Bhadukada - 40 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | भदूकड़ा - 40

Featured Books
Categories
Share

भदूकड़ा - 40

सुमित्रा जी ने कैलेन्डर की ओर देखा. आज शुक्रवार है. अगर आज की ड्यूटी कर लें, तो शनिवार की छुट्टी ले के दो दिन के लिये जा सकती हैं. अब तक तिवारी जी भी उठ गये थे, और चुपचाप सारी कहानी सुन रहे थे. किसी भी काम से गांव जाने की बात पर वे हमेशा सहमत रहते थे. पता नहीं क्यों, उनके मन में अपना गां, अपना घर छोड़ के शहर आ जाने पर एक अपराधबोध सा था जिसे वे अक्सर गांव जा के कम करने की कोशिश करते थे शायद. सुमित्रा जी उसी दिन छुट्टी की अर्ज़ी लगा के आ गयीं थीं. शाम को बच्चों सहित सब किशोर की जीप पे सवार हो के गांव को निकल लिये.

गांव पहुंचते-पहुंचते रात हो गयी थी. घर के बाहर जितना सन्नाटा पसरा था, घर के अन्दर भी उतना ही सन्नाटा था. सुमित्रा जी को सपरिवार, अचानक आया देख कुन्ती चौंक गयी. असल में उसे मालूम ही नहीं था कि किशोर ग्वालियर गया है.

अरे बैन!! अचानक?

हां कुन्ती, किशोर अपने काम से ग्वालियर आया था, तो हमने सोचा दो दिन को हो आयें. बहुत दिन हो गये न. सुमित्रा जी ने बात बनाई. हालांकि अचकचाईं तो वो भी थीं, क्योंकि किशोर ने कहा था कि अम्मा ने लिवा लाने को कहा है. किशोर भी मां के सवाल से हड़बड़ा गया था लेकिन सुमित्रा जी के बात सम्भालते ही उसकी जान में जान आई वरना एक और नाटक तैयार ही था. ये अलग बात है कि इन लोगों को आया देख , कुन्ती को कुछ राहत ही महसूस हुई थी. पिछले दिनों होने वाले रोज़-रोज़ के नाटक से वो भी मन ही मन उलझन में थी. समझ ही नहीं पा रही थी कि जानकी को हुआ क्या है? कुन्ती ने घर की तमाम छोटी देवरानियों पर कितने ही तो ज़ुल्म ढाये हैं, लेकिन किसी भी देवरानी का ऐसा हाल नहीं हुआ था, जैसा जानकी का कुछ महीनों में ही हो गया.

आहट पा के जानकी भी बाहर निकल आई. अपनी प्रिय चाची को देख के दौड़ के सुमित्रा जी के गले लग गयी और फूट-फूट के रोने लगी. सुमित्रा जी को समझ में ही नहीं आया कि वे क्या कह के उसे धीरज बंधाएं. थोड़ी देर मेल मिलाप का कार्यक्रम चलने के बाद सब थोड़ा सहज हुए, तो खाने-पीने के इंतज़ाम की याद आई. जानकी ने झटपट आलू टमाटर की सब्ज़ी बनाई, और गरम-गरम रोटियां सिंकवाई सुमित्रा जी ने. सबने बेहद सहज माहौल में खाना खाया. कुन्ती भी बड़े प्यार से बच्चों को खाना खिलाती रही. अज्जू इतना बड़ा हो गया था, लगभग किशोर के ही बराबर, लेकिन उसे भी कुन्ती ऐसे खाना खिला रही थी, जैसे छोटा सा बच्चा हो.

सुमित्रा जी को रात का इंतज़ार था, कि सब सोयें तो वो जानकी से कुछ बात कर सके. सबके खाना खाते, लेटते ग्यारह बज गये. किशोर, अज्जू और तिवारी जी नीचे के बड़े बैठका में सोने चले गये क्योंकि वहां पंखा लगा था. सुमित्रा जी, कुन्ती, सुमित्रा जी की बेटियां रूपा-दीपा और जानकी पीछे वाली अटारी में नीचे गद्दे बिछा के लेटीं, एक लाइन से. कुन्ती तो जल्दी ही सो गयी, लेकिन अब कूलर की आदी हो चुकीं सुमित्रा जी और रूपा-दीपा सितम्बर की उमस वाली गरमी में बिना पंखे के सो ही नहीं पा रहे थे.

क्रमशः