिया और कहा – “भाईजी आप इसे आजमाएँ।”

भाईजी ने वह सिक्का जैसे ही डाला मशीन में तो मशीन ने जो खनन-खनन करना शुरू किया तो बगैर रुके चलती रही। जब रुकी तो हज़ार डॉलर की क़ीमत थी उस एक चवन्नी की। उस क्वार्टर कहे जाने वाले सिक्के को चवन्नी ही कहता था डीपी।

“भाईजी यह तो चवन्नी की किस्मत थी या मेरी, पता नहीं, पर हाथ तो आपके थे जिनसे चवन्नी हज़ार में बदल गयी।”

“यानि कि अब समय हमारा है डीपी। यह संकेत है कि एक चवन्नी का निवेश इतना लाभ दे सकता है।” हँसते हुए भाईजी जॉन की भविष्यवाणी एक हौसला दे गयी।

कुल मिलाकर पैसों की बारिश अगर देखनी है तो लास वेगस से अच्छी कोई जगह हो ही नहीं सकती दुनिया में। किसी न किसी टेबल पर हर मिनट टनटनाती घंटियाँ बजतीं, लाइटों की रंग बिरंगी चकाचौंध इशारा करती कि किस टेबल पर जैकपॉट लगा है। जुआ खेलने वालों के लिए दुनिया का स्वर्ग है यह। जुए के खेल से दिल को बहलाने का प्रयत्न आधुनिकता और पौराणिकता की सांठ-गांठ को बेहतर तरीके से उजागर कर रहा था।

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