Anjane lakshy ki yatra pe - 18 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग 18

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे- भाग 18

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-

भाग-18

एक विद्रोह

अंधेरी रात। मशालों की लपलपाती रौशनी और भयानक बोझिल सा वातावरण।

मेरे प्रेम ने मेरे साथ साथ मेरे मित्र… मेरे अभिन्न मित्र गेरिक के प्राण भी संकट में डाल दिये थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया। इसमें दोष किसका था? मेरा? मेरे मित्र का? अथवा किसी का नहीं? क्या हम संयोग के किसी भंवर में फंसे हैं और हमारे प्रारब्ध पर हमारा ही नियंत्रण नहीं?

मैंने प्रेम किया और प्रेम तो सुख और दुख दोनो का ही कारण बनता है। मेरे साथ जो हुआ और जो होने जा रहा है, वह मेरी परिणति है; मेरे प्रेम का प्रतिदान। मैंने प्रेम किया। प्रेम के अनुभव का अप्रतिम आनंद का उपभोग भी किया। प्रेम की स्वीकृति भी अथाह आनंद से सराबोर कर देती है। प्रेम की यंत्रणा भी असीम आनंद का स्त्रोत होती है। मैंने प्रेम किया। प्रेम का आनंद लिया। किंतु गेरिक? उसके लिये यह दंड क्यों? मैं अपनी अंतरात्मा से इसे अस्वीकार करता हूँ।

मैं भयंकर अंतरद्वंद में फंसा हुआ था और समझ नहीं पा रहा था कि अपने मित्र को किस प्रकार इस दलदल से बाहर निकालूँ कि तभी अभियान सहायक ने ही पुनः हस्तक्षेप किया।

“रुको!!”

वातावरण की स्तब्धता जैसे और गहरा गई थी। सब मौन से खड़े अभियान सहायक महोदय के निर्णय की प्रतीक्षा करने लगे।

“क्या वह भी तुम्हे प्रेम करने लगी है?” स्पष्ट था कि यह प्रश्न मुझसे ही किया गया था। किंतु मैं चुप था, सिर झुकाये हुये। मौन का अंतराल असहनीय होने लगा तो एक बार फिर गेरिक ने बीच में हस्तक्षेप किया।

“दोनो एक दूसरे को समान रूप से प्रेम करते हैं।” उसने कहा।

“यह झूठ है! झूठ है!! एक मत्सकन्या तुम जैसे साधारण मानव से क्यों प्रेम करेगी?” यह वही गुप्तचर था।

“मत भूलो कि तुम भी मानव की ही संतान हो।” अभियान सहायक ने उसे चेतावनी दी।

“किंतु हम उनसे श्रेष्ठ हैं।” उसने प्रतिवाद किया।

“हाँ, हाँ, हम श्रेष्ठ हैं!!” कई स्वर उसके सम्रर्थन में गूंज उठे। अधिकतर सैनिक गण उस गुप्तचर की ओर थे।

किंतु अभियान सहायक, जो कि अपने द्वीप पर राजा के प्रधान सहायक यानि महामंत्री की हैसियत रखते थे, तनिक भी विचलित नहीं हुये।

“कोई मानव प्रजाति किसी से श्रेष्ठ नहीं होती। मानव एक दूसरे से श्रेष्ठ हुआ करते हैं, अपने चरित्र और अपनी मानवीय सम्वेदनाओं और न्यायप्रियता के कारण।” उन्होने उन लोगों को सम्बोधित किया।

सेनापति विचलित थे। वे शायद निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि अपने सैनिकों के पक्ष में खड़े हों या अभियान सहायक के।

“हमारा चरित्र सबसे श्रेष्ठ है, हमारी मानवीय सम्वेदनायें और हमारी न्यायप्रियता सर्वश्रेष्ठ है। हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं।”

“वाह, जवान! बहुत सुंदर!” अभियान सहायक ने कहा, “तुम्हारी भावनायें सुंदर हैं। अति सुंदर। किंतु भावनायें न्याय की स्थापना नहीं करतीं। न्याय प्रक्रिया का अपना चरित्र होता है। न्यायकर्ता का अपना चरित्र होता है। इसके लिये निष्पक्ष सोंच की आवश्यक्ता होती है। न्यायशील चरित्र के लिये बहुत कुछ खोना पड़ता है। सबसे पहले अपने दृष्टिकोण और अपने संस्कारों को खोना होता है। किसी भी प्रकार के आत्माभिमान, गौरव की विरासत से अथवा विरासतों पर होने वाले गर्व की भावनाओं से अपने आप को पृथक करना होता है। हर प्रकार के भेदभाव और ऊंच नीच के दृष्टिकोण को त्यागना होता है। हर प्रकार के पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर शुद्ध मानवमस्तिष्क को धारण करना होता है। इसी से शुद्ध मानवीय सम्वेदनाओं का भी जन्म होता है और यही मानवीय सम्वेदनायें एक मानवीय चरित्र का निर्माण करती हैं। एक मानवता वादी दृष्टिकोण का... अतः किसी भी प्रकार की नस्लीय श्रेष्ठता, अर्थात् प्रजातिगत श्रेष्ठता, का भाव आपके मानवीय चरित्र का हनन है और इसी लिये कभी भी नस्लें अर्थात् प्रजातियाँ श्रेष्टता के स्तर को छू नहीं पातीं सिर्फ व्यक्तिगत चरित्र ही मानवीय श्रेष्ठता को छू पाता है। और यह भी कि पुरखों के कारनामों पर गर्व करना आपके उत्थान की भावनाओं का हनन है। पुरखों पर गर्व अथवा प्रजाति पर गर्व सिर्फ निम्न चरित्र के व्यक्ति ही करते हैं; उच्च चरित्र के व्यक्ति अपने चरित्र और अपने कारनामों के कारण, अपने पुरखों को गर्व करने का अवसर प्रदान करते हैं।

पुरखों को गर्व का अवसर प्रदान करने की यही भावना ही हमें उत्थान की ओर अग्रसर करती है। और मानवों का इतिहास साक्षी है कि ठीक इसी कारण से जिन प्रजातियों में अपने पुरखों पर गर्व की परम्परा नहीं होती, वे प्रजातियाँ ही अपना उत्थान करती हैं।

और तुम अपना इतिहास क्यों भूल रहे हो? क्या तुम्हे ज्ञात नहीं कि हम भी इसी मानव जाति की एक शाखा हैं। हमारे पूर्वज भी वे लोग थे जो कई दुर्घटनाओं के कारण अथवा अन्य दुर्भाज्ञवश उस द्वीप पर आ फंसे थे। वे दुनियाँ के अलग अलग हिस्से से थे। अलग अलग प्रजातियों से, अलग अलग भषाभाषी थे। उन्होने आपस में सम्बंध स्थापित किये एक दूसरे को स्वीकारा और तब इन विषम स्थियों में जीने के लिये अपने अंदर विशेष योज्ञतायें विकसित की। आज भी हमारी आबादी में विभिन्नता साफ दृष्टिगोचर है और यही रंगबिरंगा स्वरूप ही हमारा सौंदर्य है।”

अभियान सहायक का वक्तव्य लम्बा और बोझिल हो गया था। पता नहीं किसी को कुछ पल्ले पड़ा भी या नहीं किंतु जो सैनिक अभी तक उस गुप्तचर सैनिक के समर्थन में खड़े थे उनके आत्मविश्वास और मनोबल में कमी साफ झलक रही थी। ऐसा लगता था कि वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार की इच्छा रखते हैं।

हमारे अभियान सहायक वस्तुतः एक महान कूटनीतिज्ञ थे। वे अपनी छद्म पहचान के साथ लगभग सारा विश्व घूम चुके थे। व्यापारी संगठनों के साथ अपने द्वीप का सम्बंध स्थापित कर चुके थे। यही उनका विशाल दृष्टिकोण और अनुभव हमेंशा उनके मुख से बोलता था।

किंतु वह गुप्तचर अब भी शांत नहीं हुआ था। अपने समर्थकों का समर्थन खोने का भी उसपर कोई असर नहीं हुआ था।

“मैं नहीं मानता। मैं किसी बात को नहीं मानता। मैं सिर्फ इतना जानता हूँ कि यह विदेशी है, एक घुसपैठिया, जो छल से हमारे सुंदर द्वीप में घुसपैठ कर के अब हमारे यहाँ की सबसे सुंदर कन्या को हड़पना चाहता है। यदि आप लोग इसे मृत्युदंड नहीं दे सकते तो मैं इसे अपने हाथों दंडित करूंगा।”

ऐसा कहते हुये वह तलवार लेकर मेरी ओर लपका। मैं एक स्तम्भ से बंधा हुआ था। हिलने डुलने में भी असमर्थ। जो अभी अभी आशा से भर उठा था और अभी अभी ही अपने सामने पुनः मृत्यु का सामना कर रहा था। वह लम्बी नुकीली नाक और कई घावों के निशानो वाले चेहरे वाला गुप्तचर जिसकी लम्बी दाढ़ी और लम्बे बाल और वृक्ष की शाखों जैसी भुजायें थीं। मैं जानता था इसका एक ही वार मुझे पलक झपकते ही दो टुकड़ों में विभाजित कर देगा। शायद मुझे पता भी न चले। भय से मैं थरथरा उठा। मेरी आंखें बंद हो गईं। किंतु उसी क्षण सेनापति की गर्जदार आवाज़ गूंज उठी, “सैनिक!!!!!” इसके साथ ही कई सारी झंकारों की आवाज़ एक साथ मेरे कानों में पड़ी। मैंने आंख खोलकर देखा। वह गुप्तचर अब अपने ही सैनिक साथियों की गिरफ्त में था।

मैंने चैन की सांस ली।

उसे भी मेरी तरह एक अन्य स्तम्भ से बांध दिया गया।

“सैनिक! क्या तुम्हे ज्ञात है, कि तुमने विद्रोह किया है?” सेनापति ने अपनी गरजदार आवाज़ में उससे पूछा।

“मैंने कोई अपराध नहीं किया है।” वह चीखा।

“तो तुम्हे अपने इस कृत्य के लिये कोई अपराधबोध भी नहीं है?” सेनापति ने पूछा।

“कदापि नहीं,” वह दूसरे सैनिकों को सम्बोधित कर बोला, “मित्रों, कोई विदेशी तुम्हारी भोली भाली स्त्रियों को बहकाकर ले जाये, क्या तुम स्वीकार करोगे?”

“नहीं, कदापि नहीं...” वे एक स्वर में बोले। सेनापति के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। सच तो ये है कि चिंता की लकीरें तो अभियान सहायक महोदय के चेहरे पर भी उभर आईं। मैं समझ सकता हूँ उनकी चिंता का कारण। यदि यह जासूस अपने साथी सैनिकों को अपने समर्थन में खड़ा कर लेता है तो इस पोत की सत्ता भी उसके हाथ में आ जायेगी। क्योंकि किसी सत्ता का अंतिम ठिकाना सेना ही होती है। सेना जिसका पक्ष ग्रहण करे वही सत्ताधीश, वही शासक। अभियान सहायक को शायद दूसरा भय इस बात से भी था कि इस अवसर का फायदा उठाकर सेनापति स्वयम् सत्ता अपने हाथ में न ले ले क्योंकि सत्ता हस्तांतरण का सारा इतिहास षड्यंत्रों से भरा पड़ा है। अतः सेना पर नियंत्रण हेतु कुशल कूटनीतिज्ञ की सदैव आवश्यकता होती है।

आज अभियान सहायक महोदय की कूटनीतिक क्षमता की परीक्षा थी।

“किंतु यह तो दो लोगों के व्यक्तिगत मामले में हस्तक्षेप होगा।” अभियान सहायक ने उस विद्रोही के प्रयासों की नैतिकता पर प्रश्न उठाने की कोशिश की।

“यह किसी का व्यक्तिगत मामला नहीं है। यह हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान का मसला है।” वह अब भी अपनी बात पर अड़ा रहा।

“तुम यह किस राष्ट्र की बात कर रहे हो जहां तुम्हे तो अपनी बात रखने की स्वतंत्रता हो किंतु मेरी पुत्री की राय की कोई अहमियत नहीं। क्या तुम स्त्री जाति की स्वतंत्रता के विरोध में हो?”

“नहीं मैं तो हमारी महान परम्पराओं के पक्ष में हूँ।”

“क्या स्त्री पर अपनी मनमर्जी थोपने की हमारी परम्परा रही है?”

“नहीं, नहीं, हे महामहिम मेरा यह अर्थ कदापि नहीं है,” वह अब टूटने लगा था, “मैं तो स्त्रीयों का बहुत सम्मान करता हूँ।”

“यह कैसा सम्मान है कि तुम एक स्त्री को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित रखना चाहते हो।” अभियान सहायक महोदय ने अवसर का पूरा फायदा उठाते हुये अपना दांव चला, “सेनापति महोदय, और हमारे सभी सैनिक असैनिक मित्र बतायें क्या यह स्त्री जाति के अपमान का अपराधी नहीं है...?”

एकाएक चले इस दांव ने पासा ही पलट दिया। सब स्तब्ध थे। किसी के मुख से कोई आवाज़ नहीं। शायद उसके समर्थकों पर अपराधबोध हावी था। वे शर्म से गर्दन झुकाये खड़े थे।

अब वह भयंकर नर मत्स्यमानव जैसे अंदर ही अंदर टूटकर बिखर गया। उसका सारा विद्रोही स्वरूप जाने कहाँ गायब हो गया। वह विलाप करने लगा, “नहीं नहीं, मैं ऐसा कर ही नहीं सकता। मैं उसका अपमान नहीं कर सकता...। मैं ऐसा कर ही नहीं सकता...”

उसका विशाल शरीर उसके रूदन से कांप उठता। उसकी आंख से बहते आंसू उसकी लम्बी और घनी दाढ़ी में जाकर खो जाते। वह स्पष्टतः बहुत आहत था, “मुझे चाहे मार डालें लेकिन यह आरोप मुझपर न लगायें। मैं उनका अपमान करने की तुलना में मृत्यु का वरण करना श्रेयस्कर समझता हूँ।”

“फिर तुमने ऐसा क्यों किया?”

“मैं पागल हो गया था। अपने प्रेम की भावना ने मुझे पागल कर दिया था और अपने प्रेम को प्राप्त करने हेतु मैं इसे राह से हटाना चाहता था। क्योंकि मैं जानता था ये दोनो एक दूसरे से प्रेम करने लगे हैं।”

“तुम मेरी पुत्री के बारे में बात कर रहे हो?”

“हाँ, महामहिम। मैं मन की अतल गहराईयों से प्रेम करता हूँ, किंतु उसने इस घुसपैठिये को चुना...”

“तो तुम उसका हृदय जीतने की बजाय उसे षड्यंत्र पूर्वक हासिल करना चाहते थे। और तुम इसी चरित्र की दुहाई देते थे? इसे ही न्यायप्रियता बताते थे? इसी के बल पर तुम अपनी प्रजाति की श्रेष्ठता साबित करना चाहते थे। तो सुनो!! तुम्हारे इस आचरण ने न सिर्फ अपनी प्रजाति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है, अपितु तुमने अपने व्यक्तिगत हितों के लिये, सिर्फ अपने स्वार्थ के लिये सशस्त्र विद्रोह भड़काने की भी चेष्टा की है। तुमने अपनी सेना और अपने सेनापति के साथ गद्दारी की है; साथ ही अपने राष्ट्र और अपनी राजसत्ता और अपने लोगों के साथ विश्वासघात किया है। तुम अपना अपराध स्वीकर करते हो?”

“मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ। मुझसे अपराध हुआ है किंतु यह अंजाने में हुआ है और मुझे इसका पश्चाताप है...”

“सेनापति महोदय, यह सेना का मामला है अतः इस अपराधी को आपके हवाले किया जाता है। आप अपनी सेना की परम्परा के अनुसार निर्णय लेने का अधिकार रखते हैं, और हम आपके और हमारी महान सेना की परम्पराओं का सम्मान करते हैं।” अभियान सहायक महोदय ने बड़ी चतुराई से गेंद सेनापति के पाले में कर दी। और फिर मुझे सम्बोधित करके बोले, “चूंकि आप पर आरोप लगाने वाले इस सैनिक ने स्वयम् ही आपकी बातों की पुष्टि की है; अतः आप ससम्मान आरोपमुक्त किये जाते हैं।”

ओह! स्वतंत्रता कितनी प्यारी चीज़ है…

किंतु उससे भी प्यारी चीज़ है एक झूठे आरोप से मुक्ति!!

**

जारी...

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे-भाग-19/ चलो जान छूटी

से...

अचानक एक तेज़ गड़गड़ाहट की आवाज़ ने उनके कदमो के साथ ही उनकी सांसों को भी रोक दिया। व्यापारी ने ऐसी कोई आवाज़ पहली बार सुनी थी और वह समझ नहीं पा रहा था कि यह आवाज़ कैसी है और किस तरफ से आ रही है। वे स्तब्ध रह गये। ऐसा लग रहा था वह गड़गड़ाहट उनके सिर पर ही थी। प्रथम प्रतिक्रिया स्वरूप वे वृक्षों और चट्टानों के पीछे छिपने का प्रयास करने लगे। क्या कोई भूकम्प आया है? या हम हिमस्खलन में फंस चुके हैं? इस गड़गड़ाहट के साथ पहाड़ पर एक कम्पन सा आभास था।

(मिर्ज़ा हफीज़ बेग की कृति)