स्वप्न हो गये बचपन के दिन भी (19)
'शब्द-सहयोग की अनवरत कथा...'
पूज्य पिताजी को दिन-रात लिखते-पढ़ते देखकर मैं बड़ा हुआ। मन में आता था कि उन्हीं की तरह कवि-लेखक बनूंगा। बाल्यकाल में इतना खिलंदड़ था कि लिखने-पढ़ने की राह पर पाँव धरता ही नहीं था। पिताजी पढ़ने-सिखाने को बुलाते तो जाना तो पड़ता, लेकिन थोड़ी ही देर में मेरे पूरे शरीर पर लाल चींटियाँ रेंगने लगतीं। पिताजी मेरी ऐंठन देखते तो मुझे मुक्ति दे देते। मैं बड़ी प्रसन्नता से भाग खड़ा होता। लेकिन किशोरावस्था तक आते-आते वृत्तियों ने राह बदली। जब आठवीं कक्षा में था, विद्यालय पत्रिका के लिए पहली छंदोबद्ध कविता लिखी थी--गोस्वामी तुलसीदासजी पर। वह 1965 की विद्यालय पत्रिका में प्रकाशित भी हुई थी। उसके बाद तो लिखने और पढ़ने का चस्का ही लग गया। शुद्ध-साहित्यिक भाषा तो घर की हवाओं में ही तिरती थी, पिताजी के पुस्तकालय की पुस्तकें भी यथेष्ट थीं। मैं लेखन और पठन-पाठन की राह चल पड़ा। युवावस्था तक मेरी कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगीं, आकाशवाणी से प्रसारित होने लगीं। मैं अघोषित युवा-कवि बन गया।
पिताजी के निकट रहते हुए मेरी शब्द-सम्पदा बढ़ी, अनुवादों और चिट्ठियों के मजमून का डिक्टेशन लेते हुए शब्दों के सम्यक् प्रयोग की योग्यता में इज़ाफ़ा हुआ।... अब समस्या यह हुई कि विद्यालय-परिषद् हो या परिवार-खानदान; मित्र-मण्डल हो या अड़ोसी-पड़ोसी; संबंधी हों या परिचितों के परिचित--सब जगह मैं ही पकड़ा जाने लगा। निमंत्रण-पत्र, नवजात का नामकरण, रडियो के लिए वार्ताएं-आलेख, पत्रिकाओं के लिए लेखादि का दायित्व निभाने के लिए मुझे ही खोजा जाता। नामचीन बुजुर्गों के पास किसी आलेख की याचना लेकर जाता, तो वे कहते-- 'इन दिनों बहुत व्यस्त हूँ। तुम ही कुछ लिखकर ले आओ, मैं आँख मूँदकर दस्तख़त कर दूँगा।' मैं किसी का भरोसा नहीं तोड़ता। लिख देता जो लिखते बनता। अतिरिक्त यह कि तैयार रचनाओं को परिशुद्ध करने का दायित्व भी मुझे सौंपा जाता। कालान्तर में तो भाषा-संपादन अथवा भाषा-परिष्कार का मैंने बहुत काम भी किया, जिससे नाममात्र का धन-लाभ भी हुआ। लेकिन, शब्द-सहयोग के काम में मैंने कभी कृपणता नहीं की, चाहे वह मुफ़्त का हो या पारिश्रमिक देनेवाला। पिताजी से प्राप्त शब्द-सम्पदा मैंने दिल खोलकर लुटायी और मालोमाल होता रहा।...
पिछले छह वर्षों के पूना-प्रवास को निष्क्रिय अवकाश तो नहीं कहूँगा, क्योंकि इस अवधि में मैंने अखबारों के लिए, सम्पादित पुस्तकों के लिए और फेसबुक के पटल पर भी जमकर लिखा है, आकाशवाणी, पुणे से कविताएँ तो पढ़ता ही रहा हूँ; लेकिन शब्द-सहयोग के याचक यहाँ मुझे नहीं मिले। यह कैसी विडम्बना है कि जो हिन्दी का सर्वाधिक उर्वर प्रदेश है, वहीं शब्द-सहयोग के याचकों की सबसे बड़ी जमात है!...
जब से पुणे में हूँ, किसी ने मुझसे कभी कहा ही नहीं कि उसके लिए कुछ लिख दूँ या लिखे हुए को सुधार दूँ अथवा परिशुद्ध कर दूँ । मैं आराम में रहा और मनचाहा, उपयोगी या अनर्गल भी लिखता रहा। शब्दों की जुगाली करता रहा या शब्दाघात से धूल उड़ाता चला।...
छह वर्षों के दीर्घकाल में शब्द-सहयोग का पहला आग्रह दूरभाष पर 27 अप्रैल की रात मुझे दस बजे प्राप्त हुआ। मैं चकित हुआ, उत्साहित भी। श्रीमतीजी के सेल पर उनकी निकटतम सहकर्मी मित्र का फोन आया था। उन्होंने आग्रह करके मुझसे भी बातें कीं और मुझे बताया कि वह बोर्ड की उत्तर पुस्तिकाओं के परीक्षण के लिए कई दिनों से दूसरे विद्यालय में कार्यरत थीं और आज शाम ही लौटकर आयी हैं तो उन्हें मालूम हुआ कि कल ही साधना मैम (मेरी सहधर्मिणी) का फेयरवेल है। दरअसल, उनका आग्रह एक कविता लिख देने का था, जिसे वह विदाई समारोह में सुना सकें। उन्होंने अपने आग्रह को साधनाजी से छुपा रखने के लिए आगाह किया और यह भी कहा कि 'आप तो जानते ही हैं कि मैडम से मेरे कितने घनिष्ठ संबंध हैं। कुछ लिख दीजिये न ! वैसे, बहुत विलंब से आपको कह रही हूँ, साॅरी...!' मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा था--'मैडम, दिन बीता है, लेकिन रात अभी बाकी है। मैं तो वैसे भी निशाचर हूँ, रात में ही कविता भेज दूँगा।'
जब उनका फोन आया था, मैं आई.पी.एल की क्रिकेट स्पर्धा देख रहा था। मन उसमें रम गया था। रात के पौने बारह बजे मैच समाप्त हुआ, तब मैं कविता लिखने की ओर प्रवृत्त हुआ, रात में ही कविता भेज देने का वादा जो कर चुका था। लेकिन, सिर्फ़ अनुरोध या आदेश पर कविता नहीं लिखी जाती, उसके लिए मन का माहौल भी माकूल होना चाहिए। बहरहाल, मूड बनाने में ही एक घण्टा व्यतीत हो गया, लेकिन जब कविता आई तो धाराप्रवाह आयी और सेलफोन के नोटपैड पर अंकित हो गयी। रात सवा बजे ह्वाट्सऐप पर आग्रही मैडम को कविता भेजकर मैं निश्चिंत सो गया। शब्द-सहयोग गद्य की धारा में आसानी से प्रवाहित हो जाता है, लेकिन काव्य लेखन में वह हतबुद्ध हो जाता है। कविता कामिनी बुलाये जाने पर भी नहीं आती।...
दूसरे दिन विदाई समारोह में एक छोटी-सी भूमिका के साथ मैडम ने वही कविता सुनायी। उन्होंने कहा कि 'यह कविता मेरी नहीं है, गूगल से उठायी हुई भी नहीं है। इसके रचयिता साधना मैम के और मेरे काॅमन फ्रेंड हैं और संभवतः इसी वजह से मेरे मनोभाव इस कविता में इतनी सहजता से व्यक्त हुए हैं।' इतना कहकर उन्होंने कविता सुनायी और सिर्फ़ प्रशंसा ही नहीं पायी, बल्कि समुपस्थित श्रोतागण की आँखें भी भर आयीं।... जब काव्य-पाठ के बाद कविता की हार्ड काॅपी की फाइल भेंट-स्वरूप देने वह साधनाजी के पास आयीं तो उन्होंने उच्च स्वर में मेरा नामोल्लेख किया, जिससे श्रीमतीजी चौंक पड़ीं। उन्हें भनक भी न पड़ी थी कि यह मेरी कलम से उपजी कविता होगी।...
दो दिनों तक इस कविता की आत्यंतिक प्रशंसा विद्यालय के अधिकारियों और शिक्षकों के बीच होती रही। दो दिनों के बाद विद्यालय-परीक्षा-प्रकोष्ठ ने साधनाजी को और मुझे भी दिन के सम्मिलित भोजन में आमंत्रित किया, जहाँ विद्यालय की प्राचार्या ने स्वयं साधुवाद देते हुए मुझसे कहा था--'आपकी कविता बहुत अच्छी थी। मैंने सुनी और बाद में पढ़ी भी थी। अपनी पत्नी के लिए अगर कोई ऐसी कविता लिखता है तो यह बड़ी बात है। यह कविता सिर्फ़ प्रशंसा के लिए नहीं लिखी गयी है, उसमें सच्चाई व्यक्त हुई है।' कविता की ऐसी प्रशंसा से मुझे प्रसन्नता हुई, होनी ही थी। लेकिन कविता में ऐसा कुछ विशेष नहीं था। एक प्रवेग से उपजी थी कविता! मैंने सिर्फ़ यह सोचा कि एक निकट मित्र की विदाई पर उसकी अभिन्न सहेली के मनोभाव किस तरह व्यक्त होंगे और लिख डाली कविता। उस कविता को आप भी पढ़ना चाहेंगे न? तो देखिये शब्द-सहयोग के लिए उपजी वह कविता--
तुम जो जाती हो...
"सच है, ग़मगीन नहीं हूँ, लेकिन
तुम जो जाती हो, तो ऐसा लगता है,
ये रूह कहीं, दूर चली जाती है!
जीवन-प्रवाह में ऐसी शीतल,
मृदुल नीर से भरी नदी
कभी-कभी मिल पाती है!
मालूम है, जानती भी हूँ,
किसी एक घाट पर
नदी नहीं ठहरी रहती है,
वह प्रवहमान है, तभी नदी है
उसकी गति में है जीवन उसका
बोलो, ताल-तलैया कहाँ बहती है?
हमक़दम मेरी!
देखती हूँ,
तुम्हारे पैरों के ताज़ा निशान
गलियारे से कक्षा में पहुँचने की
आपाधापी में गूँजती रही जो धमक
अब क्या वही मौन हो जाएगी?
आशाओं की एक किरण थी,
क्या वह भी,
अंधकार में हमें छोड़, खो जाएगी?
शिथिल हुए दो क्षण मिलते थे
जिसमें दुःख-सुख बाँटा करते थे हम,
अब तो ऐसा लगता है कि
मेरे मन की, मन में ही रह जाएगी।
मेरी स्नेहमयी!
फिर भी जाती हो, तो जाओ--
आशाओं की उर्वर धरती पर,
चाँद की चंचल और स्निग्ध छाया में,
प्रीति-भरे उन्मुक्त पवन में,
नवजीवन की सुख-माया में!
पग-चिह्न देख आ जायेंगे हम,
मिलकर मोद मनायेंगे हम!!"
शब्द-सम्पदा को मुद्रा-कोष से बड़ा कहा गया है। आप अपनी जेब या बैंक से पैसे निकालते ही रहें तो राशि कम होती जाती है और एक दिन शून्य भी हो सकती है, लेकिन शब्द-सम्पदा आप जितनी ख़र्च करेंगे, उसमें उतना ही इज़ाफ़ा होगा, उसका कोश कभी शून्य हो ही नहीं सकता...।
(इस कथा की 'इति' नहीं...)
[--आनन्दवर्धन ओझा]