The Author Aastha Rawat Follow Current Read 100 रूपए का टिकट By Aastha Rawat Hindi Short Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books जिंदगी के रंग हजार - 15 बिछुड़े बारी बारीकाफी पुराना गाना है।आपने जरूर सुना होगा।हो स... मोमल : डायरी की गहराई - 37 पिछले भाग में हम ने देखा कि अमावस की पहली रात में फीलिक्स को... शुभम - कहीं दीप जले कहीं दिल - पार्ट 23 "शुभम - कहीं दीप जले कहीं दिल"( पार्ट -२३)डॉक्टर शुभम युक्ति... जंगल - भाग 11 (-----11------)जितना सोचा था, कही उन... Devil I Hate You - 7 जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,... 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बेटा दिवाकर ओर मंझला बेटा सोम अपने परिवार साहित पिता जी के साथ रहते है तथा छोटा बेटा रवि दिल्ली रहता है। भरा पूरा परिवार है। पूरा घर मेहमानों से भरा है। बड़ी बुआ, फूफाजी, छोटी बुआ , चाची जी, चाचाजी आज ही दिल्ली से आए है। और ननिहाल से मामाजी ,मामीजी ओर उनका बेटा संकेत और दीपा मौसी आए है । घर के बाहरी आंगन में लकड़ी की तख्ती और कुर्सिया लगी है। जिन पर मेहमान बैठे हुए है।। सभी बहुत ख़ुश लग रहे हैं। और बातचीत में मग्न है। बड़ी बुआ जी कहा "अरे भैया ने बहुत पैसा लगाया था उसकी पढ़ाई पर डाक्टर तो बनना ही था" बात काटते हुए चाची जी बोली "नहीं जीजी अरुण ने मेहनत भी तो बहुत की थी" और कहीं तो गहनों की बाते चल रही थी । छोटी बुआ मामी जी को कहती ये कान का कहा से बनवाया जी बहुत सुंदर है।मामी जी बोलती यही से तो बनवाया। कुर्सियों पर जहा आदमी लोग बैठे हुए थे उन सब के मध्य तो कवि समेल्लन हुआ जा रहा था सभी एक दूसरे की हां में हां भरते दादाजी यानी श्याम जी भी अपने कमरे की खिड़की से बाहर बड़े आंगन में झांक रहे थे। और अपने परिवार को देखकर आनंदित हो रहे थे । उन का कमरा निचले हिस्से में सबसे किनारे है। जिसकी खिड़की बड़े आंगन कि और खुलती है । तब दादाजी ने खाना खाने को बुलवाने के लिए आवाज दी अरे खाना खाने आओ व्यंग्य करते हुए बोले औरते तो औरते तुम मर्द लोगो की बाते भी पूरी नहीं होती चलो खाना तैयार है । चाचा जी मुस्कराते हुए बोले आए पिताजी। सभी खाना खाने पहुंचे। घर के आंगन में दोनों और चटाईया बिछी हुई थी । मध्य में स्वादिष्ट भोजन रखा हुआ था। सभी को भोजन का इंतजार था। पंगत में सभी मौजूद थे। केवल अनमोल वहां मौजूद नहीं था अनमोल यानी श्याम जी का छोटा पोता उसे अनु कहकर भी पुकारा जाता था अनु एक 12 वर्षीय सुंदर दुबला सा लड़का हैं। अनु बहुत होशियार था पर शर्मिला प्रवृत्ति का है इसीलिए ज्यादा लोगों के सामने जाने में उसे हिचकिचाहट होती है। इसीलिए वह अपने दादू के कमरे में बैठा हुआ था । क्योंकि वह जानता था कि वहां कोई नहीं आने वाला वह स्थान उसके लिए सर्वोत्तम एकांत था। दादा जी यानी श्याम जी को शोर शराबा बिल्कुल पसंद नहीं था इसीलिए उनके कमरे में ज्यादा कोई आता जाता नहीं था जब उनका मन होता वह खुद ही मेहमानों से मिल लिया करते थे। जब भी वह घरवालों के सामने जाते तो सभी मूक हो जाते हैं । इसलिए नहीं कि वह सब उनसे डरते थे ।बल्कि इसलिए क्योंकि वहां उनकी बहुत इज्जत करते थे । तब दादाजी इस मूक स्तिथि को सामान्य करने के लिए कहते "यहां कोई बब्बर शेर घुस आया है क्या जो तुम सब डर के मारे मूक हो गए"। तब सभी खिलखिला उठते और फिर मंद मंद ध्वनि में फुसफुाहटें आरंभ कर देते दादा जी से देखकर मन में ही मन में बहुत प्रसन्न होते हैं ।अनु उनका सबसे प्यारा पोता था हो भी क्यों ना सबसे छोटा जो था अनु कमरे में बैठे हुए अपने गुल्लक को बजा रहा था गुल्लक में सिक्कों की आवाज से या पता करने की कोशिश कर रहा था कि गुल्लक में कितने पैसे जमा हो चुके होंगे वो वह पैसे अपने सबसे पसंदीदा काम सिनेमा देखने के लिए जमा कर रहा था। उसने केवल एक ही बार मूवी देखी थी तभी उसने पक्का कर लिया था कि अपने पैसे जमा करेगा और फिर मूवी देखेगा। अनु को सिनेमा देखना बहुत पसंद था वो भी मारधाड़ वाली फिल्में यानी एक्शन मूवी अनु अपने गुल्लक में जो भी पैसे उसे मिलते हैं पूरे डाल दिया करता था। घर में बच्चों को पैसे नहीं दिए जाते थे बल्कि जिस सामान की आश्यकता होती वो खरीद के दे दी जाती श्याम जी के बेटे यानी अनु के पिताजी दिवाकर का कहना था कि बच्चे पैसों के हाथ में आने से बिगड़ जाते हैं पैसे का सदुपयोग नहीं जानते इसीलिए बच्चो के हाथो में नकद पैसे नहीं देने चाहिए। पर अनू सिनेमा देखने के लिए पिताजी से टिकट भी तो नहीं मांग सकता था। इसीलिए अनु को कभी कभी छुप छुपा कर मुश्किल से दो , पांच रुपए अपनी मां सुधा से मिल पाते थे अनु उन्हें अपनी गुल्लक में डाल दिया करता था उसे पता नहीं था लेकिन उसके दादाजी भी कभी चुपके चुपके उसके गुल्लक में पैसे डाला करते थे। सब का खाना हो जाने के बाद सुधा उसके लिए दादा जी के कमरे में खाना लाई और उसे खिला दिया कुछ समय बाद जब सारे मेहमान कमरों में चले गए तो अनु अपना गुल्लक लेकर अपने कमरे में चला गया और उसने याद किया की परसो मां ने मुझे पांच रुपए दिए आज बड़ी बुआ जी ने बीस रुपए दिए पहले से भी मैं अपनी गुल्लक में दो दो करके तीन महीने से पैसे डाले जा रहा हूं। शायद पैसे पूरे हो ही गए होंगे सोचते सोचते वो सो गया संद्या का समय हो चला था मेहमान भी कम हो गए थे रिश्तेदार अपने घर चले गए थे और परिवार के जो मेहमान आए हुए थे वह अभी तक कमरे में ही थे अनु अपने कमरे की चोखट से बाहर झांक कर अपने दादू के कमरे की ओर चला वो मेहमानों कि नजरो से बच के चल रहा था क्यों की उसे पता था अगर कोई मिल गया तो उससे बात जरूर करेगा और वह उससे क्या बात करे उसे मालूम नहीं अनु अपने माता और दादू के आलावा किसी से बात ना करता दादू के कमरे की चोखट से एक आध हाथ पहले ही चप्पल निकालनी पड़ती आगे लंबा सा सुंदर पायदान होता जो चप्पल ओर चोखट के बीच का फासला निश्चित करता अनु ने दादू को देखा वह पुस्तक पढ़ रहे थे अनु उनके पास बैठकर धीमे से बोला दादू में कल गुल्लक तोड़ दूंगा दादू मुस्कुराते हुए बोले क्या पैसे पूरे हो गए ।अनु ने बोला पता नहीं लग तो रहा है गुल्लक भारी भी हो गया है दादाजी हंसने लगे । और गुल्लक हाथ में लेते हुए बोले हां भारी तो हो गया है तुम्हें कितने पैसों की जरूरत है। अनु ने उत्साह से बोला सौ रुपए दादा जी बोले लगता है सौ रुपए तो हो गए होंगे अनु खुश गया और उसने दादाजी का पूछा क्या मैं खेलने जा सकता हूं दादा जी ने हामी भरी और अनु खेलने चला गया शाम का समय था मेहमान भी कमरे से नीचे उतर आए । सभी शाम की चाय की चुस्कियां ले रहे थे। अनु भी अपने दोस्तों के साथ खेलने के लिए गया आज अनु की मन में एक खुशी का अनन्य सागर में गोते लगा रहा है। उसका मन होता है कि नाचे मन से बार-बार खुशी प्रफुल्लित हो रही है जिन मित्रों से वह बात नहीं करता था आज उन्हें भी भाई की दृष्टि से देख रहा था। और खेल खेल में नाराज हो जाने वाला अनु आज खुद ही हार मान के अन्य बालाको को खेलने का मौका दे रहा था। हमेशा देर से घर जाने वाले अनु का मन आज जल्दी घर जाने का हुआ असल में बात यह थी। वह अपने गुल्लक को देखना चाहता था इसीलिए वहां खेल आधा ही छोड़कर वहां से जाने लगा रास्ते में उसे वही सिनेमाघर भी दिखा जहां उसे अगली सुबह जाना था । वह सिनेमाघर को टकटकी लगा कर देखने लगा उसके मन में यह सोचने लगा कि वह अपनी उस मनो इच्छा को पूरा कर देगा जिसके लिए उसने इतने समय से पैसे जमा किए थे। अनु उस मन में भरी हुई सुखमय उथल-पुथल के साथ घर के दरवाजे तक पहुंचा उसने दरवाजे से अंदर झांक कर देखा तो घर के आंगन में मेहमान और घरवाले चटाई पर बैठे हुए थे यह बातें कर रहे थे घर की औरतें अनु की मां बुआ चाची और पड़ोस की चाची ताई आंगन की सीढ़ियों पर बैठे बातें कर रहे थे अनु के मन में अपने गुल्लक को देखने की इतनी बेचैनी थी कि आज उस पर मेहमानों के बैठे होने का कोई प्रभाव नहीं पड़ा वह बेझिझक अंदर आया अनु इतना प्रसन्न था की उसने आज या परवाह नहीं की कि अगर किसी ने उससे बात की तो क्या बोलेगा अपनी ही धुन में मस्त था उसने आसपास बैठे हुए लोगों पर कोई ध्यान नहीं दिया केवल अपने कमरे में जाना चाहता था तभी अचानक पास बैठी हुई चाची जी ने कहा अरे अनमोल तुम तो हमसे मिलते भी नहीं हो । अनु जो खयालों में खोया हुआ था वह यथार्थ अवस्था में वापस आ गया और बोला हां अनु पसीने पसीने हो गया था। और वहां से सीधे भागते हुए अपने कमरे में आ पहुंचा अनु ने पहले पानी पिया और फिर सोचा यह उसके साथ क्या हुआ तभी उसकी नजर लकड़ी के उस मेज पर पड़ी जिस पर गुल्लक रखा हुआ था उसने गुल्लक के पास जाकर उसे हाथ मैं लेकर ऐसी काल्पनिक दुनिया में खो गया जो मनोरम सपने की भांति था उस सपने से वो चेतना में ना आना चाहता था पर क्या करें तभी माताजी आ गई और बोली अनु यहां अकेले क्या कर रहे हो बेटा भाइयों के साथ बैठो अनु ने गुस्से में कहा नहीं मां मैं नहीं बैठूंगा और छत पर चला गया अनू छत के किनारे से सिनेमाघर को देखने की कोशिश कर रहा था परंतु सक्सेना जी के बंगले की वजह से कुछ नहीं दिखाई दे रहा था अनु बोला यह सक्सेना बाबूजी का घर कितना उंचा है इतना ऊंचा घर भी कोई बनवाता है भला तभी अनु को पुकारते हुए उसकी मां छत पर आ गई और मां ने कहा चलो बेटा खाना खा लो अनु अपने कमरे में आया और उसकी मां उसके लिए वही खाना लाई आज तो खाने में कई चीजें बनी थी सूजी पूरी आलू की सब्जी दाल चावल अनु बहुत खुश हो गया और खाना खाकर इंतजार करने लगा कि कब भीड़ आंगन से कम हो और कब हुआ अपने दादाजी के कमरे में जा पाए जैसे ही उसने देखा कि आंगन में केवल अरुण और उसकी मां ही बचे हैं तो वह भागकर दादू के कमरे में चला गया और अंदर प्रवेश किया और इतने में दादा जी बोले इतना डरता क्यों है लोगों से वह तुझे खा थोड़ी ना जाएंगे । और खाने भी लगे तो मैं बचा लूंगा अनु ने दादू से पूछा मैं गुल्लक तोड़ दूं दादू बोले इतनी रात को पगले इतनी जल्दी क्या है कल सुबह तोड़ देना । ठीक है दादू कहते हुए अनु सोने को चला गया आज उसे नींद कहां आने वाली थी वह पूरी रात भर सपनों की दुनिया में खोया रहा और सुबह की पहली किरण जमी को छूती इससे पहले अनु की नींद खुल गई वह इंतजार करने लगा कि कब जमा पूंजी हाथ लगे उस दिन वह जल्दी नहा धोकर तैयार हो गया और सुबह का नाश्ता करके गुल्लक लेकर दादू के पास आया और बोला चलो दादू शुभ काम काम आपके हाथों से हो जाए दादू ने गुल्लक पकड़ा और उसे जमीन पर पटक दिया उसके गिरते ही के टुकड़े टुकड़े हो गए सिक्के भी जमीन पर बिखर गए अनु ने उत्सुकता से सिक्के एकत्रित किए और दादू को गिनने को दिए सौ रूपए में सात रुपए की कमी थी दादू ने अनु को नहीं बताया और सिक्के गिनते गिनते अपने कुर्ते की जेब से सिक्के निकाले और उन सिक्कों में मिला लिए नौ रुपए निकल पड़े दादू ने घोषणा की जैसे किसी प्रतियोगिता में विजेता के नाम की घोषणा की जाती है उसी प्रकार को बोले पूरे एक सौ दो रुपए और अपनी दराज से एक कपड़े का छोटा सा थैला निकाला और उसमें सिक्के डाल दिए और वो अनु को दे दिया अनु उछलता हुआ कमरे से बाहर निकल गया और बोला दादू में इससे टिकट लूंगा और सिनेमा देख लूंगा अगर देर हो जाए तो आप घरवालों को संभाल लीजिएगा दादू ने मुस्कुराते हुए सर हिला दिया अनमोल उछलते हुए घर से बाहर निकला मुंह से गाना गुनगुना रहा था जिस प्रकार मयूर वर्षा के होते ही अपना नृत्य प्रस्तुत करता है वह भी वैसे ही उछल कर अपनी प्रसन्नता प्रकट कर रहा था अनु अपने उल्लासित मन के साथ हाट पहुंचा उसने वाह पैसे की थाली अपने पजामे की जेब में रखी थी जैसे वह चलता तो सिक्कों की छनछनाहट इसके मन को और भी ज्यादा प्रफुल्लित कर उठती आप सिनेमाघर अधिक दूर ना था परंतु अनु धीमे धीमे कदमों से चल रहा था अनु ने देखा कि अब केवल तीन मकानों के बाद ही सिनेमाघर है उसकी गति बहुत तेज हो गई और वह भागकर सिनेमा घर के आगे चलाया बहुत देर तक वह चलचित्र भवन को टकटकी लगाते हुए देखता रहा फिर उसे ध्यान आया और वह बोला यही रहना है या अंदर भी जाऊंगा टिकट लेने के लिए टिकट सेंटर पर गया वहां अधिक भी न थी या प्रथम बार था जब वह किसी बाहरी व्यक्ति से बात करें आज उसे कोई हिचकिचाहट न थी वो रौब से बोला सुनिए एक मूवी का टिकट दे दीजिए बाबू ने उसे मुस्कुराते हुए टिकट दे दिया अनु बोला बाबू कितने पैसे हुए बाबू बोले 100 रूपए अनू थैली से 2 रूपए निकालकर बाकी सारे पैसे टिकट वालो को दिए बाबू बोले इतने सिक्के गिनने पड़ेंगे अनू की नजरे टिकट से हट हीं नहीं रही थी बाबू बोले बेटा अभी तो पिक्चर शुरू होने में 15 मिनट है अनु ने यह सुनते ही रास्ते पर खड़ा हो गया। उसके मन में तो खुशियों के लड्डू फूट रहे थे अनु ने अपना टिकट जेब में डाल दिया और हाथ बांधकर रास्ते पर चक्कर काटने लगा मूवी शुरू होने के लिए कुछ ही समय बचा था अनु का मन भी अब बाहर नहीं लग रहा था अनु अंदर हॉल में जाने को हुआ तभी यकायक उसकी नजर दूर से आते हुए उसके ममेरे भाई संकेत पर पड़ी वह बहुत घबराया हुआ लग रहा था अनु स्थिर हो गया संकेत ने उसके पास आकर बोला, - अनु घर चलो जल्दी चलो अनू ने पूछा क्यों भैया संकेत ने उसका हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ घर ले आया अनु बहुत गुस्सा हो गया पर जैसे ही अनु और संकेत आंगन की दहलीज पर पहुंचे तो उसने कुछ ऐसा देखा कि वहां सन्न रह गया उसके चरण डगमगाने लगे जब उसने देखा कि बाहरी आंगन में जमीन पर सफेद कपड़े से ढका हुआ उसके दादाजी का मृत शरीर रखा हुआ है और पूरा माहौल शोक में डूबा हुआ है रोने चीखने के भयंकर स्वर गूंज रहे हैं वह हक्का-बक्का रह गया और संकेत से अपना हाथ छुड़ा कर भाग कर आंगन के कोने में चुपचाप जा बैठा उसके घर वाले विलाप कर रहे थे बुआ जी भी बेहोश पड़ी थी अनु को तो ऐसा लग रहा था वैसे उसका संसार नष्ट हो गया है उसकी आंखों में अंधेरा छा गया दिमाग में जैसे काम करना बंद कर दिया सभी हीरो कर अपना दुख प्रकट कर रहे थे दिल हल्का कर रहे थे पर यह बाल मन जिसे अभी भी विश्वास नहीं हो पा रहा है यह क्या है और वहां क्या करें अन्य लोगों के भीतर का गहन दुख द्रवित होकर नैनों से छलक पड़ता था। उस बालमन मैं शायद अपना दुख प्रकट करना नहीं सीखा उसका ठोस दुख मन को पीड़ा दे रहा है पर नयनों से बाहर नहीं निकल पा रहा है अचानक से उसने अपनी जेब में हाथ डाला और हाथ बाहर निकाला तो हाथ में वही 100 रूपए का टिकट था। उसे वह कई देर तक निराश्रित नजरों से घूरता रहा और फिर उसे हथेली में बंद करके जेब में वापस डाल दिया अब वह चुपचाप अपने जगह पर खड़ा हुआ और उसने घर के अंदर प्रवेश किया अनु धीमे धीमे लड़खड़ाते कदमों से दादू की कमरे की ओर बढ़ा उसने अपने चप्पल निकालें और चौखट पर खड़ा हो गया और एक आश भरी नजर से पूरे कमरे को देखा जैसे कुछ ढूंढ रहा हो शायद उसके कोमल मन में कोई आस बची थी उसकी आंखों मैं तो कोई आंसू न था पर एक विशालकाय रूपी दुख था । जिस पर उसने विश्वास नहीं हो रहा था फिर वह कमरे की चौखट से ही वापस लौट आया और नंगे पांव ही आंगन की देहली तक गया और दीवार के बल सिर टिकाकर नीचे बैठ गया। Download Our App